गुरुवार, 2 जनवरी 2020

जाति-प्रथा

जाति-प्रथा


जब तक किसी समूह के सदस्य एक-दूसरे के अधिकतम समरूप बने रहने के प्रयास में दूसरे समूह से भिन्न बने रहेंगे भारत में जाति -प्रथा नाम-रूप बदलकर किसी न किसी रूप में बनी रहेगी | जातिविहीनता का आदर्शवाद तभी संभव है जब सभी असामाजिक हो जाएँ और समूह के आदर्शों को जीना बंद कर दें | जाति भी मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के कारण ही अस्तित्व में बने हुए हैं | भारत में जातिवाद किसी ब्राह्मण या ब्राह्मण समुदाय द्वारा बनाया गया नहीं है ,बल्कि उसकी ऐतिहासिक पारिस्थितकी की उपज है |उपजाऊ देश होने के कारण प्राचीन काल से ही अलग-अलग समूह भारत में बसने के लिए आते गए और जातियाँ बढ़ती गयीं | यदि दूसरे की सामूहिक भिन्नता को स्वीकार करना ही जातिवाद है तो ऐसे जातिवाद को भारतीय इतिहास के लिए प्रगतिशील भी माना जा सकता है | हम सभी जानते हैं कि मध्यकाल में जब पुलिस व्यवस्था हमेशा ही ठीक नहीं रही होगी तो जातियों नें ही अपने सदस्यों का चारित्रिक नियमन किया होगा | जाति प्रथा भी मनोवैज्ञानिक दंड और पुरष्कार-प्रथा के आधार पर ही हजारों वर्षों तक ऐसा करती रहीं | जाति प्रथा की यह प्रगतिशील भूमिका थी | सबको समान रूप में जीने के लिए दबाव बनाना भी हिंसा है | जाति -प्रथा नें अलग-अलग समूहों को अलग -अलग रीति-रिवाजों को जीने की स्वायत्तता दी | भारत में जातिप्रथा इसलिए बुरी है कि धार्मिक आधार पर श्रेणीकरण करने के कारण कुछ लोगों को निचले दर्जे पर कर दिया गया | इससे चर्म-उद्योग से जुडी जातियां अधिक घाटे में रहीं और अछूत तक करार दी गयीं । ब्राह्मणों ने इनके (बौद्ध एवं जैन धर्म की) अहिंसावाद की प्रतिस्पर्धी मे अधिकांशतः मांसाहार छोड़ कर शाकाहार अपनाया । तभी इन दोनो धर्मों का प्रभाव कम कर अपने वर्चस्व की पुनर्स्थापना कर पाए । भारतीय इतिहास मे वर्णवादी और जातिवादी नर्क की सृष्टि करने वाले शासकों मे पुष्यमित्र शुंग और पेशवाओ का नाम सबसे पहले लिया जाता है । मनुस्मृति का प्रवर्तन काल भी यही है । क्योंकि इसने बौद्धों का विस्तृत मौर्य साम्राज्य सेनापति के रूप मे अपने शासक की हत्या कर प्राप्त किया था- इस लिए बहुत कम समय मे बौद्धधर्म मतावलम्बियों का भारत भूमि से उच्छेदन किया । जैसा कि सभी जानते हैं कि सत्ता कूटरचना और अहंकार की सृष्टि करती है । ब्राह्मणों के पास दो बार सत्ता आयी । दोनो बार ही इसने अपनी श्रेष्ठता, दिव्यता और पवित्रता के पाखण्डपूर्ण विज्ञापन कै लिए समानतावाली मानवता के विरुद्ध विषमता का इतिहास रचा । शूद्रों को अस्पृश्य घोषित कर जिस विभाजनकारी जातीय हिन्दू धर्म की नीव रखी उसने एक बडी जनसंख्या को समायोजन की दृष्टि से अक्षम तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बीमार बनाया । कहते हैं हल्दीघाटी का युद्ध महाराणा प्रताप द्वारा मानसिंह के साथ भोजन न करने के कारण हुआ था । उस अन्धविश्वासों वाले युग मे बहुत बड़ी जनसंख्या उनके कुओं मे गाय की हड्डी डालकर सिर्फ़ ढिंढोरा पीटकर अवगत करा देने मात्र से धर्म परिवर्तन के लिए विवश हुई । