रविवार, 2 दिसंबर 2018

महाभारत चिन्तन

अभिनव पाण्डव : सत्ता और समय का मिथकीय विमर्श

          रामप्रकाश कुशवाहा                         

भारतीयों के चरित्र- निर्माण में पौराणिक आख्यानों की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन आख्यानों मे सामन्ती मानव- मूल्यों का बनना- बिगड़ना तथा उनकी निरस्ति और प्रशस्ति को देखा जा सकता है । सभ्यता के विकास के साथ मानव- मूल्यों  का विकास  सम्पत्ति के स्वामित्व, जीवनोपयोगी वस्तुओं के उत्पादन और वितरण की व्यवस्था के सापेक्ष हुआ है । इसके अतिरिक्त कबीलाई  रीतिरिवाजों की  आदिम स्मृतियों का अवशेष भी जातीय संस्कृति के निर्माण की महत्वपूर्ण भूमिका मे हैं  । विशेषकर पितृसत्तात्मक कबीलों और मातृसत्तात्मक कबीलों के परस्पर प्रभाव ने एक साझे समाज के निर्माण और विकास के पूर्व  काफी देर तक एक- दूसरें को परिवर्तित करने के लिए काफ़ी संघर्ष  किया है  ।

रामकथा मे सीता और राम का दाम्पत्य तथा महाभारत की अधिकांश नायिकाएँ  तथा दुर्योधन- दुःशासन और द्रौपदी का संघर्ष  मातृसत्तात्मक परिवार से आई स्वाभिमानी स्त्रियों के कारण है । गंगा, सत्यवती, कुन्ती और ब्रज की गोपियां भी मातृसत्तात्मक कबीलों की स्त्रियाँ होने का कथात्मक संकेत छोड़ती हैं  । यही कारण है कि महाभारत का कथानक चरित- वैचित्र्त्य  से भरा हुआ है  । सत्य और असत्य का निर्णय न तो कथा के पात्र कर पाते हैं न ही उसके पाठक ।भाष्यकार भी बहुधा दुविधा में पड जाते हैं।  ऐसे मे महाभारत के मिथकीय आख्यान का पुनः पाठ जोखिमपूर्ण और विवादास्पद होते हुए भी आधुनिक बोध के लिए अत्यन्त जरूरी है।
       समकालीन  साहित्य मे अनेक प्रबन्ध काव्यों के बहुआयामी सर्जक उद्भ्रांत द्वारा महाभारत का रचनात्मक पुनर्पाठ  एक जोखिमपूर्ण प्रयास ही कहा जाएगा।

           महाभारत आरम्भिक युग का महाकाव्य है ।उस युग का,जिस युग के काव्य को मार्क्स ने मानवजाति की शैशवावस्था का काव्य कहा है । मानव सभ्यता के शैशवावस्था का काव्य होने के कारण यह महाकाव्य अपने भटकावो और मूल्य- विचलनो के बावजूद रोचक और श्लाघ्य है ।

          महाभारत की कहानियाँ कबीलों और वंशानुगत राजतंत्र के मध्य चलते घात- प्रतिघात का चित्र प्रस्तुत करती हैं। तरह-तरह के भौगोलिक और  कबीलाई विभाजनो के बीच राज्य- संस्था का प्रारम्भिक  स्वरूप विकसित हो रहा था । क्योकि कबीलों के स्थायित्व का आधार भी जन्म की आनुवांशिक निरन्तरता ही होता है और राज्य संस्था भी एक संगठनात्मक संरचना वाली संस्था है ,इसलिए प्रारम्भिक राजतंत्र के संस्थापक लड़ाकू कबीले ही थे ।

        एक पाठ के रूप मे देखा जाय तो  महाकवि व्यास के युधिष्ठिर अपनी दुर्दशा से द्यूतक्रीडा की प्रथा के विरुद्ध एक सर्वकालिक चेतावनी जारी करते दिखाई देते हैं।  इस दृष्टि से व्यास का विफल युधिष्ठिर भी कम समाजोपयोगी नहीं है। व्यंजना मे यह कहा जा सकता है कि व्यास के युधिष्ठिर से अलग उद्भ्रांत के अभिनव युधिष्ठिर वह सोचते और कहते हैं जिसे संवेदना और क्षोभ के धरातल पर महाभारत के पाठक भी प्राचीन काल से सोचते रहे हैं  ।

         महाभारत में    व्यास का धर्म- अधर्म  सही और गलत व्यवहार की पडताल के रूप मे है । उनके पास एक आसान सा सूत्र है धर्म की पहचान का कि जो व्यवहार तुम्हे अपने लिए पसन्द न हो उसे दूसरों के साथ मत करो ।दुर्योधन जिसका कि वास्तविक नाम सुयोधन था इसीलिए दुर्योधन के नाम से प्रसिद्ध हुआ क्योंकि वह जीवन भर बुरा युद्ध  लड़ता रहा ।

