शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

ज्ञानेन्द्रपति : स्त्री के पक्ष में पुरुष - विमर्श प्रस्तुत करती कविताएँ

राजनीति के वर्तमान सर्वग्रासी दौर में कवि और उसकी कविता से संवेदनात्मक-भावात्मक नेतत्त्व की प्रत्याशा करना आज असंभव-सा लगने लगा हो; लेकिन जिन कवियाें में अब भी कविकर्म की नेतृत्त्वकारी भूमिका के लिए समर्पित सृजनशीलता बची हुर्इ है,उनमें ज्ञानेन्द्रपति का नाम महत्त्वपूर्ण है । बदलते समय के अनुरूप वांछित संवेदनात्मक परिष्करण अथवा भावात्मक नेतृत्व की चैतन्यता का सृजनात्मक प्रयास ही कविकर्म को सार्थक ,प्रबुद्ध एवं अधतन बना सकते हें । निरन्तर विकसित होती सभ्यता के साथ कदमताल करते हुए और उससे कर्इ कदम आगे भी चलकर संवेदनात्मक नेतृत्व प्रदान करने वाली कविताएं ; जो कविता की सामाजिक जरूरत ,औचित्य ,आस्था और विश्वसनीयता को पुनर्जीवन देती हैं । हिन्दी में बहुत कम कवि ऐसे हैं जिनकी कविताएं तेजी से बदल रहे मानवीय समय में जीवन-राग,संवेदना और उसके निरन्तर जटिल होते पर्यावरण की दशा और दिशा की सही समझ प्रदर्षित करती हैं । वैश्वीकरण और बाजारवाद के वर्तमान दौर में कवि,कविता और कविकर्म के असितत्व के लिए सजग ज्ञानेन्द्रपति की कविताएं हिन्दी कविता की परम्परा में प्रबुद्ध एवं संवेदनशील कविता की एक विशिष्ट संरचना प्रस्तुत करने के कारण ध्यान आकर्षित करती हैं । इसलिए भी कि उनकी कविताएं प्रगतिशीलता को केवल शोषित जन की पक्षधरता तक ही सीमित न करते हुए सभ्यता-विकास की वृहत्तर चुनौतियों और दायरे को भी अपने कविकर्म का लक्ष्य बनाती रही हैं ।
      ज्ञानेन्द्रपति हिन्दी के उन विरल कवियों मेें से एक हैं जिन्होंने समकालीन हिन्दी कविता को न सिर्फ विशिष्ट संरचना और कलात्मक पहचान दी है बलिक उत्तर-आधुनिक समय की मानवीय चुनौतियों का सामना करने तथा एक सभ्य और संवेदनशील मानवीय समाज की रचना के लिए कविता की सृजनशीलता को लोक की सृजनशीलता तक विस्तार दिया है । ज्ञानेन्द्रपति की कविताएं विकसित होती मानव-सभ्यता के साथ बदलती मानवीय संवेदना, आत्मीय रिश्तों के स्वरूप,सरोकारों ,जरूरतों एवं उसके पर्यावरण की सुरक्षा-संरक्षा की सही समझ रखती हैं । इस दृषिट से वे माक्र्सवादी पृष्ठभूमि से आए माक्र्सवादोत्तर उत्तर-आधुनिक समय के सबसे जरूरी एवं प्रासंगिक कवि हैं । उनकी कविताओं में यथार्थबोध के साथ-साथ काल-बोध भी एक आवश्यक आयाम है; संभवत: इसीलिए वे सिर्फ जीवनबोध के ही नहीं ,भविष्यबोध के भी कवि हैं । उनकी 'संशयात्मा जैसी पूर्ववर्ती संग्रह की कविताएं सोवियत संघ के पतन के बाद माक्र्सवादी एवं क्रानितकामी कवियों में फैली आम कुण्ठा एवं हताशा के विपरीत बेहतर समय-निर्माण की चुनौतियों को नेतत्वकारी विचारक चिन्ता के साथ गम्भीर विमर्श के रूप में प्रस्तुत करती रही हैं । इसी क्रम में