गुरुवार, 28 मार्च 2019

होली

लोक पर्व होली को पौराणिक और पुरोहिती पाठ से न देखने पर ही इसका महत्व और रहस्य खुलता है।हिरण्य कश्यप का वध भी हिरण्य  यानि सोने के समान  पकी हुई फसल का काटना  है। नरसिंह के रूपक में किसान के सिंह केसमान पराक्रम का  मानवीकरण है। झस मिथकीय कथा को  रूपक के  रूप में  देखने से ही इसका काव्यात्मक निहितार्थ खुलता है।जैसे फसल को काटने के लिए होने वाले  हिंसात्मक कार्य की तुलना सिंह के  शिकार से  करते हुए  उसे नरसिंह के रूप में देखा गया है।होली समबन्धी मिथक में  आए सभी  नाम  इतने सुस्पष्ट हैं कि कथा की कालपनिकता  पर विवाद  न करते हुए उसके प्रतीकार्थ के महत्व की ओर ध्यान देना चाहिए।
         इधर कुछ ऐसे पोस्ट देखने को मिले हैं कि जिसमें होलिका के एक स्त्री -प्रह्लाद की बुआ,को जलाने के  आधार पर होली त्यौहार का ही विरोध किया जा रहा है। इस सम्बन्ध में मुझे जो कहना है वह कुछ इस प्रकार है कि हिन्दी में तो इ और आ स्वर की उपस्थिति मात्र से शब्द को स्त्री मान लिया जाता है।संस्कृत में पुलिंग,स्त्रीलिंग के साथ नपुंसक लिंग भी  मिलता है। इस तथ्य को देखते हुए यह सोचना ठीक  नहीं होगा कि कोई स्त्री वाची शब्द वास्तविक स्त्री का  भी द्योतक है। हिन्दी और संस्कृत में  होलिका और होली शब्द भी अन्त में  आ और ई होने के  कारण  स्त्रीलिंग है। इसी लिए पौराणिक कथा में भी होलिका को स्त्री माना गया है। इस तथ्य को देखते हुए कि संस्कृत में हवन,स्वाहा  और  हवि शब्द भी मिलता है।अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए ईधन सामग्री  डालने के  अर्थ में। इस दृष्टि से होलिका शब्द की व्युत्पत्ति हवि पत्रिका शब्द से हवलिका होते हुई  होगी । संस्कृत के भव से ही भोजपुरी का हव और हौ तथा हिन्दी का होना आदि निकले है । भाषा-परिवर्तन के इस नियम से प्राचीन काल मे होली शब्द   भी होली तो  नही ही रहा होंगा । नियम से प्राचीन काल मे होली भी होली नही रहा होंगा ।।  इस  रोचक भारतीय लोकपर्व को  बेवजह बदनाम करना ठीक नही है। यह आदिम काल से चला आने वाला लोकपर्व है। यह साधारण किसान अनुभव है कि घास और झाड़ियों में  आग लगाने  पर हरी पत्तियाँ  बची रह जाती हैं।ये हरी पत्तियां ही प्रह्लाद हैं  और  पुरानी  पत्तियों का  जलना ही नयी पत्तियों की बुआ होलिका का जलना है।
           विगत वर्ष अपने एक चिन्तन में होली को मैंने एक ॠतु पर्व माना था।होलिका दहन  में  हो शब्द भाषा वैज्ञानिक नियमानुसार भव शब्द से अपभ्रंश काल में निकला  होगा। प्रह्लाद का शब्दार्थ  भी प्र -आह्लाद  से श्रेष्ठ आनंद या उल्लास हुआ। इस  व्युत्पत्ति के अनुसार मैंने होलिका को जो  भी  हो  चुका है यानि पतझड़ में गिरे पुराने पत्तों के जलाने एवं प्रह्लाद के बचने को वसन्त के नए पत्तों या पल्लवों के आगमन से माना था। इस ॠतुपर्व होली  की  आप सभी मित्रों को बधाई। निरर्थक अतीत को जलाकर नव्यतम और श्रेष्ठतम सुख प्राप्त करने के लिए आप सभी को शुभकामनाएँ

