रविवार, 13 जनवरी 2013

मार्क्स वाद : एक पुनर्चिन्तन



मनुष्य की हर व्यवस्था अन्तत: एक विचार है -अवधारणाओं ,विष्वासों और बौद्धिक निष्कर्षों का एक विषिश्ट संयोजन है । उत्तर-आधुनिक चिन्तक इसे ही पाठ के रूप में देखते हैं । हर विचार भी कार्य-कारण श्रृंखला से सम्बनिधत समझदारी ,क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं और अनुभवों पर आधारित निष्कर्ष हुआ करते हैं । इसीलिए मनुश्य के परिवेश  और परिप्रेक्ष्य के बदलते ही उसके विचार बदलने लगते हैं ।मनुष्य और उसकी सभ्यता के स्वास्थ्य की दृष्टि से स्वाभविक यही है कि ऐसा हो । एक स्वस्थ प्रगतिशील समाज और उसके सदस्य नए आते हुए तथ्यों और सूचनाओं के आधार पर अपने विश्वासों और विचारों को अधतन करते रहते हैं । रूढि़वादी समाज और उसके सदस्य मानसिकता को स्थिर और अपरिवर्तनशील बनाए रखने के प्रयास में अतीत के तथ्यों और विचारों पर आधारित अवधारणाओं का पुनर्सृजन करने लगते है।  परिवेष और परिप्रेक्ष्य से जुडे़ तथ्यों के बदलाव के साथ अतीत की मासिकता को पुनरूत्पादित करने वाला समाज सामंजस्य के अनिवार्य तनाव से गुजरता है और सामूहिक रूप से मनोरोगी हो जाता है । वर्तमान के विरुद्ध अतीतजीविता के लिए उसका संघर्श अन्तत: सामूहिक मनोविक्षिपित में बदल जाता है । वह नकारात्मक और प्रतिहिंसक हो उठता है । जिस समुदाय के लोगों पर अतीत के पुनरूत्पादन का दबाव और वर्तमान के परिप्रेक्ष्य के अस्वीकार का दबाव अधिक होगा वह समुदाय उतनी ही मनोविक्षिपित का षिकार होगा । इस अवसाद की प्रतिक्रिया ही कुछ समुदायों में आतंकवादी पैदा कर रही है । इसका समाधान सिर्फ एक ही है कि दुनिया के सभी मनुश्य सभ्यताकरण की प्रक्रिया को समझें और अपनी चेतना और मसितश्क को साभ्यतिक अभियानित्रकी का एक उत्पाद एवं उपकरण बनने की सिथति से मुक्त करें ।

           क्योंकि सभ्यताकरण की प्रक्रिया में हर असावधान मनुश्य एक साभ्यतिक-सांस्कृतिक उत्पाद बन जाता है ,इसलिए मानव-जाति की तब तक मुकित सम्भव नहीं है ,जब तक उसका मसितश्क सामूहिक रूप से सभ्यताकरण के अभियानित्रक प्रभाव से मुक्त नहीं हो जाता । सभ्यताकरण के इस अभियानित्रक प्रभाव से मुक्त होना ही हमारी चेतना का इतिहास से मुक्त होना है - मानवीय विवेक को एक नर्इ सृजनषीलता के लिए मुक्त करना है । हमारी सभ्यता के पुनर्सृजन का रास्ता भी हमारी इसी मुकित में खुलता है । इसीलिए मानव-सभ्यता के पुनमर्ूल्यांकन और उसकी व्यवस्था के पुनर्निमाण के चिन्तन की प्राथमिक षर्त ही उसके व्यकितगत और सामूहिक विवेक की मुकित है। सभ्यताकरण की इस प्रक्रिया और उसकी अभियानित्रकी की जड़ता को भौतिक परिसिथतियों और जीवन पर परिप्रेक्ष्य के पडने वाले निर्णायक प्रभाव को कार्ल माक्र्स भी स्वीकार करते है लेकिन अपने युग के अविकसित मनोविज्ञान के कारण उनके द्वारा की गयी इतिहास की द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी व्याख्या उनकी विचारधारा को दार्षनिक नियतिवाद की ओर मोड़ देती है।

           मनोवैज्ञानिक दृशिट से माक्र्सवादी विचारधारा पूंजीवादी मानव-सम्बन्धों और व्यवस्था के प्रति उपजे असन्तोश एवं उसकी अपर्याप्तताओं का दार्षनिकीकरण है । उसका अन्त साम्यवादी क्रानित की दार्षनिक यूटोपिया में होता है । पूूजीवादी व्यवस्था की खामियों के कारण तथा उसकी प्रतिक्रियात्मक सापेक्षता में ही माक्र्सवादी विचारधारा का नैतिक औचित्य और प्रासंगिकता सुरक्षित है । माक्र्सवाद के द्वन्द्वात्मक नियतिवाद को जिसे इस विचारधारा के अन्तर्गत प्राय: द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद कहा जाता है उसके क्रानितधर्मी नियतिवाद और आषावाद को सृजनात्मक विकासवाद या संभाव्यवाद के वैज्ञानिक दृशिटकोण से विस्थापित किए जाने की जरूरत है ।

             यह सच है कि किसी भी युग के मनुश्य का जीवन-स्तर ,उसकी इच्छाएं और प्राथमिकताएं उस युग के सृजित संसाधनों तथा उस समय तक विकसित एवं निर्मित परिवेष के सापेक्ष ही घटित होगा । नयी सृजनषीलता के द्वार (और संभावनाएं ) भी उस समय तक विकसित ज्ञान,प्राप्त सूचनाओं और ज्ञात तथ्यों के सापेक्ष एवं पृश्ठभूमि में ही खुलेंगे। यह मैं वही कह रहा हूं जो माक्र्स कह चुके हैं । इसके बावजूद राजनीतिक यानि वर्तमान सामूहिक जीवन-व्यवहार की व्यवस्था निर्मित करने के लिए उसके सृजनात्मक विवेक को मुक्त रखने की मनोवैज्ञानिक प्रविधि पाने का महत्त्व कम नहीं हो जाता । अवधारणाएं एक बार निर्मित और सर्वस्वीकृत हो जाने के बाद अनुजीवी समाज का पुनरूत्पादन करने लगती हैं । यह अनुजीविता समाज को तनावरहित ढंग से जीने की सुविधा तो प्रदान करती है ,लेकिन सूचनाओं और प्रषिक्षण की आवर्ती एकरसता के कारण वह नर्इ सृजनषीलता और संसाधनों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव भी डालती है । यथासिथतिपरक यथार्थ का एक प्रमुख कारण अवधारणात्मक परिवर्तनहीनता एवं उसका पीढ़ी दर पीढ़ी प्रषिक्षणात्मक पुनसर्ृजन भी है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक रूढि़वादी समाज अपने कुछ सांस्कृतिक-सामाजिक पूर्वाग्रहों के कारण अपने पिछड़ेपन का भी एक सीमा तक पुनरूत्पादन ही करता है । उदाहरण के लिए धार्मिक-जातीय कारणों से टीकाकरण का विरोध करने वाले रूढि़वादी चरित्र सम्बनिधत चरित्र और उसके वायरस को न सिर्फ संरक्षण प्रदान करते है बलिक एक समस्या को सामाजिक यथार्थ के रूप में पुनरूज्जीवित भी करते रहते हैं । इसलिए जड़ता के प्रषिक्षणात्मक पुनरूत्पादन की प्रक्रिया पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ।

     मानव-जाति की नकारात्मक अवरूद्धता के कारणों की पड़ताल करते समय उसकी अवधारणात्मक और वैचारिक जड़ता को नकारा नहीं जा सकता । यह ध्यान रखना चाहिए कि अवधारणात्मक सृजन भी यदि वास्तविकताओं के सापेक्ष संगतिपूर्ण और औचित्यपरक  है तो वह अपनी विष्वसनीयता के कारण वैचारिक यथार्थ से सामाजिक यथार्थ में रूपान्तरित होता रहता है । किसी वस्तु या पर्यावरण के समान उसे बदला जा सकता है । हर नर्इ पीढ़ी उसकी संरचना में परिवर्तनात्मक हस्तक्षेप कर सकती है । यह वैचारिक दुनिया की वास्तविक दुनिया में पुनप्र्राति की तरह है ।  इस दृशिट से दार्षनिक या विचारधारात्मक विचलन भी एक यात्रा है । यदि यह यात्रा अपनी व्यर्थता को प्रमाणित कर देती है तो उसे स्मृति के बोझ के रूप में ही लिया जाना चाहिए । इसके बावजूद भी वह एक पुन:संस्कारित हो सकने वाली वस्तु के संरक्षण-मूल्य के साथ प्रासंगिक बनी रहेगी ।  विचारों का हर बीहड़ मानव-मसितश्क की सक्षमता के लिए भटकाव का रोमांचक क्षेत्र देता है ;  लेकिन स्मृति में बने रहने के बावजूद व्यवहार में जीवित एवं प्रासंगिक बने रहने वाले विचार ही जीवित विचार के रूप में देखे जाते हैं । असावधान ,अप्रषिक्षित एवं अविकसित पाठक समुदाय किसी भी अवधारणा को देष-काल की चेतना से मुक्त होकर अपनी अनुकरणात्मक वृत्ति द्वारा पुनसर्ृजन या पुनरूत्पादन करने लगता है । विचारधारा के एक पाठ को जीने पर वह क्रमष: सांस्कृतिक ,सामाजिक और साभ्यतिक पाठ में बदल जाता है । इस पुनरूत्पादन की अनितम परिणति उसके पिछड़ने और किसी  दूसरे मानव-समूह के विकसित होते जाने की सापेक्षता में आगे चलकर वर्तमानित अतीत के रूप में होती है।

         ऐसा कोर्इ भी वर्तमानित अतीतीकृत समुदाय अपने स्थगित और सन्तुश्ठ होने के साथ-साथ किसी दूसरे समुदाय के लिए सदैव प्रतिक्रियात्मक चुनौतियां ही दे यह आवष्यक नहीं । किसी नए परिवर्तन के प्रति बुद्ध और कन्फयूसियस के अनुयायी अवरोधी प्रतिक्रियात्मकता की दृशिट से आवेगषून्य रहे हैं और उन्होंने बहुत ही सन्तुलित और स्वस्थ प्रतिक्रियाएं प्रदर्षित की हैं । बामियान बुद्ध के घ्वंस के अवसर पर विष्व नें देखा कि बुद्ध के षैक्षणिक मूल्य अधिक प्रभावी हुए तथा उसके घ्वंस पर भी बौद्धों की प्रतिक्रिया संयत एवं षालीन मौन के रूप में ही रही । निष्चय ही ऐसा अवधारणात्मक मनोग्रस्तताओं से बाहर निकल कर जीने की उनकी मनोविज्ञान सम्मत प्राचीन दार्षनिक प्रविधि के कारण ही हुआ होगा । इसीलिए मुझे लगता है कि दलार्इलामा के साथ तिब्बतियों ने भी चीन को षालीनतापूर्वक तिब्बत देकर चीनी सभ्यता को नैतिक दृशिट से कमजोर किया है । अपनी सारी आधुनिकता और वैज्ञानिक विकास के बावजूद गांधी की तरह दलार्इलामा ने भी चीनी सत्ता को अद्र्धसभ्य ,आदिम ,बर्बर और अनैतिक प्रमाणित किया है । लेकिन विडम्बना यह है कि हर आक्रामक सभ्यता अपनी अनैतिकता और अपराधबोध को लगातार बनाए रखने वाले विजेता उन्माद में भुलाए रहती है । यह उचित ही है कि चीनियों की नर्इ पीढ़ी ऐतिहासिक विरासत में मिली अनैतिक होने के हीनता ग्रनिथ को तिब्बत के तीव्र विकास के माध्यम से दूर करना चाहती है । इसे दलार्इलामा के संघर्श और निर्वासित उपसिथति के सार्थक परिणाम के रूप में भी देखा जा सकता है। इसप्रकार मनुश्य की कोर्इ भी अवधारणा मनुश्य निरपेक्ष नहीं हो सकती । यह सृजनषीलता यदि समकालीन मनुश्य की आवष्यकताओं से असम्बद्ध हो जाती है तो निरपेक्षता की बढ़ती हुर्इ प्रवृत्ति के साथ वायवीय अमूर्तन ,अप्रासंगिकता एवं कृत्रिमता का षिकार होने लगती है। ऐसी सिथति में वह बुद्धिजीवियों के व्यसन का परिणाम और बया का घोसला बन जाती है जिसको वह रहने के लिए बुनता है और बुनते हुए रहता है ।

           आधुनिकता को प्राय: अतीत से मुकित और वैज्ञानिक ज्ञानोदय से जोड़कर देखा जाता है । इस प्रकार आधुनिकता एक अतीत सापेक्ष अवधारणा है । उत्तर-आधुनिक युग यदि आधुनिक युग से आगे का चरण है तो उसे या तो आधुनिकता को अतिक्रमित करने वाली अवस्था और व्यवस्था के रूप में होना चाहिए या फिर अतीत के प्रति मुकितपरक प्रतिक्रियावादी व्यवहार से अलग सम्यक व्यवहार के रूप में । क्योंकि आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता मानव जाति के साभ्यतिक विकास से सम्बनिधत अवधारणाएं हैं इसलिए उत्तर-आधुनिकता काी अवधारणा केवल इतिहास सापेक्ष न होकर विकास के इतिहास के सापेक्ष है। इसलिए इसे इतिहास की प्रक्रिया के रूप में नहीं बलिक विकास की प्रक्रिया के रूप में ही सही-सही समझा जा सकता है । इस दृशिट से देखने पर आधुनिक भारत ही नहीं बतिक आधुनिक विष्व भी बहु-कालधर्मी समाज है क्योंकि विकास की अलग-अलग अवस्थाओं पर आधारित मानव समुदाय आज के विष्व में एक साथ उपसिथत हैं । डिस्कवरी चैनल में अस्æेलिया के पास के किसी समुद्री द्वीप में पूरी तरह निर्वस्त्र रहने वाली जनजाति के बारे में एक वृत्त-चित्र दिया था । उन्हें वस्त्र आधारित सभ्यता की कोर्इ आवष्यकता ही नहीं थी । समुद्र के समतापीय वातावरण और उस प्रजाति में यौन बालों के अभाव नें उस प्रजाति के लिए वस्त्र-सभ्यता के विकास को अनावष्यक कर दिया था ।

         मेरी दृशिट में आधुनिकता ने जिस उत्तर-आधुनिक समाज की रचना की है उसमें वैषिवक या भूमण्डलीकरण के औधोगिक यथार्थ नें  नागरिकता को संषिलश्ट बहुनैशिठक और बहुआयामी बना दिया है । सुनीतानारायण और पेप्सी तथा कोला के भारतीय मूल के मैनेजरों में दिखने वाला मूल्य और प्रतिबद्धता का अन्तर्विरोध उत्तर-आधुनिक विष्व कोे राजनीतिक राश्æ से औधोगिक राश्æ की ओर जाने की सूचना देता है । उत्तर-आधुनिक विष्व आधुनिकता के प्रमुख लक्षण स्वचेतनता से सह-चेतनता की ओर बढ़ेगा । बढ़ते प्रतिरोध और घटते अन्तर के साथ वह बीसवीं षताब्दी की आक्रामक चेतनता से मुक्त होगा । व्यवसिथत विष्व-नागरिक समाज की दिषा ही उत्तर-आधुनिक विकास की दिषा हो सकती है । लेकिन इस अवधारणा का वैकासिक प्रतिपक्ष उत्तर-आधुनिक राश्æवाद ,रूढि़वाद और जातिवाद में है । उत्तर-आधुनिक विष्व की मुख्य समस्या ,मुख्य संकट और प्रमुख चुनौती मानव मसितश्क के पुनर्प्रषिक्षण एवं पुनरूत्पादन के सामुदायिक प्रयासों से ही है । अलग-अलग संस्कृतियों से सम्बद्ध जनसंख्या का सामुदायिक अतीतीकरण मानव-सभ्यता के विकास और उसके संसाधनों पर प्रतिस्पद्र्धी आधिपत्य को प्रोत्साहित और उसके उपयोग तथा विकास को पुनर्विभाजित कर रहा है । इस प्रकार -आधुनिकता की मुख्य चुनौती संगठनात्मक अतीतीकरण तथा सामुदायिक प्रतिस्पद्र्धा से ही है ,जिसके कारण अतीत की असिमताएं लादेन ,इसराइल और फिलिस्तीन के रूप में विज्ञानीकृत हो रही हैं । भारत में जातीय राजनीति नें नवजातीयकरण को बढ़ावा दिया है तो पषिचम वैषिवक कबीले के रूप में रूपान्तरित हो रहा है ।