उनके नवीनतम कविता संग्रह 'मनु को बनाती  मनर्इ  की कविताएं भी सभ्यता-समीक्षा का स्त्री-केनिद्रत विमर्श प्रस्तुत करती हैं । इस संकलन की कविताएं जीवन के व्यापक निरीक्षण तथा विरल एवं विशिष्ट अनुभवों से बुनी गयी हैं । जीवन के सूक्ष्म निरीक्षण से उपजे कल्पना-वलयित आकर्षक शब्द-बिम्बों की छटा वाली ज्ञानेन्द्रपति की प्रिय अभिव्यकित पद्धति इस संकलन की कविताओं का भी विशिष्ट काव्यभाषा और अलग संरचना देती है । इन कविताओं में भारतीय स्त्री के जीवन-व्यापार और यथार्थ के विविध रूपों का सूक्ष्म एवं प्रामाणिक अंकन है । स्त्री जीवन के मर्म का समाजशास्त्रीय एवं मनोवैज्ञानिक आयामों में किया गया विशेषज्ञ अन्वेषणत्मक अन्वीक्षण इन कविताओं को विशिष्ट बनाता है । कवि नें मिथकीय वृत्तान्तों ( जरत्कारू)से लेकर लोक और उसके पवोर्ं तक स्त्री-जीवन,यथार्थ और नियति की पड़ताल की है । यह पड़ताल पुनरावृत्ति के रूप में नहीं बलिक अदेखे-अचर्चित रह गए स्त्री-यथार्थ की शोधपूर्ण एवं विवार-संवेध समग्र प्रस्तुति के लिए महत्त्वपूर्ण है।
     स्त्री-विमर्श के इस दौर में स्त्री और पुरुष दोनों ही रचनाकारों के कर्इ कविता संग्रह इधर प्रकाशित हुए और चर्र्चा में आए हैं । इस प्रतिस्पद्र्धा में ज्ञानेन्द्रपति की स्त्री केनिद्रत कविताओं का महाकाव्यात्मक समग्रता के दावे के साथ 'मनु को बनाती मनर्इ संग्रह का प्रकाशित होना स्त्री-विमर्श के पुरुष-पक्ष को समझनें की दृषिट से तो महत्वपूर्ण है ही,उसके कर्इ अछूते पहलुओं को भी पहली बार कविता और विमर्श के दायरे में लाता है । स्त्री पर विचार करते हुए ज्ञानेन्द्रपति का नजरिया त्रिकाल-आयामी है । अतीत की सामंतों और कवियों की खिदमत में खड़ी सित्रयों,आर्यासप्तशती और गाथा सप्तशती की साहितियक स्मृतियों से बाहर आकर वह अपनें युग की स्त्री का नया साक्षात्कार करना चाहता है । 
       ज्ञानेन्द्रपति की इस संग्रह की कविताओं में उपसिथत स्त्री-विमर्श न सिर्फ सिर्फ स्पस्थ,पूरक और संवादी पाठ की प्रस्तावना करता है ,बलिक हिन्दी में उच्च-अभिजातवर्गीय स्त्री-विमर्श की असामाजिकता एवं स्वैराचारी आत्मजीविता को श्रमजीवी वर्ग की सृजनशील समाजधर्मी स्त्री के यथार्थ से विस्थापित एवं प्रश्नांकित भी करता है । यह एक तथ्य हें कि मर्दवादी पुरुष-प्रधनता की मानसिकता वाला समाज अतीत की सामन्तकालीन परम्पराओं का ही अवशेष है । स्त्री की असुरक्षा का अधतन भयावह रूप सामन्ती अतीत वाले समाज के पूंजीवादी समाज में संक्रमण एवं विस्थापन से पैदा हुआ है । इस क्रम में प्राचीन श्रमजीवी  सृजनशील समुदाय की सित्रयां अधिक स्वतंत्रता एवं समानताजीवी रही हैं । ज्ञानेन्द्रपति का यह संग्रह अपनी बहुआयामी पड़ताल से भारतीय स्त्री -यथार्थ के कर्इ अछूते-अलक्षित पक्षों पर प्रकाश डालता है । यधपि प्रथम द्रष्टया ये कविताएं