भारत में शूद्रों की उत्पत्ति पर विचार करते समय
हमें यह घ्यान रखना चाहिए कि प्राय: लिखित साहित्य में ही उत्पत्ति के प्रमाण
ढूढ़ने की प्रवृत्ति के कारण परम्परागत अध्ययन पद्धति में कर्इ विसंगतियां हैं। शूद्रों को चतुर्वर्ण में शामिल करने वाले शास्त्रीय उद्धरणों में फतवा देने वाला
वर्ण ही प्रमाण है ,वह भी भारतीय सभ्यता के विकास के लगभग अंतिम चरण में जारी
हुआ था । पुराने युग के नाम से जारी क्षेपक के रूप में । ऐसा प्रतीत होता है कि
सामाजिक रीतियों और रुचियों की भिन्नता को व्याख्यायित न कर पाने की असमर्थता से
विवश होकर किसी संस्कृतज्ञ नें शूद्रों के पृथ के पैरों से उत्पत्ति का रूपक गढ़ा
होगा । इस मान्यता को ज्यों का त्यों स्वीकार करते सामाजिक अध्ययनों में भी इसे
प्राय: कर्म और पेशे से जोड़ कर देखा गया है ,जबकि भारतीय समाज एक धार्मिक-सांस्कृतिक समाज
भी रहा है । किसी भी अध्ययन में मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उस बदलते सामाजिक रिश्ते की
ऐतिहासिक पड़ताल नहीं की गयी है जो शूद्रों के वर्ण-क्रम को निम्नतम की ओर ले गया
है । इस स्तरीकरण में निहित उस घृणा के धार्मिक-सांस्कृतिक कारणों की पड़ताल नहीं
की गयी है ,जो शूद्रों को उनके पेशे के सामाजिक महत्त्व से अलग भी अपमानित करने का प्रयास
करता है । वेदवाक्य सुनने वाले शूद्रों के कान में पिघला शीशा डालने वाली अमानवीय
घृणा का आधार साम्प्रदायिक या राजनीतिक विद्वेष ही हो सकता है और यह विद्वेष किसी
सामान्य घटना की उपज नहीं हो सकता । जातियों के परस्पर व्यवहार के स्वरूप को
समाजैतिहासिक अध्ययन में किसी पुरातात्तिवक मलबे से अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए
था-जैसा नहीं किया गया । भारत जैसे मृतकों को भुला देने वाले और सिर्फ जीवितों को
ही अंतिम सच मानने वाले देश में जातीय मानसिकता एवं व्यवहार ही पुरातात्विक अध्ययन की वस्तु बन सकते हैं । सिर्फ पश्चिमी अध्ययन-पद्धति से ही भारतीय इतिहास को
समझने का प्रयास करने वाले भारतीय विद्वानों से ऐसी गलती हो जाना स्वाभाविक ही है
। इसी तरह का एक उदाहरण मुझे तक भी देखने को मिला था जब मैंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक बार-बार विदेश जाने वाले ख्याति-प्राप्त डाक्टर से एडस पर
गम्भीर व्याख्यान सुनने के बाद पूछा था कि भारतीय सैलूनों में नाइयों द्वारा
व्यापक स्तर पर प्रयोग की जाने वाली फिटकरी से एडस फैलने की कितनी वैज्ञानिक
संभावना है तो उन्होंने र्इमानदारी से स्वीकार किया कि प्राय: विदेशी दाढ़ी बनाने
में फिटकरी प्रयोग नहीं करते इसलिए भारत में भी किसी का ध्यान इस ओर शोध करने की
ओर नहीं गया ।
पश्चिमी सभ्यता का इतिहास-बोध इसतिए
वस्तुनिष्ठ है कि उसके यहां मृत्यु की अंतिम परिणति समारोहपूर्वक कब्र में बदल
जाना है । इसीलिए पश्चिमी सभ्यता जीवन का मूर्तन करने वाली सभ्यता है ,जबकि भारतीय समाज
की दार्शनिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना विसर्जन ,विलोपन और अमूर्तन करती है । इन्हीं अर्थो में
वह इतिहासजीवी नहीं है और प्राय: इतिहास-बोध का बहिष्कार ही करती रही है । ऐसी
सभ्यता के इतिहास को समझनें के लिए पश्चिमी पद्धति की प्रामाणिकता शैक्षणिक
अन्धविश्वास की तरह ही संदिग्ध हो सकती है। शूद्रों के प्रति भारतीय समाज के जातीय व्यवहार पर विचार करते समय मेरा
ध्यान जातीय व्यवहार से सम्बनिधत रीति-रिवाजों और प्रथाओं के पुरातात्तिवक अवशेष की तरह अध्ययन की प्रमाणिक सामग्री मानने की ओर गया था । इस अध्ययन- पद्धति के
