बुद्ध को जितना ही बड़ा बनाया जाय कम ही होगा।मुझे कई बार लगता है कि प्रकृति और ईश्वर को मनुष्य (अपनी सृजनशीलता के अतिरिक्त) अपने चरित्र के स्तर पर ही पछाड़ सकता है। ऐसा इसलिए कि सृजन और विध्वंस दोनों गुणों का संवाहक होने के कारण प्रकृति और ईश्वर मनुष्य के लिए अच्छे और बुरे ,अनुकूल और प्रतिकूल दोनों रूपों में सामने आ सकते हैं . संवेदना की आँखों से देखने पर सामंती नियतिवादी ईश्वर अपराधी और अनैतिक नजर आता है . बुद्ध की करुणा ही उन्हें ईश्वर और समाज दोनों के विधानों से असंतुष्ट करती है . बुद्ध चरित्र के इसी स्तर पर प्रकृति ,नियति ,परिस्थितियां अतार्किक घटनाओं या संयोगों के लिए जिम्मेदार ईश्वर का अतिक्रमण और उसकी अवधारणा को सीमित अथवा छोटा करते हैं. बुद्ध सामंतवादी मूल्यों का बहिष्कार करते हैं .बड़प्पन की उन सारी कसौटियों को अस्वीकारते हैं ,जिसे उनके युग के व्यापारिक पूंजीवाद ,कुलीनता वाद एवं कबीलावाद नें रची थीं .उस ईश्वर के लिए चुप्पी लगा जाते हैं जिसे सामंती भेद-भाव की सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप मनोवैज्ञानिक स्तर पर रचा गया था .गणतंत्र से मिले समानतावादी संस्कार के कारण विषमता के पक्षधर ईश्वर का नैतिक समर्थन वे नहीं कर सके .ईश्वर पर उनकी चुप्पी भी उनके इसी नैतिक अस्वीकार से उपजी थी .ईसा मसीह नें बुद्ध के इसी सम्वेदनात्मक और आत्मीय मानवतावादी धर्म का पश्चिम में पुनर्प्रवर्तन किया था .मुहम्मद साहब नें इस्लाम का आरम्भ तो इसी चारित्रिक आधार के साथ किया था लेकिन कुछ अधिक क्रूर और हिंसक उनके युग की परिस्थितियों ने उन्हें एक शस्त्रधारी धर्म का प्रवेतक बना दिया .इस अर्थ में इस्लाम एक राजनीतिक धर्म है ,बौद्ध और ईसाई की तरह संवेदनात्मक नहीं .इसमें संदेह नहीं कि मुहम्मद साहब दूसरा ईसा मसीह बनने का जोखिम नहीं उठा सकते थे .वे ऐसा करते तो मार डाले जाते .उनकी महानता बहुत कुछ कृष्ण जैसी कूटनीतिक महानता है ,राम बुद्ध और गाँधी जैसी नहीं जोकि राज्य-सत्ता के संपूर्ण त्याग और सामाजिक सत्ता के पोषण पर आधारित है .यद्यपि वे भी चाहते कुछ वैसा ही थे ,जिसकी परंपरा इस्लाम में कुछ खलीफाओं तक चली थी .
1.
तय तो यह था कि चिड़ियों से छीना नहीं जाएगा उनका आकाश
तय तो यह था कि हर कदमो को
रोमांचक दौड़ लगाने के लिए
ईमानदारी से सौंप दी जाएगी पूरी धरती
तय तो यह था कि अलग अलग जातियों का झूठ
पहचान लिया जाएगा
और पहचान लिया जाएगा यह सच
कि पूरी मानव जाति का एक ही कुल और एक ही पूर्वज हैं....
यही एकता और आत्मीयता ही है
बुद्ध की करुणा और जीवन की सार्थकता का आधार ....
तभी तो मानव जाति के अपराधी और मूर्ख वंशजों !
तुम सभी के लिए असहमति और शर्म !
सामूहिक धिक्कार!!
2.
बुद्ध को जितना ही बड़ा बनाया जाय
कम ही होगा।
कि मनुष्य प्रकृति और ईश्वर को
सिर्फ़ अपने चरित्र के स्तर पर ही पछाड़ सकता है।
बुद्ध एक उदासीन और क्रूर ईश्वर को प्रश्नांकित करते हैं
उसके औचित्य और उपयोगिता के आधार पर
एक नियतिवादी ईश्वर को निरस्त और छोटा करते हैं.
बुद्ध सामंतवादी मूल्यों का बहिष्कार करते हैं
बड़प्पन की उन सारी कसौटियों को अस्वीकारते हैं ,
जिसे उनके युग के व्यापारिक पूंजीवाद ,
कुलीनता वाद एवं कबीलावाद नें रचा था
गौतम बुद्ध का होना
दुःख ,आपमान और भय देने वाले ईश्वर के विरुद्ध
एक संवेदनशील पुरुष का खड़ा होना है ......
