स्वयं के पक्ष में ...
जब सब निष्ठाएं संदिग्ध हो गई हैं
मैं किसी को भी अपना विश्वास कैसे सौंप सकता हूँ !
मुझे मेरे पास रहने दो
मैं अभी किसी पर भी
विश्वास नहीं कर पाता-
न ही ईश्वर
न समय
न समाज
मैं स्वयं को
अपने मूल स्वभाव में
बचा लेना चाहता हूँ
आप यदि कहना चाहेंतो कह सकते हैं कि
यही मेरी आध्यात्मिकता है
मैं डरता हूँ कि
हर विश्वास
मुझे बेवकूफ बना सकता है
और हर अविश्वास असामाजिक ...
वस्तु -स्थिति
मैं नहीं कर सका अभिनय
एक अच्छे आदमी का
बलान्नित होते हुए
कि तुम एक अच्छे आदमी नहीं हो
यदि तुम हमारा कहा न कर सको !
भय से बना-
मैं एक अच्छा आदमी
मैं एक अच्छा आदमी नहीं हूँ .
सबसे निरीह समय में ....
कविता यदि
मेरे दुश्मनों से बचाकर
तुम तक पहुँच जाय
तो पढकर सोचना
कविता में छिपाकर लिखे गए
उन संदेशों के बारे में
जिन्हें मैं अपने आस-पास
किसी से भी कह न सका हूँ !
कि मेरी कविता में
उन भाग गए हत्यारों के नाम पढ़ना
जिन्हें मैंने अपने ही खून में
उंगलियाँ डुबोकर
लिखी होंगी धरती पर
अपने सबसे निरीह समय में .....
कि कविता में पढना कि
संवादहीनता में
कैसे-कैसे भ्रम जन्म लेते हैं
किमहज अस्तित्व की लड़ाई
असहिष्णुता और प्रतिरोध तककब और कैसे पहुंची !
कविता में पदना कि
मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है
वे जो आज भी खुद को
मेरे एकनिष्ठ दुश्मन के रूप में
याद करते हैं
मेरी कविताओं को उन्हें जरुर पढाना
और कहना कि
हम किसी तीसरे दुश्मन की साजिश के
शिकार हो गए हैं ...
की हमें जड़ वस्तु की तरह इश्तेमाल कर
आपस में लड़ा दिया जिन हाथों नें
वे समय के नहीं
कुछ निहित स्वार्थों के थे !
कविता और चीख
वे हमारी चीख को
एक भददे मजाक में बदल देते हैं
कभी कला के नाम पर
तो कभी अपराध के .......
कि हम चीखते हैं
और वे हमारी आवाज
एक रूढ़ पहचान में बदल देते हैं
की देखो वह रहा -
अमुक धर्म और अमुक जाती का अमुक
अमुक भाषा बोलता हुआ ....
तो हम क्या करें इसके लिए
की जब हम चीखें
तो सुना जय-देखो वहां चीख रहा मनुष्य...
तो हम क्या करें कि साफ-साफ
सीधी सच्ची सुनी जाय
हमारी चीख
इसके लिए हम स्वयं को क्या कहें -
जनाब अल्लिफ ,श्रीमान क या मिस्टर अल्फ़ा !
आखिर हम कैसे चीखें कि
भाषा की साडी सीमाएं तोड़ कर
सिर्फ मनुष्य की चीख बन जाय हमारी चीख !
किजब हम चीखते है
वे हमारी चीख को मर देते हैं
भाषा के खंडहरों में घेरकर ......
प्रश्न
यह हम किधर जा रहे है
पैरों से रचते हुए
एक लहूलुहान मृत्यु-लोक !
हम बढ़ रहे हैं
निर्णायक अन्त की ओर
अनिर्णय की स्थिति की शिकार !
घोषणा -पत्र
अपने हिस्से की दुनियां के लिए
लड़ रहा हूँ युद्ध
अपने विश्वासों की रचना के लिए
लड़ रहा हूँ युद्ध
मेरी दुनिया मुझे वापस दो
मेरी दुनिया को छोड़ दो और
अपनी दुनिया में चले जाओ
यदि तुम मेरी भी दुनिया हो
मेरी ही दुनिया हो
मेरी दुनिया की तरह रहो.....
तुम्हारा कोई भी नियम
सत्य नहीं है
तुम्हारा कोई भी अधिकार वैध नहीं है
यदि वह मनुष्य को
उसका जीवन ,स्वतंत्रता और सम्पत्ति
जो कि उसकी धरती है
सुरक्षित उसका उसे
वापस नहीं कर देता एक बार फिर .....
मनुष्य का -जो कि मैं भी हूँ !
और वह....
मुझे मुक्त करो
एक मनुष्य होते हुए
एक मनुष्य से असहमति
अस्वीकार और मुक्ति का
पूरा अधिकार है मुझे
मुझे मुक्त करो
मैं एक मनुष्य
एक मनुष्य को झेलते रहने के लिए
बाध्य क्यों हूँ -
यदि मुझे मनुष्य द्वारा
मनुष्य की तरह
स्वीकारा नहीं गया....
मैं एक मनुष्य एक मनुष्य द्वारा
मुझे मारा क्यों गया !?
तुम मेरी दुनिया मुझे दो
मेरी दुनिया को मत छलो
मेरी दुनिया को छोड़कर
अपनी दुनिया में चले जाओ
यदि तुम मेरी भी दुनिया हो
मेरी ही दुनिया हो
तो मेरी दुनिया की तरह रहो
जैसे कि मैं
तुम्हारी भी दुनिया की तरह
रहता हूँ
तुम मेरी दुनिया हो
जैसे की मैं भी
तुम्हारी दुनिया हूँ .....
जैसे कि वह भी है
मेरी और तुम्हारी दुनिया ..
युद्ध
१
बिना लड़ें
बिना लडे सैनिकों नें
अपनी वर्दियां बदल दीं
अपने हथियारों के निशाने तक
अपनी पिछली लड़ाइयोंकी ओर कर दी
और आसानी से जीतते गए
हारते हुए .....
सब जानते हुए भी
की युद्ध
भुलाया नहीं गया
की युद्ध
बंद नहीं किया जा सकता
की युद्ध
विद्रोह नहीं एक विचार है
और वह कभी भी
जीत सकता है
अपनी हारती लड़ाई -
बिना मरे ......
वे आत्म-समर्पण की मुद्रा में
हाथ उठाए हुए
उनके सामने से गुजरते रहे
सर झुकाकर
अपने अपराधों के लिए मांगते हुए क्षमा -
बिना किसी अपराध के
आसानी से जीतते हुए
हारते हुए अपनी लडाई.....
सब जानते हैं कि
युद्ध लड़ा नहीं गया
न ही जीता गया
फिर भी आश्वस्त हैं कि
अब कहीं भी नहीं है युद्ध !
२
एक थोपा हुआ युद्ध
लड़ने के लिए
लड़ते हुए वीरता हमारा स्वप्न नहीं था
फिर भी युद्ध हुआ
फिर भी युद्ध होगा
प्रतिक्रियाओं में उपजा हुआ
एक मूर्खतापूर्ण युद्ध
निरन्तर ही
मूर्खों के विरुद्ध लड़ा जाएगा
एक मूर्खतापूर्ण युद्ध का इतिहास
मूर्खों द्वारा लिखा जाएगा
फिर भी युद्ध होगा
मूर्खों और मूर्खताओं से
अज्ञान और उपेक्षा से
व्यक्तिकेंद्रित सामाजिक प्रभुत्व के
अपमानजनक शर्तों और
शोषक सपनों से
यद्यपि इतिहास
सदैव ही मूर्खों ने पैदा किया है
यद्यपि इतिहास
मुर्ख ही पैदा कर रहे है
यद्यपि इतिहास
मूर्ख ही पैदा करेंगे !?
एक थोपा हुआ युद्ध
निरन्तर ही लड़ा जाएगा
और जो लड़ेंगे
मूर्ख नहीं होंगे ....
अधूरे सच से आगे
एक सभ्यता मरती है
समाज डूबता है तो
उसके दर्द में एक कवि-
शब्दों में बंधे सुर-धुन-लय तक
व् कथित विद्वान्
कागज की धरती पररिसते हुए रीत जाता है
और एक बौद्धिक
केतली के गर्म चाय की तरह
उफनता है ..बड़बड़ाता है
चीखता -चिल्लाता है
सिगरेट के धुंए-सा उगलता है
बहसें-दर-बहसें !
लेकिन एक गाँधी दौड़ पड़ता है नंगे पाँव
एक सुबास अपने रक्त से तौल देता है
उस दर्द को
और भर देता है
रंग देता है सारा इतिहास
आजाद हिन्द फौज की
फौलादी क़दमों से !
और जहाँ
उस जैसे अनेकों लोग
अपनी धरती की दर्दनाक दस्तानों का
नंगा बयानअपनें होठों तक
लाने के पहले
डूब मरना चाहते हैं
मिट जाना चाहते हैं शर्म से !
और संकट के उस मार्मिक क्षण में
कोरे कवि ,विचारक ,दार्शनिक व
विद्वानों के टूटे-फूटे ,अंधे -बहरे
अपूर्ण सत्य से आगे
एक जीवन्त और सशक्त सत्य को
उद्घाटित करते हुए
खींच देते हैं -
परिवर्तन की स्वर्णिम रेखाएं
समय और संसार के पत्र पर
इतिहास की कलम से !
लुटेरे ज़माने के खिलाफ
(मार्क्स के लिए )
वह फावड़े की तरह चलाता है
अपनी कलम
और खोद डालता है
मनुष्यों के इतिहास की सारी धरती
संस्कृतियाँ ,सभ्यताएँ और साम्राज्य
वह बारीकी से खंगालता है
एक-एक चीजें
काल के अथाह कीचड़ से
निकालता है गन्दी मिटटी से लथपथ
मजदुर जैसी कोई चीज
एक ईमानदारमेहनती मजदूर की तरह
देखो ! सिर्फ यहीं से फूटती है
जीवन,मनुष्य और विश्व-इतिहास की जड़ें
इसे भुलाया नहीं जा सकेगा ....
वह युद्धों में लड़ते हुए सम्राटों और
उनके सैनिकों के तीरों-तलवारों की
खनखनाहटे नहीं
भाड़े के घायल सैनिकों की
देह से झरती रक्त की बूंदें नहीं
झोपड़ियों में
गर्म लाल लोहे को पीटकर
तलवारों में ढालते हथौड़ों की
घनघनाहट और
कोयलों की गर्म भट्टियों से
पिघलकर बहती
लुहार के सधेहाथ और
किले के बुर्ज में
कारीगरों की
भूमिगत हथेलियों की शिनाख्त करता है
वह फावड़े की तरह उठाता है अपनी कलम
और उसे आग उगलती बन्दूक में
बदल देता है
नए ज़माने के लिए युद्ध में
लुटेरे ज़माने के खिलाफ ..
सुनो विजेता !
१
कि तुम्हारे पुरखे तुमसे पिछड़ चुके होंगे
और समकालीन परास्त
तुम अपने समय के लोगों की पीठ पर
चढ़ कर गाते हुए तय करोगे
अपने समय का
लम्बा भव्य विजय-जुलुस .....
गुजर चुके लोग तुम्हारे सामनें होंगे
गुमनामी की गर्त में तुम्हारे समकालीन
पिछली पीढियां भुला दी गई होंगी
और तुम्हारे आतंक की छाया में पलती
तुम्हारी अपनी पीढ़ी
तुम्हारी कड़ी निगरानी में .......
जितने के लिए कुछ भी
न बचा होगा वहां !
फिर भी तुम्हारे छल -छद्मी अपराध
पीछे से आती हुई पीढ़ियों के
सामने होंगे .....
तुम्हारी मौत
आने वाली पीढ़ियों के हाथों ही होगी
तुम्हारी मौत और
तुम्हें भुला दिए जाने का दिन
आने वाली पीढियां ही तय करेंगी .
२
नहीं...संवाद कहीं नहींसिर्फ एक अंधी शर्त
या तो मैं तुझे मारूंगी.....
और मैं मरने से नहीं डरती
जब सब कुछ हिंसा से ही तय होना था
हिंसा के द्वारा किया गया हर कार्य
जब सही हो जाना था
अब जब तुम हर गई -गलत थी ....
जब सिर्फ जीतना ही होना था सच
येन-केन प्रकारेण
जब सिर्फ बने रहना ही
मन जाना था सच
अब जब तुम नहीं रही -गलत थी ......
यद्यपि तुम्हारे लिए
अधिकांश कवि मुर्ख थे
और कविताएं मनोरंजन
यद्यपि तुम्हारा सत्य
सम्पूर्ण मानवता का
आदर्श सत्य नहीं था
न ही तुम्हारा समय
विशुद्ध लोकतंत्र था ....
और यह भी कि तुम
मानव-विकास की दिशा -अपेक्षाओं से
दम्भ-युक्त भटकाव के साथ
बहुत दूर निकल आई थी .....
यद्यपि तुम्हारा होना स्वयं ही एक क्रांति थी
युगों से पुरुष -अर्थ से आक्रान्त
और परास्त नारी-मनुष्य -अर्थ को मुक्त करते हुए
अपनी क्रांति विरोधी भूमिका में भी
यद्यपि तुम स्वयं ही एक क्रांति थी
एक जीवन-युद्ध
नारी जीवन को
सर्वोच्च मानवीय क्षमताओं के रूप में भी
प्रमाणित और प्रदर्शित करते हुए
प्रतिक्रियाओं में निरन्तर बढ़ती गई
अपनी कूट संकीर्णताओं के बावजूद ....
यद्यपि तुम नहीं थी सर्वोत्तम
फिर भी तुम शक्ति थी -सैन्य !
निरंकुशता और अप्रतिबद्धता के दोष से युक्त
तुम प्रायः ही गलत रही
फिर भी
जब सब कुछ
मार दिए जाने से ही
तय होना था
अब जबकि तुम
मर दी गई हो ....
सही थी .
३
(सरकस में दुर्घटना)
बहुत कम लोग जानते थे कि
तलवार जब निकली थी म्यान से
बन्दूक जब निकली थी शान से
वोट निशाने के सामने था
और पीछे था श्रीमान दर्शक -
गणतंत्र जी तालियों वाला ....
तब तक पैदा नहीं हुआ था आतंकवाद
जब तक आतंकवार सत्ता थी
औपनिवेशिक उत्तराधिकार की
साम्राज्यवादी अधिकार-संस्कार की
स्मृतियों वाली
तब तक सत्ता प्रतिकार नहीं थी
वीरता-वाहवाही और बहुमत के लोकप्रिय
सुनियोजित रोमांचक सपने
तब तक बदले नहीं थे
उस ऐतिहासिक दुर्घटना में
कोई नहीं पूछता था यह प्रश्न
की संगीनें ही क्यों !
और शांति के लिए समर्पित
मानव -हत्याएं ही क्यों न्याय में ?
की क्यों आखिर सत्ता-पहचान में अनिवार्य
चौकानानुमा क्रूरता !
राजा और प्रजा के
आदिम भूत-मिथक में
उस सरकस में बहुत देर तक बजती रहनी थी तालियाँ
तथाकथित लोकसेवकों के
आमूल -अफसर में बदल जाने पर
और आजादी की लड़ाई में
कहीं भी नहीं थे
जिन चाटुकार जूतों के निशान
उनके नाम पर रखे जा चुके थे नाम -
गली-कूंचे भवनों -मैदानों
सडकों-चौराहों ,बस्तिओं और शहरों
कान्वेन्ट स्कूलों ,उद्योगों
और नदियों पर पुलों व बांधों के
जिनके नाम पर रखे जा सकते थे
उन्हें भूलते और भुलाते हुए
जानते हुए भी
बहुत कम लोग मानते थे यह सच
की किस प्रकार प्रक्रिया में
जिन्दा हो चुका था
बीते वक्त का मरा समझा गया
औपनिवेशिक राजा फिर जिन्दा
जब वह मारा गया
अपनें ही शतरंजी चालों में
शाह और मात पाता हुआ
लोगों को बना पाता
और न बना पता हुआ गुलाम
जब वह -वहां हुई थी वह
अप्रत्याशित दुर्घटना घटित
वोट-क्लब पर आयोजित
उस सर्कस में-उग्रवादी
अपनी ही क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं में
उपजा हुआ उग्रवाद
मरता हुआ ......
हत्यारों के विरुद्ध
आओ !...इधर से गुजरेंगे वे हत्यारे
पत्थरों की मर की तरह
उन पर वार करते हुए
उन्हें घायल करते हुए
उन्हें घायल करने के लिए
उन पर थूको !
आओ थूको....
इधर से गुजरेंगे वे हत्यारे
फेको यह आखिरी हथियार
जब अपराधी तुम्हारे हाथों -पैरों को
पकड़ते-जकड़ते
तोड़ते-फोड़ते हुए
तुम्हारे चेहरे तक पहुँच जाय -थूको .....