जाति-विमर्श-1

पारम्परिक वर्ण व्यवस्था के खाते मे भूमिहार फिट नहीं बैठते ।  यादवों की तरह वे भी नस्ल से सवर्ण होते हुए भी सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि से अछूत बनाकर रखे गए है । मुझे तो उनका भी विद्रोह और क्रान्तिकारिता मनोवैज्ञानिक दृष्टि से साधार और विश्वसनीय लगता  है ।
       इस पोस्ट को पढ़कर मेंरे एक मित्र ने  बातचीत मे कहा कि भूमिहारों के वर्ण को लेकर ब्राह्मण या क्षत्रिय होने को लेकर द्वैत का जो संकट है-उसका आधार वैवाहिक भी हो सकता है ।  वे यह मानने के लिए तैयार नहीं थे कि बन्द वैवाहिक सम्बन्ध वाली  कोई जाति यदि जातीय समूह के रूप मे नही हैं तो उन्हे  वर्ण नहीं माना जा सकता  । वर्ण माने जाने के लिए समानधर्मी जातीय समूह  होना जरूरी है । ब्राह्मण और क्षत्रिय इसलिए जाति के साथ-साथ वर्ण भी माने गए कि इनमे परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध मे बंधे विभिन्न जातीय अस्मिता वाले समूह हैं ।
          लेकिन मुझे उन मित्र से बात करते हुए यह भी लगा कि वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ही रखकर  पूरे भारतीय मूल की जनसंख्या को हिन्दू मानने वाले  लोग  इस्लाम पूर्व के बड़े जाति- प्रवासो की अवहेलना करते हैं । दृढ कबीलाई संस्कारों वाली  कई जातियाँ  अपनी स्पष्ट  नस्लीय विशेषताओ के कारण  सवर्ण जातियों के लिए निर्धारित जैविक विशेषताओ को चुनौती देती रही है । यह भी एक तथ्य है कि प्राचीन भारतीय गणराज्यो से सम्बन्धित अधिकांश जातियाँ  स्पष्ट एवं दृढ कबीलाई एकता, नियमों एवं वर्जनाओ को जीने वाली रही हैं  ।  हिन्दू जातियों  मे भूमिहार,जाट,गूजर,अहीर,कुर्मी और कोइरी आदि ऐसी किसान जातियाँ हैं जिनका वर्ण व्यवस्था के अनुसार पेशेवर  आधार नहीं  मिलता । इन बडी जनसंखयात्मक जातियों  मे चाहे वे सवर्ण मानी जाती हो या अवर्ण- उनमें अत्यन्त दृढ़ अनतर्वैवाहिकता मिलती है । इनमें से अधिकांश के पास अत्यन्त समृद्ध रीति-रिवाज और जातीय परम्पराएं है । ये अपने संख्या बल से प्रतिरोधी और आक्रामक हैं  । इनमे अपने मुखिया या चौधरी को भी बराबरी की शर्तों और व्यवहार के साथ अपने मे से एक मानने की प्रवृत्ति पाई जाती है  न कि व्यक्ति विशेष को अत्यन्त श्रेष्ठ एवं व्यक्ति पूजा के योग्य मानने की प्रवृत्ति । मेरा मानना है कि अपनी जाति के लोगों को अपने से बड़ा न मानने की प्रवृत्ति ही प्राचीन गणराज्यो वाले अतीत से सम्बन्धित वर्तमान जातियों की विशेषता है । ये जातियाँ व्यक्ति के नेतृत्व को महत्व देने वाले कुलीन राजतंत्रो  की अधीनता और संस्कारों की प्रतिरोधी रही हैं  । एक स्थापना यह भी है मेरी कि वर्ण व्यवस्था वाली ऊंच-नीच की भावना का विकास दीर्घकालिक रूप से स्थापित महाजनपदो मे हुआ । ये स्थायित्व के कारण कुलीनता और आनुवांशिकता  पर आधारित वर्ण-व्यवस्था वादी  सत्ता का विकास कर सके ।
        आर्यों के जो समूह बाद मे आए उन्हे वर्ण व्यवस्था बन चुकने के कारण क्षत्रिय स्वीकार नहीं किया गया ।  भारत मे शक हूणों के वंशज तथा अन्य बहुत सी ऐसी जातियाँ है , वे जहाँ से आए थे  वहाँ इस्लाम फैल जाने के कारण भारत मे ही हिन्दू जातियों मे शामिल होकर रह गयीं । यद्यपि वर्ण व्यवस्था मे सही स्थान नहीं पा सकीं  । अधिक सम्भावना यही है कि जाट और भूमिहार प्राचीन गणराज्य वाली जातियों के वंशज है । यादवों का तो गणराज्य था ही । इनकी स्वतंत्र रहने की आकांक्षा को महाजनपदो के राजतंत्र  से शासित ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने मिलकर स्वीकार और सम्मान नहीं किया ।