शनिवार, 2 मार्च 2013

समय और कथा-साहित्य

क्या समयाभाव से ग्रस्त ,दूसरों के जीवन में डूबने का समय न रखने वालों के लिये क्था साहित्य नहीं है ! या ऐसे लोगों कें लिए कहानी भी अपना अलग स्वरूप ग्रहण करेगी ! कुछ लोग कहानियां नियमित रूप से पढ़ते है,कुछ लोगों की पढ़ने की आदत है इस लिये पढते हैं,कुछ लोग कहानियों को पढ़ाने के लिये पढ़ते हैं ,कुछ लोग तो पढ़ते ही नहीं ; लेकिन जो पढ़ते-पढ़ते बीच में ही कहानी पढ़ना छोड़ देते हैं या पढ़ने के बाद ऐसा सोचते हैं कि यह कहानी क्यों पढ़ी-दुख में डूब जाने के कारण नहीें बलिक अपना बहुमूल्य समय व्यर्थ करने के दु:ख से -क्या कहानी को ऐसे भी बदले लोगों के लिये अपना स्वरूप बदलना नहीं चाहिये ! जीवन-संघर्श और जनसंख्या के सैलाबी दबाव में सकि्रय जीवनोें का समयाभाव क्या उन्हें दीर्घसूत्री  कहानियों का पाठक बनने देगा ! जबकि हम पाते हैं कि समाज में बौद्धिक और मानसिक वृतित और संरचना के विविध स्तर हैं । एक जीवन-षैली दूसरी जीवन-षैली के पाठक के लिये रुचिकर कैसे हो सकता है ? जबकि हम पाते हैं कि चुप रहने वाले व्यकित बड़बोले व्यकितयों का संग पसन्द नहीं करते !

        साहित्य में भी कुछ कहानियां बड़बोली होती हैं और कुछ बहुत चुप सी ; लेकिन दृष्य मीडिया के इस युग में प्रिंट मीडिया की कहानियों को कुछ अलग और विषिश्ट नहीं होना चाहिये ? हिन्दी कहानी में कहानीकारों की एक धारा जिसमें मोहन राकेष से लेकर निर्मल वमा्र्र तक आते हैं-परिवेष के जीवन्त आकर्शक चित्रण द्वारा दृष्य माध्यम के समानान्तर कहानी में एक भाशिक प्रतिसंसार रचते हैं । कहानी में दृष्य माध्यम के प्रति रचनात्मक प्रतिरोध विकसित करने का यह  एक अच्छा ढंग हो सकता है लेकिन क्या वह दृष्य माध्यम की कथा-प्रस्तुतियों को विस्थापित कर पायेगा ? कहानी को अन्त:संसार और मनोवैज्ञानिक आयामों में प्रस्तुत करने वाली जैनेन्द्र और अज्ञेय की कहानियों में दृष्य माध्यम से होड़ लेत हुए कहानी को चिन्तन संसार की ओर ले जाने का प्रयास किया गया है । रेणु की कहानियों में भाशा का सृजनात्मक स्तर ,उनकी कहानी पर बनी तीसरी कसम जैसी फिल्म में दृष्य माध्यम में रूपान्तरित होकर भी उसके संवादों में भाशा के सृजनात्मक महत्व को प्रमाणित करती है ।

         स्पश्ट है कि भाशिक माध्यम में कहानी का असितत्व तभी तक अप्रतिस्पद्र्धी रूप में सुरक्षित रहेगा,
जब तक कि वह जीवन और भाशा के रिष्तों की ठोस नींव पर रची जाती है । भविश्य की वैज्ञानिक प्रगति में भी भाशा-विहीन मनुश्य की परिकल्पना नहीं की जा सकती । वैसे तो प्यार भरे स्पर्ष और तनाव भरे मौन चेहरे भी भाशाहीन संवाद करते हैं । विज्ञान का भावी विकास मानव जीवन से भाशा-तंत्र को विस्थापित कर देगा या अनावष्यक कर देगा-ऐसा होना कभी संभव नहीं प्रतीत होता । दूसरे षब्दों में कहें तो भाशिक माध्यम में सृजित कहानी ही कथा का प्राथमिक और आदिम स्वरूप है। दृष्य माध्यम में सृजित और अभिनीत कहानियाें मानव जाति के विकास-क्रम में अधतन और नयी आदतें हैं । यह माध्यम यानित्रक सुविधायें देता है । संस्कृत के दृष्य या नाटय काव्य का आधुनिक और विकसित रूप है । अधिक मूर्त,स्पश्ट