एक प्रतिरोध -हीन .....हारते
युद्ध का हथियार
उपसंहार -आखिरी वार
आओ थूको.......इधर से फिसलेंगे वे हत्यारे .....
उनके रास्तों को दलदल बनाने के लिए
वहां थूको..
युद्ध का गीत
भागो ! क्योंकि असली लड़ाई
कभी भी छिड सकती है
किसी भी पल
भागो अभिनेता...भागो !
भागो कि
अब अभिनय का नहीं
युद्ध का वक्त आ पहुंचा है
भागो की मंच
फ़ैल जाएगा दर्शकों तक
भागों कि दर्शक हो जाएँगे लुप्त
भागो कि दर्शक तुम ही थे
हो जाएगा सिद्ध
भागों गवैओं...भागो !
भागो कि अपनी पोल
खुल जाने के पहले
आने वाले विजेता समय का कोरस
अभिनन्दन गीत गाते हुए भागो !
भागो कि
युद्ध का गीत
कभी भी गाया जा सकता है
किसी भी पल !
लगता है ....
लगता है
जब तक मैं प्रधानमंत्री नहीं बनूँगा
ऐसे ही बिकती रहेगी शराब
होती रहेगी तम्बाकू की खेती
सुरक्षा के लिए
कड़ी की जाती रहेगी
'व' फिल्मों की मजबूत दीवार
ठीके पर ...
यदि ठीकेदार-सरकार
एक आदमी होता तो
सिर्फ इसी एक बात के लिए
सकता तो ......उसे अपना जूता निकालकर
सरेआम पीटता चौराहे पर
और धक्का मारकर
गन्दी नाली में डूब मरने के लिए
छोड़ देता उसे .....
जो की उसकी जगह है !
लगता है
जब तक मैं प्रधानमंत्री नहीं बनूँगा
तब तक प्रधानमंत्री
प्रधानमंत्री ही बना रहेगा
प्रधानमंत्री न होता हुआ
जनतंत्र का ....
एक भावी प्रधानमंत्री की आत्म-विज्ञपित
मैं प्रधानमंत्री हो सकता हूं
जैसे कि कोर्इ भी हो सकता है प्रधानमंत्री.......
मैं प्रधानमंत्री हो भी सकता हूं और नहीं भी
मैं प्रधानमंत्री हो सकता हूं यदि मैं
भूतपूर्व प्रधानमंत्री का निजी सचिव -
यानि चपरासी भी होता..............
मैं प्रधानमंत्री हो सकता था
यदि कैमरे भूतपूर्व प्रधानमंत्री से मिलने के लिएं
पहले मुझसे उनसे मिलने का समय
और पता पूछते होते..........
मैं प्रधानमंत्री बन सकता था-
यदि पहले मैं दिखलार्इ पड़ता फिर प्रधानमंत्री.........
यदि प्रधानमंत्री मेरे कानों में कुछ कहकर मुस्कराते होते
चाहे वे धीरे से यही पूछते होते कि
तूने मेरी बीबी को गोलगप्पे खिलाये या नहीं ?
कि इतना सुनते ही कैमरों के कान खड़े हो जाते
फलैशों में मच जाती सुनसुनी
कि जब प्रधानमंत्री उससे पूछकर ही प्रधानमंत्री प्रधानमत्री होते तो
फिर वही यानि कि मैं ही अगला प्रधानमंत्री क्यों नहीं हो सकता-सा......
तो मैं प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकता
मुझे प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनना चाहिए.........
जबकिे प्रधानमंत्री बनना इतना आसान कि
प्रधानमंत्री से हंसी-मजाक करने वाला भी
बन सकता हुआ हंसते-हंसते प्रधानमंत्री
एक चौंकाते मजाक में कुछ ऐसे कि -लो!तुझे प्रधानमंत्री किया !
या सेवा निवृत्त होते प्रधानमंत्री का निजी जासूस भी........
पुस्तकानुसार मतदान के ठीक पहले तक
सभी ही हो सकते प्रधानमत्री-से
शराब पीते या फिर भीख मांगते हुए भी-सिद्धान्तत:
मतदान के बाद सड़क के किनारे ठेले पर सब्जी बेचने वाले को तो
होना भी नहीं चाहिए कभी भी देश का प्रधानमंत्री
मैं भी चुनकर कभी नहीं जो हूं अल्पसंख्यक जाति से
पढ़ा-लिखा होकर समझदार भी बेकार
अवसर मिलने पर ठीके पर भी सुधार सकता हुआ
देश और दुनिया- रूस ,पाकिस्तान ,अमेरिका और इराक.....
पर अल्पसंख्यक जाति से होता हुआ कभी नहीं होने का-
जीतकर वोट से
फिलहाल तो एक अरब के बांझ नागरिकों में से
मैं भी हूं एक फलाप नागरिक......
खूब मजे काटता....आराम फरमाता...आनन्द से
मुझे पिटना थोड़े ही है प्रधानमंत्री बनने ( के लिए
माननीया सोनिया गांधी जी से मिलने ) के चक्कर में !
न ही मैं कभी मनिदर बनवाने का ही रच सकता हूं झूठ.......
मैं भी जो ठीके पर सुधार सकता हूं अपना देश
मैं जो अल्पसंख्यक जाति से होने के कारण
कभी भी नहीं जीत सकता कोर्इ चुनाव
मैं जो र्इस्ट इंडिया कम्पनी की वारिस सरकार को
चलाने के लिए बनी राजनीतिक पार्टियों उर्फ कम्पनियों की तरह
कब्जाकर बार-बार नहीं ले सकता देश चलाने का ठीका -
मैं अवसर पाने की प्रतीक्षा के बिना रोज सुबह
खुली हवा में जंगल की सैर के लिए निकलता हूं
किसी भावी प्रधानमंत्री जैसी शान से
(जैसे अकेला मैं ही होऊं
इतिहास के रिजर्व कोटे का भूमिगत प्रधानमत्री ! )
राम के बनवास या पांडवों के अज्ञातवास की तरह
चुपचाप बढ़ाता हुआ अपने प्रधानमंत्रित्व का गर्भकाल.....
मैं जो किसी जिताऊ वोट-बैंक वाले
बहुसंख्यक जाति से नहीं हूं
मैं बनूंगा प्रधानमत्री यदि सभी जाति से ऊपर उठकर वोट दें
मै जो ठीके पर भी सुधार सकता हूं देश यदि सुधरें मतदाता........
मैं प्रधानमंत्री कभी भी नहीं हो सकता हूं
जैसे कि कोर्इ भी......हर कोर्इ नहीं बन सकता है प्रधानमंत्री !
जब तक.........
उनसे मैं मांगता हूं क्षमा.....
जिनकी जाति में मैं पैदा नहीं हुआ
उनसे मैं मांगता हूं क्षमा....
जिनके कुल जैसा मेरा कुल नहीं था
जिनके घर जैसा घर नहीं था मेरे पास
जिनके देश धर्म और सम्प्रदाय में पैदा नहीं हो सका मैं
उनसे मैं मांगता हू़ क्षमा !
जिनके समय में मैं पैदा नहीं हुआ
जिनकी चमड़ी के रंग सा रंग नहीं है मेरा
जिनकी आंखों जैसी आंखें नहीं हैं मेरे पास
और न ही जिनकी नाक जैसी नाक है मेरी
जिनकी भद्र-अभद्र हरकतों जैसी हरकतें नहीं कर पाता मैं
उन सभी से मैं मांगता हूं क्षमा !
सच मानिए ! इन सब में मेरा कोर्इ कसूर नहीं
कोर्इ भ्री दोष नहीं है मेरा !
सभी के प्रति अपनी निश्छल सहानुभूति के बावजूद
मैें इस बात के लिए क्या कर सकता हूं-
यदि मेरे पुरखे भोजन और पानी की खोज में
उनके पुरखों से दूर
धरती के किसी दूसरे छोर की ओर भटक गए
रीझ गए किसी फलदार पेड़ की घनी छाया पर
या फिर घनी झाडियों में गुम हो गए
किसी शिकार का पीछा करते हुए निकल गए
जंगलों और पहाड़ों के उस पार
जाकर बस गए मिटटी के किसी अज्ञात उपजाऊ समतल प्रदेश पर.....
और इस प्रकार निकल गए मेरे पुरखे
उनके पुरखों की जिन्दगी से
हमेशा-हमेशा के लिए बाहर और दूर
जिसके कारण आज तक मैं उन्हें जीने के लिए
उनकी जिन्दगी में वापस नहीं लौट पाया हूं !
इस समय भी इस धरती पर
हंस-बोल खा-पी रहे हैं अरबों-खरबों लोग
जिनके समय में होते हुए भी
जिनके साथ हंसते-बोलते खाते-पीते हुए
उन्हें मैं जी नहीं पाया !
असितत्व के सारे विभाजनों के बीच और बावजूद
मोहभंग वाली बात यह है कि
यदि कदाचित मांओं और पिताओं की जोडि़यां
विवाह के पहले ही आपस में बदल गयी होतीं तो
तब भी मैं और आप न सही
कोर्इ न कोर्इ तो अपरिहार्यत: पैदा हो ही जाता
अपने कुल, जाति और धर्म की नैसर्गिकता और
थोपी गयी सारी वर्तमान पहचानों कोे झुठलाता हुआ
निरपराध, भौंचक और अवाक !
जिस किसी को भी
अपनी जाति,कुल और सम्प्रदाय की श्रेष्ठता को लेकर
ग्लानि ,लज्जा या खेद है
त्र्रासदी पर पुनर्विचार.....
( मां मित्रों और र्इश्वर के बहाने )
सिर्फ यही एक रास्ता है मेरे पास
कि बाहर के अंधेरे का सामना करने के लिए
अपने भीतर वापस लौट जाऊं !
कुछ वैसी ही कामना के साथ
जैसी कि मेरी मां की थी.....
मां ने बतलाया था-वह बहुत निराश थीं
जैसे अन्धकार के समुद्र में डूबती हुर्इ-सी
जब मैं उनके गर्भ में आया........
कि मैंने सुनहरे भविष्य की तरह तुम्हारी प्रतीक्षा की थी
जैसे अन्धकार के गर्भ से निकलता है सुबह का सूर्य
तुम्हारे अपना सूर्य बन जाने की कामना और सपने के साथ
पूरी की थी अन्तहीन अंधेरे की यात्रा
मैंंने तुम्हारे जन्म लेने की प्रतीक्षा में काटी थीं
न जाने कितनी रातें जाग-जागकरं.....
इसपुरुष-देह के साथ
मैं तो सिर्फ मसितष्कगर्भा ही बन सकता हूं
हां अपनी मांसपेशियों में भी कल्पना कर सकता हूं
नए सार्थक कमोर्ं को जन्म देने वाले सर्जक गर्भ की
ल्ेकिन मैं क्या करूं ! मैं जिसे किसी पर भी भरोसा नहीं है
किसी पर भी विश्वास नहीं है !
मैं जो अपने बाहर के सारे अन्धकार से जूझने के लिए
अपने भीतर की सृजनशीलता में डूबकर
दुनिया की सारी आशंकाओं और सारे भय को भूल जाना चाहता हूं
किसी श्रमिक की तरह बहते-बहाते अपने श्रम-जल के प्रवाह में
अनवरत बहते हुए अनन्त-काल तक जीना चाहता हूं मछलियों की तरह
मां के उस सपने को सच करते हुए
जिसमें वह मुझे चारों ओर से घिरे अन्तहीन समुद्र के बीच
तैरते देखकर पहले तो घबरा गर्इ थी
फिर यह जानकर आश्वस्त हुर्इ कि तैरना ही मेरी नियति है
कि मेरी नौकरी ही लगी है समुद्र के बीच तैरते पोत पर
रहने जीने और करते रहने के लिए.......
मां नें कहा था-जब यादों की ओर लौटना
घावों के इतिहास की ओर लौटना हो
अच्छा होगा कि पुराने इतिहास से बाहर रहकर
एक नए इतिहास को जन्म देने का प्रयास किया जाये
मां मुझे देखना चाहती थी नया इतिहास रचते हुए...
मां ने कहा था -अपने लिए सुखी होने के लिए
जन्म नहीं हुआ है तुम्हारा
ऐसे ही नहीं सूरज के उगने के साथ हुआ है तुम्हारा जन्म
तुम दुखी रहोगे.....जलते रहोगे अन्धे सूरज की तरह
दूसरों की अन्धकार से घबरार्इ आंखों के लिए
जिनके लिए जलोगे तुम
वे तुम्हें धन्यवाद भी नहीं कहेंगे
भूल जाएंगे अपनी आंखों के पीछे तुम्हारे जलने का सच
क्योंकि सभी को तुमसे सुखी रहने की आदत जो पड़ चुकी है
किसी को तुम्हारे सुख की ओर घ्यान भी नहीं जाता.....
मां ने कहा था तुम अपने हिस्से का भाग्य भी बांट देते हो
अपने मित्रों के बीच
कि मैं इतना भोला हूं कि जब भी मैं किसी से जुड़ता हूं
कुछ न कुछ खो बैठता हूं
वह मेरे मित्रों को किसी फूल पर मंडराते
आवारा पतंगो की तरह देखती थी
वह अच्छी तरह पहचान गयी थी कि
मै अपने मित्रों की जरूरत हूं
मित्र मेरी जरूरत नहीं हैं
वे सिर्फ मेरा समय बरबाद कर सकते है
वह भी अपने स्वार्थ के लिए
और एक दिन मुझे अकेला छोड़कर चल देंगे
अपनी जरूरतें पूरी हो चुकने के बाद......
कि तुम्हारे सारे मित्र फर्जी हैं
तुम्हारे सारे मित्र इसलिए फर्जी हैं क्योंकि उन्हें तुमने नहीं तलाशा है
बलिक वे ही धीरे-धीरे खिंचते आए हैं तुम्हारे पास
अपने स्वार्थ के अनुरूप तुम्हारी उपयोगिता की पहचान करते हुए
कि लोग पहचान गए हैं मेरे भीतर का बुद्धूपन
और यदि मैं अपनी जरूरत के अनुसार
अच्छे मित्रों की तलाश नहीं कर सकता
तब भी मुझे अच्छे मनुष्यों की तलाश करनी ही चाहिए......
यधपि मैं इतना मेहनती हूं कि
शायद ही मुझे किसी सहारे की आवश्यकता पड़े !
मां कहती थी कि तुम्हारे कोर्इ भी काम नहीं आएगा
तुम ही काम आने के लिए अभिशप्त हो दूसरों के
तब तक पत्नी नहीं आयी थी
जो बता पाती कि आप ही ठगे जायेंगे हर बार......
तब तक मैं यह पहचान नहीं पाया था कि
मेरे स्वभाव की सारी कमजोरियों का राज
मेरे उन सांस्कृतिक विश्वासों में छिपा है
जो मेरे प्रतिद्वद्वियाें और चुनौतियों से मुक्त- एकल
भारतीय र्इश्वर की तरह ही भोली आश्वस्त और अद्वितीय थीं
मां को मेरे बाद र्इश्वर पर ही सबसे अधिक भरोसा था
लेकिन सबसे अधिक डरती थी वह र्इश्वर से ही
वह संदिग्ध है ....उसकी लीला अपरम्पार है
और उसे कोर्इ भी नहीं समझ सकता
उसकी खुशामद के लिए सिर्फ एक ही जन्म काफी नहीं !
जो पूरे विश्वास में जीते हैं र्इश्वर उनके साथ मजाक किया करता है
पता नहीं यह र्इश्वर वही है या कोर्इ और......
कहते हुए हंसती थी मां
हमें सावधान रहना चाहिए
कि जब हम विनम्र प्रतीक्षा में होते हैं
मानव जाति का एक बुरा चेहरा
हमारे भीतर के स्थगित भोले असावधान मनुष्य को पहचान जाता है
जंगल में अपने आसान शिकार की तलाश में घूमती हुर्इ
भूखे बाघ की शातिर शिकारी आंखों केी तरह.....
र्इश्वर जो करता है अच्छा ही करता है के परम्परागत विश्वास के साथ
एक आम भारतीय के भोले बुद्धूपन के साथ
तब मैं पूरे गर्व के साथ अपनी अच्छाइयों के अनुरूप ही
अपने साथ अच्छे व्यवहार और स्नेहिल प्रशंसाओं की प्रतीक्षा में था.....
एक र्इश्वर-जो बुराइयों के लिए समर्पित हो
हमारी भूलों गलतियों और अपमानों से बना हुआ र्इश्वर
हमारे हिंसक प्रतिरोध और प्रतिशोध में अभिव्यकित पाता हुआ
एक पागल र्इश्वर का शैतान की तरह होना
जो हमारे विश्वासों को प्रश्नांकित करता रहे
ताकि हम बचे रह सकें एक बुरे आत्मविश्वास से
उन बाहरी बुरे प्रभावों से-जब हम अपने साथ
अच्छे व्यवहार की उम्मीद में दूसरों द्वारा ठगी के शिकार होते हैं....