स्त्री-विमर्श के पुरुष-पक्ष को स्वस्थ सामाजिकता के दायरे में प्रस्तुत करती प्रतीत होती हैं । इस प्रस्तुति में स्त्री-विमर्श के प्रचलित पाठ से विचारक कवि ज्ञानेन्द्रपति की असहमति एवं आलोचना दोनों ही है । स्त्री-मुकित के विमर्श का पूंजीवादी पाठ स्त्री के निरंकुश विलास के अधिकार का अराजकता की सीमा तक वकालत करता है जबकि श्रमशील समाज की स्त्री में अब भी यथोचित सम्मान ,समानता एवं स्वाभिमान के साथ उपसिथत है ।       
         ज्ञानेन्द्रपति की ये कविताएं साहित्य की स्मृति और लोक की स्मृति दोानें के ही गहन परिचय,अन्तरंग आत्मीय साक्षात्कार का परिणाम हैं । सृजनशीलता का सम्यक इतिहास-बोध उनकी कविताओं को विशिष्ट परिप्रेक्ष्य और पृष्ष्ठभूमि देती हैं । वे असम्बद्ध,व्यकितपरक,अराजक या एकाकी नवता के कवि नहीं हैं । वे सम्पूर्ण वा³गमय की सापेक्षता में नवता,मौलिकता एवं विकास के कवि है । उन्होंनें स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की सहचर जीवनानुभूतियों एवं स्मृतियों का अत्यन्त विस्तृत एवं प्रामाणिक संग्रह इन कविताओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है । इस संकलन की अधिकांश कविताएं सध:प्रसूत,क्षणिक या तरत्कालिक प्रतिकि्रयाओं के रूप में रचित नहीं हैं ;बलिक वे दीर्घकालिक चिन्तन एवं रचना-प्रक्रिया का परिणाम हैं। उनकी ये कविताएं प्रणय-संवेदनाओं एवं अनुभूतियों का उदाŸाीकरण करती हैं-'वे पर्वत वहां अभी भी हैं-'पृथ्वी के उठे हुए मंजु उरोज तथा 'वे प्रशान्त झीलें तुम्हारी और बड़ी हो आर्इ आंखों के भीतरप्रेम की चमक बन गयी हैं । ('पहाड़ से लौटकरकविता) इन कविताओं की परिकल्पना के पीछे कविता के कलात्मक सृजन-विकास की लम्बी परम्परा देखी जा सकती है-'फिर यह कोर्इ कविता हैमेरे रक्त का सरसिजदल खुल रहे हैं जिसके तुम्हारी ओरओ मेरे प्रभात !'पुरुषप्रिया जैसी कविताएं जीवन के उन अथोर्ं को भी पकड़नें का प्रयास करती हैं,जो जीवन क उच्चस्तरीय दार्शनिक प्रत्यक्षीकरण से ही संभव हो सकती है-'तुम्हीं हो आदिम प्रकृति-पुरुष-प्रियातुम्हारे उदर पर सर रखकर जब-जब मैंने मरना चाहा हैमेरी धमनियों में जीवन की गति तेज हो गयी है ।
        संंवेदित कल्पना की उन्मुक्त -उन्नत उड़ानें, मानवीय सरोकारों की प्रदुद्ध चेतस पड़ताल,कलात्मक अभिव्यकित एवं लयात्मक चिन्तन ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं को एक विरल पठनीयता देती है ।    ज्ञानेन्द्रपति एकल इकहरी संवेदना और लीवनानुभवों के कवि नहीं हैं ं। बया के घोंसले की तरह अपनी हर कविता को जीवन के विविधि अनुभव-सन्दभोर्ं से बुनते हैं । इस दृषिट से उनकी 'समय और तुम कविता की पंकितयां देखी जा सकती हैं ,जिसमें एक युवती के वय-वार्धक्य और अध-कपारी के दर्द के साथ कवि खनिज-समृद्ध दक्षिणी गोलाद्र्ध की उपमित चिन्ता से पाठकीय बोध को जोड़ देता है-'समय तुम्हारे सिर में भरता है समुद्र-सा उफन उठने वाला अधकपारी कादर्दकि तुम्हारा अधशीशदक्षिण गोलाद्र्ध हो धरती काखनिज-समृद्ध होते भी दरिद्र और संताप-ग्रस्त।