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भारत मे आया इस्लाम उच्चवर्ण की शूद्र ग्रन्थि और अवधारणा का शिकार हुआ । इस मनोग्रन्थि ने भी हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता की समस्या को और बढाया है ।
आज वैश्विक अनुरूपता की धारा बह रही है | नस्लीय या अनुवांशिक भिन्नता को छोड़ दे तो समान शिक्षा-दीक्षा और रहन-सहन के कारण आज समूह की भिन्नता भी कम हो रही है | आज जाति-प्रथा किसी बौद्धिक या वैचारिक आधार पर नहीं बल्कि वैवाहिक सुविधा , आलस्य और सामाजिक तंत्र के आधार पर बची हुई है | इसकी शक्ति भी सामाजिकता की ही शक्ति है | क्योकि कुछ जातियों का राजनीतिकरण हो चुका है इसलिए उनका संगठनात्मक हित जाति प्रथा को बनाए रखने में हो गया है | इस कारण ही जाति से बाहर निकलने के वैयक्तिक प्रयास भी प्रभावी नहीं हो रहे हैं | आजादी के पूर्व साम्प्रदायिकता की समस्या के उभार के कारण मुख्यधारा की राजनीति ने भारतीय मूल की जनसंख्या के घृणित जातीय विभाजन के मुद्दे को बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर के हस्तक्षेपपूर्ण प्र्रयास के बावजूद दबायें रखा । आजादी के बाद ही जातिवाद का सबसे निकृष्टतम रूप देखने को मिला । चाहे नेहरू रहे हो या इंदिरा गांधी - कान्ग्रेस कुलीनतंत्र की पोषक होती गयी और उसके सिपहसालार तथा उसके शासनकाल की नौकरशाही उच्च वर्गीय जातिवादी । इस भ्रष्टाचार से जिन लोगों ने भी नौकरियां पायीं-चाहे वे नौकरशाह रहे हो या प्रोफेसर-जातीय सम्बन्ध के आधार पर नियुक्तियां पाने से बनेे तंत्र के अधिकारियों कर्मचारियों और शिक्षकों की दूसरी पीढ़ी ने बडी निर्लज्जता से जातिवाद फैलाया । राजनीति से लेकर नौकरशाही तक फैले इस भ्रष्टाचार को सबसे पहले जाट नेता चौधरी चरण सिंह ने सार्वजनिक मुद्दा बनाया । मंडल कमीशन, विश्वनाथ प्रताप सिंह एवं कांशीराम की राजनीति उसके बाद की है । वर्तमान सरकार के भीतर घुसा उच्च वर्गीय नेतृत्व वर्ग भी राष्ट्रवादी आदर्श के भीतर अपने वर्ग की जातिवादी दमित आकांक्षाओं की पूर्ति करने मे लगा है । इतिहास-चक्र का मध्यवर्गीय यथार्थ इंदिरागांधी के जमाने वाली धोखाधड़ी और जातीय कुचक्रों का भीतर-भीतर फिर लौट रहा है । अपराधियों के प्रति जातिवादी पक्षपात की खबरें अब भी आती हैं । अभी कुछ दिनो पहले " आर्टिकल 14"नाम की एक विचारोत्तेजक फिल्म भी उच्च वर्णीय जातिवादी भ्रष्टाचार पर आयी थी ।नियामकों ने ध्यान नहीं दिया तो समय के न्याय-चक्र का पहिया घूमने से कोई रोक नहीं सकता । इस देश को सही अर्थों मे लोकतांत्रिक और मानवतावादी होने मे देखें अभी कितना वक्त लगता है ?


रामप्रकाश कुशवाहा
02/01/2020