ईश्वर
और पर्यावरण
( भारत
और पाकिस्तान के विभाजन से सम्बंधित स्वर्गीया गुरुशरण कौर के संस्मरणों के आधार पर )
एक
सुबह पता चला कि ईश्वर खिसक गया चुपके से
या
फिर बदल गया है
लोगों
के हाथों में उग आए हैं घातक हथियार
खुशी
के घोड़े पर बैठकर गश्त लगाता हुआ
अपनी
श्रेष्ठता के दम्भ पर इतराता आसमान
भहरा
कर गिर पड़ता है एक दिन
अपनी-अपनी
पुश्तैनी हवेलियों और
जलते
हुए चूल्हों को छोड़कर
डरे
हुए चूहों की तरह निकल भागते हैं लोग
भोली
आस्था पर टूट पड़ता है इतिहास डकैतों की तरह....
आस्था
का सर्वशक्तिमान ईश्वर पिछड़ जाता है
अनपढ़-असावधान
आस्थाओं से खेलने वाले राजनीतिज्ञों से....
जिन्ना
की कुंठित महत्त्वाकांक्षाओं ने ढक लिया है उनके प्रार्थना के ईश्वर को
और
छीन ली है पूर्वजों से मिली स्मृतियों की जड़ें
माउण्टबेटन
के साथ पी गई शराब की चुस्कियों में डूबकर
बन्द
कमरे में रेखाएं खींचने वाली कलम
उनकी
धरती को किसी आलू पर रखी गई तलवार-सा चीर देती है.......
कि
एक सुबह सूख जाता है
सूफियाने-सयाने
सन्तों की वाणी का दिव्य-पवित्र प्रवाह
और
सतलज ,रावी,व्यास,चिनाब एवं सिन्धु
नदी की धाराए
पीकर
वमन करने लगती हैं मानव-रक्त का....
कि
एक सुबह घायल ईश्वर भाग खड़ा होता है
भीड़
और भगदड़ के बीच अपने प्यारे निरीह बन्दों को
अकेले
निरुपाय लुटने-पिटने और मरने के लिए छोड़कर.....
एक-दूसरे
की खून की प्यासी देहों को
युद्ध
में क्षतिग्रस्त हुए हवाई अड्डों की तरह छोड़कर
ईश्वर
खिसकता जाता है चुपचाप
लोगों
की बुझती हुई संवेदनाओं के साथ
जैसे
बुझता हुआ दीपक
घिरता
जाता है अन्धकार से
एक
दिन किसी ठगी हुई विकलांग आत्मा की रक्तरंजित स्मृतियों के साथ
किसी
पीड़ादायक दुःस्वप्न की तरह याद आता है ईश्वर
उन
झूठी पड़ गयी प्रार्थनाओं के रूप में
जो
अनसुनी कर दी गयी थीं
सुख
की सारी भाग्य-रेखाओं के ऊपर
एक
हिंसक मानवीय पर्यावरण द्वारा पोत दिया गया था
खून
को रंग की तरह......
अब
बचा हुआ ईश्वर यदि कहीं है तो
सिर्फ
दुःख और करुणा के रूप में है
असमय
छीन ली गयी स्मृतियों की उन कटु यादों के रूप में है
जिन्हें
न तो धोया जा सकता है और न ही बदला
उस
उदास थके मन के रूप में है
जो
अकारण पसीज-पसीज उठता है
दूसरों
को दुखी देखकर
बार-बार
ठगा जाता रहता है
दूसरों
के प्रति अपने सहानुभूतिशील मन के साथ....
अनजाने
में रचता जाता है एक सुखमय ईश्वर
दूसरों
के असुरक्षित जीवन के लिए
जैसे
तलवारों के वार के सामने ढाल बनकर खड़ा हो जाता है....
कुछ
ऐसे कि बड़ी आत्माएं प्रायः मूर्ख हुआ करती हैं
लेकिन
हिम्मत के साथ.....
करती
जाती हैं दूसरों को अच्छा समझने की एकतरफा मूर्खताएं
और
हर बार फिर ठगे जाने पर यह सोचकर वे चुप लगा जाते हैं
कि
अब भी नहीं सुधरा......
पुकारते
रहते हैं अविश्वासी लोगों को
अपने
विश्वासी और करुणाशील ईश्वर की ओर
धूर्त
आस्था के ईश्वर को किसी लाचार-व्यसनी मच्छर की तरह
बर-बार
काटने के लिए छोड़कर
या
किसी सिंह की तरह उसे उसके जीवन के लिए आवश्यक
आदिम
हिंसा में- जो अपनी छोटी नन्हीं आंत के कारण
बकरी
की तरह घास खाने पर मर ही जाएगा......
हम
सबसे अच्छा जब जी रहे होते हैं तो
सृजन
की एक अन्तहीन-अनथक दौड़ में होते हैं
अपने
अभावों की पूर्ति के लिए
जब
हम अपने लिए भी रच रहे होते हैं
सौंप
रहे होते हैं दूसरों को भी
कुछ
प्रेरणाएं ...कुछ रास्ते.....कुछ आदतों का संसार
हर
पल नई आती हुई दुनिया के नाम.......