     इस संकलन की कर्इ कवितओं में विविध वर्गीय और बहुवर्णीय स्त्री-जीवन के चित्र अंकित है । दीवाली बे-दीया,एक गंगामुखी जीवन,'ग्वालम्मा से दूध मांगने गर्इ है, 'अंजोरिया, 'मालती , 'पडोस की धोबिन,'बाटी वाली तार्इ'दशाश्वमेध पर की रुकमिनिया,'टेर,'मस्तीपुर की दुखिया,'मीनू जी आदि । 'ओ मेरी धरती जैसी कविताएं स्त्री-जीवन की अर्थवत्ता का उदात्त बिम्बांकन प्रस्तुत करती हैं । यह कविता जीवन और धरती के बीच के भ्रवनात्मक रिश्ते को मां और शिशु के वत्सल सम्बन्ध के रूप में परिभाषित करती है । 'हर पल किसी की प्रतीक्षा थी कविता उस सहचर के स्मरण को समर्पित है ,जिसके बिना जीवन को थका देने और घबरा देने वाली यात्रा पूरी नहीं की जा सकती । 'तुम्हारी आवाज की खनक में कविता रसोंर्इ को सिर्फ भूख के पोषण के केन्द्र में ही नहीं ,बलिक प्रेम के पोषण के केन्द्र के रूप में प्रत्यक्षीकरण करती है । 'चूडि़यां कविता में कवि चूडि़यों का जीवन-रंगी साक्षात्कार करता है । उसके अनुसार' चूडि़यों में रंगकेवल चूड़ी के कारखाने से ही नहीं आता है ।
            'मेरे तट जैसी कविताएं स्त्री के प्रति पुरुष-मन के समर्पण और राग का नया वृत्त-चित्र प्रस्तुत करती हैं । यधपि यह दौर स्त्री के प्रति अत्यन्त ही क्रूर एवं बर्बर रूप में हिंसक है । जिस तरह धरती से उसका पर्यावरण छीना जा रहा है ,उसी तरह स्त्री से उसका घर छीना जा रहा है । कवि ज्ञानेन्द्रपति नें कविता में ही सही उस मानवीय पर्यावरण को बचानें और उसे वापस लौटानें की कोशिश की है । ये कविताएं एक स्त्री-विरोधी समय में हिंसक होते पुरुष मन को एक मर्मस्पर्शी संवेदनात्मक स्मृति देना चाहती हैं । ये न भूलने योग्य स्त्री-जीवन के प्रसंगों तक पाठकों को ले जाना चाहती हैं । पुरुष-सभ्यता की सारी चकाचौंध को अपनी दुहरी पीठ पर उठाए सकून और असीस बांटती सित्रयां हैं । उनका कृतज्ञ पुरुष-मन स्त्री असितत्व का साक्षात्कार अपनी आत्मा के नंगे तलवों के लिए सुकोमल जूते सिलने वाली मोचिन एवं रफूगर जादूगर ( पुरुष को रचने वाले ) रचनाकार के रूप में करता है ।
        ज्ञानेन्द्रपति की रचनात्मक प्रतिभा जीवन के अनुभवों को कविता की भाषा में किस प्रकार रूपान्तरित करती है ,इसे देखना है तो उनकी 'पड़ोस की धोबिन शीर्षक कविता को देखा जा सकता है। धोबिन का निजी जीवन और पेशेगत सामाजिक कर्म से जुड़ी प्रत्यक्ष असितत्वगत संवेदनाओं को कवि नें पूरी प्रभावशीलता के साथ चित्रित करते हुए उसके जीवन के प्रसंगों को ही नर्इ उदभावनाओं वाले काव्य-उपकरणें में बदल दिया है । कपड़े की सिलवटें और भाग्य की सिलवटें दोनों को ही सृजन के