और âदय-संवेध है । अपेक्षाकृत कम मानसिक श्रम में ही सम्प्रेशित हो जाता है । लिखित या वाचिक स्तर पर कहानी-एक समय में एक ही ज्ञानेनिद्रय आंख या कान से आस्वाध हो सकती है ; जबकि दृष्य माध्यम में सृजित या प्रस्तुत कहानी एक साथ आंख और कान दोनों ज्ञानेनिद्रयों द्वारा आस्वादित होती है । सिद्धान्त रूप में दोनों ही माध्यमों में सृजित कहानी का एक दूसरे में रूपान्तरण सम्भव है। किसी फिल्म या सीरियल को भाशाबद्ध किया जा सकता है तो किसी कहानी का फिल्मांकन भी संभव है । कम श्रम साध्य और आसान सम्प्रेशण्ीयता के कारण दृष्य माध्यम लोकप्रियता की अधिक सम्भावना रखता है लेकिन गुणवत्ता की दृशिट से भाशिक माध्यम की भी अपनी विषिश्टताएं हैं ,जैसे उसमें कल्पना को उत्तेजित करने की संभावनायें अधिक हैं । बिजली जाने पर और जंगल में भी कहानी पढ़ी जा सकती है । उस पर किसी इलाके का æान्सफार्मर जलने का कोर्इ दुश्प्रभाव नहीं पड़ेगा आदि। दूसरे षब्दों में कहें तो अधिक जटिल यानित्रक साधनों पर दृष्य माध्यमों की निर्भरता ही उनका दुर्बल पक्ष है । आर्थिक पक्ष मजबूत होने के साथ टी0वी0 के रूप में सर्वसुलभ होने से यह प्रिंट मीडिया का प्रतिस्पद्र्धी भी बन गया है लेकिन देखने की बात यह है कि षिक्षा का क्षेत्र आज भी पुस्तक आधारित है । यहां तक कि कम्प्यूटर सीखने के लिये भी पुस्तकें पढ़नी पढ़ती हैं । कम्प्यूटर स्वयं लिखित प्रतीकों में ही -भाशिक माध्यम में ही संवाद कर पाता है ।इसमें सन्देह नहीं कि हमारा मसितश्क रूपी हार्डवेयर जीन के स्तर तक भी मानव-भाशा के विकास के अनुकूल ढला है। मनोविज्ञान के अनुसार भाशा के बिना चिन्तन ही संभव नहीं है ।  विचारों की लय भाशिक  प्रतीकों के माध्यम से ही प्रवहमान होती है। स्पश्ट है कि दृष्य माध्यम संवेदना और संवेगों को तो जन्म दे सकता है लेकिन विचारषीलता के लिये भाशा के आदिम और प्राथमिक स्तर की ओर ही मनुश्य को लौटना होगा ।