शायद एक आसितक भारतीय होने के कारण
तब मैं पूरी तरह अपरिचित था उस बुरे र्इश्वर यानि कि शैतान से
मुझे अच्छे मनुष्यों की अब भी तलाश है
अच्छे मनुय यानि कि जो बार-बार ठगे गए हों और
दुनिया के बुरे चेहरे को देखने के सर्वथा अयोग्य हों
मुझे उन शक्की लोगों की भी तलाश है
जो किसी के अप्रत्याशित बुरे व्यवहार से हतप्रभ होकर
अपने ही भीतर सिमट गए हों
मुझे अब भी तलाश है उस मनुष्य की
जो अपनी नैतिकताओं को ढोते रहने के प्रयास में
समय और समाज से बाहर हो गया हो
मैं उस अदृश्य मनुष्य की खोज में हूं
जो अपने निर्वासन और अकेलेपन में र्इश्वर से होड़ ले रहा हो
मैं उसे ही अपना मित्र बनाना चाहता हूं
इस दुनिया में आने के बाद उसने मुझे बताया था
और मुझे अच्छा लगता कि सच ही कोर्इ र्इश्वर होता
कोर्इ भी असितत्त्व के मनहूस अकेलेपन में कैद होना नहीं चाहेगा
यह दुनिया जो असितत्त्व की अन्तहीन आवृत्ति से बनी है
मुझे अच्छा लगेगा कि मैं न सही कोर्इ दूसरा ही हो
जिसके होते हुए मैं पूरी तरह गैरजरूरी प्रमाणित हो सकूं
मैं किसी भी असितत्त्व के सम्मान में
अपनी सारी महत्त्वाकांक्षाओं को स्थगित करते हुए
अनन्तकाल तक प्रार्थना में झुके रह सकता हूं
लेकिन मैं भ्रमों से भरा हुआ जीवन जीना नहीं चाहता
मैं चाहता हूं कि मेरे सारे भ्रम टूट जाएं
अब तक जिया हूं चाहे जैसा
लेकिन मैं नंगे सच के साथ ही मरना चाहता हूं......
सच कहूं मैं..... मुझे बताया गया था
जो कुछ भी हो मेरे हिस्से का जीवन
सब कुछ इतना नियत कि र्इश्वर की ओर से ही हो जैसे.......
एक अटूट मजबूत विश्वास की तरह
मैं सफलता के संयोगों की निरन्तरता को
किसी चमत्कार की तरह र्इश्वरीय समझने लगा था
मैं समझता था बचे रह जाएंगे -
मैं और मेरे जैसे लोग जैसे अब तक उल्का पिण्डों की अनवरत मार
सहते हुए भी बची रह गयी है धरती
धरती पर चुपचाप बचा रह गया है जीवन
मित्रों में घबराहट फैलने लगी थी
और मित्रगण चुपचाप खिसकने और बदलने लगे थे
एक दिन पिता नें हाथ खड़े कर दिए कि बूढ़ा हो गया हूं मंैं
कि अब सहारे के लिए कोर्इ दूसरा र्इश्वर ढूढ़ो.....
मैं किसी समझदार र्इश्वर की प्रतीक्षा में था
जबकि असितत्त्व की आवृत्ति के साथ र्इश्वर अनेक भ््राामक विकल्पों में था
मेरा जीवन प्रेम के बाजार में खड़ा था-किसी एक के चयन के लिए...
कि जिस दिन नौकरी लगी
उस दिन पता चला कि प्रेम के बिकाऊ बाजार में
अब तक बचा हुआ हंू मैं अपनी बची हुर्इ कीमत के साथ....
मित्रगण झगड़ने लगे थे
अपनी-अपनी साली के साथ विवाह प्रस्ताव देने के लिए
कि जैसे वे हमेशा-हमेशा के लिए कैद कर लेना चाहते थे मुझे
किसी उपयोगी की तरह अपने रिश्तों की स्थायी कैद में
मां नें कहा था-बहुत -सी बेवकूफियां
हम साथ-साथ कर जाते हैं
अन्धी प्रतिक्रियाओं के उन्माद में
बिना समझे....बिना सोचे
और यह भी कि जब हम अपने साथ हुए हादसों के लिए
दूसरों की संदिग्ध भूमिका की तलाश कर रहे होते हैं
हम स्वयं ही एक पक्ष बन चुके होते हैं
अपने ही साथ हुए अपराधों के लिए.....
उनसे मैं मांगता हूं क्षमा.....
जिनकी जाति में मैं पैदा नहीं हुआ
उनसे मैं मांगता हूं क्षमा....
जिनके कुल जैसा मेरा कुल नहीं था
जिनके घर जैसा घर नहीं था मेरे पास
जिनके देश धर्म और सम्प्रदाय में पैदा नहीं हो सका मैं
उनसे मैं मांगता हू़ क्षमा !
जिनके समय में मैं पैदा नहीं हुआ
जिनकी चमड़ी के रंग सा रंग नहीं है मेरा
जिनकी आंखों जैसी आंखें नहीं हैं मेरे पास
और न ही जिनकी नाक जैसी नाक है मेरी
जिनकी भद्र-अभद्र हरकतों जैसी हरकतें नहीं कर पाता मैं
उन सभी से मैं मांगता हूं क्षमा !
सच मानिए ! इन सब में मेरा कोर्इ कसूर नहीं
कोर्इ भ्री दोष नहीं है मेरा !
सभी के प्रति अपनी निश्छल सहानुभूति के बावजूद
मैें इस बात के लिए क्या कर सकता हूं-
यदि मेरे पुरखे भोजन और पानी की खोज में
उनके पुरखों से दूर
धरती के किसी दूसरे छोर की ओर भटक गए
रीझ गए किसी फलदार पेड़ की घनी छाया पर
या फिर घनी झाडियों में गुम हो गए
किसी शिकार का पीछा करते हुए निकल गए
जंगलों और पहाड़ों के उस पार
जाकर बस गए मिटटी के किसी अज्ञात उपजाऊ समतल प्रदेश पर.....
और इस प्रकार निकल गए मेरे पुरखे
उनके पुरखों की जिन्दगी से
हमेशा-हमेशा के लिए बाहर और दूर
जिसके कारण आज तक मैं उन्हें जीने के लिए
उनकी जिन्दगी में वापस नहीं लौट पाया हूं !
इस समय भी इस धरती पर
हंस-बोल खा-पी रहे हैं अरबों-खरबों लोग
जिनके समय में होते हुए भी
जिनके साथ हंसते-बोलते खाते-पीते हुए
उन्हें मैं जी नहीं पाया !
असितत्व के सारे विभाजनों के बीच और बावजूद
मोहभंग वाली बात यह है कि
यदि कदाचित मांओं और पिताओं की जोडि़यां
विवाह के पहले ही आपस में बदल गयी होतीं तो
तब भी मैं और आप न सही
कोर्इ न कोर्इ तो अपरिहार्यत: पैदा हो ही जाता
अपने कुल, जाति और धर्म की नैसर्गिकता और
थोपी गयी सारी वर्तमान पहचानों कोे झुठलाता हुआ
निरपराध, भौंचक और अवाक !
जिस किसी को भी
अपनी जाति,कुल और सम्प्रदाय की श्रेष्ठता को लेकर
ग्लानि ,लज्जा या खेद है
त्र्रासदी पर पुनर्विचार.....
( मां मित्रों और र्इश्वर के बहाने )
हम चाहते हैं.....
तुम्हारे दिए और जिए हुए सच
हमारे प्रश्नों से घायल हो चुके हैं
हम तुम्हारी गलितयों-मूर्खताओं को
वैसे ही जानते हैं
जैसे आने वाली पीढि़यां जानेंगी
हमारी मूर्खताओं को
हम तुम्हारी दी हुर्इ निष्ठाओं से छले गए हैं
हम घर से बेघर
समय से असमय हुए हैं.....
तुम्हारी दी हुर्इ दाढि़यां
नोच डालनें की हद तक
खुजली पैदा करती हैं
हमें लहूलुहान करती हुर्इ-
हम नहीं चाहते कि हमारा नाम
तुम्हारी बनार्इ हुर्इ जातियों के
एक र्इमानदार कुली के रूप में लिखा जाये....
ळम अपने वंशजों को
अपना भारवाहक बनाने वाली
तुम्हारी हिंसक परम्परा के खिलाफ हैं
हमें नहीं चाहिए
आदमी की खाल उघेड़कर
उसके लहू में डुबोकर लिखे गए
तुम्हारे सनातन दिव्य ग्रन्थ
हम तुम्हारी
सभी को मारकर जीनें वाली
अमरता के खिलाफ हैं.....
तुम्हारा हमारे समय पर लदकर
बलात जीवित रहना
एक अप्राकृतिक अपराध है
हम न्याय चाहते हैं
हम तुम्हारी मृत्यु चाहते हैं पितामह !
हम चाहते हैं कि
आने वाली पीढि़यों को भी
नयी सभ्यता के लिए
अपना नया पितामह चुनने का
अधिकार मिले
बताओं !
बताओ कि तुम्हारी मृत्यु कैसे होगी ?
हत्याएं
कुछ तो गलत हुआ ही है
लेकिन इतना तो होता ही रहता है गलत
अच्छा करने और करवाने की जिद में
काफी कुछ ठीक नहीं हुआ है लेकिन हो सकता था
फिर भी सब तो सही नहीं हो सकता !
इतिहास को मुटठी में रखने के लिए
बहुत सारी शकितयों का रखना होता है ध्यान.....
कुछ हत्याएं हुर्इ हैं....हो रही हैं और हो सकती हैं
इतिहास को पूरे सूझ-बूझ के साथ
प्रायोजित करते हुए भी........
जब दु:ख उनके मरने या उन्हें मारने का नहीं
बलिक मारने के पूरे प्रयास के बाद भी
बचे रह जाने की खतरनाक संभावनाओं का भी होगा
कुछ हत्याएं तो हो ही जाती हैं
आसानी से सुलभ और सुरक्षित लक्ष्य की तलाश में
सम्पूर्ण निरर्थकता में घटित दुखान्त की तरह
कुछ हत्याएं घटित हो जाती हैं
निशानेबाजी के अभ्यास में भी
कुछ तो शौकिया.....यू ही-मैं भी कर सकता हूं कि नहीं !
कुछ हत्याएं करनी पड़ती हैं
हत्या करने की शकित को प्रमाणित करने के लिए
हत्याएं आंशिक होती हैं और पूर्ण
हत्याएं मानसिक होती हैं और वास्तविक
चोरों और डकैतों का फर्क रहता ही रहता है
उनकी अपनी जरूरत और हिम्मत के समानुपात में....
सारी नापसन्दगी के बावजूद
मेरी परेशानी की वजह यही है कि
सिद्धान्तत: तब-तब मैं डर जाता हूं
जब मुझे भी लगने लगता है कि दुनिया तो तभी बदल पायेगी
जब वे बीत जाएंगे अपने बीते जमाने के विचारों के साथ
जब मैं अश्लील उपसिथति की तरह
कुछ लोगों का होना देखता हूं और तरस खाता हूं
एक कभी भी गिरकर भीड़ को मार देने वाली
आशंकाओं वाली हत्यारी छाया देने वाले वृक्ष के रूप में उपसिथत
अप्रासंगिक समय के लिए तो मौत की सुर्इ दे देने के पक्ष में
संवैधानिक संशोधन कर ही देना चाहिए
जिस मुकदमें में सारे गवाह पक्षæोही हो गए हों
ऐसे संनिदग्ध हत्यारों के लिए भी होनी चाहिए कोर्इ विशेष जेल
वे सारे हत्यारे
जो हत्याओं के असफल प्रयास के बाद
एक बार फिर जीना चाहते हैं
एक गुमनाम मासूम सज्जन की तरह.....
या वे सर्वविदित किन्तु अनिर्णीत हत्यारे
जो सन्देह का लाभ पाने के लिए
अपने हाथों की जा रही हत्याओं के प्रचार से डरते हैं
या फिर वे जो हत्या करने के लिए आसान
शिकार के रूप में पाते हैं गुमशुदा चेहरों को.....
जहां कुछ हत्यारे प्रचारित चेहरों की तलाश में रहते हैं
हत्या के पश्चात गुमशुदगी से बाहर निकलने के
स्वर्णिम अवसर के रूप में......
हत्यारे जो करते रहते हैं हत्याएं
अपने जीवित बचे रहने के एकमात्र विकल्प के रूप में
उनके मारे जाने के बाद भी हत्यारों के बनने का
बना रह सकता है पेशेवर सिलसिला
क्या पता उकसाने वाली कहानियों के रूप में
या पागल क्रोधी जीन के रूप में
जो कभी भी किसी को बर्दाश्त नहीं कर पाता
एक दिन दो हत्याएं करने वाले के पास
चार हत्याएं करने वाला बेटी का रिश्ता लेकर पहुंचेगा
और दूसरी पीढ़ी में दस हत्याएं करने वाला पुत्र पैदा होगा
यह भी संभव है कि हत्यारे का पुत्र पैदा होते ही मार दिया जाय
और एक दिन खत्म हो जाय उसका वंश भी !
मैं जब भी कक्षा में कहता हूं
कि जो बहादुर थे वे इतिहास में लड़-लड़ाकर मर-मरा गए
सही-सही वही बचे जो कायर थे
इसलिए बचना है तो एक समझदार कायर बनो
क्योंकि जो डर सकता है वही बच सकता हैे
डरना हमें समझदार बनाता है और जीने का सही ढंग और रास्ता भी सुझाता है
क्योंकि सिर्फ सच्चा कायर ही बुद्धिमान हो सकता है
सिर्फ वही अपने मारे जाने के पहले भी अपना मरना देख सकता है
कहता हूं तो अविश्वास से हंसते हैं बच्चे
कर्इ तो हंसते -हंसते मर मर जाते हैं
बिना डरे बहादुर बनने के प्रयास में.......ं
इसके बावजूद हत्याओं और हत्याओं के बारे में
मेरा अनितम निष्कर्ष यह है कि
बचे रहना है तो छिप जाओ कायरों की तरह....कायरों के बीच
हत्यारों के मारे जाने और एक दिन सब कुछ कायरों के नाम छोड़कर
चले जाने वाले दिन की प्रतीक्षा करते हुए
समय के पिछवाडे भी जगह मिले तब भी.....
गुपचुप चलाते और बढ़ाते रहो अपना वंश
एक निष्कर्ष यह भी है कि एक दिन निरन्तर बढ़ती जनसंख्या के साथ
बढ़ती प्रतिस्पद्र्धा-सभी कायरों को बहादुर बना देगी
हत्यारे अनितम दौर की हत्याएं करने से ठीक पहले
मिल-बैठकर समझौता करेगे
बनाएंगे संविधान कि अब से सभी लोग कायरों की तरह जिएंं.....
संभव है तलाशा जाय धरती के सबसे विनम्र कायर का जीन
मानव जीवन को बचाए रखने के अनितम विकल्प के रूप में .....
यह समय
युद्ध का समय है यह
लड़नें से अच्छा है सुलह-संवाद
घायल होने से अच्छा है बचना
मरने से अच्छा है पैदा ही न होना......
इस तरह
समस्याओं से भरे
इस उत्तर -समय में
युद्ध जीतने का यह एक ही अस्त्र शेष है
निरोध !!
युद्ध में ब्रेक का समय है यह
उस तथाकथित स्वतंत्रता के खिलाफ
जो एक गैरजिम्मेदार पीढ़ी द्वारा
अराजकता में बदल दी गर्इ थी !
दुर्घटनाओं के नंगा नाच का समय है यह-
जनसंख्या के विस्फोट तक
शर्महीन !
हंसिए नहीं !
सभ्यता और विज्ञान की यात्रा में ही
पहुंचे हैं हम
इस सवाल तक-
यह ठीक है कि सभी विज्ञान पढ़ें
वैज्ञानिक बनें
लेकिन वे खाएंगे क्या ?
क्या करेंगे !
इतने वैज्ञानिक क्यों ?
रोना कोइ दृश्य नहीं
रोना कोइ दृश्य नहीं है
दृश्य का डूब जाना है
एक पहाड़ी झरने ंके पीछे...
जलते हुए जीवन का
अपनें सारे वस्त्र उतार कर
जीवन का कूद पड़ना है
अथाह खारे समुद्र में.......
यहां कहीं दूर तक
रोने की कोर्इ जगह
दिखार्इ नहीं देती....
इस शहर में
देर तक मुस्करानें के बाद
रोने के लिए
किधर जाते होंगे लोग !
जल जलहिं समाना....
धरती बांझ थी और आसमान निरर्थक
नि:संतान था पिता अपने पुत्र के बिना
प्रकृति विधवा थी और परम तत्त्व ओझल
तब अन्धकार की कोख में ज्योति की तरह वह उतरा......
