शनिवार, 16 नवंबर 2019

ति कुण्ठित लोगों को चिढा कर दुखी भी करती है।
उनका दुख भी दूना करतीं हैं।
इसलिए इससे यथासम्भव बचे रहना ठीक है।
इसके बावजूद यह लोगों को सामूहिक रूप से पसन्द करने,अपने आदर्श को चुनने और उसका अनुसरण कर एकरूप आचरण करने वाले समाज के निर्माण और विकास का आधार भी है । यह सामाजिक शक्ति के निर्माण का भी आधार है । इसी अर्थ में यह प्रसिद्धि यानी श्रेष्ठ सिद्धि है ।

रहना नहीं

बकौल कबीर
रहना नहीं देश बेगाना है
फिर काहे को इतराना है
जो है ,जहाँ है,जैसा है
सब छोड-छाडि चलि जाना है
सब समझि-बूझि कर गाना है
ज्यों सब संग मिलि परदेश रवाना है ।
(टीका और व्याख्या सहित
ऐसे ही मन मे कौंध गया
अपराधियों के सुधार के लिए जरूरी
और औषधि तुल्य हो सकतीं हैं ये पंक्तियाँ ।)

धरती पर

जब-जब धरती पर
घाटी-सी कटान होगी
गहराइयाॅ बनेगी
तो पर्वत के कूबड़ तो अपने आप ही बन जाएंगे
जब-जब विषमता के खड्ढे बढ़ेंगे
तो बढेंगे धरती के भाग्यवान धनवान
बढेगी धरती पर भिखारियो की फ़ौज
तो यों ही कुछ न कुछ देते हुए इतराएंगे अन्नदाता
तालियों के बीच उपहार बटवाएंगे
सेल्फियाॅ खिचवाएंगे
अखबारों मे छपवाएंगे
जब-जब महंगी और ध्वस्त शिक्षा के कारण
सामूहिक मूर्खो और अशिक्षितो की आबादी बढ़ेगी
और बढेंगे ज्ञानचक्षुओ को
बन्द और अपहृत करने वाले बबान
जब-जब बढेगी धरती पर विषमता
और बढेंगे लाचार
बढेंगे धरती पर धरती के प्रभु- भगवान
होगी ही तब-तब धरती पर
लोकतंत्र और समानता के धर्म की हानि !
और तब तक
धरती पर सतयुग भी नहीं आएगा ।
रामप्रकाश कुशवाहा
07/11/2019

प्रशूद्र

सभी इतिहास-प्र-शूद्रों से
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सब चारण थे
सब गुलाम थे
पराधीन और अपमानित
सभी शूद्र थे
स्वाधीन होने से पूर्व
ऐतिहासिक दुर्दशा को प्राप्त
तलवे चाट गुलामों के थे वंशज सब
सिर्फ एक ही वर्ण के लोग बचे थे जम्बू द्वीप में
पराधीन, पद-कुचलित-मर्दित !
कैसे तब आग लगी थी पूरे जंगल में
और अपमान की अहर्निश आग में जलने से
बचने के लिए भाग रहे थे मारे-मारे
क्षत्रप हत और क्षत्र भूलुण्ठित पडे थे
क्षत्रिय सभी मुँह छिपाए खडे थे
अपने पूर्वजों के तीर्थ को छोडकर
इधर-उधर भाग रहे थे पण्डे
पर्वतों और जंगलों की ओर
तब कोई भी नहीं बचा था श्रेष्ठ
सब क्षुद्र थे !
सब प्रशूद्र थे
सिर्फ श्रेष्ठ शूद्र ही नहीं
अति-शूद्र अति-शूद्रतम !
हे काल-पराजित अतिक्षुद्रो!
हे इतिहास-प्रमाणित अतिशूद्रो!
समय,समाज, संस्कृति और सभ्यता ने
ख़ारिज किया है तुम्हे!
तुममें किसी मक्खी की तरह
फिर उसी घाव पर
फिर उठकर जा बैठने की
इतनी बेचैनी क्यों है ?
संकट की उस निर्णायक घड़ी में
तब तुम स्वयं को
सिर्फ और सिर्फ इन्सान ही घोषित करते हुए
नहीं अघाते थे
स्वयं को कहते रहने के लिए बाध्य थे
वही कहो !
अब भी उसी एकता को जियो
जो अनेकता की भयानक अराजकता और
मूर्खतापूर्ण दुर्घटनाओं की समझदारी के रूप मै
प्राप्त हुई है !
उसी विरासत को अब भी
जानने और जीने की ज़रूरत है
(दिनांक 03/03/2016 के
डाायरी के पन्नो पर प्राप्त)
रामप्रकाश कुशवाहा