लौह-ताप से हल किया जा सकता है । अन्त तक पहुचते-पहुंचते कवि नें अपनें संकेत को अस्पष्ट ही रहनें दिया है कि शिशु और मां के स्तन में से कौन इश्तरी की भूमिका में है ! कि दोनों में से कौन किसकी सिलवटें मिटा रहा है । वात्सल्य एवं मातत्व की दुहरी-तिहरी परतें कभी शिशु-कपोल का डिठौना बनते तो कभी 'भैंहों के बीच बिन्दी भर का चुम्बन बनकर उसे अभवों में भी जीवन जीने का रस और अर्थ प्रदान करती रहती है ।
         संकलन की 'जाने कहां  कविता का काव्यात्मक सौन्दर्य पेड़ पर रहने वाली गिलहरी और फलैट में रहने वाली लड़की की भावपूर्ण विडम्बनात्मक तुलना में है । 'स्वाद  कविता श्रम की सामाजिकता को सुख का आधार घोषित करती है । 'आवाज कविता स्त्री-असन्तोष और विद्रोह की चेतना को धुंएं के रूपक के माध्यम से व्यक्त करती है । 'विलाप कविता विलाप को 'सोग के राग के रूप में दार्शनिक प्रत्यक्षीकरण करती है । 'मस्तीपुर की दुखिया कविता पुत्र-शोक के बावजूद आजीविका के लिएदारु बेचने को विवश एक निम्नवर्गीय युवती का मार्मिक काव्य-चित्र है । 'गूंजता रहता है कविता यौन सेविकाओं की आन्तरिक रिक्तता और प्रेमहीन काम-व्यापार का अत्यन्त ही शिष्ट एवं शालीन काव्यांकन है । संवासिनी काण्ड कविता अखवारों में सुर्खियां बटोर चुकी ,राजकीय संरक्षण गृह में यौन शोषण का कुकृत्य करते सामाजिक अपराधियों पर लिखी गयी एक प्रतिरोध कविता है -'वह संरक्षण-गृह जो वस्तुत: स्त्रीत्व की वधशाला थी ....सब कुछ हमारी गूंगी आंखें के सामनें सम्पन्न हुआ था होता रहा थाहम देखते रहे थे चील-झपटटे स्लोमोशन में  ।'एक उन्मुक्त हंसी  कविता स्त्री के उन्मुक्त हंसी हंसने के अधिकार को नैतिक समर्थन समाज की विरोधी मानसिकता की पृष्ठभूमि में करती है । स्वकीया या एकान्त समर्पित प्रेम-व्यवहार की अत्यन्त आकर्षक झांकी 'पीठ की हंसी  कविता में है । 'थनैली परम्परागत ज्ञान से विचिछन्न एक आधुनिका के बहानें थनैली नाम की एक जड़ी के गुणधर्म का काव्यात्मक संरक्षण है । 'एक धुंधली तस्वीर कपिता तस्वीरों में संरक्षित समय और वास्तविक जीवन-समय के अन्तर के त्रासदी-बोध का अंकन है । प्रबुद्ध युवतियों की आत्महंता मौत का प्रश्न 'मरक्युरिक क्लोराइड से दिल्ली वि.वि. में तीसरी आत्महत्या के बाद शीर्षक कविता उठाती है ।
     'प्रगम,'तीरेनीमकश,आम मंजरियों  की गन्ध,अमृत कुम्भ, अधरामृत  वृत्त, मैं तुम्हारी कविता हूं,खिले आ रहे हैं,अंगूरी पेठे -सी ,जैसी कविताएं प्रणय की मन:सिथतियों के चित्र प्रस्तुत करती हैं ।सारे पुरुष-अहंकार के बावजूद स्त्री के प्रति समर्पित यौनिकता पुरुष-मन को निरीह,विनमं एवं आग्रहशील बनाती है । ज्ञानेन्द्रपति की कर्इ कविताएं स्वस्थ प्रेम के सामाजिक पक्ष को काव्यांकित करती है । स्त्री के प्रति समर्पित पुरुष-प्रेम का यह चरित्र उस स्त्री पर बल-प्रयोग करने वाले उस आपराधिक पुरुष-चरित्र की विरोधी है । 