        भारत और विषेशकर हिन्दी क्षेत्र में हिन्दी चैनलों और हिन्दी अखबारों की तरह हिन्दी साहित्य लोकप्रिय क्यों नहीं हुआ ? यह एक गम्भीर प्रष्न है । जिसका एक उत्तर यह हो सकता है कि हम भारतीय लोग जातीय रूप से रूढि़वादी हैं । हमारी साहितियक विधाएं और कथा-चरित्र भी रूढि़वादी हैं । जीवन और समाज के हर स्तर पर दायरों को जीते-जीते हमारे साहित्य के चरित्र तक चारित्रिक आदतों में बदल गये हैं। साहित्यकार का संकट यह है कि यदि वह किसी अलग और विषिश्ट चरित्र की संभावना भी करता है तो तथ्य और तर्क सम्मत होते हुये भी समाज उसे झूठा बना देगा । सामान्य भारतीय मानस आज भी कर्इ युगों-कर्इ दुनियाओं को एक साथ जी रहा है । वह खणिडत मनस्कता का षिकार है । अधतन को पाने और अतीत को संरक्षित रखने का द्वन्द्व उसमें अब भी है । प्रेमचन्द की कहानियों के कर्इ चरित्र आज भी भारत -भूमि पर जीवित विचरण कर रहे हैं । जड़ता अमरता का पर्यायवाची हुआ करता है । प्रेमचन्द को देर तक प्रासंगिक और विष्वसनीय बनाये रखने में देष के यथासिथतिपूर्ण यथार्थ का अपना योगदान है। जब देष ही नहीं बदल रहा , उसका यथार्थ ही नहीं बदल रहा तो पात्र और चरित्र कहां से बदलेंगे ! कहानी कहां से बदलेगी ! चारित्रिक जड़ता चरित्र के प्रति पाठकीय जिज्ञासा को मार देती है । कहानी उतनी ही सफल होगी , जितनी कि वह पाठक की जिज्ञासा और कौतूहल को उददीप्त करेगी ; क्योंकि कौतूहल और जिज्ञासा किसी यात्रा के उददेष्य की तरह प्रेरक मनोवृतित है ।

         दूसरा कारण और उसका उत्तर साहितियक नहीं बलिक आर्थिक है । जब कोर्इ दृष्य माध्यम की 
सुलभता के यानित्रक साधन टी0वी0 को खरीदता है तो उसकें बाद सिर्फ बिजली का बिल , केबिल का किराया और उसे खोल कर उसके सामने बैठने का समय ही निवेष करता है , जबकि खरीदकर पुस्तक और पत्रिकायें पढ़ने के लिये उसे बार-बार निवेष करना होता है । पढ़ना यदि व्यसन के स्तर पर हो तब भी ,पढ़ने के श्रम-विनिवेष के कारण पुस्तकों का उबाऊ होना अखरता है । टी0वी0 खोलकर बैठा हुआ दर्षक बैठता ही है अपने फालतू या सस्ते समय के साथ अपना समय गवांने या लुटाने । अपेक्षित प्रापित न होने पर भी उसे बहुत नहीं खलता । पुस्तकों के असितत्व के लिये एक अन्य नकारात्मक सच्चार्इ उसका पर्यावरण (पेड़ों) के विनाष पर आधारित होना है । उस पर भी ज्यादा और घटिया लेखन , जीवनदायी पेड़ों का बध करता हुआ मानव-जाति के असितत्व और भविश्य को ही संकटग्रस्त करता है । जब तक प्लासिटक के कागज और प्लासिटक की टिकाऊ पुस्तकें नहीं आ जाती -तब तक इन्टरनेट की पुस्तकों से ही काम चलाना होगा ।

         तीसरा कारण सभ्यता के विकास और षिक्षा के प्रसार के कारण नये मनुश्य का अधिक जटिल , विविधतापूर्ण और बहुआयामी होना है । जीवन-संघर्श से उपजा तनाव , बेचैनी और असिथरता हर नये पल,हर नये कदम के साथ उसे बीता-पिछड़ा और व्यर्थ कर देती हैं । उसके भीतर दूसरों में नायकत्व ढूढ़ने का समय नहीं है । छोटा ही सही जीवन उसके स्वयं के नायकत्व की मांग करता है ।सवयं नायक न बन पाने की कुंठा और अतृपित उसे दूसरों में नायकत्व की तलाष के लिये उन्मुख और प्रेरित करती है।