अनुसार हर जाति मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक विशेष व्यवहार-संरचनात्मक यथार्थ है ।
इतिहास की किसी घटना या विवरण से अन्तर्संन्दर्भित करते हुए उस व्यवहार के मूल
घटनात्मक कारण की पहचान की जा सकती है । इस दृष्टि के साथ विचार करने पर कुछ रोचक
कार्य-कारण- मुझको श्रृंखला मिली ,जिसकी प्रस्तावना मै शूद्रों के संभावित इतिहास के रूप
में कर सकता हूं । इस प्रस्तावित इतिहास की प्रमुख स्थापना यह है कि शूद्र एक
धार्मिक सम्प्रदाय से क्रमश: वर्ण और जाति में परिणत हुआ है । कुछ तथ्यों पर विचार
करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकेगे कि एक सीमा से अधिक अंग्रेज इतिहासकारों
और विचारकों द्वारा प्रचारित यह बात पूरी
तरह सही नहीं है कि आर्यों ने द्रविड़ों को जीतकर कुछ उसी प्रकार अपना दास बना
लिया था जैसा कि कभी रोमनों ने किया था । वास्तव में यह एक रोमन कल्पना से प्रेरित
अवधारणा ही है । रोम में दास प्रथा थी । सही का रण तक न पहुंच पाने के कारण
अंग्रेजों नें शूद्रो को रोमन दासों के समकक्ष किसी पराजित जाति के वंशानुक्रम में देखा ।
भारत के प्राचीन इतिहास के अध्ययन से
यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध-काल से पहले शूद्र भारत का एक स्वतंत्र और
स्वाभिमानी समुदाय था । सम्राट अशोक के पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य नें चाणक्य के
साथ मिलकर मगध के जिस सम्राट से सत्ता छीनी थी वह शूद्र वंश का अंतिम शासक महापदमनन्द था । बाद के पुराणकारों एवं इतिहासकारों नें संभवत: इस सत्य को छिपानें
के लिए ही उसकी मां के शूद्रा नाम की एक दासी से होने का प्रचार किया ताकि बाद के शूद्र ,नन्द वंश को शूद्रों का राज्य ही घोषित न कर दें। शूद्र शासक महापदमनन्द अपने दरबार में चाणक्य
का अपमान उसके धार्मिक विचारों एवं विश्वासों के लिए ही करता है । यह भी पता चलता
है कि यह विचारधारा का टकराव भी था । मानसिक कल्पनाओं पर आधारित मत के वाहक होने
के कारण ही महापदमनन्द नें चाणक्य का सम्मान नहीं किया था । शूद्र कहे जाने वाले
नन्द वंश की अपनी संस्कृति थी । यह भी कि यह यज्ञ विरोधी संस्कृति की दार्शनिक
-सांस्कृतिक परम्परा थी जो पुरोहित वर्ग के सामाजिक वर्चस्व को चुनौती देती थी ।
चाणक्य के अपमान से सम्बनिधत प्रसंग से यह भी ध्वनित होता है कि उन दोनों के बीच धार्मिक-साम्प्रदायिक अलगाव के
लगभग वैसे ही वैचारिक बीज थे ,जैसे आज के विश्व हिन्दू परिषद और कटटरपंथी मुसलमानों के
बीच मिलते हैं । आधुनिक इतिहासकार आर्य संस्कृति के दम्भ को तो र्इमानदारी से
स्वीकार करते हैं,लेकिन शूद्रो के उस स्वाभिमान को विचारणीय नहीं समझते जो बुद्धपूर्व के भारत
की एक ऐतिहासिक सच्चार्इ है । बाद में बुद्ध धर्म की दार्शनिक एवं संगठनात्मक
श्रेष्ठता नें बुद्धकाल से पूर्व शूद्रों में प्रचलित दार्शनिक और धार्मिक
विश्वासों को पीछे छोड़ दिया होगा । भारत में प्रचलित शैव धर्म के आत्मवादी और
योगवादी स्वरूप को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि शूद्रों का यह धर्म क्या
रहा होगा । आर्य भारत में तत्कालीन आर्यावर्त (र्इरान) की ओर से अग्नि और आहुति
लेकर आए थे । वे अग्नि पूजक ही नहीं,अग्नि पालक भी थे । भारतीय मूल की आत्मवादी संस्कृति से उनका
मूल संघर्ष सभी प्राकृतिक शकितयों को देवता मान हवन में उनके नाम की समिधा देने की