तब चेतना डूबी थी विचारों की जड़ता में
और स्मृतियां जंगल में बदल गयीं थीं
पोथियों पर मूर्खताएं छपी थीं और ग्रन्थों में षडयन्त्र
कपटियों ने सारे प्रकाश को अपने पुत्रों-वंशजों के लिए
चुराकर बन्द कर लिया था
ज्ञान ऐश्वर्य के लिए था और र्ठश्वर व्यापारियों के लिए
परजीवियों का सत्य याचना के लिए-'मुल्ला का बांग' और 'पंडा का पाथर
मकड़ी जैसे अपने बुने जाल में पुकारती है कीट
धर्मग्रन्थों के शब्द कंटीली झाडि़यों में बदल गए थे- मारते हुए मनुष्य.....
जिन्हें कहा जा सकता है नीच-कहा जायेगा
बाझिन को बांझ.....कि द:ुखी का दु:ख सुखी के सुख का विषय है
निपूती का दु:ख.... गोद भरी मांओं की खुशी -हुआ ऐसा....
उतरा वह परम विवेक
जीवन-ज्यों सारे ब्रह्रााण्ड के गर्भ से अभी-अभी फूटा हुआ
निर्विकार अनाम पवित्र निस्सीम सागर-शिशु
आदिम मूल तत्त्व की तरह-अनन्त की ओर से
बंधीं और अनर्वर मानव-जाति के लिए.....
तालाब में जैसे खिलता है कमल
शिशु मिला वह नीरू को अपूर्व
खुले आसमान के नीचे प्रकट हुर्इ दिव्य ज्योति
पुरानी बसितयों के अंधेरे सीलन भरे दुर्गन्धाते तहखानों और बूढ़ी कोठरियों से दूर
खुली हवा में-जंगल-सी अनछुर्इ-अबोध पवित्र और अनायास.....
किसका जीवन है यह !....सोचा नीरू नें
किसका जीवन है यह !....पूछा नीरू नें बार-बार
उसकी सारी प्रतिध्वनियां उस तक ही लौट आयीं.....
यह मेरे लिए है-उसने आसमान की ओर
कृतज्ञता से भरे अपने दोनों हाथ उठाए और झुक गया धरती की ओर
उठाने के लिए एक अपूर्व दिव्य शिशु......
जो किसी का नहीं है ,सबका है-आसमान नें कहा
मेरी धरती पर जो भी जन्मा है-मेरा है....मेरी ओर से है
विरासत है....प्रतिनिधि है सम्पूर्ण असितत्त्व का-दुहराया ब्रहमाण्ड नें बार-बार......
जो किसी का नहीं है ,सबका है
सारे मायावी जोड़-तोड़ और अंकों की भीड़ के लिए
यह सिर्फ एक मानव-शिशु ही नहीं एक विराट शून्य है-सत्य-स्फुर्लिंग !
काल-जनित विकृतियों के....इतिहास के दुखती स्मृतियों के
उन्मादों-अपराधों.... पापों-दुर्घटनाओं के सारे प्रदूषणों का अन्त यह.......
यह किसी का नहीं है ,सभी का है-सबके लिए.....सब कुछ की ओर से
भटके समाज के हर गणित को शून्य करता हुआ
निरस्त करता हुआ सारे गलत-जीवन छलका ज्यों
मानव-जाति की रुद्ध दीवारों वाली सारी परम्पराएं तोड़ ---
More......
लड़की
दर्पण में उग रहा है एक अजनबी चेहरा
और मन में एक अनिवार्य भय
कभी भी यह जीवन
किसी और को दे दिया जाएगा....
किसी और को दे दिया जाएगा....
2.
अठारह वर्ष लग जाएंगे सीखते हुए लड़की
अठारह वर्ष तक लिखे जाएंगे
उसके वक्ष पर आवश्यक नारी अर्थ
अठारह वर्ष लग जाएंगे
उसको और
उसकी मनुष्यता को विभाजित करने में !
3.
लड़की शब्दों में है और व्याकरण में भी
लड़कों से अलग लड़कों के पास
लड़कों के लिए......
लड़के प्रकृति में हैं और बातों में भी
लड़की से अलग.....लड़की के पास
लड़की के लिए.....
मनुष्य कहां है ?
4.
लड़की जानती है
कि उसके भीतर
कहीं भी नहीं है लड़की
फिर भी वह
जब कभी बाजार में निकलती है
लड़की हो जाती है
5.
कांटे उतने ही सत्य हैं
जितने कि नंगे पैर
लड़की के तलवों में उनका चुभ जाना....
लड़की न भी हो लड़की
उसे डर लगता है
गली के मोड़ पर
उसकी प्रतीक्षा में खड़े
घूरते हुए लड़कों द्वारा
कभी भी लड़की
बना दिए जाने से.....
6.
वह जो चोर की तरह
बढ़ती हुर्इ लड़की को
घबराते देखता है
लड़की का पिता है....
वह जो चुपचाप
घिसता हुआ
लड़की के बढ़ने का अर्थ
बूझता है
लड़की का पिता है
7.
जब कभी भूल जाएगी लड़की
डरने की कोर्इ बात नहीं !
उन्हें याद है कि
उनके पड़ोस में
रहती है एक लड़की....
8.
कभी-कभी
सीढि़यां चढ़ती हुर्इ
उंची आकांक्षाओं वाली जूतियों पर
संभलकर चलती
सहसा लड़खड़ाकर
गिर पड़ती है लड़की
उसे अपनें गिरने का नहीं
गिरते हुए देख लिए जाने का दु:ख सताता है......
9.
शहर के दंगे में
सड़क पर घायल र्इश्वर कराहता है-
मैं खुदा भी हो सकता था
यदि भाषा नें
मार नहीं दिया होता
लड़की उसके पास जाती है
और पूछती है
यह क्या इतना अनिवार्य है कि
तुम्हारी तरह
में भी मारी जाती रहूं
शब्दों के पथराव से !
10.
कि्रयाएं संज्ञा बन गयी हैं
और भ्रम ही शब्द
अन्यथा कहीं भी नहीं थे
स्त्री और पुरुष
जति और धर्म
खुदा और र्इश्वर
सिर्फ भाषा के सिवाय
न ही लड़की.....
अब तक की सबसे अच्छी कविता....
शहर के सबसे बड़े मैदान में
वे वहां एकत्रित हुए
चुनाव करने-
अब तक की सबसे अच्छी कविता
और सबसे बड़ा कवि
अब तक के सबसे सही लोग.....
कविताएं पहले मुगोर्ं की तरह लड़ीं
बहुत पहले भी लड़ा करते थे जैसे मेलों में पशु
कविगण अपनी-अपनी कविताओं को
आवाज लगाते ,चीखते -चिल्लाते
अपनी-अपनी जगहें छोड़कर
उठ खड़े हुए....
कि सबसे पहले अचानक
मैदान के बीच से गुजरा
एक घायल लहूलुहान आदमी
भयानक चीख की तरह
डसे गुण्डों नें मार दिया था छुरा
कविताएं अब गुण्डों की तरह लड़नें लगीं थीं
फिर एक औरत गुजरी-अद्र्ध-विक्षिप्त
फटा ब्लाउज और
तार-तार चीथड़े हुए वस्त्र पहनें....
यह गलत्कार का मामला है
किसी कविता नें कहा
गलत्कारी को सजा मिलनी चाहिए
लेकिन थानेदार भी एक पुरुष है
और उसकी गलत्कार में भी
हो सकती है सहानुभूति !
एक अन्य कविता नें कहा
यह बहस की अच्छी शुरुआत है-
कुछ और कविताओं नें कहा,
हमें सरकार के खिलाफ
आवाज उठानी चाहिए
आखिर जनता
ऐसी निकम्मी सरकार को
चुनती ही क्यों है ?
फिर कविताएं
जासूसी कुत्तों की तरह
अपना सिर झुकाए, जमीन सूंघती
अपने-अपने कवियों के पास
वापस लौट आर्इं.....
यह एक बहुत ही पेंचीदा प्रश्न था
और हम कुछ भी नहीं कर सके-
कविताओं नें कहा, कवियों नें भी
बुढ़ापे का पुत्र
(एक मित्र की कविता पढ़कर प्रसिद्ध आलोचक की शानदार वापसी पर)
वही दरख्त है
जिसके नीचे बैठा करता था राजा
यहां दूर-दूर तक किसी का भी प्रवेश वर्जित था
मेरे जैसे लोग
'माथे पर चौखट रखकर चले जाते थे....
मैं जब आया
राजा को छोड़कर चले गए थे
उसके अपने सारे लोग
उसकी तलवार म्यान से बाहर निकलकर
घूल में फिंकी पड़ी थी.....
शहर में अफवाह थी कि मर चुका है राजा
मैंने ऐसे ही जिज्ञासावश उसके चरण छुए
एक इतिहास को प्रणाम करनें के अतिरिक्त
मेरी और कोर्इ भी नहीं थी मंशा
झुकते हुए मैंने उसके चरणों को छुआ
और उसकी सांसे चलने लगीं
राजा जागा
लपककर उसनें उठार्इ अपनी तलवार
बिल्कुल कलम की तरह !
खुशी से पागल नाच उठा मैं
राजा जिन्दा है जिन्दा !
राजा की आंखों से आंसुओं की धार फूट चली
''तुमनें मुझे शापमुक्त किया वत्स !
युग बीत गए
प्रतीक्षा करते
थक आए कोर्इ
छाती जुड़ा गर्इ तुमसे मिलकर
तुम मेरे बुढ़ापे के पुत्र हो
निपूता नहीं मरूंगा मै।
चलेगा मेरा वंश !
कि हे ढिढोरचियों !
दसों दिशाओं का कान पीट दो कि
पुत्र हुआ है मेरे
मेरी 'चुचुकी छातियों में दूध उतर आया है।
मिट चुका होता
सब कुछ मिट चुका होता
यदि कदमों नें मांगे होते जिन्दगी से बने बनाए रास्ते
खुले दरवाजे और अड़ गए होते
बन्द द्वार और
पन्थहीनता का ठहराव लिए !
उजड़ गए होते
जंगल,बन,पलाश
सारे के सारे तब........
हादसा
सब व्यर्थ हुआ
एक बारात-
दूल्हन और
न्यौछावर के फेंके गए
कुछ खनकते सिक्के
बटोरनें में
पूरी की पूरी पीठ़ी
खो गयी......
बदलाव
चूहे के बिल में भी बदलता है
चूहे के बिल को छोड़कर
निकल भागता है सांप
चूहा भी बदलता है
बदल जाते हैं लोग-बाग
मौसम जब बदलता है ।
विचार भी एक पर्यावरण है
फिलहाल मैं किसी भी सपने को जी नहीं सकता हूं
मुझे यह भी नहीं मालूम कि
मैं किसी के सपने का हिस्सा हूं भी या नहीं
मैं एक संवेदनशील मन के ददोर्ं को बड़ाना नहीं चाहता
यहां एक आदमी सो रहा है बच्चों की तरह.......
नुकीले चटटान की तरह
चुभ रहे हैं खुरदुरे अहसास
जीवन खा रहा ज्यों ठोकर
बन्द गलियारों में.....
लोगों के चुभते हुए
हिंसक व्यकितयों के बीच से गुजरते हुए
लोगों के पथरीले मन के पर्यावरण से
बचते-बचाते जीने के लिए
गलत विचारों को जी रहे आदिम मसितष्कों का समय
अप्रासंगिक विचारों के खण्डहरों का शहर
आक्रामक हत्यारी इच्छाओं के पशुओं से भरा हुआ.....
जबकि विचार भी एक पर्यावरण है
मैं अपने प्र्यावरण को बदल देना चाहता हूं.......
उनकी इच्छाएं जेबकतरों के उंगलियों की तरह
फिर रही हैं लोगों की उपलबिध्यों की जेब पर
उनकी उंगलियां हत्यारों की तरह बढ़ रही हैं
लोगों की धड़कनों पर......
उनकी इच्छाओं नें जीत लिया है समय
उनकी इच्छाओं नें दूसरों की इच्छाओं को स्थगित कर रखा है !
दर्द इतनें अधिक हैं कि
मैं बाहर का सब कुछ अस्वीकार करता हुआ
सिर्फ अपने सकि्रय असितत्व में डूबा हुआ ही
पार कर पाउंगा बाहर का यह पागल समय
भर पाउंगा अपने भीतर और बाहर की सारी अनुपसिथतियों को
भंग कर पाउंगा अपने भीतर का निष्ठुर एकान्त......
एक अविस्मरणीय इतिहास की तरह
सौन्दर्य में नहीं ,संवेदना में हुआ है
एक साहित्यकार का अन्त !
एक चिटठी
क्या ही अच्छा होता कि
एक चिटठी लिखता
और बदल जाता सारा देश
एक चिटठी मिलती और
फिर से लिखा जाता
देश का संविधान......
उनसे मैं मांगता हूं क्षमा.....
जिनकी जाति में मैं पैदा नहीं हुआ
उनसे मैं मांगता हूं क्षमा....
जिनके कुल जैसा मेरा कुल नहीं था
जिनके घर जैसा घर नहीं था मेरे पास
जिनके देश धर्म और सम्प्रदाय में पैदा नहीं हो सका मैं
उनसे मैं मांगता हू़ क्षमा !
जिनके समय में मैं पैदा नहीं हुआ
जिनकी चमड़ी के रंग सा रंग नहीं है मेरा
जिनकी आंखों जैसी आंखें नहीं हैं मेरे पास
और न ही जिनकी नाक जैसी नाक है मेरी
जिनकी भद्र-अभद्र हरकतों जैसी हरकतें नहीं कर पाता मैं
उन सभी से मैं मांगता हूं क्षमा !
सच मानिए ! इन सब में मेरा कोर्इ कसूर नहीं
कोर्इ भ्री दोष नहीं है मेरा !
सभी के प्रति अपनी निश्छल सहानुभूति के बावजूद
मैें इस बात के लिए क्या कर सकता हूं-
यदि मेरे पुरखे भोजन और पानी की खोज में
उनके पुरखों से दूर
धरती के किसी दूसरे छोर की ओर भटक गए
रीझ गए किसी फलदार पेड़ की घनी छाया पर
या फिर घनी झाडियों में गुम हो गए
किसी शिकार का पीछा करते हुए निकल गए
जंगलों और पहाड़ों के उस पार
जाकर बस गए मिटटी के किसी अज्ञात उपजाऊ समतल प्रदेश पर.....
और इस प्रकार निकल गए मेरे पुरखे
उनके पुरखों की जिन्दगी से
हमेशा-हमेशा के लिए बाहर और दूर
जिसके कारण आज तक मैं उन्हें जीने के लिए
उनकी जिन्दगी में वापस नहीं लौट पाया हूं !
इस समय भी इस धरती पर
हंस-बोल खा-पी रहे हैं अरबों-खरबों लोग
जिनके समय में होते हुए भी
जिनके साथ हंसते-बोलते खाते-पीते हुए
उन्हें मैं जी नहीं पाया !
असितत्व के सारे विभाजनों के बीच और बावजूद
मोहभंग वाली बात यह है कि
यदि कदाचित मांओं और पिताओं की जोडि़यां
विवाह के पहले ही आपस में बदल गयी होतीं तो
तब भी मैं और आप न सही
कोर्इ न कोर्इ तो अपरिहार्यत: पैदा हो ही जाता
अपने कुल, जाति और धर्म की नैसर्गिकता और
थोपी गयी सारी वर्तमान पहचानों कोे झुठलाता हुआ
निरपराध, भौंचक और अवाक !
जिस किसी को भी
अपनी जाति,कुल और सम्प्रदाय की श्रेष्ठता को लेकर
ग्लानि ,लज्जा या खेद है
उन सभी से मैं मांगता हूं क्षमा !
एक ही दुनिया में.....
इस दुनिया में जो भी है मेरी तरह,मेरे साथ
मुझे छोड़ना ही चाहिए था-उसके भी लिए...
उसको भी साथ-साथ होने देने यानि जीने और करने की जगह.....
जबकि मैं था और मुझे ही अनुपसिथत मानकर
मेरे भी न होने की घोषणा कर दी गयी थी,,,,,
कायदे से तो मुझे लौट आना चाहिए था
उस और उनकी वर्चसिवत दुनिया में बिना हुए
जैसे किसी सोते हुए बच्चे को सोने देते हुए
चुपचाप सोते छोड़कर खिसक जाते हैं लोग
जैसे छोटे-छोटे सपनों से बाहर निकलने के बाद
जागे हुए बुद्ध निकल गए थे
यशोधरा को अपने निजी सपनों में सोते हुए छोड़कर....
