रविवार, 29 जुलाई 2018

हॅसता हुआ बाजार (कुछ टिप्पणियाँ)

रामप्रकाश कुशवाहा जी की सद्यः प्रकाशित पुस्तक-
" हंसता हुआ बाज़ार " काव्य संकलन, बाज़ार के चरित्र पर 66  वैचारिक कविताओं का संग्रह एक किताब में पहली बार तब्दील, इसके तीखे गवेषणात्मक और लंबे सार्थक तान - वितान को देखते - समझते - विचारते हुए इसे 'बाज़ार महाकाव्य ' कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं ।
(सौमित्र )

"हॅसता हुआ बाजार " की कविताएँ  बाज़ार के प्रति कवि की  अधिकतम  समझदारी का निवेश है  । इन कविताओं मे अनेक सूक्तियों-सूत्रों ,दृश्यों- दृष्टान्तो  के माध्यम  से  उसने अपनी दृष्टियो- निष्कर्षों  को दूसरों के लिए  सुरक्षित रखने का प्रयास किया हे । इसकी कई कविताएँ  बाजार मे मिलने वाले धूर्तों, ठगी, अपराधियों और  हत्यारों की गम्भीर मनोवैज्ञानिक पहचान कराती है ।  स्पष्ट है कि ऐसी कविताएं सिर्फ कवि कहलाने के लिए नही  लिखी गयी हैं  ।

राम प्रकाश कुशवाहा जी की कविताएँ कलात्मक युक्तियों के सहारे विकसित नही होती बल्कि अपना रूपाकार गहरी दार्शनिक निष्पत्तियों में ग्रहण करती हैं। 'हँसता हुआ बाजार' ऐसी ही चिंतनपरक कविताओं का संग्रह है।कवि की चिंता के केन्द्र में 'बाजार' है हिन्दी का पहला दार्शनिक कवि कबीर भी ऐन बाजार के बीच खड़े होकर उसका मूल्यांकन करता है।'कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठा हाथ'।तब से बाजार हमारी जरूरतों  से आगे निकलकर हमारी चेतना को आक्रान्त करने की हद तक ताकतवर बन चुका है।वह ताकतवर ही नहीं अमानवीय, शोषणकारी है और ग्लोबल है। गद्य में इसपर बहुत कुछ लिखा जा चुका है पर कविता के फार्म में यह पहला विमर्श परक संकलन है।
(अनिल अविश्रान्त)

हँसता हुआ बाजार
राम प्रकाश कुशवाहा
प्रतिश्रुति प्रकाशन,कोलकाता

जिन्दगी और कल्पना

पहले मै कल्पनाओं को ही
जीवन समझ कर जीता रहा
सोचता था कल्पनाओ को बचा लूँगा
तो सुरक्षित बच जाएगा जीवन
कि एक दिन देख लिया मैने
कल्पना के बादल के पीछे
सूरज की तरह छिपा हुआ
खुली हुई धूप सा वास्तविक जीवन
धूसर मटमैली खुरदुरी धरती
जीवन का हरा सागरीय विस्तार

कि जीवन बचा रहेगा
तो चलती रहेंगी कल्पनाएँ
अब मै कल्पनाओं पर नहीं
कल्पनाओ को जीते हुए जीवन पर
रीझता रहता हूँ
          रामप्रकाश कुशवाहा