'टेर कविता काशीवास कर रही बूढ़ी विधवाओं के ऊपर लिखा गया एक सम्पूर्ण काव्य-पिेर्ताज है । आर्थिक हितों को जीनें वाली संवेदन और आस्थाविहीन आधुनिकता किसप्रकार विधवाश्रम जैसी सांस्कृतिक आर्थिक संस्थाओं का व्यावसायिक रूपान्तरण कर रहा है,इसका प्रामाणिक वृत्तान्त यह कविता प्रस्तुत करती है । विधवाओं के नाम पर बनी अतीत की शानदार संस्था के कर्ता-धर्ता होटल-संचालन कर रहे हैं । यह लम्बी कविता एक अप्रत्याषित एवं गम्भीर मोड़ लेती है अपने समय के एक वर्ग की प्रतिगामी मानसिकता और अतीतमोह का सामाजिक-राजनीतिक पुन:पाठ प्रस्तुत करती हुर्इ । बीते हुए समय के न बीतने देने के व्यापक सामुदायिक स्वार्थ एवं निहितार्थ हैं-वे बीते हुए समय की चौकीदारी करते हैंउसका पूजन-अर्चन वंदन-अभिनंदंनवह सत्ता का चौरा है उनको ।  यह कविता वाराणसी में बाल-विधवाओं पर बन रही दीपा मेहता के फिल्मी सेट का विद्रूपण के आरोप के साथ ध्वंस करने वाले वर्ग-विशेष का साहितियक प्रतिरोध रचती है ।
      इस संग्रह में असावधन एवं नासमझ स्त्री -जीवन के लिए चेतावनी का बोध सम्प्रेषित करने वाली कविताएं भी हैं । 'सुखदेवी का दुखान्त शीर्षक कविता प्रणय-प्रवंचकों के विरुद्ध लिखी एंसी ही एक चेतावनी कविता है । कविता एक युवा पड़ोसी के साथ भागी हुर्इ इक्कीस वर्षीया युवती की हत्या और बर्बर लूट का प्रभावी काव्यांकन करती है । 'अर्ज किया है  जैसी कविता असितत्व की प्रभावशीलता का अंकन करती है तो 'प्रगम जैसी कविता का व्ैशिष्टय लैंगिक सम्मान और आत्मीयताबोधक भाषा के सूक्ष्म व्यवहार में है । इसी तरह 'कार्इ के समान लग जाओ (तुम मेरी छाती से) जैसी कविता और 'तुम्हारे बिन दिन पहाड़ हुआ तुम्हारे बिना घर तिहाड़ हुआ जैसी पंकितयों में कवि के नए उपमानों की प्रयोगशीलता देखी जा सकती है । 'तुम भविष्य की तरह कविता में प्रणय का भावांकन दार्शनिक प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से किया गया है-'तुम भविष्य की तरह मेरे आगे फैली होऔर मैं वर्तमान की तरह तुम्हें खोल रहा हूं-तुम मेरा दिवास्वप्न हो! इसी तरह 'अमृत-कुम्भ और 'अधरामृत जैसी कविताओं का वैशिष्टय स्त्री और वुरुष के बीच के नैसर्गिक आकर्षण के श्लील और शिष्ट साक्षात्कार की प्रस्तावना में है । थनैली कविता परम्परागत ज्ञान से विचिछन्न एक आधुनिका के बहानें थनैली नाम की एक जड़ी के गुण-धर्म का काव्यात्मक संरक्षण है ।'एक धुंधली तस्वीर कविता तस्वीरों में संरक्षित समय और वास्तविक जीवन-समय के अन्तर के त्रासदी-बोध का अंकन है । स्त्री और पुरुष का जीवन एक-दूसरे से प्रभावित होता और करता हुआ ,सिर्फ एक -दूसरे सेजुड़ता और एक-दूसरे को जीता ही नहीं,बलिक उसे बदलता भी है -'मैं तुम्हारी कविता हूं....मेरे शब्द बदल दोअपनें जीवनानुभव जोड़ो ।