जैसे एक दौड़ती हुर्इ सुपरफास्ट एक्सप्रेस æेन
आगे बढ़ जाती है अनेक छोटे-छोटे स्टेशनों को
पीछे छोड़कर-छूट जाने के इस अपरिहार्य अभिशाप के बावजूद
क्या रोमांचक नहीं है एक ही समय में अलग-अलग सपनों को जीने की स्वतंत्रता !
हमारे सपने अलग थे और हम साथ-साथ नहीं हो सकते थे
हमारे अलग-अलग सपनों ,इच्छाओं और आकांक्षाओं के रास्ते थे अलग
जैसे एक ही ब्रहमाण्ड में अलग-अलग नक्षत्रों की उपसिथति थे हम
एक ही समय में अलग-अलग दुनियावों के निर्माता थे
ऐसे में तुम्हारे असहयोग और भटकावों के लिए
यदि तुम जिम्मेदार नहीं हो तो सिर्फ अच्छाइयों की खोज में लगा हुआ
मेरा वैज्ञानिक मन और तुम्हारी दुनिया के विरूद्ध मेरा होना......
मेरा होना जो बहुतों की तरह स्तब्ध कर गया था तुम्हें भी
मेरा होना जो एक न बदल पाते हुए आदमी का होना नहीं था
बलिक मेरा होना बेवजह बदलने के लिए तैयार न हुए आदमी का होना था
उस समय तक बताया भी नहीं गया था
कि मुझे क्योंकर तुम्हारे सम्मान में झुकना चाहिए....
एक शोर सा मच रहा था तुम्हारे होने का
और मुझे एक अश्लील पर्यावरण के बीच घेर लिया गया था
मैं महसूस करने लगा था तुम्हारे सपनों की संकीर्णताओं की चुभन
एक बेहतर जिन्दगी के लिए खेले गए खेल मेें
तुम्हारे हर हत्यारे आक्रमण के बावजूद
मुझे जिन्दा बचकर निकलना था
कैंसरग्रस्त कोशिकाओं के प्रतिस्पद्र्धी होड़ की तरह
या तो तुम्हें होना था या तो मुझे
विनम्रता एक साजिश थी और अनुरोध सिर्फ परिहास.....
यदि मैं परीक्षा के नाम पर खारिज किए जाने की
अन्तहीन निर्णायक क्रूरता के बावजूद बच गया हूं तो
अब तुम्हें प्रश्नांकित और अभिशप्त होना ही है
क्योंकि होता ही होता है सारी क्रानितयों का अन्त
एक न्यायिक एवं सापेक्ष हिंसा में.........
हां मैं स्रष्टा हूं-अपनी ही शतोर्ं पर होते और जीते रहने की जिद
तथा अपनी आपत्तियों का
कि मैं अपनी सम्पूर्ण आस्था और समर्पण के बावजूद
विरासत और उपहार में मिली हुर्इ दुनिया की
मूर्खताओं को सह नहीं पाया....
हां मैं स्रष्टा हूं अपनी अरुचि और असहमतियों का
हां मैं स्रष्टा हूं अपनी नाराजगी से उपजे पुनर्विचारों का
हां मैं अपराधी हूं कि तुम्हारी यानि अपनी ही दुनिया को नापसन्द करता हूं
हां मैं अपने अस्वीकार की स्वतंत्रता में बचा हुआ -
एक अस्वीकारक स्रष्टा हू
तुम्हारी सृषिट के समानान्तर विकसित
एक प्रतिरोधी प्र्रति-सृषिट का !ं
एक और रामकृष्ण.......
उनके बनाए जंगल में
शिकारियों की आहार श्रृंखला के सबसे अनितम छोर पर
हुआ था हमारा जन्म......
सुदूर अतीत में किसी अज्ञात-अनाम क्षण में पराजित जाति की
उदास स्तब्ध मांओं के अपमानित गर्भ से.....
अपने अधूरे दण्ड का भोग-विधान
अपनी आने वाली पीढि़यों की मिटटी सनी हथेलियों में सौंपकर.....
वे हमें डरते रहने को कह रहे थें
वे चाहते थे कि हम सब उनके द्वारा फेंके गए रोटी के टुक्ड़ों पर
भूख की कभी भी न टूटने वाली रस्सी से बंधे रहें.....
वे जो किसी पुरातातिवक महत्व के वस्तु की तरह
जीना चाहते थे अपनी झूठी श्रेष्ठता को
दूसरों के सिर पर लादे अपने होने का बोझ
और जो हमारे होने के साथ ही हारते गए अपना होना
अपने विगत अनैतिक बड़प्पन पर स्वीकार करें
हमारी संवेदना और हमारी सहानुभूति !
वे जिनकी तरह हम भी नहीं जानते कि
हम उनके गुलाम क्योंकर थे ? क्या इसलिए कि
उनके पुरखों नें हमारे पुरखों की हत्याकर
उनसे छीन लिया था उनकी सन्तानें
या किसी भूखे कुत्ते की तरह वे स्वयं ही आकर बैठ गए थे
उनके पुरखों के चरणों में.......
समय के किसी निरीह क्षण के बाद......
हमारी जगह उनके बैलों की पूंछ के पीछे थी
हम उनके गोशाले में ही सो सकते थे या अस्तबल मे...
वे हमारे सिरों पर देखना चाहते थे
गाय का गोबर और घोड़े की लीद......
वे जो हमारे हाथों में फावड़े कुदाल और कुल्हाड़ी की जगह
कलम देखकर रह गए थे स्तब्ध !
वे जो हमें पढ़ता हुआ देखकर दु:स्वप्नों से घिर गए थे...
वे जो धान की रोपार्इ के लिए तालाब बनें खेत की
कीचड़ सनी मिटटी में उतरना नहीं चाहते थे स्वयं
वे जिनके लिए हमारा आगे बढ़ने का प्रयास
विधाता के बनाए गए विधान के खिलाफ एक आपराधिक विद्रोह था.....
वे जिनके लिए मृत्यु से भी भयंकर था हमारा सुखपूर्वक जीना
और सम्मान पाने की दिशा में किया गया हमारा हर प्रयास
उनके बनाए पर्यावरण को अपमान और अभिशाप लाने वाले
दण्डनीय दु:साहसपूर्ण अपराध से घ्वस्त कर देना था .....
वे अपने आलीशान घर की सबसे निचली र्इंट की तरह
हमें मिटटी में गहरार्इ तक दबाए रखना चाहते थे
वे अपनी सीढि़यों और जूतों की तरह बचाए रखना चाहते थे हमें
हम धरती पर दौड़ लगाते उनके शानदार रथों में जुते घोड़े की तरह थे
जिनके निकल भागते ही धरती पर मूचिर्छत होकर
किसी सूखे पेड़ की तरह गिर पड़ना था उन्हें....
अन्तत: हम उनकी असफलता और मूर्खता पर
सिर्फ मुस्करा ही सकते हैं
जो हमें बनाए रखना चाहते थे-
दुनिया के अन्त तक अधीन ,असफल और मूर्ख !
बाबूराम चौधरी
आपने क्या पूछा ! मेरा नाम ?
मैं हूं बाबूराम चौधरी वल्द स्वर्गीय राजाराम चौधरी
लीजिए आप मुझे इतने अविश्वास से क्यों देख रहे हैं ?
क्या इस लिए कि आपने अभी-अभी एक लड़के को
मेरा पैर छूकर प्रणाम करते देखा !
हां मै उसका गुरू हूं.........
मैं क्यों बाबूराम चौधरी नहीं हो सकता !
आप क्यों मेरी बातें सुनकर हतप्रभ हैं और अवाक.....
कि इतना अच्छा कैसे बोल सकता है कोर्इ बाबूराम चौधरी ?
लीजिए ! आखिर आपने पूछ ही लिया कि
बाबू राम चौधरी माने क्या ?
यधपि मैं इस नाम से ही कर रहा हूं नौकरी
यदि मैं कुछ न करता तो बाबूराम निषाद ही कहलाता
या फिर बाबूराम मल्लाह और बाबूराम केवट यदि मैं अपनी नाव में बैठाकर
लोगों को नदी पार करा रहा होता
या मैं पकड़ रहा होता नदी में जाल फेंककर
ढेर सारी जिन्दा मछलियां.......
लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है
यदि मैं बाबूराम मल्लाह न होकर बाबूराम चौधरी हूं तो
क्या आप महाभारत के रचयिता को केवट व्यास या व्यास मल्लाह सुनना पसन्द करेंगे !
फिर क्यों प्रसन्न हो रहे हैं आप मुझसे पूछकर और सुनकर कि
आखिर आपने मेरे द्वारा ही मुझको ही मल्लाह कहला ही दिया
तो आपकी और अधिक प्रसन्नता के लिए मैं आपको याद दिला दूं
कि आप खुशी-खुशी और पूरे सम्मान सहित मेरा अभिनन्दन कर सकते हैं
बिना किसी हीनता ग्रनिथ और उपेक्षा-दृषिट के.....
कि मेरी ही जाति को डूबते भरतवंश की नाव पार लगाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है
मेरा संकेत समझ गए होंगे जी आप कि कौरव और पांडवों की परदादी
महाराजा शान्तनु की प्रेयसी और पत्नी-माता सत्यवती के कुल और वंश में जन्मा मैं
आखिर अकुलीन कैसे हो सकता हूं !
यदि आप अपने को समझते हैं भरतवंशी
तो आप महाराजा शान्तनु के ससुराल पक्ष का होने के कारण
होने के कारण धृतराष्æ और पाण्डु के ननिहाल का
मुझे मामा बाबूराम चौधरी भी कह सकते हैं ......
लेकिन क्या बाबूराम चौधरी कहलाने के लिए
मेरा सिर्फ बाबूराम चौधरी होना ही पर्याप्त नहीं है !
बाबूराम चौधरी जो कर्इ पीढि़यों से मछली नहीं पकड़ता
और जाल नहीं बुनता.....नाव नहीं चलाता
सिर्फ पुस्तके पढ़ता है और शब्दों को चुनता ,रीझता
उन्हें बोता और बांटता है
बाबूराम चौधरी जो एक अद्र्धसरकारी ज्ञान की दूकान में शिक्षक की नौकरी करता हुआ
बुद्धि की फसल उपजाता है और ज्ञान बांटता है
होते हुए भी सारे भारत वासियों का मामा कहलाना पसन्द नहीं करता
मैं बााबूराम चौधरी चाहता हूं कि आप मेरे होने को बहुत पास से देखें
और बतलाएं कि एक सम्मानित शिक्षक हाते हुए भी
जिस प्रकार आप मेरी जाति पूछकर और मुझे
सिर्फ मछली पकड़ने वाला और नाव चलाने वाला मानकर बलात मुदित हुए
उसीप्रकार किसी मछली पकड़ने वाले को देखकर
उसे मेरी ही जाति का
यानि कि एक शिक्षक और विद्वान की जाति का
मान और जानकर- कब प्रणाम करेंगे !?
इतिहास से आंख-मिचौनी
एक ऐसे दौर में जब इतिहास कोर्इ नैतिक अधिकार नहीं
एक शकित-प्रदर्शन है-सबसे पहले समय का अपहरण कर
उसे अपनी धरती घोषित कर देने का.......
एक ऐसे समय में जब इतिहास कोर्इ सही उपलबिध नहीं
सिर्फ घटित हुए का प्रायोजित संज्ञान हो
ऐसे इतिहास में मैं अपने होने से इन्कार करता हूं !
बहुमत के विरूद्ध मैं अपनी घृणा के एकान्त में
गुमनाम जीवित रहना चाहूंगा
एक वैकलिपक इतिहास के र्इमानदार सपने के साथ
या फिर मर जाना-अपने अस्वीकार के स्वर्ग और आत्मनिर्वासन में
मृत्यु के बाद भी मैं किसी तथ्य या तत्त्व की तरह बच जाना चाहूंगा.......
मिथक में स्त्री
मिथक में स्त्री सृषिट के आरम्भ से ही
सभ्यता के पाश्र्व में खड़ी है......
मिथक में स्त्री हजारों वषोर्ं से गुपचुप रो रही है
अपनी शान्त विवश और निरीह हंसी के पीछे छुपी
अपनी सृषिट का देखती हुर्इ संहार.....
अपने भीतर के अदृश्य गहरे एकान्त में निर्वासित
एक सुखी और मुक्त दुनिया का सृजन किए जाने के लिए प्रतीक्षारत,,,,,,
मिथक में स्त्री अपने पिता के घर लौट कर कभी वापस नहीं जाती
कुछ इस प्रकार कि कहीं कोर्इ उसका पिता ही नहीं रहा हो कोर्इ
वह मरती है कुंएं में कूदकर एक लावारिस सन्तान की मौत....
वह रेलगाड़ी के नीचे भी कटकर मर सकती है
एक शाम शौच के लिए बाहर जाने की बात कहकर
फिर कहीं के लिए कभी भी वापस नहीं आने के लिए.....
मिथक के बाहर सल्फास खाकर भी अखबारों में छप सकती है स्त्री
मिथक में पुरुष सिर्फ एक शिकारी की निरंकुश भूमिका में है
प्राय: स्त्री के लिए सुख की खोज में स्वर्ण-मृग का शिकार करता हुआ
उसके लिए अनथक और बिना प्रश्न किए बाजार के पीछे हांफता-दौड़ता हुआ
कमाकर लौटता हुआ अच्छे-अच्छे वस्त्र और मंहगे आभूषण !
मिथक में कभी-कभी स्त्री का भी शिकार करने लगता है पुरुष
उसका नाक-कान काट लेता है
अपने असितत्व और सौन्दर्य के हिंसक विज्ञापन के अपराध में
या फिर स्त्री -सौन्दर्य से पराजित पुरुष-मन
अपने हिंसक प्रतिरोध में फेंक देता है उसके चेहरे पर तेजाब
कि फिर वह कभी किसी और की न हो सके
बिल्कुल किसी फूल की पंखुडि़यां तोड़ लेने की तरह.
ताकि फिर किसी दूसरे कीट को वह परागण के लिए आमनित्रत ही न कर पाए कभी ?
मिथक में नायक काले रंग का होता है और नायिका गोरी
मिथक में नौकरी पाने की शर्त के साथ रचे जाते हैं स्वयंवर
और बेरोजगारी का धनुष टुटते ही
दूर देश के काले आफिसर के गले में वरमाला डालने के लिए
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बढ़ आते हैं दो गोरे मेंहदी लगे हाथ
मिथक में काली युवतियों के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है
मिथक से बाहर कुछ काली लड़कियां लेती हैं
जीवन भर अविवाहित रहने का भीष्म संकल्प
कुछ अपने हरे-भरे जीवन को सूखने के लिए
बन्द कमरे में लटका देती हैं सीलिंग फैन से
कुछ अपने चेहरे उतार कर चुपके से खिसक जाती हैं पशुओं की भीड़ में
अपनी देह से जीतते हुए पुरुष को एडस से दम तोड़ देती हैं बाजार में
मिथक से बाहर स्त्री अपने सारे वस्त्र उतार कर खड़ी हो जाती है बाजार में
मिथक से बाहर स्त्री बाजार में तालियों की सामूहिक धुन के बीच
यानित्रक मुस्कान के साथ बिकती हुर्इ मिलती है एक दिन
अपने विशालकाय बंगले के अंधेरे बन्द कमरे में मिलती है-
अकेली ,नि:संतान और नि:संज्ञ.....
मिथक से बाहर स्त्री सब कुछ पाती हुर्इ भी अपना सब कुछ खोती जाती है
बहुत कुछ बनने के प्रयास में कुछ भी नहीं रह जाती है
मिथक से बाहर स्त्री नींद की गोलियां खाकर
अपने जीवन को डुबो देती है कभी भी न जागने वाले जीवन के स्वप्न में.........
मिथक के अन्त में धरती फट जाती है
और अपने जीवन की सारी पूंजी को बच्चों के रूप में
पुरुष के हाथों वापस सौंपकर धरती के गहन-गर्त में कूदकर समा जाती है स्त्री
कूद कर डूब जाती है किसी गहरे अंधेरे कुंएं में
दुनिया की सारी व्यवस्था और पुरुष-वर्चस्व को घृणा सेे अस्वीकार करती हुर्इ
मिथक को बदलने के लिए
इस दुनिया को बदलना होगा-बदलना होगा दुनिया के सारे पुरुष-मन
पढ़ाना होगा स्त्री को...उसे योग्य और आत्मनिर्भर बनाना होगा
ताकि जब वह निकाली जाय-अपने गर्भ में
आने वाली मानव-जाति का सुरक्षित बीज धारण किए हुए
उसके पास प्रमाण'पत्र हों कि यह औरत कभी भी पा सकती है कोर्इ अच्छी सी नौकरी
अपने कठिन परिश्रम और सूझबूझ से रच सकती है
एक नया औधोगिक साम्राज्य-एक और अयोध्या
पुरुष की अयोध्या के समानान्तर.....
परिदृश्य
सिर्फ मैं.......हां सिर्फ मैं ही
चाहे सन्डे हो या मन्डे नहीं खा रहा हूं अण्डे !