         मैं जब-जब उत्तर-आधुनिक यथार्थ को देषज मुहावरों के माध्यम से समझना चाहता हू दृश्टान्त के कर्इ बिम्ब मेरे मन में कौंधते हैं । जैसे नारी-मुकित को केष-सज्जा से जोड़कर कहें तो मेरी दृशिट में पुरुशों के सदृष बाब कट बाल कटवाना आधुनिक कहा जाएगा ,लेकिन कोर्इ स्त्री तभी उत्तर-आधुनिक कही जाएगी जब उसे लगे कि बहुत हो चुका-अब मैं भी बाल मुड़ाने का मजा लूंगी । वाराणसी में मैंने एक विदेषी महिला को बौद्धों की तरह मुण्डन कराए देखा था और वह मुझे उत्तर-आधुनिक लगी थी । गाजीपुर में मैंने दो नागाओं को षहर की मुख्य सड़़क से नग्नावस्था में गुजरते देखा था तो मैं यह निर्णय ही नहीं कर पाया कि इस दृष्य को मैं उत्तर-आदिम कहूं ;उत्तर-सभ्यता कहूं या उत्तर-आधुनिक ! इस दृष्य को अतीत के जैन धर्म से जोड़कर न देखा जाये तो प्रसंग-निरपेक्ष रूप में वह उत्तर-आधुनिक भी है और अनुत्तर-आधुनिक भी । काषी हिन्दू विष्वविधालय में पढ़ते समय जब एक बार अंग्रेजी सीखने की लालच में एक अंग्रेजी फिल्म देखने पहुंचा तो उसके एक दृष्य में एक स्त्री के कलात्मक अद्र्धनग्नता के दर्षन हुए थे। उन दिनों मैं इतना अधिक षर्माता था कि मुझे तत्कालीन परिवेष और मानसिकता के अनुसार उस फिल्म की नायिका के अद्र्धनग्न होने के साहस पर ही श्रद्धा हो गयी थी। तब तक मैंने भारतीय नागाओं के बारे में सुन रखा था । वह मुझे विदेषी नागा लगी और मुझे वह सिद्ध भी लगी ;क्योंकि उसनें सार्वजनिक रूप से नग्न होने की सिद्धि तो प्राप्त कर ही ली थी । तब तक मेरी सिथति यह थी कि यदि पीछे बहुत अधिक लोग लाइन लगा देते थे तो सार्वजनिक स्थल पर मैं ठीक से लघुषंका भी नहीं कर पाता था ।

          दरअसल किसी भी व्यवस्था के पुननिर्माण का चिन्तन एक समाज-सापेक्ष अवधारणा के रूप में ही विकसित होता है । ऐसा इसलिए कि अलग भौगोलिक,सांस्कृतिक ,ऐतिहासिक और सामाजिक पृश्ठभूमि  में हर मानव-समुदाय या देष में व्यवस्था के षोशणपरक संरचनाओं की प्रकृति और उनके अवषेश भिन्न प्रकार के होते हैं । इसलिए उनके समाधान की विचार-यात्रा भी भिन्न प्रकार से ही तय करनी होगी । यदि अलग संरचनाओं वाले मानव-समुदायों को अन्तत: एक ही मानक व्यवस्था-संरचना की ओर ले जाना हो तब भी  उनके पुनर्निर्माण की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न ही होगी । इसप्रकार किसी भी अवधारणा पर पुनर्विचार करते समय माक्र्स द्वारा दिखाए गए पथ का अनुसरण करते हुए उसके विकास के देष,काल और परिसिथतियों पर भी विचार करना चाहिए। माक्र्सवाद की युगीन सीमाओं पर भी विचार करते हुए ये सीमाएं और षतेर्ं समान रूप से लागू होती हैं ।

           मानव-विकास के एक विषेश चरण में विकसित माक्र्सवाद भी अन्तत: एक विषेश देष-काल में विकसित अवधारणात्मक विचारधरा ही है । अपनी युगीन वैचारिक सीमाओं के कारण ही ऐतिहासिक दृशिट से मानव-सभ्यता के निरन्तर जटिलतर होते जा रहे विकास के क्रम में माक्र्सवाद को भी मैं एक मूलतागामी दर्षन ही मानता हूं । मूलतागामी से मेरा तात्पर्य यह है कि वर्तमान सभ्यता की समस्याओं के समाधानव्यवस्था के परिश्कार तथा अतिक्रमण के लिए वह जो वैचाारिक विकल्प देती है उसकी प्रेरणा तथा नैतिक-मनोवैज्ञानिक पृश्ठभूमि मानव-जाति की आदिम स्वतंत्रताएं हैं । भारत में भी कुछ दषकों पूर्व तक निजी उपयोग में न आ रही उपजाऊ भूमि भी सार्वजनिक उपयोग जैसे क्रीड़ा या चरागाह आदि के लिए उपेक्षित सी पड़ी रहती थी । æैक्टर आदि आधुनिक कृशि-साधनों के विकास के पूर्व प्रत्यक्ष श्रम पर आधारित अठारहवीं-उन्नीसवीं षताब्दी का निकटवर्ती भारतीय आधुनिक समाज भी सम्पत्ति को उपभोग की आवष्यकताओं से जोड़कर ही देखता था । दूसरे षब्दों में उपयोग न की जा रही पर्याप्त जमीन के उपलब्ध रहने से भारतीय समाज की आर्थिक संरचना षोशण-व्यवस्था से बहुत कुछ दूर थी भारत के वन प्रदेष में रहने वाली अनेक षिकारी जातिया निजी भूमि आधारित विधि ओर व्यवस्था का सामना नहीं कर पायीं ।ं

           भारतीय मानव-समुदाय के लिए व्यवस्था के पुनर्निर्माण का मौलिक चिन्तन इस दृशिट से तो आवष्यक है ही-इस प्रष्न का उत्तर तलाषने के लिए भी आवष्यक है कि षोशण की समापित के लिए माक्र्सवादी परिकल्पनाओं पर आधारित आन्दोलन और उनके संगठन एक समानान्तर व्यवस्था की प्रापित की दिषा में कितने स्पश्ट और विचारपूर्ण हैं । इसमें सन्देह नहीं कि यानित्रकी के क्षेत्र में तकनीकी त्रुटियों की तरह,व्यवस्था के क्षेत्र में उसके तंत्रीय विचलन भी अवांछित नकारात्मक परिणाम घटित कर सकते हैं । इस परिप्रेक्ष्य से विचार करने पर माक्र्सवादी व्यवस्था-परिकल्पना के सुधारवादी संभावनाओं एवं आषंकाओं की उचित और स्पश्ट व्याख्या की जा सकती है । माक्र्सवादी सैद्धानितकी का मूल्यांकन करने पर वह अपने लक्ष्य की परिकल्पना की दृशिट से आकर्शक एवं पूर्ण किन्तु प्रक्रियात्मक वास्तविकता के धरातल पर अद्र्धसपश्ट दर्षन के रूप में सामने आता है । दूसरे षब्दों में हर भविश्यवक्ता की तरह वह मानव-विकास के अतीत का वैज्ञानिक व्याख्याता तो हैलेकिन वह मनुश्य की भावी सृजनषीलता का सही अनुमान नहीं लगा पाता ।

          यही कारण है कि माक्र्सवादी परिकल्पना किसान और मजदूर क्षेत्र में तो षोशण-निरसित के साम्यवादी विकल्प के प्रति पूरी तरह आष्वस्त और स्पश्ट है ,किन्तु जब बौद्धिक सृजनषीलता और षहरी व्यवस्था की आर्थिक संरचनाओं को भी व्यवस्था पुनर्निर्माण की साम्यवादी परिधि में लिया जाता है तो वह इसलिए अमूर्त और अस्पश्अ होने लगता है कि वह किसान और मजदूर की तरह उत्पादक श्रम पर आधारित नहीं ,बलिक वितरक श्रम और मूल्य पर आधारित होती है । निस्सन्देह षहरी समाज और उसका अर्थ-तंत्र ,व्यवस्था की दृशिट से मनुश्यकृत एक जटिलतम व्यवस्था-प्रारूप का विकास है । उसके अधिकांष सदस्य न तो किसानों की तरह अन्न-उत्पादक निकाय का हिस्सा होते हैं ,न ही मजदूरों की तरह वस्तु-उत्पादक निकाय का ही । इसीलिए षहरों का वितरण-आधारित अर्थ-तंत्र एक अलग वर्ग के रूप में षोशणमुक्त समाज के निर्माण की दृशिट से एक भिन्न समतावादीव्यवस्था-संरचना की मांग करता है ।

            यह एक तथ्य है कि अलग-अलग भौगोलिक परिवेष में अलग-अलग प्रकार की कृशि उपज ,विषेश खनिज के लिए विषेश खनिज पर निर्भरता तथा नमक के लिए समुद्री क्षेत्र पर निर्भरता नें विनिमय और आपूर्ति केन्द्र के रूप में बाजार का विकास किया था । मुद्रा नें बाजार को जन्म नहीं दिया बलिक विनिमय की भाशा के रूप में बाजार नें ही मुद्रा को मूल्य दिया है । आज भी मांग और पूर्ति के आधार पर बाजार में मुद्रा एक असिथर संसूचक व्यवस्था ही बनी हुर्इ है । दूसरे षब्दों में अपने-आप में मुद्रा का कोर्इ मूल्य नहीं है । उसका मूल्यांकन वस्तु-विनिमय की मानवीय आवष्यकताओं के सापेक्ष ही है । बीसवीं षताब्दी के अधिकांष साम्यवादी देषों ने अपने नियनित्रत अर्थ-तंत्र के माध्यम से बाजार की संसूचक व्यवस्था को ही ध्वस्त और निरस्त करने का कार्य किया था । उन्होंने मुद्रा की अर्थ-सम्प्रेशण की षकित को कृत्रिम रूप से समाप्त करने का प्रयास किया । उसकी सम्पूर्ण सृजनषीलता पूंजी की समता के नाम पर पूंजी के स्वामित्व की समापित और भिन्न-भिन्न प्रकार की पूंजी की अन्त:संवादी मूल्य-व्यवस्था को समाप्त करने का रहा । देखा जाय तो एक तरह से वे बाजार की मूल्यांकन व्यवस्था के बाहर वस्तुओं और पूंजी को आवष्यकता के अनुरूप उत्पादित करने एवं वितरित करने का प्रयास ही कर रहे थे । अपने साम्यवादी समाज में बाजार के समानान्तर कोर्इ मूल्य-संवादी व्यवस्था या अर्थ-संसूचक तन्त्र विकसित न करने के कारण बीसवीं षताब्दी के साम्यवादी देषों ने अपनी मुषिकलें बढ़ा ली थीं । वे कृत्रिम एवं प्रायोजित आर्थिक भाशाहीनता के षिकार हो गए थे ।ं

            माक्र्सवादी दार्षनिक यूटोपिया के वास्तवीकरण में दूसरी गम्भीर बाधा पूंजीवादी अर्थतंत्र और बाजार की स्वाभाविक परिणति षहरों को साम्यवादी उत्पादक पूंजी की अवधारणा के अनुरूप पुनर्विसर्जित या विघटित न करने से भी हुर्इ । यह एक तथ्य है कि षहरों का विकास पूरक एवं वैकलिपक पूंजी के आपूर्तिया प्रवाह केन्द्र के रूप में हुआ था । बाजारों का विकास की पूंजी-वैविध्य को एक समान मूल्यांकन व्यवस्था में लाने के लिए हुआ था । माक्र्सवाद जैसी केवल उत्पादक पूंजीवाद की व्याख्याता एवं विनिमय श्रम और पूंजी को अतिरिक्त मूल्य के रूप में व्याख्यायित करने वाली विचारधारा नें षहरों और बाजार के पर्यावरण को भलीभांति समझे बिना मुद्रा एवं बाजार तंत्र को प्रषासनिक तंत्र में बदलने का कार्य ही किया । इससे राज्य का काम बढ़ा । नागरिक अभाव की सिथिति में प्रषासनिक दमन एवं अविष्वास की संस्कृति के षिकार हुए । अपने निशेधों के द्वारा बाजार और मुद्रा-तंत्र को निरस्त कर देने के कारण खेतों और कारखानों से दूर बसी षहरी जनसख्या जो बाजार-व्यवस्था के ध्वस्त होते ही कृत्रिम रूप से  बेरोजगार और अवैध हो गयी-उसके आर्थिक पुनर्नियोजन का अतिरिक्त दायित्व साम्यवादी राज्यों के ऊपर आ गया । कहने का मतलब यह है कि पुराने षहर हजारों वशोर्ं से पूंजीवादी अर्थ-प्रवाह के स्वाभाविक परिणाम हैं । क्योंकि माक्र्स नें व्यावहारिक साम्यवाद पर बहुत अधिक विचार नहीं किया था ,इसलिए माक्र्स के परवर्ती माक्र्सवादियों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे साम्यवादी यूटोपिया को विसंगतिपूर्ण बनाने वाली इस समस्या पर सोचें । वे यदि बाजार-व्यवस्था के बाहर निकलकर एक साम्यवादी व्यवस्था का सपना देखते हैं तो उनको पूंजी के मूल्यांकन तंत्र और सम्प्रेशण की एक समाानान्तर मौलिक भाशा निर्मित करनी होगी -उतनी ही अर्थ संसूचक ,जितनी कि बाजार है जो बढ़़ती हुर्इ कीमत के साथ ही किसी वस्तु को संभलकर उपभोग करने का या अनावष्यक उपभोग न करने का र्इमानदार सन्देष दे देती है ।

           मानव-जाति द्वारा अब तक विकसित की गयी व्यवस्था के पुनर्निर्माण के चिन्तन सम्बन्धी इन्हीं दुर्बलताओं के कारण तथा वैचारिक अस्पश्टता से बचने के लिए ही देष और विदेष के अनेक वामपंथी संगठन किसानों और मजदूरों के इर्द-गिर्द मंडराने के लिए ही बाघ्य रहे हैं । अविकसित क्षेत्रों में उन्होने सर्वषून्य को सर्वहारा मानकर पूंजी सृजन और पूंजी-विनिमय की प्रक्रिया को ही बाधित कर दिया है । पंूजी-सृजन जो कि एक बौद्धिक प्रक्रिया है- और जैसा कि माक्र्स नें भी सामन्त युग और औधोगिक पूंजीवाद के चरण के बाद ही एक विकसित सभ्यता के रूप में साम्यवादी क्रानित और व्यवस्था की परिकल्पना की थी ।  अन्तत: माक्र्सवाद भी उन्नीसवीं षताब्दी के औधोगिक पूंजीवाद की प्रतिक्रियात्मक आलोचना ही है । क्या निरन्तर विकसित होती मानव-जाति की पूंजी और उसके अर्थ-तंत्र की सम्पूर्ण सृजनषीलता और विकसनषीलता एक सिथर बिन्दु पर पहुंच गयी है । इती कि उसके विष्लेशण और उसे समझने का प्रयास लगभग पूरा समझा जाय ! क्या निरंकुष पूंजी-सृजन की मानवीय नकारात्मकताओं को पहचान कर उनका कोर्इ राजनीतिक और गैरराजनीतिक मानवीय समाधान विकसित नहीं किया जा सकता क्या आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी की दैत्याकार अभियानित्रकी के स्थान पर कोर्इ सािनीय और लघु(माइक्रो) अभियानित्रकी नहीं विकसित की जा सकती -जो तानाषाही की प्रकृति की न होकर अधिक लोकतानित्रक और मानवीय तथा सहज हो ! ये कुछ ऐसे प्रष्न हैं जिनपर पुनर्विचार किए बिना अतीत के बुद्धिजीवियों द्वारा प्रवर्तित क्रानितकारिता का कभी पुनमर्ूल्यांकन और उनपर पुनर्विचार नहीं किया जा सकता।

            भारत में लोकतानित्रक व्यवस्था से सहमत और असहमत सभी वामपन्थी संगठन--तात्कालिक जन-समस्याओं को मुददा बनाकर संघर्श करने की उनकी नीति और उनका इतिहास दोनों ही साम्यवादी परिकल्पना में निहित वैचारिक अमूर्तनों और चिन्तन सम्बन्धी अस्पश्टताओं को छिपा नहीं पाते । रूस ,चीन ,हंगरी,पोलैण्ड,पूर्वी जर्मनी और क्यूबा तक अतीत और वर्तमान में फैले साम्यवादी व्यवस्था के विभिन्न ऐतिहासिक पाठ साम्यवादी विचारधारा में निहित इसी वैचारिक इन्तराल और अवकाष को अपने ढंग से भरने का प्रयास करते हैं । कर्इ देषों नें स्थानीय और सामाजिक स्तर पर रूस की तरह परम्परागत बाजार-तंत्र से अधिक छेड़-छाड़ नहीं की और रूस की तरह परम्परागत मुद्रा-व्यवहार के सम्पूर्ण पर्यावरण का विनाष करने से बच गए और रूस जैसे हश्र से भी । रूस माडल की साम्यवादी व्यवस्था के अधिकांष देषों नें बाजार को विस्थापित कर प्रषासनिक वितरण प्रणाली स्थापित करने की अतिरेकपूर्ण कोषिष की और ऐतिहासिक रूप से विफल हुए । इसका एकमात्र कारण यही समझ में आता है कि जो काम बाजार व्यवस्था किसी वस्तु की प्रचुर उपलब्धता की दषा में मूल्य घटाकर और अभाव की दषा में उसे सिर्फ मंहगाकर करती है उस कार्य को साम्यवादी देषों नें प्रषासनिक सूचनावर्जना और आतंक से करने की कोषिष की और अप्रिय हुए । माक्र्स की विचारधारा का अन्तर्राश्æीय भव्यीकरण नहीं रहा होता और कम्युनिस्ट तानाषाही नहीं रही होती तो इतने वर्शो  तक इन अस्पश्टताओं के साथ इतनी बड़ी जनसंख्या का जीना संभव नहीं हो पाता । यह लिखते हुए मेरा उददेष्य पूंजीवादी व्यवस्था की माक्र्स द्वारा की गर्इ सम्पूर्ण आलोचनाओं और विष्लेशणों को खारिज करना नहीं बलिक पुनर्चिन्तन के उन समस्यात्मक बिन्दुओं को चिनिहत करना है जिनका समाधान पाकर ही भविश्य के पूंजीवाद के सापेक्ष भविश्य की साम्यवादी व्यवस्था को विकसित किया जा सकता है ।