सुदामा पाण्डेय धूमिल

09 नवम्बर 1936 को वाराणसी के खेवली गाॅधी मे आज ही जनकवि सुदामा पाण्डेय धूमिल जी का जन्म हुआ था । खेवली मुझे केवटावली यानि मल्लाहो की बस्ती का तद्भव लगता है । अब जा ही रहा हूँ तो पता करॅगा कि मल्लाहो की आदिम बस्ती वहां है भी या नहीं । खेवली वरुणा का निकटवर्ती गाॅव है और समकालीन हिन्दी कविता के खेवनहार धूमिल का भी ।
मुक्तिबोध जहाँ साम्यवादी व्यवस्था के स्वप्नदर्शी कवि हैं तो धूमिल लोकतांत्रिक भारत के विचारक एवं जमीनी पडताल के कवि । धूमिल ने स्वतंत्रता के बाद की वर्तमान व्यवस्था की जिस नकारात्मक भूमिका का साक्षात्कार किया है ,वह आरोप अब भी विचारणीय और गम्भीर है । एक आम नागरिक की नियति को वे कैदी की नियति और व्यवस्था को कारागार की भूमिका मे पाते हैं । उनकी लम्बी कविता पटकथा की अन्तिम निष्कर्षात्मक अभिव्यक्ति यही है-
हर तरफ
शब्दबेधी सन्नाटा है ।
दरिद्र की व्यथा की तरह
उचाट और कूॅथता हुआ । घृणा में
डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की तरह आज भी
मेरा कारागार है ।
धूमिल की कविताएं भारतीय लोकतंत्र के लिए प्रतिरोध के भाषिक हथियार बनाती हैं ।
हत्यारों संभावनाओ के नीचे
सहनशीलता का नाम
आज भी हथियारों की सूची मे नहीं है ।
सभ्य नागरिक होना सम्मान से जीने की प्रक्रिया और पर्यावरण नहीं बल्कि सतत निरस्तिकरण की कार्यवाही है -
हर आदमी
भीतर की बत्तियां बुझाकर
पडे-पड़े सोता है
क्योंकि वह समझता है
कि दिन की शुरुआत का ढंग
सिर्फ हारने के लिए होता है
(हत्यारी संभावनाओ के नीचे )
थूमिल के पास अविश्वास और व्यंग्य की व्यंजना के लिए अब तक की सर्वोत्तम और प्रभावी काव्या भाषा है । धूमिल जैसा मिजाज और भंगिमा भी किसी के पास नहीं है। शुक्ल जी होते तो वाग्वैदग्ध्य और व्यंग्य के लिए सूर और कबीर के बाद सबसे बडा कवि धूमिल को ही घोषित करते । धूमिल की दृष्टि मे देश मे -
ऐसा जनतंत्र है जिसमें
जिन्दा रहने के लिए
घोड़े और घास को
एक जैसी छूट है
राजनयिक की चिन्ता देश के जीवित मनुष्य के लिए नहीं बल्कि अतीत के प्रतीकों के लिए है-
देश डूबता है तो डूबे
लोग ऊबते हैं तो ऊबे
जनता लट्टू हो
चाहे तटस्थ रहे
बहरहाल, वह सिर्फ यह चाहता है
कि उसका 'स्वस्तिक'-
स्वस्थ रहे
(भाषा की रात कविता )
धूमिल की कविताएं व्यवस्था से असंतोष के बावजूद सभ्य नागरिक बने रहने की नियति और यातना के विरुद्ध एकालापी बयान हैं -
जब हमारे भीतर तरबूज कट रहे है
मगर हमारे सिर तकियो पर
पत्थर हो गए हैं
धूमिल बोनसाई और दमित नागरिकता को बार-बार प्रश्नाकित करते हैं और उनके कारणों की पडताल भी प्रस्तुत करते हैं-
दलदल की बगल मे जंगल होना
आदमी की आदत नही अद्धा लाचारी है
और मेरे भीतर एक कायर दिमाग है
जो मेरी रक्षा करता है और वही
मेरी बटनों का उत्तराधिकारी है ।
'जनतंत्र के सूर्योदय मे कविता मै वे लिखते है कि
जहाँ रात मे
संविधान की धाराएं
नाराज आदमी की परछाई को
देश के नक्शे मे
बदल देती हैं
पूरे आकाश को
दो हिस्सों में काटती हुई
और हत्या अब लोगों की रुचि नही -
आदत बन चुकी है
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अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव मे
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है ।
(कविता)
धूमिल की कविताएं जीवन की जड़ता के विरुद्ध जीवित रहने का जुझारू स्पन्दन हैं । वे लोकतांत्रिक व्यवस्था को पाखण्डमुक्त और पारदर्शी देखने की अदम्य रचनात्मक आकांक्षा और संकल्प का परिणाम हैं ।
जानवर बनने के लिए
कितने सब्र की जरूरत होती है
( बीस साल बाद)
और अब, मै एक शरीफ आदमी हूँ
पूरी नागरिक सौम्यता के साथ ।
धूमिल हिन्दी के पहले समाज-मनोवैज्ञानिक विश्लेषण दृष्टि से सम्पन्न कवि हैं । यद्यपि उनकी समझदारी की कौंधो को उनके द्वारा प्रयुक्त बिम्बों और प्रतीकों में पढना पडता है । जैसे कि कुत्ते कविता समकालीन भारतीय मनुष्य का चारित्रिक रेखांकन प्रस्तुत करती है-
और वहाँ, हददर्जे की लचक है
लोच है
नर्मी है
मगर मत भूलो कि इन सबसे बड़ी चीज
वह बेशर्मी है
जो अनत मे
तुम्हे भी उसी रास्ते पर लाती है
जहाँ भूख-
उस वहशी को
पालतू बनाती है । (कुत्ता' कविता )
ऐसे चिरप्रासंगिक चिर युवा कवि को उनके जन्मदिन पर सादर नमन ।


