रविवार, 17 जनवरी 2016

हिंदुत्व ,उसका ईश्वर और मार्क्सवाद

भारतीय धर्म जिसे ब्राहमणों नें जातीय रूप से विकसित किया है उसमें विनम्रता और अहंकार रहित होने पर विशेष बल दिया जाता है .अहंकार आध्यात्मिकता का शत्रु है .इस सामूहिक प्रशिक्षण से जनता का एक बड़ा हिस्सा यथास्थितिवादी और विनम्र बना रहता था .आज हम समझ पाते हैं कि यह भक्तिपंथ सामाजिक रूप से न सिर्फ ईश्वर के समक्ष झुकने का प्रशिक्षण देता था बल्कि राजा और सामंत प्रभु वर्ग के समक्ष झुकने का भी जो किसी भी बात पर कभी भी किसी की गरदन उड़ा सकते थे और उस समय उन्हें रोकने वाला कोई भी क़ानून नहीं था .इस तरह प्रकारांतर से इस भक्ति पन्थ नें जनसामान्य के एक बड़े हिस्से को संगठित प्रभु-वर्ग से मारे जाने से बचाया . बुद्ध क्योंकि गणतंत्र के नागरिक थे महाजनपदों के राजतंत्र का आध्यात्मिक पाठ उन्हें सही नहीं लगा .दुःख के होते हुए उनके लिए ईश्वर की प्रशंसा करना दार्शनिक दृष्टि से भी संभव न था  .आज के लोकतान्त्रिक समय में भी जनता को विनम्र और सिर्फ अनुयायी बनाए रखने में धर्म की परंपरागत भूमिका ख़त्म नहीं हुई है .भारत में ऐतिहासिक रूप से ब्राह्मण जाति द्वारा संगठित रूप से बनाए गए इसी मनोवैज्ञानिक स्वर्ग का लाभ पहले हिन्दू राजाओं और सामंतों नें उठाया ,फिर मुगलों ने,अंग्रेजों ने और स्वतंत्रता के बाद नेहरू परिवार नें और अब अन्य क्षेत्रीय दलों के स्वामी राजनीतिक परिवार ले रहे हैं .यह स्थिति आगे भी देर तक चलती रहेगी क्योंकि परंपरागत धार्मिक और जातीय संगठन अब भी विभिन्न रीति-रिवाजों ,मान्यताओं और उत्सवों के साथ पूरी तरह सक्रिय हैं .इस तरह भारतीय मूल की जनसँख्या की समस्या यह है कि उनका दार्शनिक और सांस्कृतिक ढांचा सामंती एवं मध्ययुगीन है.
           भारत में दूसरी बड़ी जनसँख्या इस्लाम के अनुयायियों की है .एशियायी मूल का धर्म होने से वह भी भक्तिपंथी ही है .वह भी आध्यात्मिक धरातल पर अल्लाह के प्रति तो सामाजिक धरातल पर इस्लामी कबीले के प्रति पूर्ण समर्पण की मांग करता है .इस तरह उसका भी मनोवेज्ञानिक पर्यावरण व्यक्ति  के विवेक की स्वतंत्रता का निषेध करने वाला ही है .हिदुत्व में ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता ब्राहमणों के आधिपत्य से होकर जाता है तो इस्लाम में उसके प्रवर्तक की अपरिहार्य मध्यस्थता से .  इन दोनों धर्मों में जन्मे हुए लोग इनकी सामाजिक सांस्कृतिक ऐतिहासिक विशिष्ट स्थिति की अवहेलना नहीं कर सकते .यद्यपि कुछ समानांतर  सम्प्रदायों की उपस्थिति जैसे जैनियों के अनेकान्तवाद और बौद्धों के प्रभाव के कारण दार्शनिक शंकराचार्य, गोरखनाथ और कबीर से  होते हुए हिंदुत्व में ऐसी गुंजाईश बनी कि मनुष्य अपने आध्यात्मिक स्वाभिमान को जी सके .विवेक की स्वतंत्रता का यह पर्यावरण भारतीय लोकतंत्र की दीर्घायुता के लिए जरुरी है .