            यधपि ऐसा नहीं है कि साम्यवादी देषों ने विनिमय मूल्य पर पलने वाले मध्यस्थ पूंजी-तंत्र और वितरक वर्ग के समानान्तर वितरण-व्यवस्था को निर्मित करने का प्रयास नहीं किया । उन्होंने प्रयास किया किन्तु वे असफल इस लिए हुए कि उन्होंने मुद्रा का सम्पूर्ण बहिश्कार नहीं किया । सच तो यह है कि आप या तो बाजार को समझकर  और उसके साथ रहकर जिन्दा रह सकते हैं या फिर उसके सम्पूर्ण बहिश्कार की आत्मनिर्भरता प्राप्त कर । इन दोनों को एक साथ रखने का दुश्परिणाम भी रूस जैसी साम्यवादी व्यवस्था को भोगना पड़ा । माक्र्स के योरोप में नर्इ तक्नालाजी के विकास के साथ युवा औधाोगिक पूंजीवाद इतना चकाचौंध भरा था कि नए-नए आविश्कारों के साथ उनका कोर्इ ऐसा प्रतिद्वन्द्वी नहीं था कि उन्हें बाजार में कोर्इ चुनौती दे । विष्व में कुछ ही कम्पनियां वायुयान बना पाती थीं और कुछ ही कार । कुछ ही मषीनें बनाती थीं और अधिकांष उत्पादित माल । उपभोक्ता और पूंजीपति के बीच

यदि बाजार और छोटा व्यवसायी था भी तो वह दिखार्इ नहीं देता था । संभवत: इसीलिए एक सिद्धान्तकार के रूप में कार्ल माक्र्स नें विनिमय मूल्य पर पलने वाले वितरण वर्ग की उस विषाल जनसंख्या को अपने विष्लेशण का आधार नहीं बनाया था ,जो आगे चलकर क्रानित-विरोधी भूमिका में पूंजीवाद की अनितम कड़ी मध्य वर्ग के रूप में सामने आया । माक्र्स का सर्वहारा स्वयं पूंजीपति बनने के सपने को छोड़कर मध्यवर्गीय सुखों को ही हसरत से देखने लगा ,जो जीवन-यापन की न्यूनतम आवष्यकताओं की दृशिट से समृद्धसुखी और सुरक्षित दिखता है ।

           माक्र्स के औधोगिक पूंजीवाद के विकास की दृशिट से प्रारमिभक दौर में जबकि पूंजी-उत्पादक मजदूर वर्ग से विनिमय पूंजी पर पलने वाले मजदूरों की संख्या कम नहीं थी-जमींदार-सामन्त और औधाोगिक पूंजीपति वर्ग से अलग व्यापारिक पूंजीपति वर्ग अलग आर्थिक समीकरणों ,संरचनाओं और सिद्धान्तों से परिचालित होता है अत: इस वर्ग के श्रमिकों की षोशण-समस्याओं पर आधारित समाधानकर्ता साम्यवाद ,वितरण वर्गीय साम्यवाद के रूप में एक भिन्न सैद्धानितक अवधारणा की मांग करता है । पूंजी के उत्पादक और उपभोक्ता के बीच सामन्जस्यपरक होने के कारण तथा आवष्यकता आधारित अर्थतंत्र के कारण इस वर्ग की व्यवस्था-संरचना में भागीदारी अधिक असिथर और गतिषील पूंजी पर आधारित होती है । इस वर्ग का अर्थ-विभाजन छोटी होते हुए भी इतनी जटिल और सूक्ष्म आर्थिक संक्रियाओं से निर्धारित होता है कि एक ओर वह जहां पूंजी-प्रवाह यानि वितरण और विनिमय केन्द्रों के रूप में एक वर्ग या संघ की तरह बाजार का निर्माता होता है वहीं उसकी उपसिथति के कारण ,उसके क्रानित-विरोधी समस्यात्मक परिप्रेक्ष्य में उपलब्ध साम्यवादी अवधारणाएं अपर्याप्त,अविकसित और अस्पश्ट प्रतीत होने लगती है ।

            इसका कारण यह है कि प्राय: किसान-मजदूर को केन्द्र में रखने के कारण माक्र्सवादी विचारधारा अपनी एकांगिता के साथ 'उत्पादक साम्यवाद में परिणत हो गयी है।  इसका परिणाम यह हुआ कि बीसवीं  षताब्दी में अधिकांष साम्यवादी देषों ने पूंजी-वितरण की परम्परागत समाजार्थिक व्यवस्था बाजार-तंत्र को विभिन्न प्रतिबन्धों और अंकुषों से विस्थापित कर प्रषासनिक हस्तक्ष्ेाप के माध्यम से वितरक पूंजीपति के स्थान पर 'वितरक पूंजीवाद की सैद्धानितक अवधारणा के रूप में साम्यवादी प्रषासन-तंत्र या नौकरषाही को स्थापित किया । एक संवेदनषील साम्यवादी विनिमय एवं वितरण-तंत्र के अभाव में साम्यवादी देषों ने परम्परागत मध्यवर्ग को साम्यवादी नौकरषाही में बदल दिया । अधिकांष साम्यवादी देषों ने बाजार की निरसित आौर अनुपसिथति को एक व्यावहारिक और तात्कालिक षासन की समस्या के रूप में देखा तथा इस वर्ग के प्रतिक्रियात्मक नकार और असहयोग के कारण ही पषिचमी योरोप के अधिकांष साम्यवादी देषों में ऐतिहासिक रूप से ध्वस्त हुआ । कारण स्पश्ट है कि पूंजी और वर्ग-विभाजन का उत्पादक और वितरक स्वरूप स्पश्ट न होने के कारण साम्यवादी षासन नें उत्पादन और वितरण दोनों ही कार्य  स्वयं ही दायित्वबोध के साथ संभाला ।

          हजारों वर्शों के पूंजीवादी पर्यावरण की उपज षहरी असन्तोश नें ही साम्यवादी देषों से साम्यवादी षासन को उखाड़ फेंका । क्या ऐतिहासिक तथ्य मात्र इतना ही कहते हैं ! जो नहीं कह पाते वह यह कि साम्यवादी देषों को साम्यवादी पर्यावरण के निर्माण के लिए पूंजीवादी पर्यावरण की उपज षहरों को उखाड़ फेंकना चाहिए था । विस्थापित जनसंख्या को खेतों के किनारे और कारखानों के पास पुन: बसाना चाहिए था । इसके विपरीत साम्यवादी देषों नें पूरी की पूरी षहरी जनसंख्या को प्रषासन-तंत्र में बदलने तथा प्रषासन तंत्र से ही नियनित्रत करने का प्रयास किया । आवष्यकता और उत्पादन के बीच कोर्इ मूल्यपरक सम्प्रेशण व्यवस्था न होने के कारण आर्थिक संवादहीनता के कारण साम्यवादी सरकारें वितरण की प्रषासनिक विफलता के करण क्रमष: निरंकुष होती गर्इं और एक दिन सम्पूर्ण राज्य को ही एक बड़े यातना-गृह में बदल दिया । पूंजीवादी व्यवस्था की वर्तमान और भावी आलोचना को विकसित करते समय उसकी इन कमियों के प्रति सजग रहना होगा ताकि भविश्य का साम्यवादभविश्य के पूंजीवाद की और अधिक पूरक और निर्दोश प्रतिक्रिया बन सके ।

             इसलिए एक समग्र समानान्तर व्यवस्था के निर्माण और अन्वेशण के लिए आवष्यक है कि पूंजीवाद की परम्परागत वितरण प्रणाली बाजार के समानान्तर यदि साम्यवादी यूटोपिया के दावेदार हैं तो किसी अधिक संवेदनषील समतामूलक वितरण प्रणाली की खोज करनी चाहिए । यदि सम्पूर्णता में नहीं कर सके तो पूंजीवादी व्यवस्था की क्रूरता को नियनित्रत और कम करने के लिए उसके अन्तर्गत या समानान्तर एक न्यूनतम सर्वहारा सुरक्षा-तंत्र विकसित करना चाहिए क्योंकि निरंकुष वैयकितक या संगठित पूंजीवाद की अमानवीय महत्वाकांक्षाओं की सतत समीक्षा होती रहनी ही चाहिए । एक कम उत्तेजक,कम आवेषधर्मी किन्तु अधिक जिम्मेदार अधिक प्रबुद्ध,अधिक निर्दोश समतामूलक समाज और व्यवस्था को विकसित किए जाने की जरूरत है । जरूरत इस बात की है कि षोशण-मुक्त व्यवस्था के अधिक परिश्कृत और स्पश्ट संरचनात्मक वैकलिपक सिद्धान्तों -निश्कशोर्ं को विकसित-विचारित और उपलब्ध किया जाय । अन्यथा स्पश्ट अवधारणाओं के अभाव में चरमपंथी भारतीय साम्यवादी आदर्षवादियों का भी उसी प्रकार व्यवहारवादी स्वप्नभंग होगा ,जैसाकि पषिचमी योरोप और सोवियत रूस के कम्युनिस्टों  का हुआ । किसानों में समान भूमि-वितरण तथा मजदूरों की उधाोगों में न्यायपूर्ण हिस्सेदारी के समान ही वितरक-पूंजी वाले मध्य-वर्ग के कामगारोंं के लिए भी किसी स्पश्ट ,मूर्त और चरम लक्ष्य,आदर्ष या अवधारणा की खाोज करनी होगी तथा भविश्य की षोशणमुक्त व्यवस्था के लिए ऐसी आर्थिक संरचनाओं की तलाष करनी होगी कि जनसंख्या के उत्पादक और वितरक समूह दो विरोधी आर्थिक संरचनाओं  के रूप में साम्यवादी व्यवस्था को वर्ग-विभाजित न कर दें । क्योंकि विशम आर्थिक समीकरणों से संचालित होने पर वे अपनी वैचारिक अपूर्णताओं के कारण बड़े-बड़े दावों और लुभावने सपनों को उत्तेजित करने के बावजूद साम्यवाद की तानाषाही के लिए अधिग्रहीत जनसंख्या को  आन्तरिक रूप से विभाजित,विशमतापूर्ण और असंतुश्ट ही करेंगे ।

       एक नर्इ सभ्यता के निर्माण के लिए पूर्वाग्रहमुक्त विचारशीलता इस लिए भी आवश्यक है कि आज की अनुभवी एवं सृजनशील मानव-जाति को अतीत की दीर्घकालिक रूढि़वादिता एवं उसके दुष्परिणामों का लम्बा अनुभव है । आज हम जानते है। कि अधिकांश वैचारिक निर्मितियां भी अपनें देश-काल का अतिक्रमण नहीं कर पातीं । विचारधाराएं जो एक दौर में बिल्कुल सही मानी जाती थीं ,लाखों विरोधयों की हत्या के बाद भी एक दिन स्वयं को गलत माने जानें से भावी मानव-जाति को रोक नहीं पातीं । यह भी कि अधिकांश विचारधाराएं एक काल्पनिक दुनिया या यूटोपिया का निर्माण कर सत्याभास रच देनें में इसलिए सफल होती हैं कि मनुष्य अपनी उच्च्स्तरीय सृजनशीलता के कारण एक नए अतीत की तरह अतीत के विश्वासों के अनुरूप भी एक पुरानी दुनिया को वर्तमान के रूप में रच सकता है । विचारधाराएं किस प्रकार मानव-जाति को छल सकती हैं,इसका रोचक दृष्टान्त गांधीवाद और माक्र्सवाद की चरितार्थता में भी देखा जा सकता है । मानव-मनोविज्ञान की दृषिट से इन दोानों ही विचारधाराओं की आलोचना की जा सकती है । एक बार पूर्ण सत्य मान लिए जानें के बाद ये मानव-जाति की सृजनशीलता को दूर तक प्रभावित करनें लगती हैं और उनकी समय और इतिहास के वर्तमान की जरूरतों से अलग भी एक कृत्रिम पर्यावरण की पुनर्रचना करनें लगती हैं । इस दृषिट से जब मैं वर्तमान को देखता हूं तो पाता हूं कि अलग सांस्कृतिक मानसिकता और विचारधारा के कारण एक ही समाज के भिन्न-भिन्न व्यकितयों में रुचि और ऐचिछक विच्छोभ का भी अलग-अलग स्तर दीखता है । कम इच्छाएं या उदासीनता सृजन और विकास की इच्छा और आवश्यकताओं के बोध को सीमित करती हैं ।

 उदाहरण के लिए गांधीवाद पूंजीवाद की अनैतिक महत्वाकांक्षाओं की आलोचना करता हुआ उसे सभ्य ,नैतिक और मानवीय बनानें का निस्संदेह प्रयास करता है । मानव-जाति के अंिहंसक àदय-परिवर्तन पर वह कुछ अधिक ही विश्वासी है । गांधीवाद का तरीका मानव-इच्छाओं की निगरानी करनें का है । व्यकित् की इच्छाओं को अनुशासित और परिसीमित करनें के कारण ,एक यूटोपियन विचारधारा के रूप में गांधीवाद जिस मनुष्य को निर्मित करेगा ,वह नैतिक दृषिट से सज्जन और भद्र पुरुष तो होगा ,लेकिन उस विचारधारा को पूरी तरह चरितार्थ करनें वाले समाज के सदस्यों की सादगी और संतोष जैसे मूल्यों के कारण सृजनशीलता की कल्पना-शकित कुंठित हो सकती है । बहुत प्रभावी होनें पर वह बहुत सी तकनीकों और आविष्कारों को हतोत्साहित कर सकता है ।

      इसीप्रकार यूटोपियन दुष्प्रभाव की दृषिट से माक्र्सवादी विचारधारा भी एक नकारात्मक नियामक के रूप में सामनें आती है क्योंकि वह इतना अधिक अविश्वासी है कि वह मनुष्य को असभ्य,अनैतिक और अमानवीय बनने का अवसर ही नहीं देना चाहता । इस तरह माक्र्सवादी विचारधारा के आधार पर निर्मित व्यवस्था की अयोग्यता भिन्न प्रकार की हो जाती है । वह पूंजी की उन्मुक्त सृजनशीलता के अधिकार को सीमित करना चाहता है । इस तरह वह अभिप्रेरणा के स्तर पर सृजनशीलता के आनप्द को कृणिठत करता है । व्यकित के स्तर पर वह नकारात्मक है लेकिन सृजनशीलता को सामूहिकता की भावना से जोड़नें की अपेक्षा के कारण एक सीमा तक सार्थक भी । पूंजी उत्पादन में भी सामूहिकता में चलनें-चलानें की उसकी इच्छा की तुलना परेड में चलनें से की जा सकती है । वह कदमताल को अधिक महत्व देता है । कुछ अलग चलनें के प्रयास को घातक मानता है । एक अविश्वासी नियामक विचारधारा होने के कारण माक्र्सवाद संवादी भी नहीं है । उसकी सैद्धानितकी बाजार और मुद्रा दोनों को ही ध्वस्त,व्यर्थ और निरस्त करती है । यधपि बाजार के पास मांग और पूर्ति का सटीक सूचना-तंत्र तो होता है ,किन्तु मानवीय संवेदना और नैतिक चेतना नहीं होती । ऐसे में माक्र्सवाद में से दमन ,अविश्वास और तानाशाही को निकालकर उसमें पूंजी-निर्माण की सामूहिकता वाली सकारात्मक को बल देनें वाली अभिप्रेरणा शामिल करनें की जरूरत है । यदि किसी नवमाक्र्सवाद की परिकल्पना की जाय तो  उसमें माक्र्सवाद की नैतिक चेतना और संवेदना के साथ बाजार से संवादी होना भी सीखना होगा ,क्योंकि बाजार मानव-जाति की सृजनशीलता का सवोर्ंत्तम संग्रहालय भी है ।

          जैसाकि टी.एस.इलियट का भी मानना था । हम सभ्यता के धरातल पर अतीत से कटकर कभी भी पूरी तरह आधुनिक नहीं हो सकते । हम समझनें की योग्यता के लिए प्राय: परम्परा पर ही निर्भर करते हैं । दरअसल आधुनिक होना बिल्कुल नया होना नहीं है और न ही आधुनिक सभ्यता से आशय वर्तमान सभ्यता ही है । वास्तव में हम यथार्थ के साथ-साथ जीनें की आदतों का भी कालान्तरण कर रहे हैं ।प्राचीन को आधुनिक बना रहे हैं । हमारे जीवन-समय में अतीत और वर्तमान एक साथ उपसिथत हैं । आधुनिक वर्तमान नहीं है और वर्तमान आधुनिक नहीं है। आधुनिक और वर्तमान में फर्क है । विडम्बना यह है कि जो वर्तमान है वह आधुनिक नहीं है और जो आधुनिक है वह वर्तमान नहीं है । आज का वर्तमान इतिहासग्रस्त है । अतीत का पुनरूत्पादन किया जा रहा है ।

