शनिवार, 27 दिसंबर 2014

ईश्वर की भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा

ईश्वर की भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा में जो अंतर है ,वह दोनों सभ्यताओं की मानसिकता और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के अनुरूप ही है .पश्चिमी सभ्यता के ईश्वर की अवधारणा जहाँ प्रकृतिपरक होने के कारण एक भौतिकवादी सभ्यता का आधार बनती है ,वहीँ भारतीय  ईश्वर की अवधारणा भावपरक होने के कारण एक आध्यात्मिक सभ्यता का ।
   "एकाकी न रमते ,सो कामयत एकोअहम बहुस्यामि" का प्रसिद्ध औपनिषदिक कथन आत्मा और परमात्मा की इसी एकता का उद्घोष करता है . यह तात्विक समानता के साथ-साथ आवयविक एकता की भी अवधारणा है .यहाँ ईश्वर स्वयं ही सभी जीवों में रूपांतरित हुआ है .वैसे ही जैसे पिता अपने पुत्र में जैविक रूप से रूपांतरित होता है .इसीलिए आध्यात्म से आशय संपूर्ण प्रकृति में व्याप्त आत्मा की एकता को अनुभूत करना है .आत्मा व्यष्टि की आत्मा है तो परमात्मा समष्टि की वृहत्तर आत्मा .इसीलिए भारतीय आध्यात्मिकता अपने से परे की संपूर्ण सृष्टि  के प्रति उदात्त आत्मीयता के रूप में है। इस अर्थ में कि जो आत्म से अधिक है वही आध्यात्म है और जो आत्मिक से अधिक है वही आध्यात्मिक । यहाँ "अधि" अपने आशय में अधिक , विस्तृत,अतिरिक्त ,ऊपर एवं परे आदि बहुत से शब्दों के अर्थों को अपने में समेटे हुए हैं. 
                ऐसा इस लिए कि भारतीय  ईश्वर परमात्मा यानि परम आत्मा तो है ही  वह परम पिता भी है। यद्यपि यह एक तथ्य है कि ईसा मसीह स्वयं को ईश्वर का पुत्र घोषित करते हैं इस तरह प्रकारांतर से  ईश्वर का साक्षात्कार परम पिता के रुप  में ही करते हैं -लेकिन सिर्फ उनके स्वीकार से ही पश्चिमी सभ्यता का सांस्कृतिक अचेतन बदल नहीं जाता। इस न बदलने का कारण ईश्वर का इस सृष्टि या जगत से वह रिश्ता है,जो सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को एक बाहरी शक्ति बना देती है।
                पश्चिमी ईश्वर इस सृष्टि से बिलकुल् अलग एक विशुद्ध निर्माता शक्ति है। वह स्वयं इस सृष्टि का अभिन्न हिस्सा नहीं है।  उसने किसी कुम्हार के घड़े की तरह इस दुनिया को बाहर से बनाया है ,उसने छः दिन में इस दुनिया कि बनाकर सातवें दिन विश्राम भी किया है.वह इस दुनिया का कृतिकार है और यह दुनिया उसकी कलाकृति की तरह है .इस तरह वह अलग है और उसकी बनायीं हुई यह दुनिया अलग। .इस तरह पश्चिमी अचेतन के व्यक्तित्व की मुख्य विशेषता उसकी सृजनशीलता है। इसीलिए उसने ईश्वर और उसकी बनायीं प्रकृति के रहस्यों के उदघाटन के लिए उसकी सृजनशीलता के रहस्यों को ही उद्घाटित करना सही समझा।  तरह पश्चिम का भौतिकवाद और उसकी वैज्ञानिक जिज्ञासा उसकी विशिष्ट  धार्मिकता का ही प्रतिफल है।
                  इसके विपरीत भारतीय ईश्वर किसी कुम्हार की तरह नहीं है। पश्चिमी अवधारणा के विपरीत  वह एक जैविक  पिता की तरह मनुष्य की आत्मा से अभिन्न शक्ति है। जैसे माता और  पिता अपने शरीर से ही  अपनी संतान को जन्म देते हैं ,जैसे कि विकसित होने के बाद पुत्र भी पिता की जगह ले सकता है- वैसे ही मनुष्य भी विकास के पश्चात ईश्वरता को प्राप्त हो सकता है। क्योकि पिता और पुत्र में तात्विक अंतर नहीं होता इसलिए मनुष्य की आत्मा और परमात्मा भी तात्विक दृष्टि से अभिन्न हैं ,भारतीय अवतारवाद का आधार यही अवधारणा है। उसका सांस्कृतिक अचेतन ईश्वर और प्रकृति के रहस्यों को जानने में नहीं बल्कि उसे किसी आत्मीय की तरह जीने में विश्वास करता है। उसकी भक्ति की प्रकृति भी भावुक है। जबकि पश्चिम में मनुष्य ईश्वर का सृजन या उत्पाद है। इसलिए पश्चिमी मनीषा मनुष्य के स्वयं ईश्वर होने की बात सोच भी नहीं सकती। इसके विपरीत भारतीय मनीषा ईश्वर होने का दंभ तो जीती रही है ,लेकिन उसने सृष्टि एवं सृजनशीलता की यात्रा को समझाने का बिलकुल ही प्रयास नहीं किया .वह सिर्फ दिव्य सृजनशीलता पर मुग्ध ही होती रही है . उसकी जाति और वर्ण वादी जातीय संरचना नें उसके विवेक को भी बाँट दिया था . हाथ और  मस्तिष्क की जातीय दूरी नें वैज्ञानिक विकास की दृष्टि से एक संभावना शुन्य समाज और सभ्यता को जन्म दिया .उसके सिद्धांतकार अलग जातियों में पैदा होते रहे और प्रयोग्कार अलग जातियों में -इससे वह बेहतर यंत्रों के विकास से भी वंचित रही . [