            आवयविक सिद्धांत की दृष्टि से देखें तो हिंदुत्व और ईसाइयत में ईश्वर और मनुष्य का रिश्ता पिता-पुत्र वाला होने से प्रकारांतर से मनुष्य को ईश्वर के सारे अधिकार प्राप्त हो जाते हैं .इसमें से आध्यात्मिक समानता का भी अधिकार है .इसमें ईश्वर एक सम्मानित पूर्वज की तरह विशिष्ट बना रहता है -उत्तराधिकार में वर्त्तमान मनुष्य को सब कुछ सौंपने के बावजूद .इस्लाम अपने सूफी मत के माध्यम से प्रेम की एकता के माध्यम से यह प्रयत्न करता है .
            हिदी का प्राध्यापक होने और भक्तिकाल को आधुनिक दृष्टि से पढ़ाने के पेशेवर दबाव में इतने सम्प्रदायों और उनके भिन्न -भिन्न ईश्वरों से सामना हुआ कि मैं अपनी पत्नी के स्तर पर एकांत भक्ति-भाव में फिर वापस नहीं लौट सकता .फिर भी मैं ईसाइयत ,बौद्ध ,हिदुत्व और इस्लाम में अलग-अलग तरह की कविता देख पाता हूँ .इस्लाम के अनुयायी किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह अपने ईश्वर को जीते दिखाई देते हैं तो हिंदुत्व को पर्यावरण के  सबसे बडे संरक्षक धर्म के रूप में प्रासंगिक पाता हूँ .बुद्धत्व मानसिक सोंदर्य तो ईसाइयत करुणा और सेवाभाव देकर मानवता के लिए अब भी प्रासंगिक है .इस दृष्टि से मार्क्सवाद भी शोषण और असमानता के विरुद्ध प्राचीन घृणा का ही विस्तार है .



जिंदगी में कुछ काम मैं अपने लिए करता हूँ और कुछ उन दूसरों के लिए ,जो सगे हैं और इतने सगे हैं कि पूरी दुनिया में अरबों की जनसँख्या छोड़कर सिर्फ मेरे ही हिस्से पड़े हैं .पहले पिताजी थे .वे कवियों को नाचने-गाने वाले समुदाय का एक हिस्सा समझते थे .उनके द्वारा कवियों को हिकारत से देखने के कारण ही छुप-छुप कर कविताएँ लिखता हुआ भी कभी कवि कहलाने के बारे में सोचा नहीं , न ही कभी उपनाम ही लगाया .अब यह उदासीनता मेरे स्वभाव का एक हिस्सा और लगभग स्थायी भाव जैसी हो गयी है .जबतक माँ रहीं तब तक माँ के हिस्से को भी उनके भावनानुसार जीता रहा .उनसे असहमति के बावजूद उन्हें पूर्ण सम्मान दिया .कुछ इस तरह सोचता रहा कि अंधविश्वासपूर्ण होते हुए भी सिर्फ वैचारिक असहमति के लिए हमें असहिष्णुता प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए .ऐसी हिंसा नहीं करनी चाहिए कि वे सुबह-शाम बिलकुल मेरी तरह क्यों नहीं सोचने लगा रहे हैं .सांस्कृतिक परिवर्तन वैसे भी तात्कालिक और वैयक्तिक मामला नहीं है .उसके स्थायित्व और सामूहिकता का सम्मान करते हुए ही नयी पीढ़ी की आवश्यकताओं के अनुरूप बदलाव के लिए सुझाव देना उचित होगा .
विवाह होने के बाद भी पारिवारिक स्तर पर मेरे लिए क्रांतिकारिता जीना लगभग असंभव ही था ,क्योंकि पत्नी विवाह से पूर्व ही एक वाहन दुर्घटना में अपने पिता और भाई को खो चुकी थीं .वे मनोवैज्ञानिक रूप से इतनी असुरक्षित थीं कि जीवन के प्रति मेरे मेरे आध्यात्मिक सम्मान भाव को देखकर ही भीतर ही भीतर वे जैसे डरती रहती थीं .कुछ ऐसे ही जैसे स्वाभिमान से जीना ही किसी का अपमान कर देना हो .