         एक नयी व्यवस्था को पानें की दिशा में भविष्य-चिंतन परिकल्पना,योजना और यूटोपिया के रूप में हो सकता है । खतरा यह है कि अधिकांश यूटोपिया अपनें निर्माण के समय की वास्तविकताओं की प्रतिकि्रया में ही जन्म लेते हैं । लेकिन उनके अनुयायी और प्रशंसक उन्हें सार्वभौम मान लेते हैं । 

संस्कृतियो का वैश्विक संघर्ष और सभ्यता का पुनः पाठ

                                                    Ramprakash Kushwaha
  विकास और इतिहास की पृष्ठभूमि सम्बन्धी भिन्नता के कारण ,भिन्न-भिन्न जीवन-पद्धति और मानव-व्यवहार को प्रस्तावित करती हुर्इ विव की हर संस्कृति जीवन जीने का एक भिन्न (सामूहिक) पाठ प्रस्तुत करती है । जीवन शैली की भिन्नता जहां एक ओर संस्कृति विशेष की विशिष्टता का आधार बनती है ; वहीं अलग भौगोलिक अंचल और सामुदायिक मूल की सांस्कृतिक आदिमताएं मानव-विश्व को अलग-अलग समुदायों में भी बांटती हैं ।  दूसरी ओर सांस्कृतिक एकता अलग-अलग नस्लों के लोगों को एक सामाजिक-सांस्कृतिक र्इकार्इ के रूप में पुनसर्ंयोजित भी करती हैं । इन दोनों प्रक्रियाओं के कारण ही एक मानव-विश्व के निर्माण की दृषिट से संस्कृतियाें को सकारात्मक और नकारात्मक दोहरी प्रकार्यात्मक भूमिका में देखा जा सकता है । अपने प्रभावितों और अनुयायियों की संख्या अथवा जनसंख्यात्मक विस्तार तथा मानव-व्यवहार के प्रतिमानीकरण की दृषिट से देखने पर हर सांस्कृतिक समुदाय एक भिन्न ऐतिहासिक संक्रमण-यात्रा है ।  इस दृषिट से सारी संस्कृतियां मानव-व्यवहार के आदर्श प्रतिमान की खोज एवं प्रभाव का परिणाम हैं । वे जीवन-पद्धति का सरलीकरण करती हैं ; एक सामान्य एवं सर्वमान्य चरित्र-सृषिट को प्रस्तावित करती हैं  और मनोवैज्ञानिक शब्दावली में कहें तो वे समुदाय-विशेष के सभी सदस्यों को एक समान प्रत्यक्षीकरण हेतु ऐसे प्रभावी एवं मार्मिक व्यकितत्वों की कथात्मक पुनर्पस्तुति करती हैं , जो विभिन्न अवसरों पर उनके संवेदनात्मक व्यवहार को एक पद्धति दे सके ।
            सही अथोर्ंं में संस्कृति मनुष्य की परम्रागत व्यवहार-पद्धति ही है । एक ऐसा व्यवहार जो उसके निजी विवेक से कम लेकिन उसे उत्तराधिकार में मिले सामाजिक व्यवहार से अधिक संचालित और सम्बनिधत होता है । इसप्रकार कहीं न कहीं हर संस्कृति वर्तमान मानवीय विवेक का शैक्षणिक अतीतीकरण ही है अथवा दूसरे रूप में वह अतीत की स्मृतियों और मानवीय विवेक का वर्तमानीकरण है । इसप्रकार संस्कृति उत्तराधिकार में मिली हुर्इ सभ्यता है । यह अनुभव और अबादतों के रूप में बचा हुआ पिछली पीढ़ी का वर्तमान है । हमारी अलग सामाजिक-सांस्कृतिक आदतें ही हमारी सभ्यता का अलग प्रारूप रचती हैं । हमारी सभ्यता का मूल उत्स हमारी अचेतन ऐतिहासिक-सामाजिक ग्रनिथयों में है । हम मूलत: अतीतजीवी हैं । हमारा वर्तमान भी अतीत की पद्धतिगत उपसिथति हैं । हम जब नया इतिहास बना रहे होते हैं तब भी मानव-इतिहास की पुरानी आदतों को ही दुहरा रहे होते हैं । हमारा स्वयं को बदल पाना इतना आसान नहीं होगा । कर्इ बार हम पुन: उसी दुनिया में अपने पड़ोसियों द्वारा खींच लिए जाते हैं जिसे अपनी दृषिट मेंं पूरी तरह व्यर्थ जानकर छोड़नें की तैयारी कर रहे होते हैं हम । कर्इ बार न बदल पाने के कारण तकनीकी और यानित्रक भी होते हैं । उदाहरण के लिए भाषा-सम्प्रेषण के लिए एक अलग संसार ही रचती है । यह संसार एक काल-निरपेक्ष उपसिथति का होता है । भाषा कायान्तरण और कालान्तरण दोनों का ही माध्यम है । भाषा की यह प्रकृति ही मानवीय स्मृति और साहित्य दोनो को ही अपरिवर्तनीय बना देती है । सिद्धान्तत: वह अपनी साहितियक स्मृति को तो नहीं बदल सकता ,लेकिन समझ बदल सकता है ।
       सांस्कृतिक प्रभाव के कारण ही हमारी सभ्यता का एक बड़ा हिस्सा सुदूर अतीत के मनुष्यों के अनुभवों ,विचारो और कल्पनाओं पर आधारित और उससे सामूहिक अचेतन प्रभावों के रूप में सम्बधित है।  अतीत के अविस्मरणीय मनुष्य और उनकी भोली अवधारणाएं अब भी हमारे मानसिक पर्यावरण का निर्माण करती हुर्इ वर्तमान का व्यवहार रच रही हैं । अतीत आज भी हमारी सामूहिक और सांंस्कृतिक आदतों के रूप में जिन्दा है । वह हमारी व्यवस्था-परिकल्पना को प्रभावित करने वाला सामूहिक अचेतन बन गया है ।
        दरअसल ,सामूहिक मानवीय अनुभव एवं निर्णय भी संज्ञान के स्तर पर एक बार घटित हो जाने के बाद ,प्रकृति की तरह ही मानव-जीवन की नियति के निर्धारक बन जाते हैं । वे मनुष्य की सामूहिक स्मृति के माध्यम से रुचि के नियामक बन जाते हैं । उन जातीय ग्रनिथयों ,मनोवृत्तियों एवं आदतों का निर्माण करते हैं ; जिन्हें सामूहिक अचेतन ही कहा जा सकता है । इनसे प्रेरित और प्रभावित होकर मानव-जीवन के मानसिक, सामाजिक,सांस्कृतिक ,राजनीतिक और आर्थिक आयाम अन्तत जैविक पर्यावरण में भी बदल जाते हैं । एक समय के बाद सामाजिक स्वीकृतियां ,व्यवहार और कार्य मनुष्य के विचार को ही पर्यावरण में बदल देते हैं । आदिकाल की जंगलों से भरी धरती का वर्तमान में बागों और खेतों में बदल जाना ,कृषि-कार्य करने के मनुष्य के मनुष्य के विचार का ही दीर्घकालीन परिणाम है ,जिसने वानस्पतिक पर्यावरण का पूरी तरह रूपान्तरण कर दिया है ।
            मानव-सभ्यता के निरन्तर जटिल से जटिलतर होते जा रहे विकास-क्रम नें मानव-जीवन के पर्यावरण में मानवीय सृषिट को भी शामिल कर दिया है । मनुष्य जाति द्वारा अर्जित ज्ञान-विज्ञान ,निर्मित भव्य भवन ,सड़कें ,विधुत-व्यवस्था, कारखानें ,बांध ,पुल ,शिक्षा-व्यवस्था, ग्रन्थ, साहित्य, संगीत, फिल्में ,टी.वी., नगर , मुद्रा और राज्य- वयवस्था आदि सभी मानव-निर्मित पर्यावरण ही हैं । आदिम मनुष्य नें जब प्राकृतिक गुफाओं की तलाश छोड़कर पहली बार घर बनाया होगा  या एसिकमों नें ध्रुवीय भालू का अनुसरण करते हुए इग्लू के पूर्व रूप का निर्माण किया होगा या फिर किसी मृत पशु के चर्म में घुसकर बर्फीली हवाओं को पछाड़ा होगा तो उसका यह कार्य पर्यावरण निर्माण की दिशा में ही बढ़ा हुआ कदम था । आज भी जब अपराध-नियन्त्रण के लिए वह कोर्इ नया कानून बनाता है तो उसके इस प्रयास में भी अपने पर्यावरण (सामाजिक) को ही बेहतर बनाने की सामूहिक इच्छा छिपी रहती है । इस दीर्घकालीन विकास-क्रम में गम्भीर अवरोध तब उत्पन्न हुए ,जब संस्कृति को अतीत के मानवीय सृजन के रूप में न देखकर उसे जातीय और धार्मिक जड़ता यानि अपरिवर्तनीय श्रेष्ठता एवं पूर्णता के रूप में देखा जाने लगा ।
          किसी सांस्कृतिक समुदाय में प्रचारित चरित्र-विशेष की कथात्मक प्रस्तुति ( चाहे वह मिथकीय हो या धार्मिक ) ही पीढ़ी दर पीढ़ी सांस्कृतिक उत्तरजीविता को सम्भव बनाती है । आइन्स्टीन की यह अवधारणा कि काल  भी एक आयाम है और यह दुनिया है ही नहीं बलिक निरन्तर हो भी रही है तथा असितत्ववादियों की दृषिट में जीवन का गुजरते क्षणों में निरन्तर होना की तरह संस्कृति-विशेष भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के बीच सूचनाओं ,कथाओं और विष्वासों के हस्तान्तरण के साथ समुदाय विशेष के सदस्यों के बीच बनी रहती है । इसप्रकार सांस्कृतिक नैरन्तर्य समाज में निरन्तर चलने वाले उस प्रशिक्षण का परिणाम है ,जो संस्कृति विशेष का सदस्य अभिभावक के रूप में अपनी सन्तान को देता है । फ्रायड के दमित अचेतन से अलग यह वह अचेतन संक्रमण है जो व्यकित को उसके बचपन में ही उसके अपरिपक्व और अप्रशिक्षित मसितष्क को प्रशिक्षण के रूप में सौंप दिया गया होता है । इस तरह संस्कृति-निर्माण एक जातीय सामाजिक परियोजना की तरह निरन्तर चलते रहने वाली प्रक्रिया है । इसलिए संस्कृति का उत्तर-आधुनिक पाठ यहीं से आरम्भ होता है कि संस्कृतिकरण ,समकालीन मानव-जाति में चलने वाली अतीतीकरण की प्रक्रिया है। वह एक समान स्मृतियों वाले मनुष्य का वंशानुक्रमिक पुनरूत्पादन है । वह विशेष प्रकार का सूचनात्मक या मसितष्कीय उत्तराधिकार है ।
            मानव-जाति की वैशिवक एकता के विरुद्ध संस्कृति की वर्तमान विरोधी भूमिका को देखते हुए सांस्कृतिक अचेतन से मुक्त एक आधुनिक वैज्ञानिक मनुष्य का निर्माण ,उत्तर-आधुनिक वैशिवक संस्कृति के निर्माण की दिशा में पहता साभ्यतिक कदम होगा । वर्तमान मनुष्य के विवेक के अतीतीकरण की सामाजिक प्रक्रिया को रोकने के लिए एक वैज्ञानिक जेहाद की जरूरत है । वैज्ञानिक जेहाद से मेरा तात्पर्य वैज्ञानिक विचारों और विश्वासों की निर्णायक स्वीकार्यता से है । वैज्ञानिक सूचनाओं नें अनेक प्राचीन विश्वासों की सत्यता पर गम्भीर एवं तथ्यसम्मत प्रश्नचिहन लगाए हैं । उन प्रश्नों एवं तथ्यों से नर्इ पीढ़ी के मनुष्य को वंचित करना यानि आधुनिक सूचनाओं से अपरिचित रखकर नर्इ पीढ़ी का एकल अतीतीकरण करने वाली साम्प्रदायिक शिक्षा को सांस्कृतिक अपराध के रूप में देखे जाने की जरूरत है । दुर्भाग्य से कर्इ देशों की राजनीति सत्ता और शासन सम्बन्धी स्वाथोंं के कारण आधुनिक युग के नवजन्में शिशु का मानसिक या बौद्धिक बधियाकरण यानि उसके कृत्रिम अतीतीकरण पर मौन धारण किए हुए हैं ।    
          सांस्कृतिक अतीतीकरण जिस सामूहिक अवचेतन का निर्माण करता है ,वह सामाजिक प्रशिक्षण की इतनी जटिल और बहुआयामी प्रक्रिया का परिणाम है कि है कि उसे सिर्फ किसी सम्प्रदाय या संस्कृति-विशेष के अनुयायी के विचार के रूप में ही चिहिनत नहीं किया जा सकता । सांस्कृतिक अतीत एक सर्वग्रासी अचेतन की तरह हमारी सभी संस्थाओं से सम्बनिधत मानवीय व्यवहारों को संचालित-परिचालित कर रहा है । यहा तक कि आदिम कबीलार्इ युग का सांस्कृतिक अचेतन आज भी हमारी राजनैतिक -सामाजिक शकित-परिकल्पना का प्रमुख आधार है । हमारे सभी सामाजिक-आर्थिक राजनैतिक व्यवहार इस दृषिट से अतीतीकरण के शिकार है कि उनके पीछे आदिम मानव जाति के असुरक्षा-बोध ,भय एवं वे सुरक्षात्मक आक्रामकताएं छिपी हुर्इ हैं । उनका वर्तमान में कोर्इ औचित्य नहीं होते हुए भी हम इसलिए उन्हें जिए जा रहे हैं कि हम सांस्कृतिक आदतों के कारण भिन्न तरह से जी ही नहीं सकते । हम नए विश्व को बनाने में इसलिए विफल हैं कि हम नए ढंग से जीने के अयोग्य हैं । हमारेे सत्ता-संघर्ष, पूंजी निर्माण और सामाजिक संगठनजीविता के मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि में आज भी एक असुरक्षित और आक्रामक शिकारी मनुष्य छिपा हुआ है । इसलिए सांस्कृतिक अतीतीकरण से मुकित की सजगता ही मानव-सभ्यता के विकास की भावी दिशा हो सकती है । वैज्ञानिक युग नें वर्तमान सभ्यता को समझने की जो विश्लेषण धर्मी वैचारिक  दृषिट दी है , उसका पर्याप्त बौद्धिक विनिवेश हमारी सभ्यता की विवेकपूर्ण समीक्षा और पुनर्रचना में नहीं हो रहा है । हम आज भी स्ांस्कृतियों पर विचार करते हुए, प्राय: संस्कृति-विशेष में प्रचलित मिथकों ,मानव-व्यवहार के अलग सांस्कृतिक प्रतिमानों  यानि रूढि़यों और रीति-रिवाजों आदि की अनुकरणात्मक जड़ता से आगे संस्कृति-विमर्श को नहीं ले जा पाते । हमारी साभ्यतिक समस्याओं का प्रमुख आधार सांस्कृतिक अचेतन ही है ।
          वैशिवक स्तर पर देखने पर मृत्यु-बोध की भिन्नता के कारण जीवन और जगत-बोध के भी दो भिन्न रूप सामने आते है। पशिचम के पास द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी विकासपरक  इतिहास-चेतना है तो पूरब के पास हर युग के मनुष्य के विवेक को अपने युग की साभ्यतिक विकृतियों और इतिहास-चेतना से बाहर निकलने की मनोवैज्ञानिक दार्शनिक प्रविधि है । पशिचम उपलबिधपरक लौकिक स्मृतियों का संरक्षक है तो पूरब मूल्य-परक चारित्रिक स्मृतियों का । पशिचम के लिए अतीत भी एक वस्तुनिष्ठ उपसिथत यथार्थ रहा है । उसके लिए मृत्यु का मतलब सम्पूर्ण विलुपित नहीं ,बलिक एक कब्र में बदल जाना है ,जबकि पूरब के लिए अतीत एक राख से अधिक महत्वपूर्ण कभी नहीं रहा । जबकि पशिचम नें अतीत के संरक्षण के लिए ममी और पिरामिडों की रचना की , पूरब ने स्मृति संरक्षण के लिए मिथक-निर्माण की प्रकि्रया अपनार्इ । पशिचम की सजग स्मृति-संरक्षणवादी ऐतिहासिक चेतना से अलग ,विसर्जन और विस्मृतिवादी पूरब अपनी जातीय स्मृति के निर्माण के लिए चयनधर्मी ही रहा है । उसकी व्यापक उपेक्षा और विस्मरण-नीति के पीछे जन-सामान्य के प्रतिरोध का सामाजिक मनोविज्ञान भी देखा जा सकता है । उसने सर्वोत्तम और पसन्द चरित्रोंं को मिथकों में बदलकर उन्हें धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संरक्षण देकर जहां उसें जीवित मानसिक उपसिथति में बदल कर भिन्न स्मृति प्रकि्रया का परिचय दिया है। इसके अतिरिक्त सामान्यत: पूरब की सारी सांस्कृतिक-धार्मिक प्रविधियां मनुष्य को अपने सभ्यतागत समय से बाहर निकालने की रही है । उसकी सबसे बड़ी विश्ेाषता निरन्तर मानव-जाति के आदिम और निर्विकार चित्त की खोज को एक सांस्कृतिक लक्ष्य का आयाम देना है । पूरब निरन्तर ही अपने समय की सभ्यता का अतिक्रमण और उससे निष्क्रमण का आवाहन करता है । वह चित्त के स्तर पर वर्तमान जीवी है ,अपने वर्तमान चित्त की खोज होने के कारण एक सीमा से अधिक पूर्व में घटित घठनाएं एवं ऐतिहासिक स्मृतियां उसके लिए एक अनावश्यक उत्पाद है ;जबकि पशिचम अपनी ऐतिहासिक स्मृति के सापेक्ष संभावित वर्तमान की तलाश करता रहा है।  इसके स्थान पर पूरब अपनी ऐतिहासिक स्मृतियों को मिथक में बदल देना अधिक पसन्द करता रहा है । एक दृषिट से यह ऐतिहासिक स्मृति में से चारित्रिक स्तर पर महत्वपूर्ण प्रभावशीलता का चयन कहा जा सकता है ।