रामप्रकाश कुशवाहा
09/11/2019

मानव-जाति

क्योंकि सभी धर्मों और विचारधाराओं के
मुखौटों के पीछे छिपी है मानव-जाति
हर आतताई समूह अपनी हिंसा से
दूसरे समूह को संक्रमित करता है
और विजय के उन्माद मे
अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए
घृणा और प्रतिशोध का
संतप्त उपहार छोड़ जाता है ।
जैसा कि विज्ञान का नियम है कि
हर संक्रमण प्रतिरोध को जन्म देता है
हर महायुद्ध के बाद
धरती पर बच जाने हैं
सिर्फ दुष्ट,जिद्दी और खूंखार बेहये !
सबसे अंन्त मे पुनश्चः
थकी-हारी-पछताती मानवजाति
अपने-अपने धर्म और विचारधारा के लिए
करती सभी को शर्मसार!

शब्द

शब्द तो हर किसी के पास होते हैं
लेकिन उन शब्दों की हैसियत
सभी के यहाँ
एक समान नहीं होती !
यानि कि शब्दों की अर्थवत्ता
किसी राष्ट्राध्यक्ष के भी
बचकाने हो सकते हैं शब्द
जबकि उसी देश के किसी गुमनाम -अनाम से
बच्चे के शब्द सयाने।
कभी शब्द आगे और ऊपर निकल जाते है व्यक्ति से
कभी भूलुण्ठित गिरे-पडे सिर धुनते है शब्द
शब्द ऐसे ही नहीं ब्रह्म है
ब्रह्म हैं कभी भी अपने प्रयोक्ता सवार को
सहसा गिरा देने की स्वतंत्रता के कारण
नौ दो ग्यारह हो जाने की शक्ति के कारण
हो जाते हैं गालियाँ बकने वाले के ही विरुद्ध
कि देखो लोगों
सबसे अश्लीलतम मनुष्य
यहाँ खड़ा बोल रहा है
इसके गन्दे दिमाग के प्रति सभी
सूचित संज्ञानित और अवगत हो !
शब्दों को उनके अर्थ और प्रभाव के लिए
तौला नहीं जा सकता किसी बटखरे से
उनका वजन सिर्फ उनके प्रयोक्ता के वजन
वजूद,आचरण और व्यवहार से ही जाना जा सकता है।
शब्द सदैव किसी ईमानदार सटीक जासूसी कुत्ते की तरह
सारी दुनिया छोड़कर
अपने मालिक का सही पता बता जाते हैं ।


रामप्रकाश कुशवाहा
14/011/2019