भीरुता और इसे निरर्थक और काल्पनिक मानने वाले आत्मवादी समुदाय के दार्शनिक
आत्मविश्वास के बीच ही रहा होगा । पुरोहितवादी और यज्ञ-वादी संस्कार कुछ ही
जातियों और सीमित जनसंख्या में प्रचलित रहे होंगे । चाणक्य का अपमान इसी पुरोहित
समुदाय का अपमान था जिसने बाद में बौद्धों को विस्थापित कर हिन्दू-संस्कृति का
विस्तार किया लेकिन अपनी पूजा में शिव को भी शामिल करने एवं आत्मवादी दार्शनिक
परम्परा को भी आत्मसात करने के बाद । क्योंकि नन्द वंश बुद्ध के बाद के भारत में
था ;इसलिए अधिक
संभावना यही है कि नन्द वंश बौद्ध ही रहा हो ,जिसका अनीश्वरवाद बुद्ध-पूर्व के शैव मतावलम्बी शूद्रों के आत्मवाद के इतना समीप रहा होगा कि नियतिवाद का प्रचार करने वाले और
राजा को र्इश्वर मानने वाले पुराहित वर्ग को गणराज्यों के कर्मवादी तथा पारस्परिक
समानता और सम्मानवादी बौद्र धर्म शूद्र धर्म ही लगा होगा । महापदमनन्द के अंतिम शूद्र राज्य के बाद बौद्ध धर्म का
स्वर्ण-युग मौर्य-वंश का काल आया । मौर्य वंश के अंतिम राजा बृहद्रथ को पुष्यमित्र द्वारा मारे जाने के बाद गुप्तकाल तक जाते-जाते पुरोहित वर्ग के विद्वानों नें
बौद्ध धर्म की जातक कथाओं के समानान्तर विपुल पौराणिक आख्यान रच दिए थे ।
यह आश्चर्य नहीं कि आज के भारत में
प्रचलित पुरोहितवाद भी मनुष्य के आत्मनिर्भर आत्मविश्वास का विरोधी है। सिर्फ
रहस्यात्मक मध्यस्थ की भूमिका में ही उसकी सामाजिक सत्ता सुरक्षित रह सकती थी ।
इसीलिए वह अपना देवता बदलता रहा है ,लेकिन उसने अपना कर्म आश्चर्य नहीं बदला । वैदिक
देवताओं से आगे निकलकर उसने लिंग और योनि के युग्मित प्रतीक शिव को ही अपना आराध्य
बना लिया-उसने सिर्फ अपने देवता बदले,लेकिन पूजा पद्धति नहीं । प्रश्न यह है कि उसके
बावजूद वह भारत में विस्तारित और लोकप्रिय क्यों हुआ ! इसका उत्तर यह है कि वह एक
श्रम-आधारित श्रेणीबद्ध समाज की संरचना के अधिक समीप था । अन्य जातियों के पेशे और
कर्म के समानान्तर ही वह एक स्वायत्त और सापेक्ष उपसिथति है । काल्पनिक होते हुए
भी उसने अपने रहस्यात्मक आश्वासनों के द्वारा अन्य जातियों के द्वारा पूजा में लगने
वाले श्रम-समय को बचाया । उनके श्रम-समय को उनके पेशेवर कार्यों के लिए मुक्त किया
और प्रासंगिक बना रहा । एक पेशेवर जाति के रूप में ही अपने समकालीन जनमत की
आवश्यकताओं और रुचि का आकलन करते हुए ,अपने समय की बाजारवादी शकितयों के दबाव में
उसने अपने आराध्य बदले और अपनी जाति द्वारा विकसित पौराणिक आख्यानों के माध्यम से आध्यात्मिक मनोरंजन जारी रखा । इस दौर में अधिकांश चरित्रप्रधान दिव्य नायकों का
प्रचार-प्रसार कर समाज को एक मूल्य -संस्कृति भी दी । यहां तक कि मुगलकाल में भी
तुलसीदास द्वारा 'राम चरित मानस की रचना किए जाने के
बाद उसने लोकभाषा में रामकथा को प्रचारित करने में संगठित प्रकाशक की भूमिका
निभार्इ । ठीक वैसे ही जैसे निर्गुन गाकर भीख मांगने वाली जोगी जाति नें गोरखनाथ
के साथ-साथ कबीर को भी अपनाया और बचाया । इसलिए किसी भी जाति में जन्में व्यकित को
अपनी जाति के अतीत के व्यवहार को लेकर कुणिठत होने की आवश्यकता तो नहीं है लेकिन
उसकी संकीर्णता से मुक्त होने की आवश्यकता जरूर है
।
भारत में शूद्रों की सामाजिक हैसियत
पर विचार करने के लिए मुख्य समस्या यही है कि वह श्रेष्ठता के दम्भ और क्षुद्रता
के दंश का ही परिणाम था या उसके पीछे किसी गैर-सामाजिक घृणा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
है । भारत के पौराणिक-धार्मिक साहित्य की