         अपनी भिन्न सांस्कृतिक अवधारणाओं और सामूहिक अचेतन के कारण पशिचम और पूरब की सभ्यताएं दो भिन्न मानवीय पर्यावरण का निर्माण करती हंै । इसीलिए किसी नर्इ व्यवस्था की खोज का प्र्रश्न पूरब और पशिचम के भिन्न सांस्कृतिक रुचियों के प्रश्न से भी टकराता है । मानव-जाति के असितत्त्व और विकास की लम्बी यात्रा में पूरब और पशिचम के मानव-समूहों के अलग-अलग विशिष्ट ऐतिहासिक अवदान सामने आए हैं । इस यात्रा में एक वैज्ञानिक युग और सभ्यता की ओर   विश्व-इतिहास को ले जाने में पशिचम ने युगान्तरकारी सफलता पार्इ है । उसने मानव-जीवन को और बेहतर,सुखी,सुरक्षित और संरक्षित बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका  का निर्वाह किया है । ऐसे में  पशिचमी सभ्यता को अपना आदर्श और आधुनिकता का पर्याय मानकर पूरब का भी पशिचमीकृत होते जाना स्वाभाविक ही है । ऐसे में कुछ ही समय पूर्व के औपनिवेशिक अतीत से अपमानित पूरब की सभ्यता और संंस्कृति का भी कोर्इ आधुनिक और वैशिवक विमर्श  हो सकता  है- इसकी प्रस्तावना मात्र से ही प्रतिगाामिता के कर्इ आरोप लग जाने का भी खतरा है ।
         दरअसल, पूर्वनिर्मित विचारधाराएं भी  बनी-बनार्इ सड़कों की तरह ही होती है । तिरछी या घुमावदार होने पर भी मनुष्य उसे ही मानक दूरी के रूप में मापता रहता है । दूसरे षब्दों में अच्छी बनी सड़कों से ही यात्रा करना अधिक सुविधाजनक समझता है । पूरब अभी भी प्रामाणिक और औचित्यपूर्ण विचारधारा के रूप में कोर्इ नर्इ अच्छी सड़क नहीं बना सका है ! उसे मानव-सभ्यता के विकास में अपने भीतर के श्रेष्ठ को योगदान के लिए अभी भी विश्लेषित और प्रमाणित करना है । अपनी सतत वैज्ञानिक उपलबिधयों के कारण  वर्तमान में आधुनिक मानव-सभ्यता के वैशिवक विमर्श के केन्द्र में पशिचम ही है । यधपि पशिचम ने स्वयं को बार-बार परिभाषित और व्याख्यायित किया है ;लेकिन वह निर्णायक प्रयास के स्तर तक ऐसा करने ंमे इसलिए असमर्थ रहा है कि उसने एक तो पूरब को विचार योग्य ही नहीं समझा या पूरब को विमर्श में शामिल करना स्वयं ही अपने औपनिवेशिक विस्तार और वर्चस्व के स्वर्णिम अतीत को अपमानित करना होता ।
         वैज्ञानिक विकास से समृद्ध दो अविस्मरणीय शताबिदयों के बीत जाने के बाद भी अधिक बेहतर व्यवस्था की खोज में लगी मानव-जाति के लिए सभ्यता और संस्कृति एक संवेदनषील मुददा बना हुआ है । ऐसे में किसी नर्इ और बेहतर सभ्यता ,व्यवस्था और संस्कृति-निर्माण की सृजनात्मक संभावनाओं की वैकलिपक दिशाएं कम ही होंगी । पहला विकल्प यह हो सकता है कि पशिचम को ही और बेहतर बनाकर उसे सार्वभौम कर दिया जाय । दूसरा यह कि पूरब और पषिचम दोनों के प्राच्य और वर्तमान से उपयोगी सृजन-सूत्रों की तलाश की जाय । तीसरा विकल्प पूरब की सभ्यता को आधार बनाकर पशिचम का पूर्वी संस्करण तैयार करने का है । वर्तमान के वैशिवक और भूमंडलीकरण-दौर में अलग-अलग कारकों से प्रेरित होकर ये सारी प्रकि्रयाएं स्वत:स्फूर्त ढंग से एक साथ चल रही हैं। ऐसे में 'किया जाय से मेरा आशय सजग बौद्धिक चुनाव से ही है । इसलिए वर्तमान बौद्धिक युग में और विकसित एवं निर्दोष सभ्यता की दिषा में प्राथमिक आवष्यकता तो यही होगी कि हम अपने अचेतन स्वीकारों की पुनर्समीक्षा कर उसे जहां सचेतन औचित्य प्रदान करें ; वहीं एक संवादी और समावेशी वैशिवक सभ्यता के लिए अपने अराजक एवं विरोधी विश्वासों को वैज्ञानिक-तार्किक आधारों पर कोर्इ अधतन एवं सर्वमान्य व्यवस्था दें । इसके लिए इस सिद्धान्त को मान्यता देनी ही होगी कि मनुष्यकृत वर्तमान व्यवस्था और उसका पर्यावरण उसके अतीत की बौद्धिक सक्रियताओं एवं कार्यात्मक हस्तक्षेप का परिणाम है ।  इसलिए भविष्य की बेहतर व्यवस्था की खोज तब तक संभव नहीं है जब तक हम उसके अतीत और वर्तमान की बौद्धिक आदतों को समझ न लें । अलग-अलग साभ्यतिक चित्त एवं आदतों की खोज ही हमें उनके भिन्न सामूहिक अचेतन के उस अन्धी सुरंग में ले जाती है , जिन्हें बन्द किए बिना मानवता का भविष्य बार-बार भटक कर उसकी ओर ही मुड़ जाने के लिए अभिशप्त है ।
           दरअसल सामूहिक मानवीय निर्णय भी एक बार घटित हो जाने के बाद ,प्रकृति की तरह ही मानव-जीवन की नियति के निर्धारक बन जाते हैं । वे मनुष्य की सामूहिक स्मृति के माध्यम से रुचि के नियामक बन जाते हैं । उन जातीय ग्रनिथयों ,मनोवृत्ति एवं आदतों का निर्माण करते है। जिन्हें सामूहिक अचेतन ही कहा जा सकता है । इनसे प्रेरित और प्रभावित होकर मानव जीवन के सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक आयाम अन्तत: जैविक पर्यावरण में बदल जाते हैं । एक समय के बाद सामाजिक स्वीकृतियां व्यवहार और कार्य मनुश्य के विचार को ही पर्यावरण में बदल देते हैं । आदि-काल की जंगलों से भरी धरती का वर्तमान में बागों और खेतों में बदल जाना कृषि-कार्य करने के मनुष्य के विचार का ही दीर्घकालीन परिणाम है ,जिसने वानस्पतिक पर्यावरण का पूरी तरह रूपान्तरण कर दिया है । मानव-सभ्यता के निरन्तर जटिल से जटिलतर होते जा रहे विकासक्रम नें मानव-जीवन के पर्यावरण में मानवीय सृषिट को भी शामिल कर दिया है । मनुष्य जाति द्वारा अर्जित ज्ञान-विज्ञान ,निर्मित भव्य भवन,सड़के,विधुत व्यवस्था ,कारखानें ,बांध,पुल, शिक्षा-व्यवस्था ,ग्रन्थ, साहित्य ,संगीत ,फिल्में , टी.वी. नगर और राज्य-व्यवस्था आदि सभी मानव-निर्मित पर्यावरण ही हैं । आदिम मनुष्य नें जब प्राकृतिक गुफाओं की तलाश छोड़कर पहली बार घर बनाया होगा या एसिकमों नें ध्रुवीय भालू का अनुकरण करते हुए इग्लू के पूर्व रूप का निर्माण किया होगा या फिर किसी मृत पशु के चर्म में घुसकर बर्फीली हवाओं को पछाड़ा होगा तो उसका यह कार्य पर्यावरण निर्माण की दिशा में ही बढ़ा हुआ कदम था और आज भी अपराध-नियन्त्रण के लिए जब वह नया कानून बनाता है तो उसके इस प्रयास में भी अपने पर्यावरण (सामाजिक) को ही और बेहतर बनाने की सामूहिक इच्छा छिपी रहती है । इस दीर्घकालीन विकासक्रम में गम्भीर अवरोध तब उत्पन्न हुए जब संंस्कृति को मानवीय सृजन के रूप में न देखकर उसे जातीय और धार्मिक जड़ता और अपरिवर्तनीयता से जोेड़ दिया गया ।
            एक ऐसे समय में जब पशिचम नें पूरब को न सिर्फ संक्रमित ,आक्र्रान्त और परिवर्तित किया है , बलिक पूरब में पशिचम कें संक्र्रमण के प्रतिरोध में उत्पन्न रूढि़वादी प्रतिसांस्कृतिक उभार को भी प्रतिक्रि्रयात्मक ढंग से उत्तेजित किया है । विशुद्ध पूरब को दूषित और विकृत कर उसे अन्तर्जीवी या फिर आक्रामक और प्रतिहिंसात्मक बना दिया है । कुछ वैसे ही जैसे किसी वायरस से संक्र्रमित होने पर मानव-शरीर ''एण्टी-बाडी का निर्माण करने लगता है - इस विमर्श का उददेश्य पशिचम की शकित-संरचना  के उस आदिम कबीलार्इ अचेतन के प्रति पशिचम को भी सावधान करना है ,जिससे उसके द्वारा निर्मित और विकसित आज तक की सभी व्यवस्थाएं निकल नहीं पार्इ हैं । इन व्यवस्थाओं में उसके द्वारा निर्मित आधुनिकतम राष्æ अमेरिका ,साम्यवादी अवधारणा का इतिहासित प्रतीक सोवियत रूस और संयुक्त राष्æ संघ जैसी संस्थाएं भी हैं। इस विमर्श की आधारभूत स्थापना यह है कि पशिचम और पूर्व की सभ्यताओं के वर्तमान व्यवहार और प्रवृत्यात्मक  विषेशताओं के अन्तर को ,उनके भिन्न सामूहिक अचेतन को उनके पूर्वजों के द्वारा विकसित र्इश्वर की भिन्न अवधारणाओं से समझा जा सकता है । इस विमर्श की दूसरी महत्त्वपूर्ण स्थापना यह है कि पशिचम के व्यवस्था की शकित-संरचना उसके र्इश्वर की चारित्रिक परिकल्पना के अनुरूप ही न सिर्फ अधिनायकवादी है ,बलिक वह वैसी ही शकित-संरचना के अनुरूप बार-बार राजनीतिक व्यवस्था, की खोज करती है । यह विमर्श उनके लिए भी उपयोगी हो सकता है जो पशिचम के सामूहिक अचेतन से अनभिज्ञ रहते हुए, उसे एक सार्वकालिक और सार्वभौमिक आदर्श मानकर ,उसे पूरब के सामूहिक अचेतन को समझे बिना ही पूरब की धरती पर पशिचम की अवधारणाओं को अविकल रूप से किसी उपनिवेश की तरह घटित और मूर्त देखना चाहते हैं। चाहे वह पशिचम का साम्यवाद या वैशिवक नेतृत्व के दावेदार अमेरिका का तथाकथित सफल पूंजीवाद ही क्यों न हो ।
          पशिचम की सभ्यता-चाहे वह लोकतन्त्र ही क्यों न हों ,आज भी व्यवहार के धरातल पर सामान्य मनुूष्य के अधिकारों के अन्तत: निरस्तीकरण और अपहरण पर ही आधारित है । आज भी पशिचम की सभ्यता अपने द्वारा विकसित सबसे आदर्श व्यवस्था लोकतन्त्र में भी सबसे सही मनुष्य के रूप में तात्कालिक राजनीतिक र्इश्वर की खोज कर रही है । यह कि पशिचम की राजनीतिक शकित की परिकल्पना में आज भी वही आदिम कबीलार्इ र्इश्वर छिपा हुआ है ,जिसने सददाम हुसैन की तरह एडम को अपने आदेश की अवहेलना कर वर्जित फल चखने के अपराध में धरती पर अपदस्थ कर दिया था । जो आज भी उतना ही असहिष्णु है -मानव निर्मित राजनीतिक व्यवस्था के माध्यम से पुनर्जीवित होकर । जिसने कभी भी वैचारिक चुनौती देकर शैतान को सभ्य और नैतिक होने के लिए प्रेरित नहीं किया । जो स्वयं उस युग के मनुष्यों की खोज है जब भारत में असामान्य मनोरोगी राक्षस और पशिचम में शैतान से प्रेरित माने जाते थे । जो उन्नीसवीं शताब्दी में मनुष्य द्वारा निर्मित दैत्याकार मशीनों की तरह ही दैत्याकार यानित्रक व्यवस्था के रूप में पुन: जीवित हो उठा था । जिससे जुड़े मानव-विश्वासों को माक्र्स नें मानव-जाति के लिए अफीम के समान मानते हुए भी अपने भीतर के उसके अचेतन मनोवैज्ञानिक प्रभावों का अतिक्रमण करने की वैचारिक सफलता नहीं प्राप्त की , क्योंकि पशिचम के अधिनायकवादी निरंकुश,असहिष्णु और एडम विरोधी र्इश्वर की तरह उसका पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ही उसके जातीय आदिम अचेतन का ही दार्शनिक विस्तार है । पशिचम का सामूहिक अचेतन शैतान के रूप में निरन्तर अपने किसी अदृश्य शत्रु की खोज के लिए विवश करती है । शैतान के कुटिल चालों से संत्रस्त र्इश्वर और उसकी सृषिट की तरह पशिचम जिस अवधारणा की उपज है ,वह बुद्ध के अशेष करुणा के मर्म तक पहुंच ही नहीं सकता है। सच तो यही है कि शैतान की ओर से होने की आशंका  के साथ ही यीशु को क्रूस पर चढ़ा दिया गया था । मुहम्मद साहब के विरोध का कारण भी उनके शैतान की ओर से होने की आशंका ही थी । आश्चर्य की बात यही है कि यहूदी ,र्इसार्इ और इस्लाम तीनों धमोर्ं को मानने वाले समाज नें शैतान के रूप में शत्रु की खोज जारी रखी । यही कारण है कि पशिचम एक आशंकित सभ्यता का निर्माण करता है तथा अनैतिक कूटनीति और शकित-आधारित हत्याओं  का नैतिक समर्थन और भव्यीकरण भी। ऐसे ही विश्लेषणों के कारण अप्रिय लगते हुए भी इस लेख में इस तथ्य की ओर भी संकेत करना पड़ा है कि अपनी सारी वैचारिक स्थापनाओं के बावजूद माक्र्स प्रणीत साम्यवाद की सांस्कृतिक सीमा यह है कि वह पशिचम के एकेश्वरवादी-अधिनायकवादी आदिम-कबीलार्इ सांस्कृतिक अचेतन की न सिर्फ परम्परा में है ,बलिक उसका लाेंकतानित्रक राजनीतिक आधुनिक संस्करण है । उसके द्वारा विकसित व्यवस्थाओं के वर्तमान व्यवहार में भी कबीलार्इ आक्रामकता और असभ्यता के अचेतन प्रेरक-बिन्दु देखे जा सकते हे। भारत के एकमात्र निर्णायक और विशुद्ध क्रानितकारी आन्दोलन नक्सलवाद में भी पशिचम के कबीलार्इ अचेतन का ही पूरब में वैचारिक उपनिवेश देखा जा सकता है ।