कम से कम कर्इ मुम्बइया फिल्मों की कहानी तो यही कहती है । भावनात्मक षोशण के हिट फामर्ूले ! अपनी अतृप्त आकांक्षाओं को दूसरों में प्रक्षेपित कर दर्षक विस्मृति का सुख लेता है ।साहितियक कहानी उन फार्मूलों को चाहकर भी दुहरा नहीं सकती । एक अच्छी सुन्दर अभिनेत्री सुन्दरता  की सर्वसुलभ खिड़की की तरह होती है ,कुरूपता के गहरे अन्धकार में पड़े हुए लोगों के लिये ठण्डी रोषनी वाले चाद की तरह । अपने नायक की जीत को अपनी ही जीत मानकर थोड़ी खुषी जी लेते हैं उसके अनुयायी । अनुयायी का मनोविज्ञान उन्हें स्वयं नायक होने के अयोग्य कर देता है ।यदि अरस्तू का केथार्सिस या विरेचन सिद्धान्त सही है तो वह साहित्य की एक नकारात्मक मानवीय भूमिका की ओर ही संकेत करता है ।

कहानी को केथार्सिस प्रभाव से मुक्त रखने के लिए कहानी में , पात्रों के आक्रोष के संभावित स्थलों से आक्रोष को अनुपसिथत करना होगा -दुख के संभावित स्थलों से दुख को । संजीव और उदयप्रकाष ने बहुत सी अच्छी कहानियां लिखी है लेकिन यदि अपराध टेपचू और तिरिछ नहीं भूलती  तो उनके न भूलने के पीछे उनकी वह संरचना लगती है जो केथार्सिस की प्रकि्रया को पाठकों में घटित ही नहीं होने देती। टेपचू का टेपचू एक निरीह सर्वहारा पात्र है,लेकिन उसका कथानक निरन्तर निरीहता का उपहास उड़ाता हुआ केथार्सिस को अवरुद्ध कर देता है,इसीलिए कहानी पाठकीय संवेगों को पूर्ण संतृपित के रूप में विरेचित नहीं होने देती और पाठकीय स्मृति में जीवन्त प्रभावषीलता के रूप में बची रह जाती है ।

        अपराध कहानी में जो संवेगात्मक संषिलश्टता और कलात्मक परिपक्वता अपने चरमोत्कर्श पर मिलती है-केथार्सिस की प्रकि्रया को अवरुद्ध करने वाली उसी स्तर की कोइ्र्र दूसरी कहानी लिखने के स्थान पर संजीव की परवर्ती अच्छी कहानियां भी यथार्थ की महाकाव्यात्मक और संवेदनात्मक प्रस्तुति के बावजूद पाठकीय विरेचन को रोक नहीं पाती । यदि विरेचन को न भी माने तो भी मनोविज्ञान में व्यकितत्व विकास के सम्बन्ध में क्षतिपूर्ति का नियम है । उस नियम कें अनुसार यह माना जा सकता है कि यदि पाठक किसी कहानी के पात्र विषेश में अपने ही भीतर के चेतन-अचेतन सुख , घृणा , जीत या आवेष को खोज या पा लेता है तो वह भावनात्मक षार्ट-सर्किट का षिकार होकर षान्त हो सकता है-अपना गुस्सा या आवेष खो सकता है । अपराध कहानी के नायक सचिन की असफलता, घृणा,विवषता अपराध-तंत्र के भयावह चेहरे को पाठकों में मोहभंग के स्तर तक बेनकाब तो करती ही है ,सचिन और संघमित्रा की क्रानितधर्मी मृत्युपर्यन्त चलने वाली आत्महंता आस्था 'अपराध कहानी के रचनात्मक आवेष को विरेचित नहीं होने देती । इस कहानी के पष्चात संजीव अपनी परवर्ती कहानियों में मानवीय संवेदनाओं एवं व्यवस्था-