दुनिया की किसी लुप्त होने वाली अनितम प्रजाति की तरह
मैं अब भी हूं बिल्कुल श्रुद्ध शाकाहारी और
हत्याओं के इस दौर में भी मैं
हत्यारों के भी एक दिन मारे जाने की कल्पना से भी
दुखी हो जाता हूं.....
अभी कल ही मैं गांधी पर बोलते हुए कितना खुश था
हमें इस तरह नहीं जीना चाहिए कि हमारे होने से ही लोग डर जाएं
गांधी पर बोलते हुए हम गांधी का अवतार बन जाना चाहते थे
भाषण के पश्चात हमने खूब श्रमदान किया और फलदार पेड़ लगाए
कि तभी गोलियों की तड़तड़ाहट से हम सब दहशत से भर गए
सामने सड़क पर पन्द्रह-सोलह वर्ष के बच्चे
अपने दोनों हाथों में रिवाल्वर लिए
एक घबरार्इ कार को घेरकर उस पर गोलियां बरसा रहे थे........
वे सभी गांधी की हत्या का एक बार फिर सामूहिक जश्न मना रहे थे
हत्यारों के हत्या स्थल से चले जाने के बाद
हम सभी उनकी शिनाख्त से इन्कार करते हुए
उस कार को घेरकर चुपचाप खड़े हो गए-
जो अब हत्यारों के दुर्दान्त दु:साहस का
कानून,व्यवस्था और सभ्यता के साथ जीवित रहने के
मानवाधिकार के उपहास , अपहरण और मृत्यु का स्मारक बन चुकी थी.....
लोकतन्त्र में चुने जाने के सपने देखने के अपराध में
बर्बरतापूर्वक मार दिए गए लोगों के शोक में रखे हुए
अनन्तकाल का मौन......
झुर्रियों में अंकित दुख
हम दु:खी हैं
और हमारा नैतिक कर्तव्य है कि
हम दु:खी रहें
दु:ख-
जो एक असफल समझदारी का नाम है
हमें अपनी भूलों-गलितयों को
एक सबक की तरह
दुहराते हुए रहना है दु:खी !
और प्रायशिचत के लिए........
हम रहेंगे दु:खी
क्योंकि हम जानते हैं कि
दु:खी होने के फायदे हैं अनेक
कि दु:ख के विज्ञापन पर ही निर्भर हैं
हमारी सफलताएं
जिसके लिए सजग हैं हम !
कि जब हम होंगे दु:खी
हमारे ऊपर व्यंग्य से हंसते लोगों पर
गाज बनकर गिरेगी चुप्पी
और हम पर बादल सुख के
कवि होंगे तो कविताएं लिखेंगे
और अमर कर जाएंगे
अपना दु:ख
क्योंकि यह तय है
कि यादों में ही होना है
हमारी सारी यात्राओं का अन्त
छीने हुए सुखों का बोझ
ढोते-ढोते हम होंगे दु:खी
सबसे सुखी आदमी बनने का
हिंसक इतिहास
और अनुभव बनकर
झुर्रियों में अंकित हो जाएंगे दु:ख
एक दिन हम झुक जाएंगे
बूढ़ों की तरह
उपदेशों में बांटते हुए
सुख का भय......
और अपने दु:खों को
टूटे हुए दांतों की तरह याद करते हुए
अपनी लम्बी उम्र की झूठी सफलता पर
पोपले मुंह मुस्कराएंगे
दु:ख को अपनी हडिडयों में छिपाकर
चेहरे पर छोड़ जाएंगे
खोखली हंसी !
सरकस
दुनिया बदल रही है
और बदल रहे हैं बदलती हुर्इ दुनिया के गुण-धर्म
बदल रहा है दौड़ते हुए शहर के पैरों-तले
रौंदा जाता हुआ हाथ जोड़ता रिरियाता हुआ जंगल......
सरकस के मैदान में
नए-नए करतब दिखाता हुआ
हाथ जोड़कर घूमता हुआ रिंग के भीतर.....
चौपाये की तरह धूल में घिसटता हुआ शिशु
उठकर चलने लगा है सरकस के बीच में
एक नौजवान अपने गुस्से को गेंद की तरह किक मारकर
उछाल देता है तालियों की गड़गड़ाहट के बीच
एक बूढ़ा आदमी अपनी आंखों से आंसुओं को गायब कर
दर्शकों को घूम-घूम दिखाता है अपनी दंतरहित मुस्कान
किसी जोकर की तरह......
जीवन एक हंटर की धुन पर
डरे हुए शेर की तरह हाथ जोड़कर निपोरता है खींसें
क्हता हुआ जैसे- ''मुझे क्षमा करना भार्इ !
मैं जंगल का शेर हूं....अनपढ़ और असभ्य
म्ुाझे नहीं पता हैं सरकस के नियम
कि कब निपोरना है खीसें....कब हाथ जोड़ना है.....
मुस्कराना ,मिमियाना और दहाड़ना है कब !?
सरकस फैलने लगा है धुंएं की तरह ऊपर अन्तरिक्ष तक.......
सारी धरती बदलती जा रही है सरकस के खेल में !
भगोड़ा
अंधेरी गुफा में उल्टे लटके चमगादड़ों की फौज
बूढ़ी हो रही हैं
विश्वासों के कर्इ-कर्इ संस्करण
लावारिस भटक रहे हैं सड़कों पर.......
कुछ सिरफिरे घुस रहे हैं पिछली गली से
सब कुछ ठीक कर देने के दावे कें साथ
अपने कन्धे पर सुनहरे सपनों के पुराने नक्शे
नारे लिखी तखितयां और धुंधली इबारतों वाले पर्चे उठाए.....
कुछ बच्चे कूड़े की ढेर में तलाश कर रहे हैं
अपने हिस्से की फेंकी गयी जिन्दगी.........
कुछ परिवार पल रहे हैं
मिटटी की झूठी मजारों को रचकर
फुटपाथों के किनारे.......
कुछ लोग सड़क के किनारे भीख मांगने के लिए
पुरानें र्इश्वर को विस्थापित कर
एक नए र्इश्वर को स्थापित कर रहे हैं........
एक चौकीदार संग्रहालय के दरवाजे पर
खड़ा-खड़ा ऊंघ रहा है संगीन के साथ........
आशंकाओं और जोखिम की ऊंची-ऊंची लहरों को देखकर
उनपर सवारी करने के लिए मचलते-खेलते
कुछ बच्चे अब भी समुद्र के किनारे रेत पर
नर्इ-नर्इ आकृतियां गढ़ रहे हैं
मेरे बूढ़े अनुभवों,टूटे दांतों ,झुर्रियों ,पके बालों और
मेरे भीतर की ऊब,उदासी और थकानों से बेखबर....
मैंने अपनी सारी शपथें तोड़ दी हैं
और विचारहीनता से संक्रमित एक पूरी की पूरी आबादी को
विचारों के बंजर रेगिस्तान में जीते हुए छोड़कर
बाहर निकल आया हूं एक मुटठी बीज के साथ........
एक नव-जन्में बच्चे के साथ
धरती पर पुन: जन्म ले रही हैं मनुष्य की सारी उददाम जिज्ञासाएं
धीरे-धीरे लौट रही है जीवन की पवित्र मुस्कान....
विश्वासहीन
मैं इस दुनिया को पहली बार देख रहा हूं
मैं इस दुनिया को पहली बार जानना चाहता हूं
मैं इस दुनिया को पहली बार जीना चाहता हूं
मैं उन रोमांचक यात्रा-वृत्तान्तों का क्या करूंगा !
ऊंचे-ऊंचे पर्वतों के मापे गए दुर्गम शिखर
व्यर्थ हैं मेरे लिए......
जबकि मुझे दर्ज करनी है अपनी पिंडलियों में
असंभव चढ़ानों से जूझती दर्द भरी मधुर थकानें
मैं अपने सृजनात्मक भटकावों का मजा लेना चाहूंगा
बिल्कुल नर्इ पारी के खेल की तरह
पिछला सब कुछ भूलकर............
तुम मुझे डराओ नहीं कि अब कुछ भी नहीं हो सकता
तुम मुझे रोको मत कि अब व्यर्थ होंगे सारे प्रयास
तुम्हारे नकारात्मक अनुभवों के कूड़े से
किसी पर्वत-श्रृंखला की तरह ढक गया हो
मेरी सभी दिशाओं का क्षितिज तब भी........
यह दुनिया कितनी भी पुरानी हो
कितना भी पुराना हो इस धरती पर विचरता हुआ जीवनचक्र
इस दुनिया का वर्णन करते हुए
मैं किसी थके-बूढ़े आदमी की तरह हकलाना नहीं चाहता......
मैंने तुम्हारी सारी कहानियां सुनी है
और समझा है बस इतना ही कि
तुम मुझे सौंप रहे हो कुछ और कहानियां रचने की उर्वर विरासत
मैं तुम्हारी नापसन्द कहानियों को बदलना चाहता हंंू
उनके असफल चरित्रों को फिर से जीना सिखाना चाहता हूं
मुझे जगह-जगह फटी हुर्इ मूर्खताएं दिख रही हैं तुम्हारी कहानियों में.....
उनमें घटनाएं कम हैं और वर्णन ज्यादा.........
कि मै तुम्हारे सारे विचारों से ऊबा हुआ
एक अतृप्त विचारक हूं
अपनी शतोर्ं पर उड़ान भरना चाहता हूं अपने हिस्से का अन्तरिक्ष
हां मैं रचना चाहता हूं अपने हिस्से की अपनी दुनिया
मैं सिर्फ मूखोर्ं ,तानाशाहों और अपराधियों द्वारा रची गर्इ दुनिया को
उनकी ही बनार्इ गर्इ शर्तों पर क्यों जीता रहूं
हां मैं परखना चाहता हूं अपने विश्वास
रचना चाहता हूं अपनी आस्थाएं......
हां मैं खेलना और जीना चाहता हूं अपने विचारों को
पूरी मौज़ और जिन्दादिली के साथ.......
कि जीवन के साथ-साथ मरना नहीं चाहिए
सकि्रय विचारशील जीवित मसितष्कों का होना......
कि होते रहना ही चाहिए एक नए विचारक का जन्म
टेनिस,फुटबाल,कि्रकेट या फिर तेज-रफतार कारों की दौड़ की तरह
हर बार नए विचारकों की एक नर्इ जोशीली रोमांचक टीम को
इस दुनिया को और सुन्दर और रोमांचक बना देने के
कभी भी खत्म न होने वाले खेल में शामिल होना ही चाहिए........
मेरी दृषिट में तुम्हारा सारा चिन्तन
विचारों के एक तात्कालिक प्रारूप की तरह है
मैंने पढ़े हैं तुम्हारे विचार और प्रभावित भी हूं
लेकिन मैं सबसे अधिक प्रभावित हूं इस विचार से
कि सिद्धान्तत: मैं किसी भी विचारक पर विश्वास नहीं करता.....
नाटक
आओ चलें ! उधर......जिधर
उठाए और गिराए जा रहे हैं परदे
उधर परदे के पीछे ही बैठे हैं
इस समय के सबसे समझदार और चालाक लोग.....
कि सिर्फ परदे के पीछे से ही खुलते हैं
दुनिया के सारे अनसुलझे रहस्य.........
कि सिर्फ दर्शक होना एक स्थगित और अन्तहीन प्रतीक्षा है........
एक ऊबी हुर्इ बीमार भीड़ का उबाने वाला किस्सा है......
यह कोर्इ नुक्कड़ नाटक के लोग नहीं जो हर कोर्इ
खुला-खुला दिख रहा हो आर-पार......
किसी दूसरी दुनिया के लोग सरीखे मंच पर बैठे जो
दर्शकों के सारे रहस्य लेकर
स्वयं को यत्नपूर्वक परदे के पीछे छिपाए......
परदे के पीछे एक आदमी बहुत धीरे-धीरे
स्वयं को बदल रहा है एक डरावने मुखौटे में
अपने चेहरे पर सुन्दरता की खूब मोटी परत पोतकर
दर्पण में अपने अभिनेय चेहरे से मिलान करता हुआ
अपनी कलाकार प्रशिक्षित -पेशेवर मुस्कान का..........
परदे के पीछे एक जीती-जागती दुनिया है
एक-एक दृश्य और कथन पर घण्टों बहस करती
प्रायोजित करती हुर्इ दृश्य और समय........
परदे के पीछे हैं इस प्रदर्शित दुनिया के सूत्रधार
परदे को अपनी सिक्रप्ट के अनुसार उठाते और गिराते हुए
परदा उठने पर कहानी की मांग के अनुसार
गोल-गोल हंसते हुए घूमता है कलाकार
परदा हटते ही मंच से फूटने लगती है हंसी......
कलाकार मंच पर चक्कर लगाते हुए
दोनो हाथ उछालने लगते हैं हलचलें
मांगने लगते हैंं चुपिपयां ........
क्ुछ कलाकार उठार्इगीर,उचक्के और जेबकतरे बनकर
ठगते रहते हैं समय को और कुछ
'स्पेन्डुलाइटिस के किसी पुराने मरीज की तरह
अपनी तनी हुर्इ रीढ़ के साथ घर पहुंचकर
कि अब मुझे निकाल देना चाहिए अपना कालर
और ढीला छोड़ देना चाहिए खुद को
खोल देनी चाहिए अपनी जिन्दगी........
परदे के पीछे हर पेशा एक नाटक है
और जो किसी नाटक -मंडली के सदस्य नहीं बन पाते
वे जिन्दगी को ही नाटक बना देते है!
अन्तज
(भारतीय हिजड़ों के लिए एक कविता )
वे एक जीवन की सृजन-श्रृंखला के अनितम छोर पर खड़े हैं
वे एक थका देने वाली जीवन-यात्रा की ऊब हैं
वे सिर्फ जीवन जी सकते हैं
वे किसी भी जीवन को जन्म नहीं दे सकते.........
वे किसी को भी जन्म न देने वाले
एक असफल जन्म की जीवित याद हैं !
वे बजा रहे हैं तालियां....नाच रहे हैं.....थिरक रहे हैं
हंस और हंसा रहे हैं सारी सृषिट को
उनके लिए प्रकृति एक भददा मजाक है
एक क्रूर गन्दा परिहास है जीवन.....
एक 'मिस-फायर की तरह
बिना किसी धमाके के उनकी जिन्दगी
गुजर रही है समय की सड़क पर......
उनके भीतर बचा हुआ है
एक अक्षय शैशव-
शान्त...उपद्रवहीन......और सिथर.......
वे सिर्फ वर्तमान हैं सृषिट के !
उनके भीतर नहीं बहती है
पागलों की तरह बहा ले जाने वाली
मादक यौन-हारमोनों की नदी..........
न ही उनकी देह में प्रकृति की कलम से
लैंगिक अपूर्णता की उगी होती हैं पहेलियां
किसी पूरक सहचर समाधान के नाम......
उनकी सारी उम्र अपने भीतर के
एक सर्वव्यापी दुश्मन से लड़ते-लड़ते व्यर्थ नहीं होती
न ही वे अपनी जैविक अपूर्णता की कुंठा
पूरी तरह छिपा देने का प्रयास करते रहते हैं
प्यार के रंग में......
कुछ अपने पास न होने का
प्राकृतिक अहसास और जिज्ञासा लेकर
भटकते रहते हैं सारी धरती.......
वे एक रहस्यपूर्ण उपसिथति हैं-
चेतना में हारमोनों की मिलावट से मुक्त
विशुद्ध मसितष्क की........
वे जीवन की एक उत्सवपूर्ण समापित हैं
एक भूल को भुलाने के प्रयास में
अपनी हास्यास्पदताओं में डूबे हुए जीवन की तरह.......
प्रेम-रोग उर्फ़ बाजार में प्रेम........
यह दुनिया प्रेम के लिए नहीं है
यहां प्रेम करना असभ्यता है और अपमान
और प्रेमी होना दुनिया का सबसे निरीह मनुष्य होना है
बेवजह भाव बढ़ा देते हुए एक दूसरे मनुष्य का.......
यह दुनिया बंधी है प्रेम विरोधी शिष्टाचार से
यहां प्रेम से भी महत्वपूर्ण हैं प्रेम के नियम
यहां प्रेम एक वर्जित खेल है पाप के फल की तरह
यहां प्रेम एक संक्रामक बीमारी की तरह है
जिसके उड़ते रहते हैं हवा में वायरस हर पल
बढ़ते रहते हैं संवेदनाओं के नम वातावरण में.......