          मेरी दृषिट में आज के पशिचम की सभी राजनीतिक व्यवस्थाएं पषिचम के अधिनायकवाादी असहिष्णु र्इश्वरीय सामूहिक अचेतन का अतिक्रमण नहीं करती ,बलिक उसके राजनीतिक व्यवहार को मानकीकृत करती हैं । इसके विपरीत पूरब का साभ्यतिक अचेतन बहुलतावादी और उदार है । पूरब की हिन्दू और बौद्ध जैसी दोनों महत्वपूर्ण गैर-राजनीतिक सभ्यताएं मानव-जीवन के स्थायित्व के लिए सांस्कृतिक और सामाजिक सत्ता और व्यवस्था-प्रविधियों की खोज करती रही हैं । अपने अविश्वास के जातीय मनोविज्ञान एवं संस्कृति के कारण पशिचम जहां शकित आधारित राजनीतिक सत्ता को पसन्द करता रहा है वहीं पूरब का प्रयास राज्य-व्यवस्था को एक सांस्कृतिक-सामाजिक उपसिथति के रूप में विकसित करने का रहा है । यहीं कारण है कि पूरब के सभी महान आदर्श और प्रेरक चरित्र चाहे वह राम ,कृष्ण महावीर बुद्ध हों या गांधी सभी राजनीतिक सत्ता के परित्याग के मिथक का ही साभ्यतिक भव्यीकरण प्रमाणित करते हैं । प्राचीन समय से ही पूरब की सामाजिक और सांस्कृतिक मानव-सम्बन्धों की संरचना राजनीतिक सत्ता के निषेध और विकेन्æीकरण पर ही आधारित रही है । विशेषकर भारत की उपजाऊ भौगोलिक समृद्धि ने उसके नागरिकों को प्राचीन काल से ही अभावजन्य प्रतिक्रियावादी और आर्थिक धरातल पर अपहरणधर्मी होने से बचाए रखा । संभवत: इसीलिए अपने लम्बे इतिहास में इसनें पशिचमी अर्थों में राजनीतिक सत्ता की खोज और स्थापना कभी नहीं की । केवल उन क्षणों को छोड़कर जिसमें काबुल-कन्धार ने रामायण और महाभारत काल में कैकेयी और गान्धारी के माध्यम से भारतीय राजघरानों में अपनी प्रत्यक्ष हस्तक्षेपकारी उपसिथति नहीं दर्ज करार्इ थी। यह अकारण नहीं है कि ये दोनों भारतीय संस्कृति को दूर तक प्रभावित करने वाले महाकाव्य पूरब और पशिचम के जीवन-मूल्य और व्यवस्था दृषिट के द्वन्द्वात्मक अन्तर्संघर्ष को भी अत्यन्त तीव्रता और प्रामाणिकता से प्रस्तुत करते हैं । इसी संघर्ष के पश्चात भारतीय समाज अपने सांस्कृतिक मूल्यों और नैतिक आदशोर्ं का निर्णायक चयन करता है ।
      भारत अपने पशिचमी प्रभाव में जिस प्रकार शकित पर आधारित राजनीतिक समाज में बदलता जा रहा है ,वह न सिर्फ भारतीय नहीं है ,बलिक सभ्यताओं के वैषम्य के कारण भारत के सामाजिक पर्यावरण में कर्इ नर्इ उत्तर-आधुनिक यानि अभूतपूर्व विकृतियों की भी सृषिट कर रहा है । इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या है भारत में पशिचमी ढंग के पेशेवर यानि कार्य एवं मूल्यांकन आधारित राजनीतिक समर्थन-तंत्र का विकसित न होना । राजनीतिक दल और उनका नेतृत्त्व गैर-राजनीतिक प्रविधियों का प्रयोग करते हुए सत्ता में बने रहना जान गए हैं । लेकिन अभी कुछ ही समय पूर्व बिहार राज्य के चुनाव-परिणामों ने संकेत कर दिया है कि देर से सही भारत बाजार के नियमों से संचालित पेशेवर राजनीति की ओर बढ़ रहा है । यहां बाजार षब्द का प्रयोग मैंने विशेष अभिप्राय से ही किया है । लोभ जनित क्रूरताओं के बावजूद बाजार सामान्यतया एक र्इमानदार मूल्य संसूचक व्यवस्था भी है। यदि उसे बाजारेतर विशेषज्ञता द्वारा दूषित या दुष्प्रभावित न किया गया हो । धर्म, जाति ,कुल और परिवारवादी संगठनों से अपâत भारतीय राजनीति एक स्वस्थ सभ्यता की दिशा में गम्भीर चिन्ता का विषय है ।
          इस चिन्ता के बावजूद पशिचम की व्यवस्था-परिकल्पना और क्रानित सम्बन्धी अनेक वैचारिक स्थापनाएं पूरब के मानवीय सांस्कृतिक-साभ्यतिक अचेतन के अनुरूप मैं नहीं पाता। अपनी विनम्रतापूमर्ण असहमति के साथ मैं ऐसा मानता हूं कि पूरब को एक स्वाभिमानी और मौलिक सभ्यता के रूप में बने रहने के लिए ही नहीं बलिक एक शान्त,विमर्शपूर्ण और मानवीय सभ्यता की संभावनाओं की तलाश में अपनी आधुनिकता ,वैज्ञानिक औचित्य ,वैशिष्टय तथा उपयोगिता के वास्तविक आधारों की खोज करनी ही चाहिए । उससे पशिचम राज्य और राजनीति को सामाजिक सत्ता के रूप में विकसित करने की सांस्कृतिक प्रविधि एवं मानवीय चरित्र प्राप्त कर सकता है । पशिचम की तनाव,बल-प्रयोग,अविश्वास और हिंसक कार्य-संस्कृति से बाहर निकालने में पूरब की सभ्यता के अनुभवों का मनोवैज्ञानिक विनिवेश हो सकता है । पूरब को अपनी विषेशताओं से पषिचम को परिचित कराना चाहिए न कि पशिचम के समाज के राजनीतिक सत्ता में रूपान्तरण की अवधारणा को बिना किसी परिवर्तन के स्वीकार कर लेना चाहिए ।
           अलग-अलग सभ्यताओं के र्इश्वर और उसके चरित्रीकरण-प्रतीकीकरण की भिन्न अवधारणाओं को उनके अलग और विशिष्ट सामूहिक अचेतन के प्रभावशाली प्रमाण के रूप में देखना उचित होगा । ऐसा करने के पर्याप्त साभ्यतिक साक्ष्य है। यह एक तथ्य है कि विगत सामुदायिक विश्वास एक भावी और आदर्श वैशिवक समाज की रचना में बाधक हैं । अवधारणाओं की अराजकता ने जिस बहुसांस्कृतिक और बहुराष्æीय विश्व का निर्माण किया है , एक विकसित और सभ्य मानव-सभ्यता के लिए उसका संरक्षण किया जाना चाहिए या विसर्जन । जबकि एक सीमा के बाद ये विविधताएं किसी स्वतन्त्र आविष्कार की तरह मानव-विश्व को रंगारंग और बहुवैकलिपक भी बनाती है । जबकि आस्वाद आधारित सभी उत्पाद -मिठार्इ और संगीत से लेकर सांस्कृतिक-सामाजिक व्यवहार तक सभी मनुष्य की सृजनशीलता के ही विविध आयाम हैं । उन सभी के लिए जो इस धरती को छोड़कर अन्तरिक्ष की उड़ान नहीं भर सकते इसी बूढ़ी धरती में ही अपनी सृजनष्ीलता के आयामो और अवसरों की खोज करनी होगी। उदाहरण के लिए हर नया खेल एक नए आनन्दपूर्ण व्यवहार पद्धति की भी खोज करता है । चाहे वह कि्रकेट ,फुटबाल या टेनिस ही क्यों न हो अपनी व्यापक लोकप्रियता और सामाजिक स्वीकृति के बाद सांस्कृतिक बन ही जाता है । कर्इ रीति-रिवाज सीमित या व्यापक रूप से उत्सवधर्मी मानवीय पर्यावरण का निर्माण करने के कारण स्थानीय और हास्यास्पद होने के बावजूद समुदाय विशेष के लिए महत्वपूर्ण आनन्द प्रदायी भूमिका में होते हैं ।  इसलिए ''सोशल और 'कल्चरल इंजीनियरिंग भी मानव-सभ्यता के विकास और आधुनिकीकरण के दो क्षेत्र हो सकते हैं । इसलिए उसे संवेदनशीलता से हटाकर सृजनशीलता के दायरे में लाना ही मानव-सभ्यता के भविष्य के लिए हितकर होगा । सभ्यता और संस्कृति पर किसी वैशिवक आधुनिक विमर्श के लिए यह भी विचार का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र हो सकता है।
         गांधी की आंखों से न भी देखें तो भी राजनीतिक सत्ता का भव्यीकरण एक पशिचमी नजरिया है जो मनोवैज्ञानिक दृषिट से न सिर्फ लोकतन्त्र की समानता की अवधारणा की मूल-भावना के विपरीत है ,बलिक वह अपनी प्रतिक्रिया में असामान्य मनोवैज्ञानिक चुनौतियां देने वाला और आपराधिक रूप से उकसाने वाला भी है । मैं भारत और अमेरिका में हुए आक्रमणों को ऐसी ही असामान्य मनोवैज्ञानिक उत्तेजना का परिणाम मानता हूं। गांधी की हत्या के पीछे भी उनकी नीतियों का कम, उनके महात्मार्इ विशिष्टतावाद की प्रतिक्रिया में उपजी चुनौतियों का अधिक हाथ रहा होगा । असितत्व और व्यकितत्व के भव्यीकरण और बढ़ते सार्वजनिक प्रभाव के साथ वह व्यकित अपनी प्रभावशीलता के औचित्य और अनौचित्य के प्रति जवाबदेह होता जाता है ।
         जीवन का विसंस्कृतिकरण करने वाले या संस्कृति-विशेष को एकमात्र आदर्श करने वाले जीवन के ऐसे तथाकथित शुद्धतावादी प्रयासोें के पीछे मनुष्य को यन्त्र मानने वाली वह मशीनी अवधारणा भी छिपी है ,जो अठारहवी-उन्नीसवीं शताब्दी के आविष्कारों तथा दैत्याकार यन्त्रों की अतिमानवीय शकितयों से चमत्कृत और मुग्ध होकर मनुष्य को भी एक स्वचालित जैविक यन्त्र-विशेष ही मान बैठा । मुझे तो प्रथम और द्वितीय विश्व-युद्ध तथा आज की आतंकवादी बर्बरता में भी अठारहवीं सदी की नवीन वैज्ञानिक आविष्कारों से चमत्कृत युगीन चेतना का यन्त्रवादी अचेतन ही छिपा दिखता है। जबकि आज के परमाणु युग का जीव-विज्ञान जीन की संरचना में विभिन्न रसायनों के बन्ध के रूप में भौतिक पदाथोर्ं के भी जीवन के उदभव और असितत्व के महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखे जाने का आग्रह कर रहा है। अठारहवीं शताब्दी के यानित्रक भौतिकवाद से प्रेरित जीवनबोध को जैविक भौतिकवाद की ओर ले जाने की जरूरत है । यह सांस्कृतिक-बोध मुझे अब भी असाहितियक नहीं लगता कि प्रकृति का जैव-यानित्रक उत्पाद ही सही फिर भी जीवन अपनी भौतिक सामान्यता में भी एक असामान्य विलक्षण चमत्कार है-जो प्रकृति और ब्रहमाण्ड के अरबों-खरबों विरल संयोगों के बाद संभव हुआ है । उसे मध्ययुगीन आध्यातिमक सम्मान यदि नहीं दे सकते तब भी उसे आतिमक सम्मान तो दिया ही जाना चाहिए-इस ऐतिहासिक अनुभव और वैचारिक चेतावनी के साथ कि तथ्यपरक विश्वास रहे हों या काल्पनिक अन्ध-विश्वास दोनों ने ही हजारों वर्षो तक मनुष्य जाति की जिज्ञासा वृतित को स्थगित रखनें में प्रगति-विरोधी सफलता पार्इ है ।
          इसीप्रकार एक नर्इ मानव-सभ्यता की खोज में पूरब की सभ्यता और संस्कृति के आधुनिकतावादी विमर्श  के लिए भिन्न मानव-व्यवस्था ,परिकल्पना और वैशिष्टय के कर्इ और बिन्दु रेखंकित किए जा सकते हैं । सभ्यतागत भिन्नता और उनकी भिन्न प्रेरक अवधारणाओं के तुलनात्मक विश्लेषण से यह तथ्य सामने आता है कि अपने सजग इतिहास-बोध की परम्परा के कारण पशिचम जहां समय को रचता है ; या यह कहें कि समय को रचते हुए जीता है तो पूरब हर मनुष्य को अपने आदिम निर्विकार मन की खोज के लिए प्रेरित करता रहा है । यहीं एक और तथ्य सामने आता है कि एक सीमा के बाद हर सभ्यता अपने मनुष्यों को साभ्यतिक यन्त्र में बदलती जाती है । पूरब की सांस्कृतिक प्रकि्रया मनुष्य को पीढ़ी-दर-पीढ़ी साभ्यतिक यानित्रकता, लौकिक स्मृतियों के पूर्वापर प्रभाव नियति या जड़ता से बाहर निकालकर विशुद्ध विवेक की ओर मोड़ने की रही है । जीवन-बोध को निरन्तर अधतन बनाए रखने का प्रयास शवों को तुरन्त जलाकर उसका तुरन्त विलोपन कर दिए जाने में भी देखी जा सकती है । प्रकृति मृत को सड़ाकर खाद में बदल देना चाहती है ,जबकि स्मृतिजीवी होने के कारण मनुष्य अपनी सारी स्मृतियों को अनन्तकाल के लिए संरक्षित करना चाहता है । पशिचम की इतिहास चेतना इसी मानवीय स्मृतिजीविता का परिणाम है । यही स्मृतिजीविता ही उसे कब्र-निर्माण के लिए प्रेरित करती है । वह मानव शरीर को नहीं बचा सकता तो वह उसकी कब्र को ही बचा लेना चाहता है । इसप्रकार वह स्मृति की अमरता की खोज करता है जबकि पूरब की सारी सराहना लौकिक स्मृति से बाहर निकले चित्त के लिए ही रही है । इसे ही वह मोक्ष कहता रहा है ।
         इसीलिए मैंं इस विमर्श का आरम्भ यहां से करना चाहूंगा कि वैशिवक धरातल पर मानव-जाति के सांस्कृतिक इतिहास का विश्लेषण करने पर यह तथ्य सामने आता है कि वर्तमान में आदिम विश्वासों के रूप में मानव-जाति के पास दो र्इश्वर है । एक पशिचम का विधि-निषेधों के प्रति अति-संवेदनशील नैतिक किन्तु असहिष्णु र्इश्वर ; दूसरा र्इश्वर के होने न होने की परवाह न करने वाला , मानव के विशुद्ध चित्त की खोज करने वाले धर्म का आविष्कारक मनुष्य जो अपनी पवित्रता और दिव्यता से र्इश्वर की अवधारणा को ही अप्रतिषिठत कर उसे धरती पर उतारने में विश्वास करता है । जिसके धर्म का आरम्भ ही राजनीतिक शकित के परित्याग से होता है । इसे स्पष्ट करते हुए मैं कहूं तो दुख से मुकित के लिए सिद्धार्थ के राज्य-त्याग को मैं सामाजिक और सांस्कृतिक शकित ( संघ ) की खोज के रूप में लेता हूं । राज्य-त्याग का वर्तमान भारत में दूसरा महत्त्वपूर्ण लोकप्रिय आदर्शवादी चरित्र राम का है,,जिन्हें भारत में एकल दाम्पत्य का मैं प्रवर्तक मानता हूं । जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी से लेकर उन्नीसवी शताब्दी के पूर्वाद्र्ध तक सकि्रय और जीवित मो.क.गांधी तक मानव-अपमान पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था का नैतिक बहिष्कार करते दीखते हैं । इसी आधार पर मैं पूरब की संस्कृति और धर्म को मानव-असितत्त्व की दिव्यता का सम्मान करने वाली संस्कृति मानता हूं । बौद्ध और जैन धर्म के बाहर भी पूरब का र्इश्वर एक विकेन्द्रीकृत र्इश्वर है। तातिवक दृषिट से वह मनुष्य की र्इश्वरता और दिव्यता को स्वीकार कर र्इश्वर की व्यकितवादी शकित-संरचना उपसिथति और असितत्व की सभी धारणाओं को शून्य करता है । इतना शून्य कि वह एक नैतिक और शिष्ट-पवित्र मनुष्य के रूप में भी देखा जा सकता है ।