छानबीन से यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध के काल से पहले तक शूद्रों को भारतीय
सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था में सम्मानित स्थान प्राप्त था । वे सामाजिक वर्चस्व के शिखर पर थे और राज्य तथा सत्ता में भी थे । अन्य शूद्र( भारतीय मूल की शुद्ध) जातियां बढ़र्इ और लुहार आदि के साथ एवं चमड़े के बने युद्ध के सामान ढाल आदि
बनाते थे। पानी खींचने के लिए मोट और जूते आदि तो अभी भी दूर-दराज के क्षेत्रों
में बनाते मिल जाते है। इस दृष्टि से भारत की सामाजिक-आर्थिक संरचना के वे
महत्त्वपूर्ण अंग हैं । इसलिए अधिक संभावना साम्प्रदायिक विद्वेष के सांस्कृतिक
अचेतन की ही है । इस साम्प्रदायिक विद्वेष के अतीत पर पर्दा डालने का सबसे
महत्त्वपूर्ण कार्य रामकथा का प्रचलित पाठ ही करता है । रामकथा के आरमिभक अंश में
जो यज्ञ करने वाली एवं यज्ञ का विरोध करने वाली दो संस्कृतियों का हिंसक विरोध है ,उसके पीछे की
मनोग्रंथियां क्या थीं ! किन कारणों से यज्ञ-संस्कृति का उग्र विरोध बढ़ गया था ? यज्ञ करना और
यज्ञ का विरोध करना दो परस्पर विरोधी समुदायों के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया
था । क्या राम की किशो रावस्था में मिलने वाले -ऋषियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञों
का असुरों द्वारा विध्वंस करने के प्रसंगों का सम्बन्ध शिवपुराण में विस्तार से
मिलने वाली कथा -पिता दक्ष द्वारा अपमानित होने पर सती द्वारा यज्ञ-कुण्ड में
कूदकर आत्मदाह करने के प्रसंग सें शूद्रों द्वारा यज्ञ का बहिष्कार करने में कोर्इ
अन्तर्सम्बन्ध है ! भारतीय समाज में आज भी यह परम्परा मिलती है कि यदि किसी परिवार
का कोर्इ सदस्य किसी पर्व के दिन मर जाता है तो उसका परिवार एवं वंशज भविष्य में
उस पर्व को अशुभ मानकर उसे मनाना छोड़ देते हैं । वही सती,
जिसका जला हुआ शव लेकर
प्रेमी शिव सारे देश में पागलों की तरह घूमे थे । उस पागल बना देने वाले प्रेम की
आधार सती के आत्मदाह के पश्चात शिव के
गणों ने प्रतिशोध में भारी तबाही मचायी थी । शिव के गणों द्वारा मचाए गए
दंगों से घबराकर उस यज्ञ के अवसर पर अतिथि बन कर आये आर्यों के कर्इ तत्कालीन नायक
विष्णु और ब्रहमा आदि भाग खड़े हुए थे । जिसके बाद मामला शान्त करने के लिए
तत्कालीन आर्यराजाओं नें द्रविड़ नायक शिव को एक दूसरी आर्यकन्या देकर अपना
सम्बन्धी बनाया । देवताओं के लिए किए जाने वाले यज्ञ के विध्वंस कर्ता शिव का कुछ
भी न बिगड़ने पर उन्हें ही महादेव घोषित कर दिया ।
डन्हें मोक्ष का देवता घोषित कर दिया गया । उनके
अनुयायियों के घर से मृत्यु के बाद पवित्र अग्नि मांगने की प्रथा आरम्भ हुर्इ ।
क्योंकि भारत में आज भी वाराणसी के डोम वही कर रहे हैं जो हरिश्चंद्र के जमानें
में और उसके भी पहले शिव के युग में करते थे -इस सामाजिक अस्तित्विक प्रमाण को देखते
हुए मुझे शिव इतिहास पुरुष ही लगते हैं । वेदों में चतुवर्ण के लिए चाहे जो भी
लिखा हो सती का आत्मदाह
मुझे शूद्र चेतना का 'बिगबैंग लगती है । इसमें मुझे उन वर्जनाओं के
समाज-मनोवैज्ञानिक आधार मिलते हैं ,जिसने उन प्रथाओं को जन्म दिया जिसे बाद में शूद्रों की
हीनता एवं अधिकारी न होने के रूप में ब्राहमणों द्वारा प्रचारित किया गया । ऐसा
बहुत सदियां बीत जाने के बाद ही संभव हो पाया होगा कि शूद्रो के सामाजिक
आचार-विचार में समायी हुर्इ उनके पुरखों से विरासत में मिलीं विचारधारा के स्वत्व
