शनिवार, 14 जून 2014

दुनिया का भविष्य और जनसंख्या वृद्धि का संकट

जनसत्ता 17 जुलाई, 2014 :में प्रकाशित -

 http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=73737:2014-07-17-06-33-43&catid=21:samaj


विश्व की जनसँख्या जितनी तेजी से बढ़ रही है हम मनुष्यों के लिए यह धरती कम पड़ती जा रही है .यह दुनिया भी किसी गैस के बंद सिलेंडर की तरह ही है .जिसमें जैसे-जैसे गैस सिलेंडर में भरते जाते हैं , गैस के परमाणु आपस में तेजी से टकराने लगते हैं , तापमान बढ़ता जाता है और एक समय ऐसा आता है जब बढ़ते दबाव को न सह पाने के कारण सिलेंडर में विस्फोट  हो जाता है .वैश्विक तापमान वृद्धि के प्राकृतिक संकट से पहले मानवीय पर्यावरण ख़राब होने का संकट अधिक है ..आज के बढ़ते अपराध और बिगड़ती कानून व्यवस्था में इसकी झलक देखी जा सकती है .सायकिल एवं बसों के टायर पंचर होनें में भी यही सिद्धांत कई बार काम करता है .         
              देखा जाय तो एक सियार का काम एक मांद से चल सकता है लेकिन आदमी को तो रहने की आवश्यकता के हिसाब से नहीं बल्कि उसके धन और प्रदर्शन के रुतबे के हिसाब से घर चाहिए ..कंकरीट का जंगल बढ़ाता जा रहा है .खेती की जमीन को वे लोग हड़पते जा रहे हैं जो आमदनी के दुसरे जरियों के कारण महंगा अनाज भी खरीद सकते हैं .कृषि-भूमि खरीद कर उसका क्षेत्रफल कम करने के बावजूद उनपर कोई तात्कालिक प्रभाव नहीं पड़ने वाला है .         
             अनेक सांस्कृतिक - सामाजिक कारक हैं इस जनसंख्या वृद्धि के पीछे .भारतीय मूल के लोगों का धार्मिक कारणों से पुत्र मोह जो उन्हें पुत्र होने तक संतानोत्पत्ति करते रहने के लिए विवश करता है .इसमें बंश की अवधारणा और बांस नामक एक घास-कुल की वनस्पति से उपमा की भी नक्रारात्मक भूमिका है. . बांस की एक विशेषता होती है कि उसका नया पौधा बांस की जड़ के पास ही फूटता है .उसमे बीज नहीं पे जाते इस लिए वह दूर-दूर अन्यपौधों कि तरह नहीं उग सकता .इसका साम्य बस इतना ही है कि विवाह के बाद स्त्रिया विस्थापित हो जाति है जबकि पुरुष घर में ही बना रहता है .देखा जाय तो बेटी दुसरे परिवार में जैविक विशेषताएँ लेकर जाती है तो दुल्हमें बैठे -बैठे ही बाहर से आकर किसी परिवार या कुल  के गुण-तंत्र को बदल देती हैं .कहने के लकी सिर्फ आर्थिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक स्वरूपों ही बना रहता है .फिर भी भारत में यह अंध -विश्वास इतना प्रचलित है कि एक उपमा ही जनसंख्या बढ़ा रहा है .इसी तरह शूद्रों का ब्रह्मा के पैरों से उत्पन्न होना भी एक उपमा ही है ,जो बहुतों को अपमानित करती रहती है .       
             .मानव जाति कई समूहों में बंटी है .हर समूह का सामाजिक व्यवहार .जीवन-दर्शन और जीने का मकसद अलग है .पूरी मानव जाति पुरातनपंथी और नवान्वेषी दो खेमों में बनती हुयी है। मानव जाति के भविष्य का आखिरी निर्णय उसकी सृजनशीलता ,संघर्ष और प्रतिरोध पर भी टिका हुआ है। कुछ हैं जो सिर्फ आस्था ,आतंकवाद और उत्पादन में लगे हुए हैं। कुछ परिवार नियोजन के सरकारी कार्यक्रमों को भी धर्म-विर्रुद्ध बताकर उसका उसका बहिष्कार करने वाले लोग हैं कुछ मानव जाति को उसकी सम्पूर्णता में नहीं बल्कि बल्कि अपनी जाति और कौम की संकीर्णता में देखने वाले लोग भी है। ऐसे लोगों की चिंता यह रहती है कि एक दिन उनकी जाति अल्पसंख्यक होकर लुप्त हो जाएगी और केवल कौम विशेष के लोग ही इस धरती पर दिखेंगे। ऐसे लोगों के लिए जवाब कुछ इस तरह ही होना चाहिए कि मानव जाति का बचना ज्यादा जरूरी है। वह किस कौम एवं विचारधारा के साथ बचाती है यह उतना महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं है।         