             वस्तुतः  कृष्ण कथा में चाहे गोपियां हों या कुन्ती- कुछ ऐसे कबीलों या जातियों के भारतीय प्रवास को सूचित करती हैं जो मातृसत्तात्मक रहे होंगे।  वैसे भी पिता पाण्डु के न रहने से पाण्डव कुन्ती के अभिभावकत्व मे पलते है और माता के निर्णय से प्रभावित होते है ।

          उद्भ्रांत के "अभिनव पाण्डव" का पाठ समकालीन सत्ता और उसके संदिग्ध चरित्र का विमर्श है। एक ऐसे समय मे जहाँ सभी राजनीतिक पक्षों का ही सांस्कृतिक और नैतिक पतन हुआ हो उद्भ्रांत व्यास की पाण्डव - पक्षधर दृष्टि से अलग युग के सभी चरित्रों का निरपेक्ष मूल्यांकन करने का प्रयास करते है । जहाँ व्यास अपने युधिष्ठिर की सज्जनता, विनम्रता और दूसरों को सम्मान देने वाले व्यक्तित्व पर मुग्ध है,वहीँ उद्भ्रांत युधिष्ठिर के गलत  निर्णय, नेतृत्व और मूर्खताओं पर क्षुब्ध  ।

              व्यास जी ने अपने महाभारत मे युधिष्ठिर के चरित्र को अत्यन्त सावधानी से गढा है ।युधिष्ठिर का चरित्र  प्रकृति के सन्तुलन यानि पर्यावरण के विनाश पर भी ध्यान रखने वाला है । व्यास के युधिष्ठिर एक स्थान पर रुक कर अधिक समय तक शिकार भी नहीं करते है कि कहीं शिकार जीवों का वंश ही न समाप्त हो जाए । व्यास के धर्मराज युधिष्ठिर इसलिए धर्मराज है कि राम के चरित्र की तरह वे अपनी ओर से कोई भी युद्ध आरम्भ नहीं करते । यद्यपि उनका नाम युधिष्ठिर यानि युद्ध मे स्थिर रहने वाला है लेकिन  वास्तविकता यही है कि युधिष्ठिर का व्यक्तित्व  सहिष्णु और अनारम्भी है । ऐसे युधिष्ठिर के माध्यम से जुए के विरुद्ध व्यास का महाभारत जो पाठ विकसित करता है- वह संवेदनात्मक रूप से अत्यन्त सफल पाठ है । उद्भ्रांत का " अभिनव पाण्डव " भी उसी का संवेदनात्मक विस्तार है ।
         प्राचीन भारत मे द्यूतक्रीडा यानि जुए का  एक धार्मिक प्रयोजन भी रहा होगा  । इसे विपत्तियों मे गंवाने और लुटाने की मानसिक तैयारी या साहस के अभ्यास के रूप मे भी देखा जा सकता है।  व्यास के महाभारत से अलग कविवर उद्भ्रांत के अभिनव पाण्डव का पाठ समकालीन सत्ता के संघर्ष और  संस्कृति के अनुरूप महाभारत के आख्यान की पुनर्परीक्षा करता है  । क्योंकि लोकतंत्र मे सभी लोग बराबरी के साथ शासन करने की पात्रता रखते है ,उद्भ्रांत युधिष्ठिर के ही पाण्डवों मे राजा बनने की विशेष योग्यता को अस्वीकार करते हैं  । निश्चय ही आज के लोकतांत्रिक समय मे सिर्फ़ अग्रज या ज्येष्ठ होना शासक बनने की योग्यता का सही आधार नहीं है । स्वयं महाभारत का आख्यान और लोक ऐसा मानता है कि अर्जुन और भीम मे युधिष्ठिर से बेहतर नेतृत्व क्षमता थी । ये रहते तो द्रौपदी को दांव पर लगाने जैसी त्रासदी भी घटित नहीं होती  ।

            कौरवों और पाण्डवों का झगड़ा बहुत कुछ पारिवारिक और निजी प्रकृति का भी है । नैतिक रूप से गलत होते हुए भी दुर्योधन के पास रक्त सम्बन्ध आधारित यानि आनुवांशिक उत्तराधिकार का पक्ष है । पाण्डु के धर्मसूत्र माने जाने वाले देवपुत्र पाण्डव कुलीनता के परम्परागत दायरे मे नहीं आते बल्कि उनके पास धर्मपिता पाण्डु  द्वारा लोक से अन्वेषित और संकलित  की गयी वैसी जैविक श्रेष्ठता है ,जिसके कारण वे देव-पुत्र कहलाए । प्लेटो के आदर्श राज्य की संकल्पना की तरह  स्वयं संतान उत्पत्ति करने मे अक्षम राजा पाण्डु नियोग के लिए  पूरी दुनिया से खोजता है श्रेष्ठतम पिताओं को  । इस तरह पाण्डवों के पास गुणवत्ता और योग्यता की श्रेष्ठता का जैविक और आधुनिक विज्ञान- सम्मति आधार भी ।श्रेष्ठता का ऐसा ही जैविक आधार  वाल्मीकि के राम मे भी है । वे भी नियोगज है और अपने समय के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवी की सन्तान । इस आधार पर तो आनुवांशिक कुलीनता की सापेक्षता मे पाण्डवों की जैविक गुणवत्ता आधुनिक विज्ञान सम्मत और क्रान्तिकारी प्रतीत होती है ।