          पूरब की र्इश्वर सम्बन्धी अनेक अवधारणाएं जीवन की आश्चर्यजनक विविधता और चमत्कारिक उपसिथति को समेटने के प्रयास में र्इश्वरीय सत्ता के विकेन्द्रीकरण का बोध और संकल्पना देती हैं ;जबकि पशिचम का र्इश्वर अवधारणा के समाज-मनोवैज्ञानिक प्रभावों के धरातल पर राजनीतिक सत्ता के केन्द्रीकरण को प्रोत्साहित करता है । यही कारण है कि इस व्यवस्था का प्रतिरोध निर्मित करने के लिए कार्ल माक्र्स को सर्वहारा के अधिनायकत्व की परिकल्पना करनी पड़ती है । इसप्रकार पूरब की मुकित का अधतन यूटोपिया साम्यवाद भी शकित-संरचना के पशिचमी अचेतन से बाहर नहीं निकल पाया और निरन्तर बल-प्रयोग के द्वारा स्वयं को जीवित रखने का प्रयास करता हुआ जल्दी ही थक गया । पशिचम की व्यवस्था-संरचना और परिकल्पना का दोष और सीमा दोनों ही यही है कि वह बार-बार अपने र्इश्वर की आदिम अवधारणा की राजनीतिक पुनर्रचना करने लगता है। अमेरिकी राष्æपति इसका उदाहरण है फ्रांस भी इसका अपवाद नहीं है ,इंग्लैण्ड का प्रधानमन्त्री भी प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने निर्वाचित सहयोगियों की  इच्छा के निरस्तीकरण और उपेक्षा की वैधानिक षकित पा लेता है। कहने के लिए वह जनता के प्रति जवाबदेह होता है ,संचार-माध्यमों द्वारा निर्मित जनमत से प्रभावित हो सकता है ; लेकिन सच्चार्इ यही है कि एक बार निर्वाचित होने के बाद वह प्रभावित होने के लिए बाघ्य नहीं है । व्यवस्था के शकित-संरचना से सम्बनिधत सभी का सामूहिक अचेतन एक होने के कारण जनता भी उसके ऐसे निरंकुश व्यवहार को स्वीकार करती रहती है । दूसरे शब्दों में वह अचेतन रूप से सहमत होती चलती है । इसीलिए मुझे लगता है कि पशिचमी सभ्यता जब तक अपने सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक अचेतन का समुचित विश्लेषण नहीं करती तब तक वह नेपालियन ,हिटलर और स्टालिन ,निक्सन और बुश पैदा करती रहेगी । उसका लोकतन्त्र भी सामान्य  जन की इच्छाओं के निरस्तीकरण से प्राप्त व्यवस्था-प्रभु की खोज करता है । आज का भारत पशिचमी र्इश्वर की अवधारणा से संक्रमित शत्रु राष्æों के कूटनीतिक विद्वेष और घात करने वाले चालों से संत्रस्त है ।
           पषिचम के र्इश्वर को जिसे मैं पशिचम के सांस्कृतिक अचेतन का आदिम सामूहिक प्रतीक मानता हूं । उसमें यीषु मसीह के प्रतिरोधपूर्ण हस्तक्ष्ेाप की सही समाज-मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्या स्वयं पशिचम ने ही नहीं की है । एक ऐसा भावुक युवक जोे अपनेे जीवनकाल में ही अपनी मां के पति यूसुफ का पुत्र नहीं माना जाता है -अपने जीवन को एक ऐसे दिव्य पिता की खोज में समर्पित कर देता है ,जिसके पुत्र सारी दुनिया और सभी देश-काल के सभी मनुष्य हैं । र्इसार्इ धर्म का योग दान यह है कि जैविक पिता सम्बन्धी कबीलार्इ  अवधारणा का विरोध करता है । यहूदी धर्म की मूल परम्परा ही नस्लीय और रक्त-शुद्धता पर आधारित ,हजारों वर्ष लम्बी  वंशानुगत यात्रा में एक जातीय परिवार की रही है । उनके जन्म को देवदूतों से जोड़ने वाला प्रसंग जितना  उन्हें महिमा-मंडित करता है ,उनके जन्म से ही विशिष्ट होने के बोध का व्यकितगत और सामाजिक पोषण करता है । दूसरी ओर बार-बार उनके पिता के बारे में पूछे जाने को जिसे र्इसार्इ परम्परा प्राय: आध्यातिमक प्रश्न के रूप में ही लेती है उसकी तत्कालीन यहूदी मनोवृतित की परिचायक व्यंग्यात्मक प्रश्न के रूप में सामाजिक व्याख्या भी की जा सकती है । जिसका काव्यात्मक उत्तर देकर यीशु अपनी प्रतिष्ठा बचाने का प्रयास करते रहे और अन्तत: तत्कालीन यहूदियों के शुद्धतावादी प्रतिरोध एवं षडयन्त्र के शिकार हो गए । जैविक पिता की अनिवार्यता तथा यहूदियों की कुटुम्बीय जाति की अवधारणा का अतिक्रमण करते हुए यीशु स्वयं को अपने दिव्य पिता का पुत्र घोषित कर सारी मानव-जाति के एक ही उदगम की ओर जो ध्यान आकर्षित करते हैं , उनकी उपलबिधयां प्लेटो और अरस्तू की तरह भले ही बुद्धिवादी नहीं रही होंं लेकिन पशिचमी समाज के लिए वे युगान्तरकारी संस्कृति-वैज्ञानिक अवश्य प्रमाणित हुए । उनके दिव्य पिता का पुत्र होने की अवधारणा प्रसिद्ध भारतीय अवधारणा 'वसुधैव कुटुम्बकमके समानान्तर ही प्राचीन काल का क्रानितकारी वैशिवक प्रयास है ।
         इन दृषिटयों को लेकर मैं जब पशिचम की ओर देखता हूं तो आम धारणा के विपरीत यीशु और मुहम्मद दोनों ही मुझे पषिचम में पूरब की राजनीतिक शकित विरोधी सामाजिक-सांस्कृतिक-नैतिक शकितवादी चेतना के ही विस्तार लगते हैं । दोनों ही एडम ओर र्इव की थोड़ी भी चूक को बर्दास्त न करने वाले पषिचम के असहिश्णु अधिनायकवादी र्इश्वर को मानवीय बनाते हैं । मानव-जाति के सम्पूर्ण इतिहास में दोनों ही अभूतपूर्व यतीम (पितृविहीन,अनाथ) न सिर्फ दिव्य और सार्वभौम पिता की खोज करते हैं बलिक आदिम कबीलार्इ अवधारणा के गुस्सैल-असहिश्णु र्इश्वर का पिता और पुत्र के मानवीय सम्बन्धों में पुनर्संस्कार करते हैं । जैसे आज का भारत गांधी को गोली मारकर उनकी विचारधारा से दूर हट गया है ,मुझे बार-बार लगता है कि यीशु को क्रूस पर चढ़ाकर और मुहम्मद साहब की मृत्यु के पष्चात पशिचम भी अपने प्रर्वतकों की पीड़ा और विचारधारा को समझने में असफल रहा है । पशिचम बार-बार अपने व्यवस्था-निर्माण की सभी शैलियों में ,अपने आदिम-कबीलार्इ अधिनायकवादी र्इश्वर की ही खोज करते हुए दमन ,निरसित तथा सामान्य मनुष्य के अधिकारों का अपहरण करने वाली व्यवस्था-परिकल्पना की ओर बार-बार लौट आता है । इस लौटने को सिकन्दर,नेपोलियन,हिटलर,स्टालिन ,सददाम हुसैन,लादेन और जार्ज बुश आदि कर्इ आवर्ती रूपों में देखा जा सकता है । पशिचम इस अचेतन से बाहर निकलकर राजनीतिक शकित आधारित व्यवस्था से बाहर किसी सामाजिक-सांस्कृतिक शकित आधारित मानव-विश्व और व्यवस्था की खोज कर ही नहीं सका है । विभाजित स्वामित्व (र्इश्वर और शैतान ) की अचेतन अवधारणा नें उसे क्रमश: काल्पनिक शत्रु के षडयन्त्रों के प्रति शक्की ,कूटनीतिक ,सह-असितत्व विरोधी ,कुचक्री ,असहिष्णु और हिंसक बना दिया है । अपने इस अचेतन से मुकित का संघर्ष और प्रयास स्वय पशिचम को ही करना होगा । उसे लौटना ही होगा यीशु और मुहम्मद जैसे अपने दिव्य पिता के दिव्य पुत्रों की मानव करुणा वाले पवित्र संस्कृति-पूर्वजों की ओर। इतना ही नहीं ,एक ही सामूहिक अचेतन के उत्तराधिकारी पशिचमी पूंजीवाद और साम्यवाद प्रवर्तक कार्ल माक्र्स के भी राजनीतिक साम्यवादी व्यवस्था को पूरब के सामाजिक-सांस्कृतिक-विकेन्द्रीकृत र्इश्वर वाले सामूहिक अचेतन के अनुरूप-मानव-सम्मान पर आधारित ,विकेन्द्रीकृत किन्तु आत्मानुशासित ,अहिंसक, और शान्त मानवीय व्यवस्था की खोज करनी ही होगी ।
        पूरब -विषेशकर भारत की आध्यातिमक अवधारणाओं का मूल सूत्र उसकी भाषा-वैज्ञानिक चेतना के विकास में छिपा हुआ है । उसका ब्रहम, सिथतिप्रज्ञता  और शून्य वस्तुत : सभ्यताजन्य विकृतियों से अप्रभावित मनुष्य के विशुद्ध चित्त की खोज ही है । यह चित्त जो सर्वकालिक आदिम है और अधतन भी । इस चित्त की खोज उस रेफरी की उपसिथति की तरह महत्वपूर्ण है ,जो किसी खेल के हिंसा में बदल जाने के पूर्व ही चेतावनी की सीटी बजाकर उसे रोक सकता है । पशिचम का र्इश्वर नितान्त अवधारणापरक है जबकि  पूरब का र्इश्वर अवधारणा से अधिक सांस्कृतिक और प्रतीकात्मक है । पूरब के लिए ऐतिहासिक स्मृतियों को जीना जीवन-प्रकि्रया की आवृतित और अनावश्यक को जीना है । उसके लिए ऐतिहासिक स्मृतियों को जीना ही अहंकार और मोह-युक्त मन को जीना है -अफीम है । इसके विपरीत पशिचम के  र्इश्वर की व्यापित कम है । वह तात्तिवक और दार्शनिक कम लेकिन सामाजिक और मानवीय अधिक है । वह सृषिट के निर्माता तथा अच्छार्इ और बुरार्इ के प्रतीकों का सरलीकृत रूप है।  वह अपनी अवधारणा में ही सर्वशकितमान नहीं है । वह और उसकी बनार्इ दुनिया , उसके समानान्तर की र्इष्यालु रूहानी उपसिथति शैतान के कायोर्ं एवं मानव-विरोधी षडयन्त्रपूर्ण प्रयासों से संत्रस्त है । उसका एकेश्वरवाद भी दरअसल आषिंक एवं विभाजित एकेश्वरवाद है ; क्योंकि उसकी अवधारणा में सृषिट की सारी शकितयां ( शैतान के सह-असितत्त्व के कारण निरीह एवं संत्रस्त किन्तु सिर्फ मानव-विश्व का निर्माता होने की सीमा तक ही आंशिक सर्वशकितमान) एक अच्छे एवं पवित्र (जिन्न!) गाड ,खुदा या यहोवा तथा (बुरे जिन्न ) शैतान या इबलीस में विभाजित हैं। दरअसल वह प्रभावशाली शासक-सत्ता और शासक बनने क लिए निरन्तर षडयन्त्ररत शत्रु-सत्ता का ही आदिम रूपक है। मानव समाज में व्याप्त अच्छाइयों और बुराइयों का ही सृषिट की विराटता के समकक्ष निर्मित चारित्रिक प्रतिरूप । इस प्रकार अवधारणा के स्तर पर वह जन-सामान्य के लिए उपयोगी है ही नहीं । क्योंकि उसकी अवधारणा एक राजनीतिक संस्कृति का ही निर्माण कर सकती है और अपने समाज-मनोवैज्ञानिक प्रभावों में वह सिर्फ एक सैन्यीकृत समाज और संस्कृति का ही प्रेरक और निर्माता हो सकता है ।
           यह एक संयोग नही है कि पशिचम के प्राय: सभी प्रसिद्ध धर्मप्रवर्तक जैविक परिवार की आदिम कबीलार्इ अवधारणा को न सिर्फ गहरी चोट पहुंचाकर उसे ध्वस्त करते हैं और सम्पूर्ण मानव-जाति के एक परिवार होने का सन्देश देते हैं। (सिर्फ मूसा को छोड़कर , जो अपने कुल की अपमानित असिमता के प्रतिकार के प्रयास में विश्व के सबसे बड़े पारिवारिक धर्म (यहूदी) से कभी बाहर नहीं निकल पाये )। लौकिक या संकीर्ण परिवार के प्रति उनका (यीशु और मुहम्मद का ) दार्शनिक निषेेेध अकारण ही नहीं है । ऐसा करने के पीछे उनके निजी जीवन के अनुभवों का ठोस मनोवैज्ञानिक आधार भी था । मनोवैज्ञानिक दृषिट से पितृ-विहीनता की यही मानसिक आवृतित इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मुहम्मद साहब में भी देखी जा सकती है तथा कुछ परिवर्तन के साथ रामायण और महाभारत के नायक राम और कृष्ण में भी। मुहम्मद साहब के पिता अब्दुल्लाह की मृत्यु तो उनके जन्म से पहले ही हो चुकी थी । कृष्ण की तरह , जिन्होने अपनी मां देवकी का दूध नहीं पिया बलिक यशोदा का पिया तथा उनका विकास ही एक सर्वप्रिय सार्वजनिक शिशु के रूप में हुआ-मुहम्मद साहब नें भी अरब की प्रथा के अनुसार अपने चाचा की दासी सुवैबा तथा किराए की दार्इ हलीमा का दूध पिया । सन्तानोत्पतित के लिए अयोग्य दसरथ के यहां राम का जन्म ही विशिष्ट एवं दिव्य शिशु होने की अवधारणा के साथ हुआ । मध्ययुगीन सन्त कवि कबीर के भी जन्म की मानवीय-मनोवैज्ञानिक परिसिथतियां इसीप्रकार की हैं । अपने वास्तविक जैविक पिता के जीवित स्नेह और मानवीय संरक्षण से वंचित इन सभी शिशुओं ने मानव-जाति की सांस्कृतिक संरचना को बहुत दूर तक प्रभावित किया। ये सभी किसी दिव्य सत्ता के प्रतिनिधि या अवतार हैं या नहीं लेकिन मेरी दृशिट में महान और महत्वपूर्ण सामाजिक प्रभाव वाले ऐसे संस्कृति-वैज्ञानिक हैं जिन्होनें मानव-जाति के इतिहास में रागात्मक सम्बन्धों की पारिवारिक और कबीलार्इ संरचना को तोडा । उसका अतिक्रमण किया और मानव-जीवन को रागात्मक सम्बन्ध के धरातल पर सम्पूर्ण प्रकृति के साथ अन्तर्सन्दर्भित करते हुए पुनर्परिभाषित किया । यह धर्म का वह समाज- मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य है जिसका सम्बन्ध र्इश्वर की दार्शनिक अवधारणा से कम ,लेकिन मानव-जाति के सम्पूर्ण असितत्व से अधिक है । मानव-जाति के असितत्व के सम्पूर्ण इतिहास में परमाणु और हाइड्रोजन बम के आविष्कार और विस्फोट की तरह ये नैतिकता और आत्मीयता के बड़े संवेदनात्मक विस्फोट हैं । हिन्दुओं में जीवन पर्यन्त के लिए एकल दाम्पत्य-सम्बन्ध की सामाजिक प्रथा का सम्बन्ध तीन पतिनयों वाले पिता दसरथ के पुत्र राम के एकल दाम्पत्य से है ।
        स्वयं र्इसाइयत में भी बौद्ध-धर्म की वैशिवक उपसिथति के परिदृश्य में भी पूरब की सांस्कृतिक सत्ता का पशिचम मेें स्थापित होता हुआ उपनिवेश देखा जा सकता है । लेकिन पशिचम की त्रासदी यह है कि र्इसार्इ-विश्व संगठित होते ही एक बार फिर ' ओल्ड टेस्टामेंट मेें व्यक्त सृषिट के उदभव सम्बन्धी अवधारणाओं की ओर मुड गया। इससे आगे चलकर पशिचम का नवजागरण और अधिक संघर्ष और चुनौती-पूर्ण हो गया । बाद का सारा र्इसार्इ धर्म स्वयं र्इसा मसीह द्वारा नहीं बलिक उनकी शहादत को प्रचारित और भव्यीकृत करने वाले उनके भावुक अनपढ़ और अन्धविश्वासी अनुयायियोंं द्वारा रचा गया । उदाहरण के लिए आदम के पाप के फल को चखने और यीषु के बहे हुए रक्त के बीच सम्बन्ध स्थापित करने वाली भावुक धार्मिक अपील के लिए स्वयं यीशु को तो जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता । सृषिट के मात्र छह दिन में रचना सम्बन्धी धारणा का भी यीशु से क्या सम्बन्ध हो सकता है ! इसीलिए मेरा मानना ह कि यीशु मसीह पूरब की संस्कृति और चेतना के ऐसे प्रतिनिधि हैं , जिनकी पशिचम नें हत्या कर दी ,दूसरी हत्या पशिचमीकृत भारत के अचेतन धार्मिक अनुयायी नें गांधी की बीसवीं शताब्दी में की जिसे मैं इस्लाम की प्रतिक्रिया में भारतीय सभ्यता के पषिचम से संक्रमण की स्वााभाविक एवं ऐतिहासिक प्रतिनिर्मित में उपजे -सांस्कृतिक दृषिट से मुसिलमीकृत हिन्दू के हाथों हुर्इ मानता हूं । इस्लाम के सांस्कृतिक प्रतिरोध में निर्मित हिन्दू जिसका जन्म ही शरीर में बनने वाले प्रतिजैव की तरह प्रति- इस्लामी है । इस संक्रमित इस्लामीकृत हिन्दू का सांस्कृतिक अचेतन भी मैं पूरब के विकेन्æीकृत शकित-संरचना तथा  र्इश्वर की अवधारणा सम्बन्धी अचेतन के अनुरूप भारतीय नहीं मानता ।
            वस्तुत: पूरब लम्बे समय तक सामुदायिक-सांस्कृतिक सत्ताओं को ही जीने का आदी रहा है.....


