रविवार, 7 जून 2020

यान्त्रिक भौतिकवाद


मार्क्स के जमाने का भौतिकवाद यान्त्रिक भौतिकवाद किस्म का था । यह यन्त्रों के आविष्कार से इतना अधिक अभिभूत था कि उसके लिए मनुष्य भी एक यन्त्र हो गया । तब आर एन ए और डी एन ए की खोज नहीं हुई थी कि जड़ और जीवन के अणुओं की रिश्तेदारी सामने आ पाती । जड़ परमाणु को ऊर्जा के रूप मे देखने और दिखाने वाली आइन्सटीन की आंख भी तब नहीं थी । इससे हत्यारे किस्म के भौतिकवादी और क्रान्तिकारी भी पैदा हुए,जिनके लिए मनुष्य को मारना एक अवांछित यन्त्र को बन्द करने जैसा था । विवेकानंद ,अरविन्दो घोष ,और टैगोर आदि का प्रकृति को जीवित मानने वाली भारतीय दृष्टि तत्कालीन विज्ञान के पिछड़ने के कारण आधुनिक और वैज्ञानिक नहीं समझी गयीं । यह एक दार्शनिक पूर्वाग्रह जैसी समस्या रही है ।

फुकुयामा

किसी देश काल परिस्थिति और परम्परा यानि मानवीय चिन्तन सरणि जिसे प्रायः स्कूल कहा जाता है -की उपज विचारधाराएं और उनके विचारक किसी मानव निर्मित चक्रव्यूह की तरह होते हैं । उनके वास्तविक स्वरूप को उचित दूरी से ही समझा जा सकता है । किसी विचारक को समझने के लिए उसकी नाभि यानी निर्मित के कारकों एवं कारणों की खोज करनी होगी । फुकुयामा की वैचारिक निर्मिति को समझने के लिए पहले अमेरिका को समझना होगा । इतिहास का अन्त तो तभी हो जाता है जब रेड इंडियनो को मारकर और अपनी-अपनी राष्ट्रीयताओं को पीछे छोड़ने वाले पूर्वजों के प्रवास से निर्मित जिसके प्रवास मे पूरा योरोप और अफ्रीका महाद्वीप समाहित है । जार्ज वाशिंगटन से लेकर अब्राहम लिंकन के पहले तक पागलपन की हद तक अपनी श्रेष्ठता एवं अतीत को जीने का संघर्ष । यहाँ अमेरिका के सामने एक रास्ता भारत बनने यानि जाति एवं नस्ल को बनाए रखने का था । यदि भारतीय अधिक मात्रा मे बस गए होते तो अमेरिका दूसरा भारत ही बन जाता लेकिन आधुनिकता ने उसे भारतीय जाति प्रथा की ओर जाने नहीं दिया । उसने जातियों नस्लों के महासंलयन और अतीत की विस्मृति का रास्ता चुना । फुकुयामा का इतिहास का अन्त इसी ऐतिहासिक अचेतन का दार्शनिकीकरण मात्र है । फुकुयामा जिस अमेरिकी उदार पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था को आदर्श मानकर उस पर रीझते है, उस अमेरिका के विकास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि यही थी ।
एक सीमा तक इसी स्मृति और विस्मृति का द्वन्द्व आप मॉरीशस मे भी देख सकते हैं । ऐसे ही प्रवृत्यात्मक अतीत ने नायपॉल को भी रूढिबद्ध एशियाई सभ्यताओं को समझने की सही-सही दृष्टि दी । जैसा मैने बताया कि योरोपीय एकल राष्ट्रवादी इतिहास या विरासत बहुराष्ट्रीयताओं के सम्मिलन से निर्मित अमेरिका के नए राष्ट्र और नयी राष्ट्रीयता के लिए पूरी तरह अर्थहीन और अप्रासंगिक हो चुके थे । अमेरिकी इतिहास के अपने इस पर्यवेक्षण को ही मै फुकुयामा को समझने की कुंजी मानता हूँ ।
अमेरिका जब-जब भी योरोपीय नस्लीय राष्ट्रवाद को पुनर्जीवित करने का प्रयास करेगा उसे आधुनिकतावादी समाधान की अपनी ही ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि से संघर्ष करना पडेगा और अपनी निर्मिति के स्वभाव को भूलकर प्रतिगामी बनेगा ।