             वैसे देखें तो आज की जनसंख्या में कुछ हैं जो आध्यात्मवादी हैं और अपनें पवित्र अस्तित्व की महिमा में डूबे हुए हैं .कुछ महान पवित्र आत्मा यानि कि परमात्मा के सम्मान में झुके हुए हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो भटक रहे हैं किसी नयी दुनिया की खोज में .यद्यपि ऐसे लोग बहुत ही कम हैं ,लेकिन हैं जिन्होंने बूढ़ी और अपर्याप्त होती जा रही दुनिया के असुरक्षित भविष्य का साक्षात्कार कर लिया है और उसकी सुरक्षा के लिए चिंतित भी हैं ..अध्यात्मवादी और समर्पण वादी दोनों ही चुपचाप बड़ी संख्या में या यह कहें कि जातीय स्तर पर अपना उत्पादन बढाने में लगे हैं .निश्चय ही यह दुनिया एक दिन ऐसे ही लोगों से भर जायेगी .जीवन की निरंतर बदती प्रतिस्पर्धा इन्हें पागल बनाएगी और अपराधी .इनके वंशज अपराध करेगे और दंगे .ऐसे में एक ही उपाय नजर आर्ता है कि जनसँख्या बदने दी जाये और नयी धरती खोजी जाये .इसमें अंतरिक्ष विज्ञानं का विकास हमारी सहायता कर सकता है .तब हम एक ही क्यों कई धरतियों पर फ़ैल कर बस सकते हैं .यदि ऐसा हो पाता है तो एक दिन उत्पादनवादियों के निरंतर उत्पादन से इस नरक हो चुकी दुनिया को छोड़कर बुद्धिमान और समर्थ खोजी किसी और ग्रह पर भागकर बस जायेंगे .सिर्फ नालायक ही रह जायेंगे इस धरती पर कीड़े -मकोड़ों की तरह .....     
          यद्यपि अतीत में मानव जाति नें धरती का भार कम करने के दूसरे उपाय भी किये हैं जो युद्ध आदि द्वारा सामूहिक आत्म ह्त्या से मिलता है। इसे कृष्ण और राम द्वारा धरती का भार कम करने वाले पौराणिक युद्धों में देखा जा सकता है। कहते हैं चंगेज खान नें भी अपने ढंग से यह भार कम किया था। दो विश्व-युद्धों की भी इसमें आंशिक भूमिका रही होगी। आंशिक इस लिए कि युद्धों से जनसँख्या का बहुत कम होना संदिग्ध है।  क्योंकि युद्धों में सिर्फ पुरुष ही मारे जाते रहे हैं और सभी जानते हैं कि प्रजाति वृद्धि का जविक तंत्र स्त्रियों के पास रहता है। यद्यपि यह भी सच है कि दांपत्य के संस्थागत स्वरूप के कारण वैधव्य का अभिशाप भी जीती रहीं हैं ,किंन्तु अतीत के सामंती युग में बहु पत्नी प्रथा के कारण जनसंख्या वृद्धि की दर अधिक कम नहीं हुई होगी।  बुद्ध के आन्दोलन में यदि युवा स्त्रियाँ भी भिक्षुणी बनी होंगी तो माना जा सकता है कि उससे जनसँख्या में वृद्धि न होने का उद्देश्य सिद्ध हुआ होगा।तिब्बत के बौद्धों में आज भी जनसँख्या नियमन के लिए बौद्ध भिक्षुणी के रूप में आजीवन अविवाहित रहने की भी प्रथा रही है। इसे जनसँख्या का सांस्कृतिक नियमन कह सकते हैं। फिलहाल तो  एक रास्ता चीन का तो दूसरा परम माननीय वाला भी है कि विवाह करिए पर सम्बन्ध स्थगित रखिये। एक अन्य विज्ञानं का सहारा लेकर निरोधक उपायों वाला है। भारत सरकार को चाहिए कि निरोधक बांटने की जिम्मेदारी स्वास्थ्य विभाग से लेकर  डाक या राशन बांटने वाली दुकानों को दे दे। इस महान परियोजना के लिए ए. टी. एम्.  जैसी मशीन भी चौराहे-चौराहे  पर लगायी जा सकती है। सुलभ इंटर्नेशनल वाले दुबे जी भी यह कार्य करा सकते हैं।लेकिन वोट बैंक के चक्कर में भारत का लोकतंत्र आत्महंता जनसँख्या-वृद्धि की और बढ़ रहा है। एक राजनीतिक किंकर्तव्यवविमूढ़ता  समस्या को और बढ़ा रही है।