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         एक नयी व्यवस्था को पानें की दिशा में भविष्य-चिंतन परिकल्पना,योजना और यूटोपिया के रूप में हो सकता है । खतरा यह है कि अधिकांश यूटोपिया अपनें निर्माण के समय की वास्तविकताओं की प्रतिकि्रया में ही जन्म लेते हैं । लेकिन उनके अनुयायी और प्रशंसक उन्हें सार्वभौम मान लेते हैं । इस समझ के अभाव में किसी यूटोपिया या विचारधारा के पाश्र्व-दुष्प्रभाव का चिन्तन नहीं हो पाता । इस तरह हर परिकल्पनात्मक विचारधारा एवं यूटोपिया में
मनवीय प्र्यावरण के विनाश के कुछ खतरे हो सकते हैं ।

विचारधारा और मानवीय समाज

अधिकांश विचारधाराएँ वर्तमान व्यवस्था की अपर्याप्तता का अतिक्रमण करने और मनुष्य की भविष्योन्मुख सृजनशीलता तथा उसकी प्रत्याशी कल्पनाशीलता का परिणाम हैं..विचारधाराओं के निर्माण की तात्कालिक परिस्थिति और उनके लोकप्रिय होने की समकालीन मानवीय आवश्यकताओं को देखें तो किसी भी यूटोपिया के ऐतिहासिक आधार को समझा जा सकता है .क्योंकि हर विचारधारा का अपना देशकाल और अपेक्षाओं-इच्छाओं का अपना मानवीय पर्यावरण होता है ,इस लिए जब दूसरी पारिस्थितिकी और समय में उसे पूरी तरह सही मानकर जीने का प्रयास करते हैं तो जीवन या तो पिछड़ता है या फिर विकृत होता है.ऐसी विचारधाराएँ असुविधा,गतिरोध और तनाव पैदा कराती हैं . क्योंकि अधिकांश विचारधाराएँ और यूटोपिया अपने निर्माण के समय की वास्तविकताओं की प्रतिक्रिया में ही जन्म लेते हैं ,लेकिन उनके अनुयायी और प्रशंसक उन्हें सार्वभौम और सर्वकालिक मन लेते हैं.इस समझ के अभाव में किसी यूटोपिया या विचारधारा के साइड -इफेक्ट का चिंतन नहीं हो पाता.इस तरह हर यूटोपिया में मानवीय पर्यावरण के विनाश के कुछ खतरे हो सकते हैं..
             वस्तुतः सभ्यता के बहुत से आयाम हैं और हो सकते हैं .इसी तरह व्यवस्था -चिंतन के भी  बहुत से आयाम हो सकते हैं.शासन-सत्ता का स्वरूप ,उसकी प्राथमिकताएं और नियम,नागरिकों या शासितों के अधिकार या नियम आदि व्यवस्था-चिंतन करने वाली विचार-धाराओं के मुख्या-विषय रहें हैं . इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कोई भी विचारधारा तकनीक और विज्ञानं की व्यावहारिक प्राथमिकताओं को ही प्रभावित कर सकती है ,उसकी ज्ञानात्मक सैद्धांतिकी को नहीं .
    व्यापक लोकप्रियता और संस्कारगत मानवीय उपस्थिति के कारण विचारधाराए प्रायःअतीतजीविताको बढावा ही देती हैं.सामजिक अनुकरणशीलता में पुनरुत्पादित होने के कारण वे अतीतोंमुखी समाज की रचना भी करती हैं इसी लिए आधुनिक होना सदैव नया होना ही नहीं होता ,न ही आधुनिक सभ्यता से आशय पूरी तरह वर्तमान की अद्यतन सभ्यता ही है .दरअसल हम जाने -अनजाने यथार्थ का कालान्तरणकर रहे हैं -प्राचीन को आधुनिक बना रहे हैं .अतीत और वर्तमान दोनों ही एक साथ उपस्थित हैं .वस्तुतः आधुनिक और वर्तमान में फर्क है .विडम्बना याह है की जो वर्तमान है वह आधुनिक नहीं है और जो आधुनिक है वह वर्तमान नहीं है .आज का वर्तमान इतिहासग्रस्त है .अतीत का पुनरुत्पादन किया जा रहा है .इसी तरह हमारी सामूहिक जीवन अथवा सभ्यता की यात्रा वांछित-अवांछित,सुनियोजित-अनियोजित भविष्य के साथ,भविष्य की ओर हो रही है .
             इस  दृष्टि से जब वर्तमान को देखता हूँ तो पता हूँ कि अलग मानसिकता और संस्कृति के कारण समाज में ऐच्छिक विक्षोभ का भी अलग-अलग स्तर दिखता है .कम इच्छाएँ विकास की इच्छा और आवश्यकताओं के बोध को सीमित कराती हैं .इस लिए जब  कोई विचारधारा मानव-इच्छाओं को प्रेरित-प्रभावित कराती है तो वह मानवीय पर्यावरण और आविष्कारों को भी प्रभावित करने की स्थिति में होती है -चाहे वह गांधीवाद ही क्यों न हो .उदहारण के लिए देंखे तो गांधीवाद  पूंजीवाद को नैतिक और मानवीय बनता है .बनाने की अपील करता है .वह कुछ अधिक विश्वासी है .जबकि मार्क्सवाद एक नकारात्मक नियामक है और वह मनुष्य को असभ्य ,अनैतिक और अमानवीय बनाने का अवसर ही नहीं देता .मानव -मनोविज्ञान की दृष्टि से दोनों की ही आलोचना की जा सकती है .गांधीवाद का तरीका मानव-इच्छाओं की निगरानी करने का है .व्यक्ति की इच्छाओं को अनुशासित और परिसीमित करने के कारण गांधीवाद जिस मनुष्य को निर्मित करेगा वह नैतिक दृष्टि से सज्जन और भद्र पुरुष तो होगा लेकिन उसमे सृजनशीलता की कल्पनाशक्ति कुण्ठित हो सकती है .बहुत प्रभावी होने पर वह बहुत सी तकनीकों और आविष्कारों को हतोत्साहित कर सकता है .
               इसके विपरीत मार्क्सवादी विचारधारा के आधार पर निर्मित व्यवस्था की अयोग्यता भिन्न प्रकार की होगी .वह पूंजी की उन्मुक्त और निर्बाध सृजनशीलता के अधिकार को सीमित करना चाहता है इस तरह वह अभिप्रेरणा के स्तर पर सृजनशीलता के आनंद को कुण्ठित करता है . इस दृष्टि से मार्क्सवाद नकारात्मक है .
सामूहिकता में चलने -चलाने की उसकी इच्छा की तुलना परेड में चलने से की जा सकती है .वह कदमताल को अधिक महत्व देता है .
                 मार्क्सवाद में से दमन ,अविश्वास और तानाशाही को निकालकर उसमे पूंजी -निर्माण की सामूहिक और सकारात्मक सृजनशीलता को बल देने वाली व्यवस्था लाईजा सकती है .मार्क्सवाद को लेकर एक और समस्या यह है कि नियामक विचारधारा होने के कारण मार्क्सवाद संवादी नहीं है .उसकी सैद्धांतिकी बाजार और मुद्रा दोनों को ही व्यर्थ और ध्वस्त कराती है .बाजार के पास मांग और पूर्ति का सटीक सूचनातंत्र तो होता है ,किन्तु मानवीय संवेदना और नैतिक चेतना विभाजित और वर्ग-आधारित होता है.नए मार्क्सवाद को मार्क्सवाद की नैतिक चेतना और संवेदना के साथ बाजार से संवादी होना भी सीखना होगा .क्योंकि बाजार मानवजाति की सृजनशीलता का सर्वोत्तम संग्रहालय भी है .

सामाजिक मुक्ति में भाषा-बोध की युक्ति


प्राचीन भारत में जाति नहीं बदली जा सकती थी लेकिन जाति की निरर्थकता को समझा जा सकता था .क्योंकि वह प्राचीन कालसे ही माया-जगत का हिस्सा और किस्सा रहा है.एक पूरी जाति इस मायावाद के प्रचार में लगी रही.यह सब प्राचीन आदर्शवाद का हिस्सा था .आज जब कि भारत में बलात्कारी बढ़ गए हैं .भारत की प्राचीन सांस्कृतिक अभियांत्रिकी यद् आती है.तब स्त्री-संसर्ग से विरत रहने वाला महिमा-मंडित किया जाता था .लक्ष्य पुरुषोत्तम बनाने का था .ब्रह्मचारी रहना एक चुनौती पूर्ण लक्ष्य था .पुरुष होने के बोध से मुक्त एक जीवन .सदाचारी होना पुरुषार्थ के लिए एक चुनौती था .
       संभव है कि ऐसे लोगों ने भौतिकवादी अर्थ में स्त्री -संसर्ग से विरत रहकर अपना नुकसान किया हो .लेकिन उन्होंने समाज को एक संयमी जीवन जीने का चुनौतीपूर्ण लक्ष्य दिया था .संभवतः यौन -भावना के प्रति नकारात्मक चिंतन से ही उसके हारमोनो को जीता जा सकता था .उन्होंने ऐसा ही किया .उन्होंने मानवीय अस्मिता  से सम्बंधित ज्ञान की निरर्थकता को अपने भाषा -चिन्तन  के क्रम में पाया था .शब्दों के अर्थ की प्रकिया को समझते-समझाते वे ज्ञान से परे के उस चित्त तक पंच पाए ,जहाँ से शब्दों की अर्थवान दुनिया शुरू होती है .भाषावैज्ञानिक चिंतन के क्रम में ही वे अवधारणाओं से पर के उस रहस्यमय अपरिभाषित चित्त को जान पाए थे जिसे नेति -नेति कहा और ब्रह्म भी .भारतीय लोक के ज्ञानात्मक  अतिक्रमण के लिए यह लोकोत्तर प्रवास जरुरी था -चाहे यह ज्ञान या बोध के स्तर पर ही क्यों न रहा हो
       मेरी दृष्टि में आज भी इस भाषा बोध की आवश्यकता बनी हुई है .यह चाहे रहस्यमय और सर्वव्यापी ईश्वर की उपस्थिति या साक्षात्कार के रूप में न हो ,लेकिन यह भारतीयों के विषमतापूर्ण अस्मिताकरण से मुक्ति के लिए अब भी प्रासंगिक हो सकता है अर्थकरण की प्रक्रिया को पहचानकर हम अपने चित्त के जातिकरण की प्रक्रिया को भी पहचान सकते हैं और उससे मुक्त हो सकते हैं . .
         इस परिप्रेक्ष्य में रखकर देंखें तो भारतीयों की समस्या यह है कि जन-सामान्य सिर्फ भाषा का प्रयोग ही जानता है ,उसका मर्म नहीं  ।वह अपने अधिकांश-बोध में भाषा की स्थार्इ निर्मिति या वस्तु उत्पाद की तरह है । भाषा का एक जड़ संसार उसकी अर्थजीवी चेतना को नियनित्रत करता है । प्राचीन भारतीय विद्वानों नें भाषा के पार की उस दुनिया को जीवन और संसार की सीमा से परे ब्रहम की सत्त के रूप में देखा । वे चाहते तो इस ज्ञान का उपयोग भारतीयों को जातिवादी कुण्ठा से निकालने के लिए कर सकते थे । लेकिन इससे भाषा-ग्रस्त मानव-संसाधन की सामाजिक अभियानित्रकी ध्वस्त हो जाती । उन्होंने लोक को जाति-चिन्तन के लिए छोड़कर एक सीमित वर्ग को ब्रहम-चिन्तन की ओर मोड़ दिया ।
          आज भी कर्इ लोग अपनी जाति और धर्म के लिए कुणिठत रहते है और कर्इ लोग र्इश्वर को होने न होने को लेकर । निहित स्वाथोर्ं के कारण मानव समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी नहीं चाहता कि लोग शासित होने और दूसरों को बड़ा मानने की अपनी आदत छोड़ें ।  वे लाभ की सिथति में हैं इस लिए किसी भी प्रकार से अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक आदत या व्यसन कोे बनाए रखना चाहते हैं । यह जानते हुए भी कि शब्द के सच सामाजिक रूप से माने हुए ही होते हैं ,वे नहीं चाहते कि सामान्य जनता इस झूठ की भाषावैज्ञानिक- सृजनशीलता को जानें । शब्द-विज्ञान से देखें तो कौन कह सकता है कि र्इश्वर का नाम र्इश्वर ही है । शब्दों में निहित सारे अर्थ एक आभासी दुनिया की सृषिट करते हैं और दिमाग के भीतर चिन्तन के उपकरण के रूप में इश्तेमाल करने के लिए दिमाग के बाहर से लिए गए हैं । वे हमारे मसितष्क में बाहरी दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
         भाषा-विज्ञान के नजरिए से जब देखता हूं तो दलित-दलित चिल्लाना भी अप्रत्यक्ष रूप से नर्इ पीढ़ी को गुमराह करने के लिए एक भाषा-वैज्ञानिक झूठ को सच बनाने का कूटनीतिक उपक्रम ही लगता है । जो काम राजनीतिक स्वार्थ के लिए प्रभुत्वशाली वर्ग नें हजारों वषों्र तक किया उसे अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए प्रभावित वर्ग का नेतृत्व स्वयं एवं सहर्ष कर रहा है ।
           मेरा मानना है कि प्राचीन एवं आधुनिक भाषा-विज्ञान का इश्तेमाल जातिवाद और साम्प्रदायिकता से मुकित के लिए किया जा सकता है । मैं कौन हूं का प्रश्न और तर्क सिर्फ प्राचीन भारतीयों की तरह सिर्फ ब्रहम को जानने के लिए ही नहीं किया जाना चाहिए ,इस बोध का उपयोग जाति और सम्प्रदाय-बोध से बाहर निकलने और निकालने के लिए भी किया जा सकता है । यह मुकितदायक-ज्ञानवद्र्धक प्रश्नोत्तर कुछ इसप्रकार होगा-
      प्रश्न- तुममैं कौन ?
      उत्तर- तुम  मैं एक माने गए शब्द हैं ।
      प्रश्न- कैसे शब्द ?
      उत्तर- दूसरों के द्वारा दिए गए अर्थ वाले ....
एक नए समाज की रचना पुराने शब्दों से दूरी बनाए बिना संभव नहीं है । यदि किसी को परम्परा से मिले अर्थ पसन्द नहीं हैं तो उससे अलग होने की सोचे और सामूहिक बहिष्कार जीना सीखे । सभ्यता या असभ्यता से मिले हीनता या श्रेष्ठताबोधक काल्पनिक किन्तु सच की तरह जिए जाने वाले भाषावैज्ञानिक यानित्रकबोध से बाहर निकलने के लिए भाषा एवं शब्द-विज्ञान की सहायता लेनी होगी । राजनीतिज्ञ तो झूठ को भी सचके रूप् में विज्ञापित कर दंगा करा देता है । इसप्रकार समस्या यही है कि विश्व के अधिकांश लोग आज भी भाषावैज्ञानिक दृषिट सेमूर्ख या अज्ञानी हैं । वे जिस चीज से मुक्त होने के लिए संशर्ष कर रहे होते हैं,उसे ही अपने कार्य और व्यवहार की जीवन-चर्या से सच करते जाते हैं ।

सभ्यता अभियांत्रिकी


हम सब सभ्यता रूपी अभियांत्रिकी के पुर्जे हैं .हम अपने समय और समाज से इतने प्रभावित रहते हैं की हम उससे बाहर निकल कर कुछ सोच हीं नहीं पाते हैं . सबसे बड़ी समस्या उस भावुकता की है जो सच्चे जुडाव
से पैदा  होती है . यह एक तरह से बचपन के प्रति हमारी वफादारी ही है . इस तरह हमारी  अच्छाई ही हमारी बुराई  बन जाती है.साम्प्रदायिकता की सबसे बड़ी समस्या यही है.हमारा ज्ञान ही हमें एक सभ्यतिक यंत्र बना देता है .हम सभी किसी न किसी संस्कृति से संस्कारित हैं .हमारा मस्तिष्क  बचपन से प्राप्त  सूचनाओं और आदतों का अतिक्रमण नहीं कर पता. हम सभी अभी  अभी इसी धरती पर लिखे गये पृष्ठों की तरह है..हम यह सोच ही नहीं पते की प्रभाव के रूप में ही सही हमारी इच्छाएं  और मानसिकता तक दूसरो ने ही लिखी है.. हम जीवन भर क्रियाएँ नहीं प्रतिक्रियाएं करते है .क्योकि हम जो कुछ करते या जीते है उसके निर्धारक प्रायः दूसरे ही होते है 
         इस साभ्यतिक अभियांत्रिकी का एक दूसरा पक्ष भी है.किसी भी काल के मनुष्य का मस्तिष्क सिर्फ आनुवांशिक ही नहीं ,बल्कि ज्ञान के दीर्घकालीन विकास और उत्तराधिकार का भी परिणाम है .हर पीढ़ी का मनुष्य अनुभव एवं सृजन की लम्बी परम्परा का परिणाम है .मानव विकास की यात्रा में उसे समय और संस्करण के विशेष पाठ के रूप में पहचाना जा सकता है .पाठ की यह भिन्नता अलग समूहों और समुदायों के अलग विकास के रूप में भी है .इसके अतिरिक्त मनुष्य स्वभाव से ही एक सामाजिक प्राणी रहा है .अनुकरण वृत्ति और समर्थन उसकी सामाजिकता के प्रमुख स्वभाव हैं उसकी सामाजिकता के प्रमुख निर्धारक हैं .इस लिए एक सीमा के बाद मौलिकता की विशेष दावेदारी नहीं की जा सकती .हमारे व्यक्तित्व का अधिकांश प्रशिक्षणात्मक पुनरावृत्ति या आदत के रूप में होता है .समाज का यह प्रशिक्षण-तन्त्र हमें किसी समुदाय -विशेष की सभ्यता के अवयवी यन्त्र -विशेष के रूप में ढालता है .हमारा व्यवहार एक आदत की जड़ता के रूप में पुनार्घटित  होता रहता है .