माता सीता का भूमि-प्रवेश प्रसंग

माता सीता का भूमि-प्रवेश प्रसंग
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जब वाल्मीकि रामायण मे सीता जी के भूमि मे समाने और राम जी के विलाप का मार्मिक प्रसंग मैने पढ़ा था तो एक तो बहुत दुखी हुआ था । दूसरा यह कि तब मै विज्ञान का विद्यार्थी था और जैसे-जैसे मै इस दुनिया को समझता गया सीता का जन्म और उनकी मृत्यु दोनों ही मुझे प्राकृतिक नियमों के विरूद्ध, अवास्तविक कवि-कल्पना अथवा भरत के नाट्यशास्त्र से प्रेरित कोई नाटकीय प्रस्तुति लगने लगी। एक कारण यह भी था कि प्रजा को संतुष्ट करने एवं बहुत सी मानवीय बातें जो शासक वर्ग के महिमामंडन के विरुद्ध जाती थीं उसे नाट्यशास्त्र द्वारा आच्छादित कर छिपाने की भी प्रथा थी ।। जैसे नियोग प्रथा का कूटआच्छादन यज्ञ के अन्त में दिव्य फल देने वाले देवता के रूप मे किया गया । भारत मे तो प्राचीन काल से ही नट जाति रही है । ये नट आज के बहुरुपियों और जासूसों की मिली -जुली भूमिका में अपने राजा के प्रति वफादार होते थे । बताते हैं कि लगभग एक हजार वर्षों पहले राज कर चुके दक्षिण भारत के रामराजा के दरबारी नटों के वंशज आज भी हैं ।देवताओं द्वारा पुष्प वर्षा के प्रसंग को परम्परागत श्रद्धालु सच जबकि आधुनिक सोच वाले कवि-कल्पना मान लेंगे । जबकि सच दोनो मे ही नहीं था । राजाओं को दैवी आशीर्वाद के माध्यम से वैधता दिलाने के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी से राजकुल के प्रति वफादार नट ही भांति-भांति के रूप-स्वांग धारण कर राजा की आदेशित-सुनियोजित छवि जनता में गढते थे । बाद के कवियों द्वारा उन्ही लोक-स्मृतियों का आख्यान मे उपयोग करने के कारण चर्चित ऋषियों और देवताओं का देश-काल से परे बार-बार उपस्थित होना वर्णित है । कुछ ऋषियों के स्थायी आश्रम एवं पीठ भी थे जैसाकि अब भी देखा जा सकता है कि आदि शंकराचार्य दारा स्थापित पीठ का मुख्य उत्तराधिकारी भी शंकराचार्य ही कहा जाता है । उदाहरण के लिए परशुराम राम कथा में भी हैं और कृष्ण कथा यानी महाभारत में भी कर्ण को धनुर्विद्या सिखाने वाले गुरू के रूप में हैं ।अशिक्षित प्रजा को सिर्फ यही बताया जाता था कि ऋषि हिमालय से आए थे और आशीर्वाद देकर वापस वहीं चले गए ।
सच तो यह है कि भारत मे हमेशा से दो सच रहा है । प्रजा का सच अलग रहा है और राजा का सच अलग । राजघरानों की अपनी पेशेवर वंशानुगत युक्तियाँ और चाालाकियाॅ थीं । सीता का भी भूमि मे समाने का प्रसंग भी सिर्फ इतना ही संकेत करता है कि या तो किसी सुरंग के रास्ते नाटकीय ढंग से भगाकर सीता को राजा जनक के यहाँ गोपनीय ढंग से पहुँचा दिया गया होगा या इससे मिलता-जुलता ही कुछ हुआ होगा । आख़िर भूमि से नाटकीय ढंग से सीता को प्राप्त करने वाला मिथिला का राजघराना अपनी सीता का कितना अपमान बर्दाश्त करता ? और कब तक ?
मैने इस प्रसंग को सावधानी से पढा था तो एक बात मुझे खटकी थी । सीता के भूमि मे समाने के बाद भी वहाँ सोने का वह सिंहासन रह गया था जिस पर आरूढ़ होकर सीता को ले जाने के लिए आयी धरती माॅ प्रकट हुई थीं । आप जानते हैं कि सोने का सिंहासन मानव निर्मित हुआ करता है । सोना ही मनुष्य की खोज है और सिंहासन भी प्राकृतिक अवस्था में नहीं मिलता । स्पष्ट है कि यदि घटना वास्तव मे घटित हुई थी तो वह कूटरचित ही हो सकती है । सिंहासन इस लिए धरती माता बनी नटी द्वारा छोड दिया होगा कि अभिभूत लोगों के सच जानने से पहले सुरंग के रास्ते उसे वहां पहुँचाना तो संभव था लेकिन सीता सहित पात्रों को तेजी से वहां से गायब होने की आवश्यकता को देखते हुए सिंहासन को लेकर भागना संभव नहीं था । जैसे ही सीता जी भूमि मे समाई-ऐसा वर्णन है कि उनके नाम पर जयकारा लगाती हुई भीड ने फूलों से उस सिंहासन को ही ढक दिया ।