हिंदी-प्रकाशन

जब भी मैं अपनी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए सोचता हूँ मुझे वहां भी धन ,प्रचार और छवि-निर्माण की वर्ण व्यवस्था नजर आने लगती है .अपने विज्ञापन बल के आधार पर प्रकाशकों में ही कोई दलित सा उपेक्षित तो कोई सवर्ण सा दबंग नजर आने लगता है .बाजार के ये मनोवैज्ञानिक पूर्वाग्रह पाठकों को भी भ्रमित कर सकते हैं .वह पिछले दरवाजे की पहुँच से छपी किसी नामी प्रकाशक की किताब भी महत्वपूर्ण मानने लगता है .वह बिना पढ़े मानकर चलने लगता है कि वहां से छपा है तो जरुर अच्छा होगा .जब कि हिंदी की वास्तविकता यह है कि कई बड़े नामों के पीछे परस्पर के स्वार्थों से बंधे एक गुटबंदी या गिरोह सक्रिय रहता है .जैसे काई प्रजाति की वनस्पति पहाड़ के ऊपर तक पहुँच जाति है -वैसे ही लघु प्रजाति के साहित्यकारों की बड़ी जमात जन-सरोकारों से दूर आर्थिक राजनीतिक तंत्र के इर्द -गिर्द देखी जा सकती है .
तथाकथित बड़े प्रकाशकों के यहाँ से भी इतनी सामान्य सी पुस्तकें विशिष्ट बनाकर छप चुकी हैं कि उनकी साख या श्रेष्ठता के आधार पर अब मेरी उनके यहाँ से छपने की दिलचस्पी भी ख़त्म हो चुकी है .सच कहें तो किसी कूड़े की ढेर में या गोदाम में जाने जैसा लगता है .वैचारिक संभावना की दृष्टि से तो पहले भी यह देश उसर जैसा ही था ; अब तो और पक्षाघात का शिकार हो चला है .उनके यहाँ से प्रकाशित ज्यादातर लेखक अपनी पूर्वाग्रही वैचारिकी के कारण मुर्खतापूर्ण हैं .उनकी संभावनाएं समाप्त हो चुकी हैं .
                    कुछ पीछे जाकर देखें तो एक ज़माना था जब नामवर सिंह जांचकर घोषित कर देते थे और उस व्यक्ति को बड़ा लेखक मान लिया जाता था .अब वे भी बूढ़े और शिथिल हो चुके हैं .उनका काउंटर भी बंद हो चूका है नए लेखकों की भीड़ भी इतनी अधिक हो चुकी है कि उनसे और अपेक्षाएं करना उनके साथ ज्यादती ही होगी .भीड़ बाजार की ओर मुड गयी है .सब अपना भाग्य लेकर जनता के पास भी नहीं जा रहे हैं .सरकारी गोदामों की ओर भेजे जा रहे हैं .इसे कोई कहना चाहे तो पुस्तकों का कारावास भी कह सकता है .फिलहाल मैं अपनी पुस्तकों के लिए किसी मगहर प्रकाशन की कल्पना कर रह हूँ .सिर्फ एक ही इच्छा है कि मेरे लिखे को अधिक से अधिक लोग जांचें और देर तक जांचें .फ़िलहाल जब तक कोई मगहर प्रकाशन नजर नहीं आता मेरी पुस्तकें आने से रहीं .मेरे दिमाग में कुछ इस तरह की ग्रंथि बैठ गयी है कि जल्दी छपना संदिग्ध और अविश्वसनीय होना है .