           नैतिक रूप से गलत होते हुए भी दुर्योधन के पास रक्त सम्बन्ध आधारित यानि आनुवांशिक उत्तराधिकार का पक्ष है । पाण्डु के धर्मसूत्र माने जाने वाले देवपुत्र पाण्डव कुलीनता के परम्परागत दायरे मे नहीं आते बल्कि उनके पास धर्मपिता पाण्डु  द्वारा लोक से अन्वेषित और संकलित  की गयी वैसी जैविक श्रेष्ठता है ,जिसके कारण वे देव-पुत्र कहलाए । प्लेटो के आदर्श राज्य की संकल्पना की तरह  स्वयं संतान उत्पत्ति करने मे अक्षम राजा पाण्डु नियोग के लिए  पूरी दुनिया से खोजता है श्रेष्ठतम पिताओं को  । इस तरह पाण्डवों के पास गुणवत्ता और योग्यता की श्रेष्ठता का जैविक और आधुनिक विज्ञान- सम्मति आधार भी । श्रेष्ठता का ऐसा ही जैविक आधार  वाल्मीकि के राम मे भी है । वे भी नियोगज है और अपने समय के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवी की सन्तान । इस आधार पर तो आनुवांशिक कुलीनता की सापेक्षता मे पाण्डवों की जैविक गुणवत्ता आधुनिक विज्ञान सम्मत और अधिक  क्रान्तिकारी प्रतीत होती है ।

             लेकिन कर्ण से लेकर पाण्डवों के जन्म तक कुन्ती के साथ जो कुछ भी घटा वह यौनशुचिता वाली भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा के अनुकूल नहीं है।  हस्तिनापुर आने के पूर्व कुन्ती की मातृसत्तात्मक स्वच्छंदता का अतीत  आज भी पुरुष सत्तात्मक  समाज के पाठकों के लिए चुनौती प्रस्तुत करता है ।

         स्पष्ट है कि उद्भ्रांत नायकत्व की दृष्टि से  युधिष्ठिर  की जिस अयोग्यता को देख रहे हैं, वह भारतीय संयुक्त परिवार वाली व्यवस्था मे नेतृत्व का आनुवांशिक अधिकार ज्येष्ठ पुत्र को देने की सांस्कृतिक परम्परा के कारण भी है । यह नेतृत्व का लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक आधार नहीं है । पाण्डवों की अधिकांश दुर्दशा का कारण युधिष्ठिर का अयोग्य नेतृत्व ही है । पाण्डव एक अनुशासित परिवार का उदाहरण प्रस्तुत करते है । वे इस तरह व्यवहार करते हैं जैसे बड़े भैया हर जगह सही हों । लेकिन लोक इस मर्यादा से बंधा नहीं है और आधुनिक कवि उद्भ्रांत भी नहीं।  उन्हे आधुनिक जीवनबोध की कसौटी पर  युधिष्ठिर का नेतृत्व खटकता है ।

            उद्भ्रांत का 'अभिनव पाण्डव " प्रबन्ध- काव्य अपनी प्रकृति में संवेदनात्मक और अस्वीकारमूलक है । उनकी अस्वीकृति का आधार आधुनिकता की चेतना है जो अभिव्यक्ति की विचारोत्तेजक श्रृंखला के बावजूद आख्यान के मूल ढांचे को यथासम्भव बनाए रखने की उदारता भी दिखाती है।

          यद्यपि तर्क तो व्यास के द्यूतक्रीडा प्रेमी युधिष्ठिर के पक्ष मे भी दिया जा सकता है कि इस स्वीकार करने मे जोखिम था वही क्षत्रिय मूल्यों को जीने का प्रयास करने वाले  एक जातीय राजा के लिए स्वीकार न करने मे कायरता  और स्वीकार करने में  बहादुरी के दर्शन  हो सकते हैं।