सीता के भूमि फटने पर उसमेँ समाने वाला अंश काल्पनिक होता तो सिंहासन सहित सीथा धरती में समा जातीं लेकिन वाल्मिकी जी ने उसके अकल्पनीय रूप से वास्तविक होने के दो प्रमाण छोडे हैं-पहला तो वही सिंहासन जिसपर सवार होकर धरती माता स्त्री रूप में प्रकट हुईं उसका वास्तविक पदार्थ से बना होने के कारण अदृश्य या लुप्त न होना । दूसरा प्रमाण उनकी यह विशेष टिप्पणी है कि सीता नाग लोक को चली गयीं । ऐसा निश्चय ही सुरंग का होना देखते हुए ही उन्होने लिखा होगा । उसके बाद प्रतिशोध एवं राम को तडपाने के लिए सीता का राम और लोक से छिपकर जीना भी सर्पवत व्यवहार उन्हे लगा होगा ।
लगता है राम को अपने साथ हुई इस मानव रचित कूटघटना का पता चल गया होगा । जिस तरह राम ने सरयू नदी में अपने अंतिम प्रवेश के समय हनुमान को वापस लौट जाने को कहा जिसके आधार पर उन्हे आज तक जीवित माना जाता है-उससे पता चलता है कि राम को ऐसी कूटघटना के संयोजन मे हनुमान का भी हाथ होने कि सन्देह अवश्य रहा होगा ।ऐसी योजना इसलिए भी संभव है कि हनुमान दक्षिण भारत के थे और उधर पर्वत को खोखला कर गुफा महल बनाने वाले कारीगर भी उपलब्ध थे । वैसी सूझ को उत्तर भारत मे भी प्रयोग करना उनके लिए सामान्य बात ही थी । विश्वसनीय सेवक के रूप में सिर्फ उन्हीं को हर जगह बेरोकटोक जाने का अधिकार भी प्राप्त था । राम आदर्शवादी प्रकृति के थे , वचन के पक्के और विश्वासी थे । उनके साथ कुछ तो गलत हुआ होंगा । शक की सूई हनुमान जी की संलिप्तता पर इसलिए भी जाती है कि वे जादूगर घराने से थे -वायुपुत्र उनको इसीलिए कहा जाता है ।
मेरे पास घटनाओं के सूक्ष्म निरीक्षण से उपजे और भी श्रृंखलाबद्ध तर्क हैं । जिन्हे कभी विस्तार से लिखूँगा । मेरा ऐसा लिखने का बुरा मानने वाले संभावित श्रद्धालु जरा विचार करके देखेंगे कि पूरे विश्व मे सर्वाधिक मिथ्या -कथन का रिकार्ड हमारे इसी प्रिय नायक के नाम क्यों है ? बचपन मे ही सूर्य को निगल जाना । जिस समय गंगा मे केवट की नावें चल रही थीं ,उसकी पूरी बिरादरी थी -उस समय लंका मे छलांग मारकर आसमान से होकर पहुँचना ,वह भी तब जबकि उनसे बहुत पहले समुद्र मंथन कर हमारे विष्णु लक्ष्मी को प्राप्त कर चुके थे । यानी विष्णु के समय से भारतीय समुद्र यात्रा करने लगे थे । हनुमान वेश बदलने में भी माहिर थे - पूॅछ रहित विप्र रूप से पूॅछ युक्त स्वरूप तक ।
कुछ तो है जो कि रामकथा के अन्त मे ,यदि वह वास्तव मे मनुष्यो के बीच घटित हुई है तो अविश्वसनीय और अवास्तविक है । जैसा दिखा या दिखाया गया है वैसा नहीँ है । असहज करने वाला है । उस स्तर की पीड़ा पहुँचाने वाला कोई कारण होना चाहिए जिसको सुनने के बाद राम को लगा होगा कि अब बस बहुत हो चुका -इस धरती पर जीने का कोई कारण नहीं बचा ।वह भी ऐसे राम जो अपने को मनुष्य मानते रहे हों। वाल्मीकि रामायण में जैसा वर्णन है उसके अनुसार सीता जी को धरती मे जाने के बाद वहाँ एकत्रित तमाशाई अयोध्यावासियों की भीड ने उस सिंहासन को ही पुष्प-मालाओ से ढक दिया ।
मै इस बिन्दु पर युवावस्था से आज तक ठहरा हुआ हूँ कि यदि दैवी था तो वह स्वर्ण-सिंहासन क्यों गायब नहीं हुआ । प्रकट हुई धरती माता और सीता जी के भूमि मे समा कर गायब होने के बाद ?
आप भी सोचकर देखिए । यही कथा जो हजारों वर्षों तक लोगों को अभिभूत रख सकती है । वही बुद्धिमान भी बना सकती है आपको गर्व होगा कि इतने हैरत-अंगेज कारनामें करने वाले चतुर और बुद्धिमान चरित्र विश्व के किसी धर्म और जाति के पुरा आख्यानों में नहीं देखे जाते ।
यद्यपि धरती की छाती फटने वाला बिम्ब तो उसके पुराने पाठ में ही है लेकिन वैसी किसी घटना का एक मानवीय और वैज्ञानिक पाठ भी होना चाहिए-नयी पीढी के लिए । जो होगा तो संभवतः ऐसा ही कुछ होगा ।