कुछ ऐसे कि
जैसे बाहर की महानता
वस्तु लोक की महानता हो
एक ओढ़ी हुई उधार !
अपमान हो जीवन का
कि वह बाहर की वस्तुओं के लिए
स्वयं को छोटा करे
कि ऐसी हर इच्छाएं जीवन को अपमानित करती हैं
बुद्ध भीतर की ओर लौटते हैं
और चुप हो जाते हैं ......
उन सारी व्याख्याओं के खिलाफ
जिन्हें धूर्तों नें
दूसरों को छोटा बनाने के लिए रची हैं
ऐसी क्रूर महानताएं जो
जो दूसरों को छोटा बनाकर खुश होती हैं
जो संवेदना से नहीं स्वार्थ से सिद्ध होती हैं
जो सिमट गयी हैं अपने भीतर
अपने अहंकार की अपनी पाशविक सींगों में
बुद्ध सभ्यता के पापों को
करुणा के आंसुओं से धोते हैं ....
कि जीवन की सार्थकता
जीवन की हत्याओं में नहीं
जीवन की दुर्दशा के विरुद्ध करुणा में है
कि जीवन में
दुख से भी बड़ा है उस दुख का भय ..
बुद्ध मनुष्य के चित्त की कुरूपताओं को
चित्त की सुन्दरता से दूर करते हैं
बुद्ध दुखी रहने की प्रवृत्ति से मुक्त
तथा भय से अभय करते हैं .
1.
तय तो यह था कि चिड़ियों से छीना नहीं जाएगा उनका आकाश
तय तो यह था कि हर कदमो को
रोमांचक दौड़ लगाने के लिए
ईमानदारी से सौंप दी जाएगी पूरी धरती
तय तो यह था कि अलग अलग जातियों का झूठ
पहचान लिया जाएगा
और पहचान लिया जाएगा यह सच
कि पूरी मानव जाति का एक ही कुल और एक ही पूर्वज हैं....
यही एकता और आत्मीयता ही है
बुद्ध की करुणा और जीवन की सार्थकता का आधार ....
तभी तो मानव जाति के अपराधी और मूर्ख वंशजों !
तुम सभी के लिए असहमति और शर्म !
सामूहिक धिक्कार!!
2.
बुद्ध को जितना ही बड़ा बनाया जाय
कम ही होगा।
कि मनुष्य प्रकृति और ईश्वर को
सिर्फ़ अपने चरित्र के स्तर पर ही पछाड़ सकता है।
बुद्ध एक उदासीन और क्रूर ईश्वर को प्रश्नांकित करते हैं
उसके औचित्य और उपयोगिता के आधार पर
एक नियतिवादी ईश्वर को निरस्त और छोटा करते हैं.
बुद्ध सामंतवादी मूल्यों का बहिष्कार करते हैं
बड़प्पन की उन सारी कसौटियों को अस्वीकारते हैं ,
जिसे उनके युग के व्यापारिक पूंजीवाद ,
कुलीनता वाद एवं कबीलावाद नें रचा था
गौतम बुद्ध का होना
दुःख ,आपमान और भय देने वाले ईश्वर के विरुद्ध
एक संवेदनशील पुरुष का खड़ा होना है ......
कुछ ऐसे कि
जैसे बाहर की महानता
वस्तु लोक की महानता हो
एक ओढ़ी हुई उधार !
अपमान हो जीवन का
कि वह बाहर की वस्तुओं के लिए
स्वयं को छोटा करे
कि ऐसी हर इच्छाएं जीवन को अपमानित करती हैं
बुद्ध भीतर की ओर लौटते हैं
और चुप हो जाते हैं ......
उन सारी व्याख्याओं के खिलाफ
जिन्हें धूर्तों नें
दूसरों को छोटा बनाने के लिए रची हैं
ऐसी क्रूर महानताएं जो
जो दूसरों को छोटा बनाकर खुश होती हैं
जो संवेदना से नहीं स्वार्थ से सिद्ध होती हैं
जो सिमट गयी हैं अपने भीतर
अपने अहंकार की अपनी पाशविक सींगों में
बुद्ध सभ्यता के पापों को
करुणा के आंसुओं से धोते हैं ....
कि जीवन की सार्थकता
जीवन की हत्याओं में नहीं
जीवन की दुर्दशा के विरुद्ध करुणा में है
कि जीवन में
दुख से भी बड़ा है उस दुख का भय ..
बुद्ध मनुष्य के चित्त की कुरूपताओं को
चित्त की सुन्दरता से दूर करते हैं
बुद्ध दुखी रहने की प्रवृत्ति से मुक्त
तथा भय से अभय करते हैं .