प्रेम धरती पर बहती कोर्इ निर्बाध हवा नहीं है कि
आदृश्य दुनिया के सारे पसन्द स्त्री या पुरुष को
चूमता हुआ गुजर जाय कोर्इ पुरुष या स्त्री मन
न ही मुगोर्ं और शेरों की तरह अन्तहीन वर्चस्व-युद्ध में
बलात्कारियों की जीत का जश्न है ।
प्रेम एक मुक्त प्रतिस्पद्र्धी बाजार है
जहां सभी सबसे ऊंची दाम पर
सबसे पहले बिकने के लिए खड़े हैं-
बाजार में प्रेम है बिकना सबसे अच्छे खरीदार के हाथ.......
कुछ ऐसे कि जिस पर रखा हाथ वही बिक गया
जो पहले बिका हड़बड़ी में और गया काम से
जो और अच्छा बिकने की चालाकियों में दुबका कहीं का न रहा
जो बिकने से रह गया वह भी हुआ नाकाम
बिका हर कोर्इ.........बिका चाहे जैसे-दाम से या नाम से....
प्रेम एक बाजार है जहां न बिकना भी खुदकुशी है
और नहीं बिकना है हार
कुछ ऐसे कि यहां बिका नहीं जो उसका जीवन ही बेकार है ।
प्रेम बाजार में अपने लिए किसी को
खरीदने की तलाश में निकले
एक अनाड़ी खरीददार की पहली पसन्द है
प्रेम अपना हाथ रखने के पहले ही
अपनी पसन्द के जीवन को किसी और के द्वारा
खरीद लिए जाने की कभी भी खत्म न होन वाली टीस है.......
इस दुनिया में जहां अपराधी इच्छाएं
किसी जेबकतरे की शातिर उंगलियों की तरह
फिरती है लोगों की अबोध उपलबिधयों पर
जहां अपराधी उंगलियां हत्यारे की तरह बढ़ती हैं
लोगों की धड़कनों पर.......
जहां अपराधी इच्छाओं नें जीत लिया है समय
दूसरों की इच्छाओं को अपâत और स्थगित कर रखा है.......
प्रेम एक अचेतन भय है अपने सबसे सुरक्षित और आसान शिकार के
अपने हाथ से हमेशा के लिए निकल जाने का !
प्रेम बाजार में घूमते एक पागल की मुक्त और निश्छल हंसी है
खुरदुरे अहसासों के नुकीले चटटानों से टकरा-टकराकर लहूलुहान
किसी बन्द गलियारे में ठोकरें खाते और पिटते हुए जीवन की तरह
पे्रम कभी-कभी सिर्फ पाना ही पाना चाहता है
और कभी सिर्फ देना ही देना
प्रेम कभी-कभी सौन्दर्य में घटित होता है
और कभी-कभी संवेदना में
जब पे्रम सिर्फ पाना ही पाना चाहता है
तो प्रेम एक जीवन के द्वारा दूसरे जीवन को
जीवन भर के लिए अपना उपनिवेश बना लेने की
एक निर्मम आकांक्षा में बदल जाता है.......
तब प्रेम अपने सपने में किसी और को
शामिल करने का एक असहिष्णु आमन्त्रण है
बिना इस बात की परवाह किए कि वह भी
किसी दूसरें के सपने का हिस्सा है या नहीं......
तब प्रेम एक आपराधिक हिंसा है सम्बन्धों में डकैती का
कभी-कभी बलात्कार में घटित होता हुआ.....
पे्रम अपने असितत्व के सहचर की तलाश में
निकली हुर्इ नि:शब्द पुकार है.......
प्रेम अपनी संवेदनाओं में जल रहे जीवन की
एक असफल और अन्तहीन छटपटाहट भरी दौड़ है
प्रेम अपने लिए मांगते-मांगते निरीह और दयनीय हो चुके
एक स्वाभिमानी जीवन का अहिंसक प्रतिशोध है और विद्रोह
अपने लिए बिना कुछ भी मांगे
अपने को पूरी तरह दूसरों के लिए लुटा देने का मजा लूटता हुआ.....
जब प्रेम सिर्फ देना ही देना चाहता है
अपने लिए कुछ भी पाने की आकांक्षा को भूलकर
स्वयं को सिर्फ देता ही देता हुआ
अपने लिए कभी कुछ भी न मांगने के संकल्प के साथ
एक संवेदनशील मन के सम्पूर्ण समर्पण में घटित होता है
मदर टेरसा बन जाता है......
प्रेम एक संवाद है जीवन का जीवन के साथ.......
यह दुनिया जीतने के लिए बनी है !
वह किसी मुर्गे की तरह शानदार था
और किसी घोड़े की तरह तेज.....
और उसका विश्वास था कि
यह दुनिया जीतने के लिए बनी है!
उसका विश्वास था कि यह दुनिया एक गेम है
और जब दो आदमी खेलते हैं आपस में
तो किसी एक को तो जीतना ही चाहिए !
कि यह दुनिया जीतनीय है-
चाहे प्रेम से......प्रभाव से.....बल से......युद्ध से या फितरत से ही !
और यह जीत हम आरम्भ करते हैं बचपन से ही
खेल-खेल में अपने आस-पास के लोगों के जीवन में
आक्रामक हस्तक्षेप करते हुए......
कि इस दुनिया को नहीं जीतना
इस दुनिया में होकर भी होना ही नहीं है........
इस दुनिया में कुछ लोग फसल की तरह होते हैं
और कुछ लोग चलते-फिरते शिकार या चारे की तरह
कुछ लोग भेड़ों की झुंड की तरह अपनी पीठ पर
उगाते रहते हैं ऊर्जा और उष्मा......और दूसरों का सुख बन जाते हैं
कुछ इस दुनिया में होकर भी नहीं होते.......
कुछ अपने एकान्तवासी स्वभाव को जीते हुए
बिना किसी प्रतिकि्रयात्मक हस्तक्ष्ेाप के
अपनी चुप उपसिथति के साथ
किसी निरीह-दयनीय चोर की तरह तय करते रहते हैं
अपनी जिन्दगी का सारा सफर-पूरी गोपनीयता और गुमनामी के साथ !
कुछ लोग जो लददू की तरह
गुमसुम पड़े रहते हैं अपने ही भीतर
इस बिन्दु पर होते हैं मजेदार कि
उन्हें चिढ़ाते-गुदगुदाते और हंसी का पात्र बनाते हुए भी
वे चुपचाप सहयोग करते जाते हैं
और उन्हें कोर्इ एतराज भी नहीं होता........
किसी गूंगे स्लेट की तरह-
जिस पर कुछ भी लिखा जा सकता है-
कहीं भी.......कभी भी.....उनके वजूद पर कुछ भी
लिख देते हुए-हो-हो कर हंसते जाते लगातार !
या किसी घास के समतल खेल-मैदान की तरह
उनकी भीड़दार उपसिथति को सरपट रौंदते हुए
समय के सूने अन्तरिक्ष में किक लगाकर उछालते हुए इतिहास की गेद!
किसी शिलीभूत चटटानी गुफा की तरह
वे अपने भीतर बने रहते हैं तो बाहर का सब कुछ
स्वत:स्फूर्त किसी के नाम होता चला जाता है
इतना कि बिना उनसे पूछे उनके चेहरे पर
खंखार कर थूक दे कोर्इ......या उनके पैर पर
श्रद्धा-सुमन चढ़ाने के स्थान पर
सस्नेह पेश-आब़ कर दे-वे कुछ भी नहीं बोलते.......
कि ऐसे ही लोग होते हैं इतिहास के गमखोर किन्तु चोर पिल्ले
जिनका कान पकड़कर उठाने पर
वे किंकियाते भी नहीं......सिर्फ पूंछ हिलाते रहते हैं......
कुछ पौधों की तरह अपनी जड़ें फेंककर
मिटटी से खींचते रहते हैं जीवन का रस
सूरज की रोशनी में....अपने भीतर के क्लोरोफिल से
भोजन बनाते हुए करते रहते हैं अपने जीवन का पोषण.....
कुछ बकरियों की तरह उनसे कार्बन ,कैलिसयम और प्रोटीन
चरते और चुराते हुए जीते रहते हैं अपना जीवन
और कुछ शेर की तरह शिकार करते हुए
मांस में गिरफतार सूरज की संचित रोशनी को
असिथ-मज्जा की तरह नोचते और चबाते हुए
छीनते रहते हैं दूसरों से अपने परजीवी जीवन को जीने के लिए ऊर्जा.....
और इस तरह मारते-जीते और जिलाते रहते हैं एक-दूसरे को
जबकि आदमी तो सिर्फ जीतने के लिए ही जन्म लेता है
चाहे वह खेत में इधर-उधर भागते चूहों का शिकार करने वाला
जनजातीय मुसहर ही क्यों न हो......
उसने कभी कहा था कि सभी सभ्य ,शान्त ,सज्जन ,श्रद्धेय ,शालीन और
निषिक्रय आदमी उसे पागल और मनोरंजक लगते हैं
मन करता है कि उन्हें चुटकियां काटूं ,उनके कान के पास पटाके फोड़ूं
उनके बैठने के पहले ही दौड़कर उनके पीछे से
उनकी कुर्सी ही खींच लूं या फिर उनके पैरों के पीछे
खाली कनस्तर बांधकर गधे की तरह उन्हें दौड़ा दूं मैं सरपट सड़कों पर........
कि मैं उन्हें उत्तेजित और आवेशित देखना चाहता हूं.......
कि मुझे दुनिया के हर संतुष्ट और निठल्ले आदमी से घृणा है......
मैं उनसे नफरत करता हूं नफरत !
उन सभी से जो हारते हुए जीते हैं इस धरती पर.......
उसने यह कभी नहीं कहा कि वह यह सब कह क्यों रहा है
जबकि कोर्इ भी उससे पूछ नहीं रहा है
न ही कोर्इ कह ही रहा है उससे कुछ कहने को.......
उसने यह कभी नहीं कहा कि वह रूसो के विचारों को
चारे की तरह इश्तेमाल कर लड़कियां फंसाना चाहता है
कि लड़कियों को देखते ही उसके भीतर जाग उठता है
देह-देहान्तर और दिगदिगन्तव्यापी पुरुष हारमोन
कि प्रभावों के ऐसे विस्तारवादी चक्रवर्ती क्षणों में
कान्ट ,हीगेल और माक्र्स......सभी आकर देने लगते हैं
उसके पक्ष में गवाही- कि ऐ दुनिया वालियों !
इसकी सारी बातें बहुत घ्यान से सुनो !
कि यही वह युवक है जो इस दुनिया को
खूब अच्छी तरह समझता है और हमें भी......
और सिर्फ यही है वह-जिसके बीज को
निशिचंत होकर दी जा सकती है अपनी कोख !
(और इसे दिया जाना भी चाहिए.......मिलनी ही चाहिए
जीतते और जीती हुर्इ लड़कियां !)
उसी को देखकर मैंने निकाला था यह निष्कर्ष
कि कौन क्या कहता है-यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है
जितना कि यह कि कोर्इ क्यों , किससे और कहां से कह रहा है !
मित्रता : तीन प्रतिक्रियाएं
एक
मित्रता एकपक्षीय अपेक्षाओं और थोपे गए अनुबन्धों में
जिए गए जीवन-सम्बन्धों का नाम नहीं है.....
मित्रता एक र्इष्र्या-मुक्त मुस्कान है
एक मनुष्य की दूसरे मनुष्य की बड़ी से बड़ी हर सफलता पर......
मित्रता हर पल रीतते हुए समय में एक दूसरे को जीते हुए
बचाते रहने की अन्तहीन प्रतिस्पद्र्धा है .....
मित्रता एक अनथक होड़ है
एक-दूसरे के लिए सुख खोजते हुए जीने की !
कि मित्रता कुचक्र नहीं रचती लेकिन
कुचक्री र्इष्र्या,घृणा,स्वार्थ या प्रतिशोध की आग में जलते हुए
मित्रता की आड़ ले कभी भी कर सकते हैं जीवन का बध !
तब दुनिया की सारी भोली और विश्वासजीवी आत्माओं के विरुद्ध मित्रता
एक पेशेवर शिकारी की आमन्त्रण भरी शातिर मुस्कान में बदल जाती है !
मित्रता की हर परीक्षा के पीछे होती है
एक झूठे मन का गहरा अविश्वास भरा अन्धकार
कि मित्रता की हर परीक्षा के पीछे छिपी होती हैं
मित्रता की धारदार हत्यारी आशंकाएं
और मित्रता का हर बलात सत्यापन
उसे बदलता जाता है पूरे झूठ में.......
मित्रता के समाप्त हो जाने का बढ़ता हुआ डर
उसे करता जाता है असहज
और मित्रता की कीमत वसूलती हुर्इ मित्रता
एक स्वार्थी और खुदगर्ज मनुष्य के
हिंसक अतिचार में बदल जाती है......
मित्रता के हर नाटकीय चेहरे का अन्त
एक अविश्वासपूर्ण त्रासदी में होता है.....
पूरी धरती पर मुस्कराते हुए घूमते हैं
मित्रता के पेशेवर शिकारी- दुनिया की सारी भोली और
विश्वासजीवी आत्माओं को बलात्कृत और क्षत-विक्षत करते हुए....
एक दिन अपनी संक्रामक मित्रता के विरुद्ध
निर्मित प्रतिदेह से पराजित होती हुर्इ
अपने ही अहंकार की मांद में एक गीदड़ की मौत मरती है मित्रता....
एक दिन एकपक्षीय अपेक्षाओं ,अविश्वासपूर्ण प्रश्नों एवं
शंकालु निगरानियों के बोझ तले दम तोड़ देती है !
दो
देखो....मैंने अपने सारे रिश्ते तुम्हें सौंप दिए हैं
कि अब तुम भी हो चुके हो मेरे सारे सम्बन्धों के राजदार
मैं अपने उन मित्रों को खो देना कभी भी बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा
देखना कभी सीधे जुड़ना मत उनसे और मुझे कभी
काटना-कमतराना मत मेरे भार्इ !
मेरे मित्र मेरी जमीन हैं-जिन्हें मैने यत्नपूर्वक
खेत की तरह कमाया है
किसी किसान की तरह हाड़तोड़ मेहनत कर
उनसे अपने सम्बन्धों को खाद-पानी देकर उपजाया है
हे मित्र ! मेरी मित्रता की नागरिकता पर्यन्त
उनका उपभोग करने के लिए आप स्वतंत्र हैं किन्तु
ये सभी मेरे हैं यह बात भुलाना न कभी !
बुरा मत मानना यार ! कभी-कभी मुझे लगता है
कि मैं गलत हूं और सम्बन्धों को लेकर मुझे
इतना भावुक और असहिष्णु नहीं होना चाहिए......
कि सम्बन्धों में इतनी अतिरेकपूर्ण अपेक्षाएं मानवीय नहीं हैं
कि दुनिया के हर व्यकित को किसी को भी
पसन्द करने और न करने की स्वतंत्रता है फिर भी.......
यह भी कि जब दो जन मिलते हैं तो उनका
एक-दूसरे से प्रभावित होना स्वाभाविक ही है लेकिन.....
सच यही है कि मैं सम्बन्धों में परम्परावादी हूं
परम एकनिष्ठ हू-कुछ ऐसे और इतना कि जैसे
मेरे सारे मित्र मेरी पतिनयां हों.........
मैं सम्बन्धों के मामले में बिल्कुल पक्का और सधा हुआ खिलाड़ी हूं
मैं अपनी मित्रता के विस्तृत साम्राज्य को
किसी कुशल चरवाहे की तरह अपने बाड़े में बन्द रखता हूं
इसका ध्यान रखता हूं कि किसी कार्यालयाधीक्षक की
असंख्य फाइलों की तरह सभी व्यवसिथत और अपनी-अपनी
निर्धारित आलमारी में ही रहें......
कि कभी उन्हें आपस में इतना समीप आने का मौका ही न मिले
कि कभी आपस में वे शार्ट-सर्किट करें
और सम्बन्धों की उष्मा किसी बाधित-अवरुद्ध
विधुतीय प्रवाह की तरह मुझतक पहुंचे ही न !
मित्र ! तुम चाहे मुझे जो कहो-
सम्बन्धों का वर्चस्ववादी या उपभोक्तावादीं
पूंजीवादी या बाजारवादी ,विस्तारवादी या उपनिवेशवादी
कि मेरे सारे मित्र मेरे लिए कोर्इ स्वतंत्र व्यकित
और सामाजिक-सार्वजनिक व्यकितत्व नहीं बलिक
मेरे ऐसे निजी सामान हैं ,मानों जिन्हें मैंने खरीदा है-
औरों से बहुत-बहुत पहले फिर भी.......
सच यही है मेरे मित्र ! कि मैं अपने मित्रों को खोना
किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा
जिन्हें भरपूर जिया है मैंने और जो मेरी आत्मा के मानों उपनिवेश हैं !
'' सुनो मित्र ! कोर्इ भी आदमी जो इस दुनिया में है.......
जो भी इस दुनिया से है और जिससे भी जिसके जुड़ने की......
या जिसके भी इस दुनिया में होने की अहम कड़ी हूं मैं !