                       हिंदी साहित्य के इतिहास पर नजर डालेंगे तो इस वर्णवाद का ठोस ऐतिहासिक आधार भी नजर आएगा .लम्बे समय तक हिंदी साहित्य दो साहित्यिक व्यक्तियों नामवर सिंह और अज्ञेय के इर्द-गिर्द ध्रुवीकरण से निर्मित हुआ है .नामवर सिंह नें सत्ता के केंद्र को आलोचना के सम्पादक और सलाहकार के रूप में राजकमल प्रकाशन को विकसित किया था तो ; भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक लक्ष्मीचंद्र जैन से अपनी निकटता और मित्रता के आधार पर अज्ञेय नें तारसप्तक और सप्तकों की श्रंखला के आधार पर ज्ञानपीठ के प्रकाशन को अपने छवि -निर्माण से जोड़ा था..इन दोनों के प्रभामंडल को आधार बना कर हिंदी साहित्य का प्रतिमानीकरण प्रकाशकों को केंद्र में रखकर ब्राण्डवाद का पर्याय बन गया .स्थिति कुछ वैसी ही हो गयी जैसे काशी और काबा न जाने वाले धार्मिकों की होती है .अगर इन दोनों जगहों से न छपे तो मान्यता -प्राप्त साहित्यकार ही नहीं बन पाए .इन्हें हिंदी साहित्य के तथाकथित ' आई एस आई 'एवं 'आई एस ओ' मार्क के रूप में देखा जा सकता है .इस विश्व राजनीति में अमेरिका और सोवियत रूस के शीत युद्ध की तरह हिंदी प्रकाशन जगत में इसके दुष्प्रभाव को राजेंद्र यादव नें नजदीक से महसूस किया था . उनका अक्षर प्रकाशन जो आगे चलाकर धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान के बंद होने के पश्चात् हंस पत्रिका के प्रकाशन का आधार बना -उन्होंने इसी प्रतिरोध को ध्यान में रखकर शुरू किया था .फिलहाल .इस ध्रुवीकरण नें हिदी प्रकाशन जगत में ब्राण्डवाद या प्रतिमानीकरण का दो मंच दिया था .जैसे भारत में बहुत दिनों तक सडकों पर सिर्फ अम्बेसडर कार ही दौड़ती रही ,कुछ वैसी ही हैसियत इन साहित्यिक प्रकाशकों की रही .इन संस्थानों से जो भी छपे वे प्रायः महत्वपूर्ण साहित्यकार मान लिए गए .अब तो अपनी पुरानी शाख से ही वे नए साहित्यकारों को स्थापित करने के लेखक प्रक्षेपक केंद्र बन गए हैं .एक और महत्वपूर्ण बात यह लगती है कि जैसे दरियागंज में विदेशी सामानों का अद्यतन देशी संस्करण खूब बिकता है ,वैसे ही ही दिल्ली में विचारधारा और साहित्यिक प्रवृत्तियों का भी बहुत बड़ा चोर -मार्केट है .इस दृष्टि से दिल्ली के प्रोफ़ेसर ,पत्रकार और साहित्यकार सभी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं .
              .साहित्यिक प्रभाव की दृष्टि से देखें तो कभी नामवर और अज्ञेय तथा राजकमल और भारतीय ज्ञानपीठ में छवि निर्माता की भूमिका वाले इस विज्ञापक ध्रुवीकरण नें साहित्य की सृजनात्मक विविधता का विनाश ही कर दिया .इतने अधिक जुड़वा पैदा किए कि पाठक हिंदी साहित्य को पढ़ना छोड़ कर लोकप्रिय उपन्यासों और फिल्मो की और स्थानांतरित हो गया .आर्थिक आलोचना की दृष्टि से देखें तो साहित्य के बाजार को हर्षद मेहता की तरह बड़ी पूंजी से नियंत्रित करने का भी यह इतिहास रहा .कोई भी देखा सकता है कि राजेंद्र यादव के उकसावे से ही आगे का इतिहास अपनी नयी दिशाएं तलाश सका .इन दो गुटों का प्रवृत्यात्मक अवशेष अब भी प्रेतछाया के रूप में या मनोवैज्ञानिक पूर्वाग्रह के रूप में -उनकी दूसरी पीढ़ी के के माध्यम से देखा और महसूस किया जा सकता है .यहाँ ठहर कर अपनी शराबी उदारता और खुलेपन के लिए रवीन्द्र कालिया की प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने इस अर्थ में भारतीय ज्ञानपीठ को विस्तार दिया कि भारतीय ज्ञानपीठ की आकाशीय श्रेष्ठता का पूर्वनिर्मित बाँध तोड़कर पर्याप्त समतलीकरण और विस्तार किया .इससे नयी पीढ़ी को पर्याप्त महत्ता मिली .यद्यपि यह महत्ता रूचि और सम्बन्ध -दोष से दूषित हो सकती है -लेकिन राजनीति से कांग्रेस के बाहर होने की तरह हम इस बात पर खुश हो सकते हैं कि अब साहित्य में प्रतिमान का कोई भी पहाड़ नहीं बचा .अब सिर्फ बाजार है सांठ -गाँठ है .यद्यपि इधर हिंदी में आधार ,नयी किताब ,अंतिका ,अनामिका,सामायिक ,ग्रन्थ शिल्पी,शिल्पायन ,मेधा और प्रतिश्रुति आदि प्रकाशनों नें वैकल्पिक सार्थक मंच उपलब्ध कराए हैं ; लेकिन अभी भी वे पूर्व-निर्मित पूर्वाग्रहों को कितना तोड़ पाए हैं -कहना मुश्किल है .