    ' वह दिन कविता प्रेम की अविस्मरण्ीयता का अंकन उस क्षण के सम्पूर्ण परिदृश्य के स्मृति-अंकन द्वारा करती है । कवि के लिए प्रेम सृजन की प्रस्तावना है -'एक उत्कणिठत कोपल मेंजिस तरह पारदर्शी हो जाता है हरीतिमा का रहस्यउस दिन मेंझलक उठा था जीवन का रहस्य। 'तुम्हारे मौन में कविता वर्जना-मुक्त गगन में उड़ान की स्त्री की आकांक्षा को चिडि़या का रूपक एवं प्रतीकांकन देती है -'मैंने कहा : तुम्हें येचिडि़याएं देता हूं। नारी-मन की मुकित आकांक्षओं की ऐसी ही अभिव्याकित 'चिडि़यों के बीच कविता में भी की गर्इ है । यह कविता इस निष्कर्ष के साथ समाप्त होती है कि स्त्री को पीछे छोड़ने पर पुरुष का जीवन रात बन जाता है । स्त्रीविहीन पुरुष का न तो स्वस्थ वर्तमान है और न ही भविष्य ।
       स्ंकलन का उत्तराद्र्ध समानधर्मी मूल्यों वाले सहजीवी स्त्री और पुरुष जीवन का आदर्शात्मक दृष्टान्त प्रस्तुत करती हैं । ये दृष्टान्त वास्तविक जीवन के दीर्घकालिक सूक्ष्म-निरीक्षण के परिणाम होने के कारण कल्पना-लोक का नहीं बलिक जीवन-लोक का ही प्रतिमान प्रस्तुत करते हैं । संकलन की 'पाणि-ग्रहण,संकल्प-पत्र,'टेढ़े चिबुक वालानन्हा आम,'वह तुम हो,'दृश्य वह अनुपम,'गेहूं'लता एक निफूली,'एक भंगेड़ी कवि की संगिनी का आत्मवक्तव्य आदि ऐसी ही गृहस्थ एवं सहचर जीवन-छवियों से निर्मित कविताएं हैं । ये कविताएं स्त्री और पुरुष के पूरक सह-असितत्व की दार्शनिक प्रस्तावना करती हैं । कवि का संकेत स्पष्ट है । वह प्रतिक्रियावादी और नकारात्मक स्वातं़य वाले अस्वस्थ स्त्री-विमर्श के पक्ष में नहीं है । कवि की परिकल्पना का आधार शोषणरहित सामाजिकता में उपसिथत आवयविक स्त्री जीवन है । ये कविताएं त्रासद पुरुष-सत्ता के निषेध का तो समर्थन तो करती ही हैं ,उसे स्त्री-जीवन के उल्लास और विस्तार के अवसर के रूप में होनें की प्रस्तावना भी करती हैं । इस दृषिट से ' मैं एक पेड़ हूं  कविता देखी जा सकती है। इस कविता के माध्यम से कवि पुरुष-सत्ता के ऐसे रूपान्तरण की कामना करता है जिसमें स्त्री किसी गिलहरी के समान जड़ों से शुरू होकर फुनगी के करीब तक उल्लास-रोमांचित दौड़ती जाए ।
           दरअसल आदिम कृषि और शिकार-आधारित सभ्यता में और आज की स्त्री सम्बन्धी हमारी मानसिकता का आधार सामन्ती युग के जीवन-मूल्य हैं,जब बाहुबल और युद्ध ही जीवन केसुख और सुरक्षा निर्धारित करते थे;जबकि वर्तमान सभ्यता बौद्धिक शकित और सम्पदा आधारित यानि आर्थिक सभ्यता की है।  