रविवार, 14 दिसंबर 2014

कविताएँ

जीवन के पक्ष में ....



ड्राइवर रोक दो अपनी गाड़ी 
निकल आओ अपने गति के नशे से 
रुक जाने दो यह समय
जो हिंसक गति से 
किसी के जीवन को रौंदता हुआ 
अपनी मंजिल तक पहुँच जाने का 
महत्वाकांक्षी स्वप्न देख रहा है .....

देखते नहीं -जीवन गुजर रहा है सामने से 
घूमती धरती के साथ-साथ 
समय से होड़ लेने के लिए 
 प्रजाति के रूप में दौड़ लगाता  हुआ जीवन-समय

ड्राइवर ब्रेक पर अपने पंजे कसो और 
अब रोक दो अपनी गाड़ी 
देखते नहीं सद्यः प्रसूता  कुतिया माँ के 
दूध भरे गदराए -शरमाए ललछौहें स्तन 
उसे उसके बच्चों के पास सकुशल पहुँचने दो 
हो  जाने दो ट्रैफिक जाम 
जीवन की चिरंतन यात्रा के पक्ष में .....



स्वयं के पक्ष में .





वाह भाई साहब !

यह भी खूब रही कि 
मैं स्वयं को पुरी तरह निरस्त कर दूं 
आपके पक्ष में ?

आप समय की बिना किसी परीक्षा के 
स्वयं को पुरी तरह 
उत्तीर्ण देखना चाहते हैं 
आप चाहते हैं कि आपको छोड़कर 
शेष सारे लोग नेपथ्य में 
यानि कैमरे के पीछे चले जाएं 
कि बाकी सारे लोग डिलीट हो जाएँ आपको छोड़कर 

क्या आपको पता है कि यह समय
आपकी एकल आवाज से उब सकता है 
कि जिस समय स्वयं रच रहे हैं 
उसी समय दूसरों को रचने से मना करते हुए 
वाचित हो रहे हैं दूसरों के सृजन से 
कि एक दिन आप थक जाएंगे रचते रचते....

चलो माना  कि आप अतीत की दुनिया के विश्व-विजेता हैं 
लेकिन भविष्य का कोई नया सृजन 
आपके सारे प्रायोजित एकाधिकार के 
तिलस्म को तोड़ सकता है 

आप किस-किस को 
अपने पक्ष में 
निरस्त हो जाने के लिए प्रार्थना करेंगे भाई साहब !