को भुला दिया जा सके और उसकी एक दोष के रूप में नर्इ व्याख्या देकर उन्हें
हीनता-बोध से लांछित किया जा सके ।
भारत में जातीय गुण-धर्म एवं
अवधारणा की वंशानुक्रमिक लम्बी निरन्तरता को देखते हुए मुझे ये जातीय प्रमाण
पुरातात्तिवक प्रमाण से अधिक विश्वसनीय प्रतीत होते हैं । किसी पुरानी सभ्यता की
लम्बी यात्रा में यह आश्चर्य नहीं कि ऐसा विस्मरण हो जाय । वर्तमान ब्राहमणवादी दृष्टि से शूद्रों की जिस पहचान को दोष के रूप में देखा और युगों पहले से प्रचारित
किया जाता रहा है, वह शूद्रों का दोष नहीं गुण था । उदाहरण के लिए यज्ञोपवीत न
धारण करना और कराना-अर्थात यज्ञमान (जजमान) न बनना ; जिसका अवशेष आज भी धर्मभीरु हिन्दू परिवारों
में होम-जाप ( हवन) करने-कराने के रूप में प्रचलित है ; जिसे ब्राह्राणें नें शूद्रों का दुर्गुण और
अपात्रता घोषित कर रखा है -वह शूद्रों का अपना धर्म ,आत्मविश्वास ,स्वाभिमान और विशेषता थी । इस धर्म को प्रचारित
करने वाले 'आदि शूद्र पौराणिक क्रान्ति-नायक शिव थे । आत्मस्थ योगी शिव नें ही सबसे पहले
ब्राहमणवाद के प्रमुख प्रतीक यज्ञ के ढोंग और परम्परा का बहिष्कार किया था । स्वयं
ब्राहमण पुराणकारों नें ही शिव पुराण में ये बातें विस्तार से संकलित की हैं ।
रामकथा की पृष्ठभूमि में भी यज्ञ
करने और न करने का यही साम्प्रदायिक द्वन्द्व और संघर्ष फैला हुआ है । प्रारम्भ
में रावण यज्ञ-विरोधी शिव के अनुयायियों यानि शूद्रों का कुशल नेतृत्त्व करता है
लेकिन बाद में अपनी बहन के अपमानित होने पर और स्वयंवर में सीता के रूप-सौन्दर्य
पर रीझने के कारण वह अपने समुदाय के सांस्कृतिक संघर्ष के नायक के पद से च्युत हो
जाता है। मूल्यपरक और सांस्कृतिक विरोध न
रहा होता तो विभीषण जैसा बुद्धिजीवी चरित्र रावण का देश -निकाला होने तक विरोध नहीं
करता। एक र्इमानदार आदर्शवादी की तरह वह सार्वजनिक स्तर पर अपना विरोध प्रकट करता
है,रावण से अपमानित
होता है और राम के साथ हो जाता है । आर्य रामकथाकारों नें इसे सिर्फ सीता को
केन्द्र में रखकर स्त्री की मर्यादा से जोड़ दिया है । उसे सिर्फ राम के नैतिक-चारित्रिक संघर्ष से ही जोडकर सीमित कर दिया है । दो सभ्यताओं के संघर्ष की कथा
दो राजाओं के मूल्यपरक संघर्ष की कथा तो बनती है ,लेकिन सिर्फ पारिवारिक और आचरण सम्बन्धी
परिप्रेक्ष्य में ही-उसका सामाजिक परिप्रेक्ष्य मिथकीयकरण करते हुए छिपा लिया गया
है । संभवत: मिथक इंजीनियर आने वाली पीढ़ी को राम-रावण युद्ध से जुड़ी अप्रिय
सामाजिक सच्चाइयों से बचाना चाहते थे । उन्होने इतिहास को सर्वकालिक नैतिक व्यापित
वाले मिथकीय कथा में बदल दिया ।
मेरी दृष्टि में शिव के अनुयायियों की शूद्रों में हुर्इ सामाजिक परिणति भारतीय इतिहास की एक दुखद दुर्घटना है । इसे
सिर्फ उच्च वर्ण की साजिश के रूप में ही नहीं देखा जा सकता । इसमें जातीय विस्मरण
की भूमिका अधिक है । क्योंकि परम्पराएं और सामाजिक मान्यताएं एक दिन में नहीं
बनतीं ; छोटी से छोटी
सामाजिक रीतियों में भी कोर्इ न कोर्इ इतिहास छुपा रहता है । शूद्रों के वर्तमान
जातीय संस्कार एवं व्यवहार में भी उनकी जाति में अतीत से ही प्रचलित वह सामूहिक
अचेतन छिपा हुआ है जिसने कभी काल्पनिक अवधारणाओं को जीने में विश्वास नहीं किया । ईश्वरों देश इसी भारत में , बिना किसी ईश्वर के भी हजारों वर्षों से सफलतापूर्वक जीकर
उसने दिखाया । मानव-मस्तिष्क को कल्पनाओं वाले आध्यात्म से बाहर निकालकर उसनें एक
