09 नवम्बर 1936 को वाराणसी के खेवली गाॅधी मे आज ही जनकवि सुदामा पाण्डेय धूमिल जी का जन्म हुआ था । खेवली मुझे केवटावली यानि मल्लाहो की बस्ती का तद्भव लगता है । अब जा ही रहा हूँ तो पता करॅगा कि मल्लाहो की आदिम बस्ती वहां है भी या नहीं । खेवली वरुणा का निकटवर्ती गाॅव है और समकालीन हिन्दी कविता के खेवनहार धूमिल का भी ।
मुक्तिबोध जहाँ साम्यवादी व्यवस्था के स्वप्नदर्शी कवि हैं तो धूमिल लोकतांत्रिक भारत के विचारक एवं जमीनी पडताल के कवि । धूमिल ने स्वतंत्रता के बाद की वर्तमान व्यवस्था की जिस नकारात्मक भूमिका का साक्षात्कार किया है ,वह आरोप अब भी विचारणीय और गम्भीर है । एक आम नागरिक की नियति को वे कैदी की नियति और व्यवस्था को कारागार की भूमिका मे पाते हैं । उनकी लम्बी कविता पटकथा की अन्तिम निष्कर्षात्मक अभिव्यक्ति यही है-
हर तरफ
शब्दबेधी सन्नाटा है ।
दरिद्र की व्यथा की तरह
उचाट और कूॅथता हुआ । घृणा में
डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की तरह आज भी
मेरा कारागार है ।
धूमिल की कविताएं भारतीय लोकतंत्र के लिए प्रतिरोध के भाषिक हथियार बनाती हैं ।
हत्यारों संभावनाओ के नीचे
सहनशीलता का नाम
आज भी हथियारों की सूची मे नहीं है ।
सभ्य नागरिक होना सम्मान से जीने की प्रक्रिया और पर्यावरण नहीं बल्कि सतत निरस्तिकरण की कार्यवाही है -
हर आदमी
भीतर की बत्तियां बुझाकर
पडे-पड़े सोता है
क्योंकि वह समझता है
कि दिन की शुरुआत का ढंग
सिर्फ हारने के लिए होता है
(हत्यारी संभावनाओ के नीचे )
थूमिल के पास अविश्वास और व्यंग्य की व्यंजना के लिए अब तक की सर्वोत्तम और प्रभावी काव्या भाषा है । धूमिल जैसा मिजाज और भंगिमा भी किसी के पास नहीं है। शुक्ल जी होते तो वाग्वैदग्ध्य और व्यंग्य के लिए सूर और कबीर के बाद सबसे बडा कवि धूमिल को ही घोषित करते । धूमिल की दृष्टि मे देश मे -
ऐसा जनतंत्र है जिसमें
जिन्दा रहने के लिए
घोड़े और घास को
एक जैसी छूट है
राजनयिक की चिन्ता देश के जीवित मनुष्य के लिए नहीं बल्कि अतीत के प्रतीकों के लिए है-
देश डूबता है तो डूबे
लोग ऊबते हैं तो ऊबे
जनता लट्टू हो
चाहे तटस्थ रहे
बहरहाल, वह सिर्फ यह चाहता है
कि उसका 'स्वस्तिक'-
स्वस्थ रहे
(भाषा की रात कविता )
धूमिल की कविताएं व्यवस्था से असंतोष के बावजूद सभ्य नागरिक बने रहने की नियति और यातना के विरुद्ध एकालापी बयान हैं -
जब हमारे भीतर तरबूज कट रहे है
मगर हमारे सिर तकियो पर
पत्थर हो गए हैं
धूमिल बोनसाई और दमित नागरिकता को बार-बार प्रश्नाकित करते हैं और उनके कारणों की पडताल भी प्रस्तुत करते हैं-
दलदल की बगल मे जंगल होना
आदमी की आदत नही अद्धा लाचारी है
और मेरे भीतर एक कायर दिमाग है
जो मेरी रक्षा करता है और वही
मेरी बटनों का उत्तराधिकारी है ।
'जनतंत्र के सूर्योदय मे कविता मै वे लिखते है कि
जहाँ रात मे
संविधान की धाराएं
नाराज आदमी की परछाई को
देश के नक्शे मे
बदल देती हैं
पूरे आकाश को
दो हिस्सों में काटती हुई
और हत्या अब लोगों की रुचि नही -
आदत बन चुकी है
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अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव मे
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है ।
(कविता)
धूमिल की कविताएं जीवन की जड़ता के विरुद्ध जीवित रहने का जुझारू स्पन्दन हैं । वे लोकतांत्रिक व्यवस्था को पाखण्डमुक्त और पारदर्शी देखने की अदम्य रचनात्मक आकांक्षा और संकल्प का परिणाम हैं ।
जानवर बनने के लिए
कितने सब्र की जरूरत होती है
( बीस साल बाद)
और अब, मै एक शरीफ आदमी हूँ
पूरी नागरिक सौम्यता के साथ ।
धूमिल हिन्दी के पहले समाज-मनोवैज्ञानिक विश्लेषण दृष्टि से सम्पन्न कवि हैं । यद्यपि उनकी समझदारी की कौंधो को उनके द्वारा प्रयुक्त बिम्बों और प्रतीकों में पढना पडता है । जैसे कि कुत्ते कविता समकालीन भारतीय मनुष्य का चारित्रिक रेखांकन प्रस्तुत करती है-
और वहाँ, हददर्जे की लचक है
लोच है
नर्मी है
मगर मत भूलो कि इन सबसे बड़ी चीज
वह बेशर्मी है
जो अनत मे
तुम्हे भी उसी रास्ते पर लाती है
जहाँ भूख-
उस वहशी को
पालतू बनाती है । (कुत्ता' कविता )
ऐसे चिरप्रासंगिक चिर युवा कवि को उनके जन्मदिन पर सादर नमन ।
रामप्रकाश कुशवाहा
09/11/2019