इसमें स्त्री को भी शकित-केन्द्र के रूप में स्थापित होनें की गुंजाइश बनी है । समझदारी के इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के अभाव में स्त्री-विमर्श का युगानुरूप् स्वस्थ और सही पाठ निर्धारित नहीं किया जा सकता । युगबोध के अभाव में अधिकांश स्त्री-विमर्श असामाजिक विमर्श बनकर रह गए हैं । साहित्य में ता स्त्री-पक्ष की यौन-उत्तेजनाओं एवं व्यवहार की वर्जनारहित उन्मुक्त अभिव्यकित को विमर्श की साहसिक एवं क्रानितकारीअभिव्यकित मान लिया गया है । जबकि सच्चार्इ यह है कि प्रेम की अपनी जड़ता होती है और वह स्त्री या पुरुष को सामान्य से विशेष की ओर ले जाता है । व्यकित-विशेष का चयन और विशिष्टता बोध ही प्रेम को भी विशिष्ट सामाजिक व्यवहार बनाता है । इसके विपरीत बाजारवादी शकितयां परिवार और समाज विद्रोही निरंकुश-अराजक व्यकितवाद की दिशा में स्त्री-स्वातंत्रय को हवा दे रही हैं । जिसका उददेश्य बाजार में बिकाऊ माल के रूप में स्त्री की अधिक से अधिक उपलब्धता सुनिशिचत कराना है । ज्ञानेन्द्रपति की कविताएं स्पष्ट रूप में इस असामाजिक स्त्रीवादी सोच का प्रतिपक्ष प्रस्तुत करती हैं । उत्तराद्र्ध की अनेक कविताओं में स्त्री-जीवन को उसके सामाजिक आर्थिक ताने-बाने के बिम्बों-छवियों के साथ वे प्रस्तुत करते हैं । उनकी कतिएं इस तथ्य की अनदेखी नहीं करती कि परिवार सामाजिकता के निर्माण की प्राथमिक र्इकार्इ हैं । इसीलिए परिवार बसाना और प्रेम में पड़ना अकेले जीने की स्वतंत्रता का निषेध और परस्पर का समर्पण मांगती है । अविवाहित ब्रहमचारी हो या अपराधी दोनों की ही स्त्री-विरोधी स्वतंत्रता जैसे असामाजिक होती है ,कुछ वैसी ही व्यकितवादी स्वतंत्रता की जीवी स्त्री की भी होगी । इस दृषिटकोण से देखें तो प्रतिक्रियाादी स्त्री-विमर्श भी अपनी असामाजिक परिवार-विरोधी स्वतंत्रता के कारण मानवता-विरोधी होगा । संग्रह की कर्इ कविताएं पुरुष के जीवन में स्त्री की भूमिका और प्रभाव को परिभाषित करती हैं। स्त्री को अधिक जगह देने के आकांक्षी कवि ज्ञानेन्द्रपति की इन कविताओं को स्त्री के पक्ष में आधुनिक पुरुष-मन के रूपान्तरण की काव्यात्मक प्रस्तावना के रूप में देखा जा सकता है । आधी आबादी के यथार्थ ,जीवन और नियति को ही काव्य-विषय बनाने के बावजूद कथ्य के स्तर पर इनकविताओं में दुहराव नहीं है । यधपि अपनी रचना-प्रक्रिया में ये कविताएं जीवन की स्मृति और साहित्य की स्मृति दोनों की ओर ही बार-बार वापस लौटती हैं । इस मानसिक यात्रा में ही ज्ञानेन्द्रपति युगानुरूप् संवेदना की पुनर्रचना और पुन:पाठ रचते हैं । स्त्री के प्रति वांछित पुरुष-व्यवहार और मानसिकता के प्रतिमान की प्रस्तावना करते हैं । स्त्री केनिद्रत महाकाव्यात्मक आवयविकता तथा पूरक आयाम वाली इन कविताओं को कवि सृजित आदर्श साहितियक स्मृति तथा स्त्री विषयक स्वस्थ विमर्श की प्रस्तावना के रूप में देखा जा सकता है ।ं 
           समीक्षित पुस्तक-     'मनु को बनाती मनर्इ(कविता-संगह)
                    कवि-    ज्ञानेन्द्रपति
           प्रकाशक-  किताबघर प्रकाशन, 48555624,अंसारी रोड,दरिया गंज, नर्इ दिल्ली -110002
                प्रथम संस्करण-2013 मूल्य-250