बोध की ऋजु किन्तु महाकाव्यात्मक प्रस्तुति की ओर बढ़ गये हैं । संजीव की दूसरी कहानियों की ताकत
उनकी परिकल्पनात्मक सम्पूर्णता और अपराध की क्रौंचबध वाली संवेदना, पीड़ा और करुणा के निर्बन्ध सृजनात्मक विस्तार में है । इसमें सन्देह नहीं कि जिस दौर में प्रायोजित यथार्थवादी कहानियों की भीड़ ने हिन्दी पाठकों से कहानियां पढ़ने की सारी उत्सुकता ही छीन ली ,संजीव ने कैसे अपने कहानियों के प्रति

पाठकीय जिज्ञासा को बचाये रखा-यह उनके कहानीकार की षकित को ही प्रमाणित करता है । फिर भी यदि मुझसे पूछा जाये तो मै कहानीकार संजीव को उनकें उस सृजनात्मक संस्कार या अतीत से मुक्त देखना चाहूंगा जिसे मैं संजीववन कहना चाहता हूं-कुछ वैसे ही जैसे अपनी 'वापसी,'पिषाच और'बाढ़ जैसी कहानियोंं में अपनी क्थात्मक आदतों का अतिक्रमण कर इन कहानियों को उनकी पूर्ण स्वाभाविक परिणति में सृजित कर सके है। संजीवपन से मुकित का यह तात्पर्य बिल्कुल नहीं कि संजीव का कहानीकार अपनी मिषनरी सृजनषीलता से हट जाये । यही वह उनकी ताकत है जिसके बल पर प्रेमचन्द अपना विपुल कथा-संसार रच सके थे । उनका भी अधिकांष कथात्मक प्रति-संसार अपने समय और यथार्थ के समानान्तर प्रेमचन्द की तरह ही साहितियक हस्तक्षेप कें रूप में सृजित है ।

      इसी तरह उदयप्रकाष के तिरिछ कहानी की ताकत इसमें है कि वह मानवीय सम्बन्ध , सहयोग और सहानुभूति के प्रति सहज सामान्य विष्वास को मानवीय आत्मकेनिद्रकता,असुरक्षाबोध तथा स्वार्थजन्य निर्मम क्रूरता के पत्थर मार-मारकर क्षत-विक्षत कर देती है ।

      हिन्दी कहानी का सामान्य वर्तमान और अतीत इन कहानियों के स्वरूप,उपलबिध और यथार्थ से बहुत अलग नहीं है । कहानी अपनी विधात्मक परिकल्पना में ही मानवजाति की दीर्घ कथात्म्क रूढि़ का परिणाम है ।बहुत दिनों तक मानव-जाति के लिये वह थियेटर,फिल्म,रेडियो-टी0वी0 सब कुछ रही है ।कुछ कहानीकार कहानी के असितत्व और सार्थकता की लड़ार्इ को प्रतिस्पद्र्धा के माध्यम से जीतने के भ्रम में हैं और सोचते हैं कि षब्दों की रील चलाकर वे फिल्मों को मात दे देंगे । यदि वे ऐसा करते हैं तो दृष्य माध्यमां की सजीवता से र्इश्र्या तो कर ही रहे हैं , बिल्कुल दूसरी विधा की मौलिक विषेशताओं को कहानी से मांगने का अनुचित प्रयास भी कर रहे है ; जबकि इसे पूरक सहअसितत्व के रूप में विकसित करना चाहिये । इस विचार और विष्लेशण के साथ कि हम ही हैं जो फिल्म और टी0वी0 सीरियल देखते हैं और हम ही हैं जो कहानी भी पढ़ते हैं । कब कहानी पढ़ें और कब फिल्म देखें-दोनों ही कथा-माध्यमों का अलग-अलग आस्वादन-तंत्र और स्वरूप होना ही चाहिये । उनके महत्व,वैषिश्टय और सार्थकता का अलग व्यकितत्व और पहचान की अलग दिषायें-जो दोनो को ही पूरक सहअसितत्व ,दीर्घजीविता और उत्तरजीविता दे ।