         मुझे तो द्यूतक्रीडा के लिए पाण्डवों की विरोधहीन सहमति मे भी कृष्ण की कोई पूर्व निर्धारित योजना, साजिश या चाल लगती है।  जैसे  पाण्डवों को अपनी घटियाही और दुर्भावना प्रदर्शित करने का खुला अवसर प्रदान किया जा रहा हो ।

       पाण्डव कृष्ण की बुआ के पुत्र और उनके स्वजन होते हुए भी जिस तरह कौरवों से अपमानित हो रहे थे ,वह कृष्ण की श्रेष्ठता और सम्मान को हस्तिनापुर द्वारा दी जाने वाली खुली चुनौती थी । मेरे लिए यह मानना मुश्किल है कि इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले पाण्डवों ने कृष्ण से परामर्श न किया होगा।  द्रौपदी के चीरहरण प्रसंग मे उसके द्वारा थका  देने वाली लम्बी रेशमी साड़ी  जो सम्भवतः चीन से आयातित रही होगी-  उसे पहनने की सावधानी को कृष्ण द्वारा  निर्देशित माना ही जाता है ।

               पूरे द्यूतक्रीडा प्रसंग मे पाण्डवों का अधिकतम  मानवीय सीमा तक शान्त बने रहना और उसे द्रौपदी तक पहुँचा देना असामान्य होते हुए भी राम के पुरुष सत्तात्मक नायककत्व की तरह स्त्री की मर्यादा को हीन करने वाला ही कहा जाएगा।  यद्यपि पूरे महाभारत में गंगा,सत्यवती, गांधारी, कुन्ती और द्रौपदी जैसे पाॅच सशक्त चरित्र अपने युग के पुरुष चरित्रों पर भारी हैं  ।
         भारतीय कुटुम्ब व्यवस्था मे ज्येष्ठ पुत्र को परिवार का नेतृत्व सौपने की अत्यन्त प्राचीन काल से सर्वमान्य प्रथा रही है ,गुणश्रेष्ठ के स्थान पर  वयश्रेष्ठ की यह सामाजिक परम्परा अनेक विडम्बनाओं की सृष्टि करती है ।इस दृष्टि से महाभारत का युधिष्ठिर उचित ही नेतृत्व के अयोग्य होते हुए भी ज्येष्ठता के अधिकार को प्राप्त है ।भीम का आक्रोश और दैहिक बल ,अर्जुन का  अचूक शरसंधान का कौशल युधिष्ठिर   के  अयोग्य नेतृत्व के कारण व्यर्थ हो जाते हैं  । युधिष्ठिर की अयोग्यता को लेकर उद्भ्रांत की खीझ का यह भी एक महत्वपूर्ण कारण है  । उद्भ्रांत का कवि अपने इस क्षोभ को छिपाना नहीं चाहता । वह आत्म भर्त्सना के रूप मे युधिष्ठिर के मुख से ही स्वयं को क्लीव-नपुंसक आदि कहलवाता है ।इस युक्ति से वे न सिर्फ औचित्यदोष से बचे हैं बल्कि अपनी बात पाठकों तक भी सम्प्रेषित कर सके हैं।  कवि युधिष्ठिर को व्यावहारिक ज्ञान से शून्य एक बुद्धिजीवी या विचारक के रूप मे देखता है ।
       उद्भ्रांत का ध्यान भारतीय समाज के लिए इस सामाजिक-सांस्कृतिक  यथार्थ की ओर गया है कि  पाण्डवों द्वारा आचरित बहुपति अथवा  एक संयुक्त  पत्नी का आदर्श  भारतीय समाज के लिए स्वीकार्य आदर्श कभी नहीं हो सकता।  उसका चरित्र  व्यक्तिवादी और असामाजिक जीवनमूल्यो का प्रचारक है । इसीलिए एक पूर्ण नायक बनने के लिए अयोग्य यानि अपात्र भी ।
     जब उद्भ्रांत् के युधिष्ठिर यह कहते हैं कि ' मे  निर्वीर्य था / उस निर्णायक क्षण मे भी शक्ति नहीं जुटा सका / लेशमात्र/ समुचित प्रतिरोध की  ।' तो यह वर्तमान मध्यवर्ग के लिए युधिष्ठिर के नायककत्व के अप्रासंगिक हो जाने की सूचना ही देते हैं  ।
            ध्यान से देखा जाये तो उद्भ्रांत का  "अभिनव पाण्डव " मध्यवर्गीय जरूरतों और लोकतांत्रिक युग के अनुरूप महाभारत के आख्यान मे उपस्थित नायक युधिष्ठिर की पुनर्कल्पना है । इसका रचनात्मक महत्व आधुनिकता के पक्ष मे पाठकों की विचारशीलता को उद्दीप्त करने की दृष्टि से है । यह कृति अप्रासंगिक हो चुकी आस्थाओ को खारिज करते हुए उनका युगानुकूल पुन:पाठ प्रस्तुत करती है।