मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

मजलें

वक्त बेवक्त,कुछ का कुछ,कहीं का कहीं
जो जहां होना था वह वहाँ नहीं
चोर दरवाजों से संभली हुई सारी कायनात
फसादी हर जगह,सिर्फ हम नहीं,तुम नहीं

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

मलयज की दृष्टि मे रामचंद्र शुक्ल


मलयज की  रामचंद्र शुक्ल  से सम्बन्धित आलोचना की मुख्य समझ उस इतिहाबोध से निर्मित होती है जो पराधीन भारत में बहुआयामी  जीवन संघर्ष की चुनौतियों के पक्ष में व्यक्तिवाद और कलावाद  का  बहिष्कार करती है। स्पष्ट है कि रामचंद्र शुक्ल साहित्य को इतिहास निर्माण यानि साहित्य को राजनीतिक भूमिका में देखना चाहते थे। यह हिन्दी साहित्य के प्रथम व्यवस्थित इतिहासकार का ऐसा इतिहासबोध था इतिहास के लम्बे निरीक्षण से पैदा हुआ था। यह वह समय था जब सामूहिकता अत्यंत महत्वपूर्ण हो गयी थी। औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के दौर मे भाारत की मूलत सामाजिक सांस्कृतिक सभ्यता हथियारबन्द राजनीतिक संगठनो द्वारा रौद दी गयी थी। ऐसे मे व्यक्ति स्तरीय मुक्ति का आदर्श कालातीत हो गया था। शुक्ल जी की लोक चिन्ता को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। मलयज का ध्ध्यान शुक्ल जी की इस लोकचिन्ता की ओर तब गया जब बाजार के अर्थतन्त्र से गठबंधन कर भारत में कलावाद फिर वापस लौट आया था। बाज़ार व्यक्तिवाद को बढ़ावा दे रहा था । शुक्ल जी के समय संघर्ष की दृष्टि से व्यक्ति अप्रासंगिक हो गया था ।

रविवार, 27 दिसंबर 2015

सूरदास

सूरदास मध्य काल के एक मात्र ऐसे कवि हैं जिनका काव्य साम्प्रदायिक होने से पहले शतप्रतिशत साहित्यिक है।वे मानवीय संवेदना के धरातल पर खड़े होकर ही भक्त कवि हैं। अपने आराध्य कृष्ण के माध्यम से वे अपने युग के जनजीवन को ही व्यक्त करते हैं। सूरदास का कवि मन पूरी निष्ठा के साथ लोकसम्वेदना के पक्ष में है। उदाहरण के लिए जैसे ही कृष्ण राजा बनते हैं सूरदास अपने ही आराध्य का साथ छोड़ देते हैं।मध्यकाल के सामन्त राजाओं के प्रति समकालीन लोक की संचित घृणा का ज्वार गोपियों की भक्ति भावना को डुबा देता है।सारी गालियां,सारे उलाहने,चरित्र की सारी सन्दिग्धताएं सूर की गोपियाँ अपने आराध्य के नाम कर देती हैं। सूर का भ्रमरगीत यद्यपि निर्गुण पर सगुण की विजय के रुप में पढ़ा और पढ़ाया जाता है लेकिन उसे मध्य कालीन सामन्तवाद के प्रति लोक की घृणा  के रूप में देखना ही अधिक उचित है।
        सुर-साहित्य के समानांतर ,उसकी अन्तरंग पृष्ठभूमि के रूप में बल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत वाद उपस्थित है . उनके कृष्ण के आचरण को आध्यात्मिक एवं दार्शनिक रूपक के रूप में ही ग्रहण करना उचित होगा .जब वे kहैं कि उनके आराध्य कृष्ण एक साथ सभी गोपियों के साथ रमण करते हैं तो शुद्धाद्वैत के अनुसार उसकी आध्यात्मिक व्याख्या यही होगी कि सभी गोपियों के लौकिक पति भी दार्शनिक दृष्टि से श्रीकृष्ण ही हैं .यदि सब कुछ ब्रह्म का ही रूप है तो गोपियों के पति भी तो ब्रह्म ही हुए .इसके विपरीत व्याख्या सुर के आराध्य को न सिर्फ लम्पट बनाना होगा बल्कि सूर के कृष्ण को अपनी संसारी दृष्टि से देखना होगा .इसी तरह यशोदा का अपने पुत्र में ईश्वर का दर्शन भी एक प्रतीक ही है .शुद्धाद्वैत के अनुसार दुनिया के सारे शिशु भी ब्रह्म रूप ही हैं .सभी सखा ब्रह्म रूप हैं .यह व्याख्या सर्व खल्विदं ब्रह्म के अनुरूप ही है .जब तक अपने इश्वरत्व के साथ-साथ दूसरों के इश्वरत्व का दर्शन नहीं होता तब तक शुद्धाद्वैत दर्शन का मर्म नहीं समझा जा सकता .

समय

रास्ता सामने से आता है
समय में डूबा डूबाआता है
कोई जरूरी नहीं कि दिखता रहे
जो भी आता है छिपा आता है

सुबह होगी तो कब होगी
सुबह होगी या नहीं होगी
सभी की रात बीत जाएगी
ऐसी भी कोई सुबह कब होगी ?