नए प्रकार के आध्यात्म की तलाश की । स्थिति-प्रज्ञ के रूप में एक ऐसे मस्तिष्क की
खोज की जिसे अन्धविश्वासों की मदिरा पिलाकर बहकाया नहीं जा सकता । बौद्धों के
विश्व-प्रसिद्ध शून्यवाद पर भी उनके जीवन-दर्शन का प्रभाव देखा जा सकता है ।
देवताओं से डरने के स्थान पर वे स्वयं दिव्य होना जान गए थे ।
शूद्रों को नेतृत्त्व से बेदखल कर भारतीय
सामाजिक इतिहास कल्पनाप्रसूत रहस्यात्मक मनोरंजन और व्यसन की ओर बढ़ गया । यधपि
चरित्र-प्रधान होने से भारतीय देवताओं की अपनी समाज-मनोवैज्ञानिक सांस्कृतिक
भूमिका भी रही है । प्राय: वे किसी न किसी पौराणिक कथा के नायक ही हैं । वैसे भी
लोग कुण्ठा और तनाव जैसे क्षणों में ही मानसिक स्वास्थ्य को बचाए रखने के लिए किसी
आराध्य की क्षणों में जाते हैं । इन मनोवैज्ञानिक लाभों के बावजूद अब तक के
धार्मिक विश्वासों से मानव-मस्तिष्क को वैज्ञानिक कार्य-कारण से हटाकर सगिन ,समर्पण ,निर्भरता एवं प्रतीक्षा
का ही मनोविज्ञान रचते हैं । मनु को यथास्थितिवादी एवं नियतिवादी बना देते हैं । इसीलिए इस वातावरण की क्रांति और विद्रोह की संभावनाओं को शून्य करने के लिए आरम्भ से ही भूमिका रही है ।
मार्क्स द्वारा धर्म को अफीम कहे जाने की बात इन्हीं अर्थों में चरितार्थ होती है
।
भारत में लम्बा अन्धकार युग रहा है और
प्राय: वही स्मृतियां प्रागैतिहासिक काल की बची हैं जिन्हें लोक-चर्चा या
साहित्य-चर्चा के लिए चयनित कर लिया गया था । फिर तो वे सांस्कृतिक सृजनशीलता और
कल्पना का आधार बन गयी हैं । इसीलिए भारतीय इतिहास को समझने के लिए उसकी पौराणिक
कथाओं की ही समाज-मनोवैज्ञानिक जांच-पड़ताल करनी होगी । यहां पर प्राचीन तथ्यों का
जातीय विरूपण भी बहुत हुआ है । यहा तो कर्इ कथाओं का कल्पित होना सीधे-सीधे दिख भी
जाता है । कुछ तो आध्यात्मिक ढंग की प्रतीकात्मक हैं । इधर के सौ-दो सौ वर्षों सें ही
कभी प्रचलित सत्यनारायण की कथा और मात्र पचीस-तीस वर्षों के भीतर प्रचलित की गयी संतोषी माता की कथा ऐसी ही प्रतीक कथाएं हैं । ये कथाएं पेशेवर और जातीय सृजनशीलता
का एक अच्छा नमूना हैं । समय,समाज और आवश्यकता के अनुरूप ये बाकायदा 'लांच की गयी हैं
। वर्ग-स्वार्थ के कारण प्राचीन काल में भी ऐतिहासिक तथ्यों का बहुत विरूपण किया
गया है । वर्चस्व से हटते ही परवर्ती भारतीय (आर्य) शास्त्रकारों नें शूद्र समाज
और संस्कृति को वर्ण बना दिया । व्यापक विरूपण और विस्मरण को देखते हुए ही मेरा
व्यकितगत विश्वास तो यह भी है कि चार्वाक और कुछ नहीं बल्कि उन्हीं के समुदाय में
प्रचलित 'चारु वाक यानि
सुन्दर उकितयां रही होंगी जिन्हें बाद में चार्वाक ऋषि घोषित कर दिया गया । उनके
साथ कुछ वैसी ही वैचारिक धोखाधड़ी हुर्इ है जैसी यह कहकर की जा सकती है कि शूद्र
वे हैं जिनके यहां पंडित जी पूजा कराने नहीं जाते अथवा जो होम-जाप नहीं करते ; जो जनेऊ नहीं
पहनते । सुबह-सुबह न नहाकर दोपहर को नहाते हैं । प्राचीन काल के शिव के अनुयायियों
का भी वैसा ही सामाजिक एवं जातीय व्यकितत्त्व उभरता है जैसा कि वर्तमान शूद्रों का
है । यह भी संभव है कि यह शिव और द्रविड़ दो शब्दों के मेल से पाणिनी से बहुत पहले
ही बना हो और 'शैवाद्र ,'शिवाद्र या 'शिद्र से होते हुए शूद्र हो गया हो-जिसका अर्थ यह होगा कि'शिव को मानने
वाले द्रविड़ । क्योंकि भारत में शब्द-व्युत्पत्ति को अधिक प्रामाणिक माना जाता है
इस लिए मैंने भी एक व्युत्पत्ति प्रस्तुत कर दी है लेकिन मैं समझता हूं इसकी कोर्इ
आवश्यकता ही नहीं है । जातीय व्यकितत्वीकरण की प्रवृत्ति को देखते हुए भी यह स्वत:
सत्यापित हो जाता है कि प्रागैतिहासिक शैवों के वंशज ही प्राचीनकाल और वर्तमान के शूद्र है। प्राचीन काल में सती के आत्मदाह के बाद वे न सिर्फ आर्य राजा दक्ष के
यज्ञ का विध्वंस करते हैंबल्कि सती के आत्मदाह से अपवित्र हो चुके यज्ञ-कर्म को
पुन: करने को अपने आध्यात्मिक नेता की पत्नी और दिवंगत रानी की आात्मा का अपमान
समझते है। वे पीढि़यों तक सती के अपमान को भूल नहीं पाते । प्रतिशोध की आग में जलते
रहते हैं । प्रतिशोध की यही ज्वाला ही रामकथा में भी संघर्ष की प्रारमिभक पृष्ठ-भूमि रचती है । इसे प्राय:
आर्य-अनार्य संघर्ष के रूप में स्वीकार करते हुए भी लोग सीधे-सीधे उन्हें शूद्रों का पूर्वज कहने से बचते हैं कि इससे वर्तमान शूद्रों का भाव बढ़ जायेगा । आर्य
कथाकारों ने कुछ इसप्रकार उन घटनाओं को प्रस्तुत किया है कि मानों वे कोर्इ दूसरे
थे और अब नहीं हैं । वे तो राक्षस थे -उनसे वर्तमान शूद्रों का क्या लेना-देना आदि ? रावण का शिव-भक्त होना और उसके अनुचरों का यज्ञ-विध्वंस में लिप्त होना भी यही
बताता है कि रावण भी आज के शूद्रों के पूर्वजों के कुल में ही पैदा हुआ था ।
इसीलिए आज भी शूद्रों के जीवन और कार्यों में विद्रोही शैव मनोविज्ञान को देखा जा
सकता है । प्राचीन शूद्रों के व्यक्तित्वीकरण को देखें तब भी शूद्र वे ही हैं जिनके
पुरखे यज्ञ नहीं करवाते थे ;यज्ञोपवीत नहीं पहनते थे । इस गुण साम्य से भी स्पष्ट हो
जाता है कि भारत के सबसे पहले शूद्र अर्थात आदिशूद्र स्वयं शिव ही थे । आज के हवन
कराने वालों के पूर्वज ही तब यज्ञ कराते थे । ऐसे ही यज्ञ कराने वाले पणिडत दक्ष
की पुत्री सती से शिव का पहला प्रेम-विवाह हुआ था । क्योंकि प्राचीन काल में शैवों को वरण की स्वतंत्रता थी और कूटनीतिक कारणों से द्रविड़ राजा शिव को भी उसनें
स्वयंवर में आमंत्रित कर लिया था। सारा दायित्व पुत्री सती पर ही था कि वह उसे न
वरण कर आर्यों के जातीय स्वाभिमान की रक्षा करे । सती नें ऐसा नहीं किया । उसके वरण
से अपनी बिरादरी में अपमानित दक्ष नें यज्ञ आयोजित कर ,उसमें शिव को न आमंत्रित करते हुए अपनी पुत्री
के व्यकितगत निर्णय से स्वयं को असम्बद्ध प्रदर्शित करना चाहा । पिता से अपमानित
पुत्री नें यज्ञ के अग्निकुंड में ही कूदकर अपनी जान दे दी ।
इसी जातीय अचेतन के कारण ही भारत का शूद्र समुदाय प्राचीन यज्ञ-विरोधी दार्शनिक समुदाय का ही सामाजिक अवशेष है । दुख
की बात यही है कि प्राचीन शूद्र ब्राहमण और पुरोहितों द्वारा शिव की पूजा स्वीकार
कर लिए जाने के कारण इतनें सन्तुष्ठ हो गए कि उनके वंशजों को अपने स्वर्णिम अतीत
को संरक्षित करने की चिन्ता ही नहीं रही । ऐसी चूक इसलिए भी हुर्इ कि प्राचीन भारत
में ज्ञान के संरक्षण का दायित्व सामाजिक स्तर पर ब्राहमणों को ही सौंप दिया गया
था । बाद में यह जाति अपने पेशेगत स्वार्थ या फिर ऐतिहासिक तथ्यों से कट जाने के
कारण ज्ञान और साहित्य में हेरा-फेरी करने लगा । बाद के भारतीय समाज नें इस
तथ्यात्मक उलट-फेर को आसानी से स्वीकार कर लिया कि शिव का स्त्रोत रचने वाला रावण
ब्राहमण ही हो सकता है ;वह शूद्र कदापि नहीं हो सकता । इस प्रकार एक भव्य ऐतिहासिक
विरासत वाली जाति को उसके अपने ही स्वर्णिम काल के नायकों की स्मृति से वंचित कर
इतिहास के गर्त में फेंक दिया गया । सिर्फ नहीं मिटा पाये तो उस प्रौतिहासिक
घटनाक्रम से निकले डोमों के सांस्कृतिक और जातीय अस्तित्व को ; जो शूद्र होते हए