कि
हम जब भी बदल रहे होते हैं अपनी नियति
बदल
रहे होते हैं अपना ईश्वर
कि
हमारा भी रचा हर पर्यावरण
हमारे
लिए रच रहा होता है एक नया ईश्वर
और
इस तरह कई-कई ईश्वर को बदलते और जीते रहते हैं हम.......
कि
कभी हम एक पिता पर्यावरण में होते हैं
अपने
सुख-दुख और आदतों के साथ
जब
एक पिता पीढ़ी द्वारा प्रदत्त पर्यावरण को
पिता
ईश्वर की तरह जीते-मरते रहते हैं.....
कभी-कभी
तो हम बलात् निकाल दिए जाते हैं बाहर
अपने
पिता पर्यावरण से
हम
अपने ईश्वर को पिछड़ते और बिछड़ते हुए देखते रहते हैं
हम
निकल जाते हैं अभावों की कटु सच्चाइयों की
कड़ी धूप में
उदासी
के अन्तहीन शून्य में निर्ममतापूर्वक फेंक दिए जाते हैं हम.....
कि
दूसरों की दुर्भावनाओं और साजिशों के माध्यम से
हमारे
सुख-सौभाग्य को छीन लेने वाला ईश्वर
जीवितों
के नर्क में बदल देता है हमारे पर्यावरण को
हम ईश्वर
के पर्यावरण से वंचित
बिना
ईश्वर के हो जाते हैं
जैसे
सभ्यता से मारकर खदेड़ दिया गया व्यक्ति का जीवन
एक
हतप्रभ विलाप में बदल जाता है....
हम
जब बलात् निकाल दिए जाते हैं
अपने
पिता पर्यावरण से बाहर
फिर
तो हमें रचना ही पड़ता है
अपना
अलग पर्यावरण और अपना अलग ईश्वर भी.......
इसतरह
अपने अनुभवों के प्रतिरोध से हम बचा सकते हैं
दूसरों
के सपनों में पल रहा ईश्वर
अपना
सब कुछ खो देने के बाद भी
एक
लुटेरे और हिंसक ईश्वर के खिलाफ
हम
रच सकते हैं अपना नया और संशोधित ईश्वर
कुछ
ऐसे कि जब हम अपने पर्यावरण को बदलते हुए
अपनी
नियति को बदल रहे होते हैं
बदल
रहे होते हैं अपना ईश्वर......
हम
जो रच सकते हैं ईश्वर
यानि
कि ईश्वरत्व हममे हैं
हम
हो सकते हैं ईश्वरत्व के प्रतिनिधि
अपनी
समर्थ ,सक्रिय और सृजनशील करुणा से
सींच
सकते हैं सभी सूखी आत्माओं को.....
उसके
जीवित विकल्प की तरह......
कि
अन्ततः हम भी एक फसल हैं
सोचने
-समझने वाली फसल
स्वयं
को धन्य और दूसरों को अन्य कहते हुए
गेहूं
से लेकर सूअर तक फैले अपने जैविक-जीनोमिक रिश्ते को झुठलाते
बकरी
की देह और मन को मरने की चीज
और
उसके वजूद को सिर्फ खाने के लिए कहकर
किसी
उपजाऊ फसल की तरह ही
हम
खिला-खिलाकर मुर्गियों की देह में
उगाते
रहते हैं अण्डे....अण्डे....मोर एण्ड मोर अण्डे....
जैसे
इमली में बनता है टार्टेरिक एसिड
और
नीबू में सायट्रिक
जैसे
सांप की विष-ग्रन्थियों में
हमारी
लार की तरह ही भरता रहता है विष
हमारी
देह भी एक फसल है सोचने वाली.....
हाँ...हमें
अपनी जाति की अमरता को
बचाए
रखने के लिए
अपनी
जाति को बचाए रखना होगा
ताकि
बनते-बिगड़ते समीकरणों के साथ
क्या
पता हमारा जीन एक बार फिर दुहरा जाय
हजारों
वर्ष पहले जन्में किसी
माननीय
पूर्वज के ईमानदार जीन से
या
बदलकर पूरी तरह नया हो जाय वह
और
एक ऐसा मनुष्य जन्म ले
जैसा
पहले कभी नहीं जन्मा.....
जब
हम आने वाली पीढ़ी के लिए
रच
रहे होते हैं एक सुरक्षित पर्यावरण
सौंप
रहे होते हैं सुख,साधनों और सुविधाओं की नियति
सौंप
रहे होते हैं किसी ईश्वर की तरह......
इस
तरह ईश्वर की निष्क्रिय तलाश से अधिक महत्वपूर्ण हैं
ईश्वर
बनना .......स्वयं को प्रस्तुत और उपलब्ध करना
एक नए बेहतर और महान विकल्प के नाम ...
एक नए बेहतर और महान विकल्प के नाम ...
जबकि
दुनिया में एक भी अच्छे आदमी का बचे रहना
ईश्वर
और ईश्वरता के होने की संभावनाओं का भी बचे रहना है
इसलिए
ईश्वर न भी हो
एक
अच्छे आदमी का होना ईश्वर का होना है !