भी पूज्य हैं ।
आर्यों और अनार्यों के बीच एक और संघर्ष की संभावना मैं देखता हू। पश्चिम से आये हुए आर्यो में अवश्य ही शवों को
दफनाने की प्रथा रही होगी ,जैसी कि आज भी है । प्रारमिभक आार्य कबीले अग्नि-पूजक तो थे
लेकिन पवित्र अग्नि को शव से दूषित करने के लिए सोच भी नहीं सकते थे । सती के
आत्मदाह के बाद फैले विप्लव नें उन्हें यह प्रचारित करने के लिए विवश किया होगा कि
सती को अगिन-देवता स्वर्ग लेकर चले गए । अपने झूठ को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने
मृत्यु के बाद हर काया को धरती पर रहने वाले स्वर्ग के देवता अग्नि को ही हर मृत
देह समर्पित करने का सामूहिक निर्णय लिया होगा । सम्मान बढ़ाने के लिए इस पवित्र अग्नि को सौपने का दायित्व शिव के अनुचर सेनापतियों के परिवार को मिला होगा ।
प्रारम्भ में यह शिव के परम्परागत पीठ की तरह रहा होगा । यह डोम यम से योम और डोम
हुआ या इस षब्द का डमरू और उसकी ध्वनि 'डम से
कोर्इ सम्बन्ध है ,क्योंकि प्राचीन काल में अलग -अलग व्यकितयों के अलग-अलग
आवाज वाले शंख और वाध-यन्त्र रखने की भी प्रथा थी । संभव है कि शिव के अनुयायी डमरू
धारक होने के कारण ही डोम कहे गए हों । प्रारम्भ में ये स्वयं शव नहीं जलाते थे और
एक सिद्ध पीठ के उत्तराधिकारी के रूप में किसी सन्त की तरह सिर्फ पवित्र अग्नि ही
देते थे । आज भी वे ऐसा ही करते हैं ।
इन्हीं का क्षेत्र होने के कारण वाराणसी को महाश वस्थान माना जाता था और शिव को
समर्पित यह क्षेत्र रोम के वेटिकन की तरह ही किसी के अधीन नहीं माना जाता था ।
बौद्ध-काल के समय ही इसे महाजनपदों के अधीन माना जाने लगा । प्राचीन काल में इसकी
स्वायत्तता को प्रमाणित करने वाली राजा हरिशचन्द्र की कहानी है ही , जिसनें मजदूरों
के बाजार से अपना राज्य खो चुके राजा को शव जलाने के लिए खरीदा था और अपने यहां
उन्हें नियुक्त किया था ।
भारत जैसे दीर्घकालीन ब्राहमण वर्चस्व
वाले देश में यह आश्चर्य नहीं करना चाहिए कि कभी शूद्र एक वर्ण और जाति नहीं बलिक
धार्मिक समुदाय रहा होगा । वैसे ही जैसे ब्रहम को मानने वालों के लिए कभी ब्राहमण
भी एक धार्मिक नाम ही था । यदि आज हमें शूद्र धर्म का साहित्य ही नहीं मिलता तो
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में बुद्ध धर्म का साहित्य ही कहां बरामद हुआ था
! राहुल सांकृत्यायन यदि तिब्बत से बौद्ध साहित्य नहीं लाए होते तो भारत में बौद्ध
साहित्य की एक भी पाण्डुलिपि नहीं रह गयी थी । मैं तत्कालीन वस्तुस्थिति के बारे में
जैसा सोचता हूं वह कुछ इस प्रकार है कि सीधे-सीधे सृष्टि के उदगम के रूप में यौन
प्रतीकों को ही पूज्य बनाने वाला यह सम्प्रदाय कितना वस्तुवादी और वास्तविकता जीवी
रहा होगा । जिसे लोग किसी नासितक सम्प्रदाय के ऋषि चार्वाक के कथन बतलाते हैं वे
इसी सम्प्रदाय के चारुवाक यानि सुन्दर कथन रहे होंगे । सिर्फ इतना यथार्थवादी
सम्प्रदाय ही ऐसा कह सकता था कि 'ऋणं कृत्वा,घृतमपिवेत । आर्य शास्त्रकारों नें सिर्फ मानव-सेवा को ही
अपना मूलमंत्र मानने वाले ऐसे क्रानितकारी धर्म के अनुयायियों को निम्न वर्ण बना
डाला । उन्हें अपने सेवा करने वाले धर्म को मानने की कीमत दास के रूप में
मूल्यांकित शूद्र बनकर चुकानी पड़ी । मेरे विचार से यदि मानव सेवा को ही अपना धर्म
मानने वाले ये ये प्राचीन शूद्र न हुए होते तो अहिंसा ,दया और करुणा को ही अपना धर्म मानने वाले बुद्ध
भी न पैदा होते और न ही जैन धर्म का
प्रवर्तन करने वाले महावीर ही ।