आखिर क्यों नहीं होना चाहिए मेरे पास-
उसके प्रथम परिचय का पूर्ण स्वत्वाधिकार !
आखिर सम्बन्धों और सम्पकोर्ं का भी कापीराइट क्यों नहीं होना चाहिए
जबकि मैंने उसपर इतना किया है काम और थका हूं
अनगिन यात्राओं पर फूंके हैं कितने ही पैसे और सिगरेटें
न पीते हुए भी कितनी बोतलें खरीद कर अपनी शामें डुबो दी हैं
शराब के कड़वे घूंट और वमनीय नशे मे जाग-जाग
बातें करते हुए काटी हैं न जाने कितनी रातेंं......
तुम नहीं जानते कि मैंने कितनी रातें जागी हैं
उनकी काल्पनिक ंऊबाऊ कहानियां और गप्पें सुनते हुए
न जाने कितनी रातें बितायी हैं उनका झेलते हुए झूठ
एक पौधे की तरह सींचा है उनके सम्बन्धों को
पते से परिचय तक पहुचने के लिए घिसे हैं कितने ही जूते
तलवे चाटे हैं...घिसी है नाक और इतिहास-सिद्धों से
झुक-झुककर मांगी है मंच पर अपने भी लिए
थोड़ी सी जगह......
यह सब सुनने के बाद
कहीं मुझे सच ही न छोड़ देना मित्र!
कितनी पुरानी हमारी मित्रता ही तोड़ न देना
आखिर मित्र हैं हम तो थोड़ा झेलना तो
सीखना ही होगा मजाक और राज़ !ं
अब जबकि तुम जान ही गए हो मेरे सारे राज़
और तुममें भी मेरे मित्र होने न होने का द्वन्द्वात्मक सन्देह उठनें लगा है
इसके पहले कि तुम स्वयं को मेरा मित्र कहना भी पसन्द न करो.....
अब जब कि तुम मेरे लिए बहुत काम के भी नहीं रह गये हो
तुम्हारे मित्र बने रहने या न रहनें से
कुछ भी बिगड़ने या बनने वाला भी नहीं है अब मेरा.....
सुनो मित्र ! यह दुनिया बहुत बड़ी है
बेहतर हो कि तुम भी मेरी दुनिया को छोड़कर तलाशो अपने लिए
अपने मित्रों की एक नर्इ ,विभजित और सुरक्षित दुनिया.....
तलाशो अपने मित्र और बनाओं उन्हें अपना
जैसे कोर्इ नया किसान तोड़ता है पहली बार कोर्इ अनछुर्इ आदिम मिटटी
और बनाता है अपने लिए नए खेत.......
तीन
निशिचंत रहें मित्र !
मैं ऐसा कुछ भी नहीं कर सकता
जिसे करने से कोर्इ दुखी हो
लेकिन मैं वैसा भी कुछ कर नहीं पाउंगा
जिसे करने के बाद मैं स्वयं भी दुखी होऊं और पछताऊं
इतनी शतोर्ं के साथ मैं मित्रता तो क्या दुश्मनी भी कर नहीं पाऊंगा
कुछ दिन और रहा आपके साथ तो मैं मनोरोगी ही हो जाऊंगा......
मुझे याद आ रहे हैं अपने बीते दिन
जब आप इस दुनिया में होकर भी मेरी सूचनाओं की दुनिया में नहीं थे
तब मैं हर किसी को एक सम्मानपूर्ण और स्वतंत्र जीवन मानकर जी पाता था
मिल सकता था हर किसी से एक प्राकृतिक उपसिथति मानकर
लेकिन अब जबकि मैं आपकी इच्छाओं और शतोर्ं के व्यूह-जाल में बुरी तरह फंस गया हूं
हर नए सम्बन्ध के पूर्व सोचने लगता हूं कि कहीं श्रीमान आपके भी पूर्व परिचित तो नहीं है
और इससे यदि मैं प्रभावित हुआ तो कहीं आप दुष्प्रभावित तो नहीं हो जाएंगे !
साथ-साथ रहेंगे तो साथ-साथ सम्बन्ध बनेंगे ही
कुछ सम्बन्ध ऐसे भी हो सकते हैं जो आपसे टूट जाने के बाद भी मुझसे न टूटें
मैं आपसे युगलबन्दी करता हुआ तो नहीं ही तोड़ता या जोड़ता जाऊंगा अनन्त काल तक
मित्र ! इसके पहले कि हमारी युगलबन्दी से
साझी मित्रता की और सन्तानें हों
क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हमें सम्बन्ध-विच्छेद कर लेना चाहिए ?
यदि अपरिहार्य है तो मैं आपके दो-चार मित्रों को आपकी सम्पत्ति की तरह छोड़कर
शेष सारी ( आपसे बची हुर्इ )दुनिया को ही उन्मुक्त भाव से जीना पसन्द करूंगा.....
अब तो आपको हो ही जाना चाहिए खुश !
आखिर मित्रता मित्रता ही है-
असितत्व की सबसे अनुकूलतम ,सबसे आपतितहीन और
सबसे आत्मीय समवर्तिता !
निर्गमन
मैंने चुनी है अरबों-खरबों लोगों की गुमनाम नियति
एक छोटे आदमी की तरह मैं भी कुछ छोड़ जाऊंगा
अपने जाने के बाद- जैसे कोर्इ गुमनाम पशु
घने जंगल में छोड़ जाता है अपनी बहुउपयोगी त्वचा.......
समय की चुभती हुर्इ सच्चाइयों के उस पार
मैने पा लिया है अपना आदिम अबोध मन........
अब मैं देख सकता हूं तुम्हारे भटकाव और
पढ़ सकता हूं तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं.........
तुम्हारी छोठी-छोटी खुदगर्ज़ क्रूरताएं
जो तुम्हारे घोर अकेलेपन और असुरक्षाबोध से पैदा हुर्इ हैं !
मैं तुम्हारी भाषा को भूलने की कोशिश कर रहा हूं
मैंने तुम्हारा साहित्य पढ़ना छोड़ दिया है
तुम्हारी बातों को सुनने से बचने के लिए
अब मैं रहने लगा हूं चुपचाप.......
आपस में मुस्कराकर बातें करते कुछ लोगों को
पूरे आनन्द के साथ यह कहते सुनता हुआ .......
कि इसकी तो चली गयी है वाणी ही !
मुझे तुम्हारी कुछ संज्ञाओं और विशेषणों पर आपतित है
मैं सोचना चाहता हूं कि क्या तुम्हारे बर्बर-हिंसक
अथोर्ं वाली भाषा के बाहर भी क्या-
किसी मानवीय भाषा की हो सकती हैं संभावनाएं !
एक ऐंसी भाषा जिसमें जिन्दगी को अपमानित करने के खेल में
न बदल दिया गया हो !
कुछ ऐसी भाषा जैसे एक तालियां पीटती
हो-हो करती असभ्य भीड किसी स्टेडियम में बैठी हुर्इ
किसी व्यभिचार का सामूहिक मजा ले रही हो.....
सामने ताश के पत्तों से न जाने कौन सा खेल
खेल रहे हैं लोग-जिसे मैं बिल्कुल ही समझ नहीं पा रहा हूं
वे जो मेरा कुछ भी न बोलता हुआ
होना और जीना बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं
वे अब मेरी ओर से जारी करने लगे हैं
अपने गढ़े शरारती वक्तव्य.......
कुछ नें मुझे उदासीन दीवार की तरह पाकर
उस पर टांग दिए हैं आकर्षक अपने लिखे इशितहार !
नीचे कुछ पागल
धरती को ठुकड़ों में बांटने का खेल खेल रहे हैं
कुछ आदिवासी इस बात पर बहस कर रहे हैं कि
सरहदें होती भी हैं या नहीं
कि सीमाएं एक सामूहिक अन्धविश्वास है।
मैंने तलाश ली है अपने हिस्से की धरती
अपने हिस्से का अन्तरिक्ष
अपनी ही शतोर्ं पर जीने के लिए
अपने हिस्से का जीवन
तुम्हारे किस्से से बाहर......
एक नाराज आदमी की तरह मैने बन्द कर लिए हैं
अपनी संवंदनाओं के सारे खुले कपाट
अब मेरी दुनिया
आंखों और कानों वाले एक अन्धे और बहरे की दुनिया है !
जैसे किसी बड़े आपरेशन के पहले नि:संज्ञ
मूचिर्छत होता जाता है कोर्इ व्यकित
मैं किसी त्यागपत्र देने वाले व्यकित की तरह
एक पूरी फूहड़ और नापसन्द सभ्यता को छोड़कर
बाहर निकल आया हूं
एक नए आरम्भ की तलाश के लिए......
अपनी सांसारिक मृत्यु का उत्सव मनाते हुए
गाते हुए एक नए जीवन के गीत.........
शिकार
असितत्व की सबसे रोमांचक होड़ में
एक साथ हांफते हुए
एक-दूसरे का पीछा करते साथ-साथ दौड़ रहे हैं शिकार और शिकारी
एक-दूसरे से डरे हुए......
हाथों में हथियार उठाए वे सारी धरती पर घूमते है
किसी भी पल...जीवन के किसी भी मोड़ पर
किसी दुर्घटना की तरह प्रकट हो जाने वालें
अपने सम्भावित दुश्मन की तलाश में......
जीवन की हर आहट की बारीकियों का सूक्ष्मतापूर्वक विश्लेषण करते
कि आने वाला हर शख्स और बेहतर दुश्मन क्यों नहीं हो सकता ?
जीवन की æेन जो किसी आक्रमणकारी की तरह दौड़ती-दहाड़ती आती है और
पास आकर छूने भर की दूरी से सीटी बजाती भाग खड़ी होती है
दुम दबाकर भागते हुए कुत्ते या फिर घबराये छलांगों में गुम होते हिरन की तरह......
कुछ ऐसे कि मारते रहो.....जीते रहो सुखपूर्वक
जीते रहो .......सुरक्षित मारते रहने तक
कि हर रुकना किसी भी शिकारी को शिकार में बदल जाएगा ....
कि दुनिया के हर फूल को तोड़ डालो और मसलकर सूंघो !
हर सुन्दरता के मुख पर कालिख पोतकर मुस्कराओ.....
हर विनम्रता को रौंद डालो और हर वैभव को लूटकर करो विजेता अटटहास....
हर चुप की पीठ पर चुपके से लगा दो अपना इशितहार
और अपने सारे सम्बन्धों को एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक
एक जेबकतरे से दूसरे जेबकतरे के हाथों बेचते .....और बिकते हुए शिकार !
जबकि जीवन किसी भीड़ का उत्सवधर्मी मेले में बदल जाना है
सह-असितत्व का रोमांचक मैच खेलते हुए
सिथतियों की गहरी-संकरी घाटियों से गुजर जाना है
ऊंचे पर्वत शिखरों को पैरों के नीचे छोड़ते हुए उस पार उतर जाना है !
जीवन पराजित होने के लिए नहीं है
जीना जरूरी है साथ-साथ
लेकिन दूसरों को जीतते हुए अपमानों से
जीवन को हिंसक व्यवहार मेंं बदल देना भी नहीं है- सम्बन्धों में जीत के नाम !
जीवन एक काल्पनिक भय है इस रोगी मन के साथ कि
दुनिया का हर शख्स उसके साथ उसे अपमानित करने का शातिर खेल खेल रहा है
जीवन एक -दूसरें को नीचा दिखाने की अन्तहीन होड़ है
दुनिया के सारे जंगल निरन्तर कटते जाने के बावजूद
जीवन एक जंगल है भयानक विचारों और बर्बर हत्यारी इच्छाओं से भरा
सभ्यता की अंधेरी गुफाओं में किसी नरभक्षी पशु सा दिपा हुआ............
आक्रमण
जैसे किसी पहाड़ी की ऊंची चोटी पर बैठा कोर्इ सिंह
नीचे घाटी के हरे-भरे मैदान में चरते निरामिष पशुओं को देख रहा हो......
जैसे पशुओं का बहुत बड़ा झुंड घास के मैदान का सामूहिक दावत उड़ा रहा हो
और उनके शिकार के लिए पहाड़ी से छलांग लगाकर कूद पड़ता है सिंह !
वे सहसा कूदते हैं अखबार में और छा जाते हैं.........
किसी लेखक की लरह लिखते हुए नए सिक्रप्ट
एक जोकर की तरह स्वयं कभी भी नहीं हंसते हुए भी सबको हंसाते हुए लगातार.
किसी आयटम गर्ल की तरह नए-पुराने हर गाने के साथ झूमते हुए
परदे के ऊपर या फिर पुरानी डिजाइन और नर्इ मुस्कान के साथ
मंच पर करती हुर्इ कैटवाक........
जीवन जीते हुए अविश्वसनीय उत्सवधर्मिता के साथ......
सभ्यता की परिधि के बाहर से वे लौट रहे हैं केन्द्र की ओर
छीनने के लिए एक भरा-पूरा समाज और पहचान
पेड़ों की तरह उगी हुर्इ भीड़ की अटूट जड़ता पर झुझलाते
और उनपर अपने असितत्व के बोझ के साथ टूट पड़ते हुए
मंच के नीचे जब कोर्इ भी कुछ भी बोल नहीं रहा होता है !
परावलमिबत श्रेष्ठता : दलित-पक्ष
मुस्कराती हुर्इ घास सारी धरती को ढकती हुर्इ
जीत रही है ऊंचे-ऊंचे पर्वतों के शिखर......जबकि टूट रहे हैं
ऊंचे-ऊंचे गगनचुम्बी अनमनीय पेड़ तेज हवाओं के शकितपरीक्षण में......
किंवदनितयों में बदल चुके उन्मत्त सांड़ चर रहे है हरी-भरी धरती
सूअरें थूथन से थूथन टकराते हुए मार रही हैं किलकारिया
पानी की एक बूंद में कुलबुला रहे हैं अरबों-खरबों जीवाणु
गंदी नाली में क्रीड.ा कर रहे हैं मच्छरों के असंख्य लार्वा
नाबदान कें कीड.े एक साथ उछल-कूद मचा रहे हैं
बच्चों की तरह-इतिहास से बाहर.....
और जंगली झाडि़यों की तरह यत्र'तत्र उगे हुए लोग
खरीद और बेच रहे हैं मौन और मुस्कान !
समय एक मरे हुए बच्चे की तरह पोस्टमार्टम का इन्तजार कर रहा है
हत्यारे हत्याओं से भर रहे है समय को........
कौए युद्धक विमानों की तरह अब भी उड़ान भर रहे हैं आसमान में
श्रेष्ठता की कठोर हिंसक चटटाने अब भी गिर रही हैं बस्ती के ऊपर
विकासक्रम में सबसे घटिया मसितष्कों का उत्पादन करता
अरबों-खरबों क्यूसेक वीर्य रोज गिर रहा है अन्ध महासागर में.......
सड़क पर गालियां बकते विकलांग मसितष्कों का निकल रहा है जुलूस
सीवर के मेनहोल में गिरकर दम तोड़ता हुआ एक आदमी
छटपटाते हुए दृश्य में बदलकर शान्त हो रहा है
एक आदमी अब भी आक्षितिज लहरा रहे थूक के महासागर में डूब रहा है......
बकरे एक दूसरे को सींग मारते हुए
किसी विजेता की तरह बढे जा रहे हैं बधस्थल की ओर ........
ऊपर अन्तरिक्ष में अब भी है बहुत खाली जगह
ल्ेकिन बौने फैल गए हैं सारी धरती पर
असहिष्णु हिंसा और आक्रोश के साथ दुनिया की हर ऊंचार्इ के विरुद्ध
बड़प्पन एक अश्लील आपराधिक दृश्य की तरह दुर्घटनाएं रच रहा है
सारी मानव-जाति के विरुद्ध.......
जैसे एक डूबता हुआ आदमी एक तैराक को
बुरी तरह पकड़कर अपने साथ डुबा रहा हो
एक पागल इस सोच के साथ मुस्करा रहा हो कि
सबसे बड़ा होने का सबसे आसान उपाय यह है कि
सभी के पैरों को काटकर उन्हें छोटा कर दिया जाये......
कुछ लताएं जो सबसे ऊंचे वृक्ष पर चढ़कर
ऊचाइयों का अहसास जीना चाहती थी
फन पटकते सांप की तरह घायल होकर
तुड़ी-मुड़ी गठरी जैसी पड़ी अपने भीतर ही सूख रही है
परावलमिबत श्रेष्ठता की अपनी अनितम लड़ार्इ हारकर..........
मैने अपने सारे सुरक्षा-कवच हटा दिए हैं
अपने इस उन्मुक्त अकुण्ठ उल्लसित अहसास के साथ कि
अन्तत: सबसे बड़ा मनुष्य वही है
जिसमें अपने छोटा हो जाने का भय न हो !
जो घर से घर लेकर निकला हो लेकिन
बाजार में घूमते हुए भी जिसके पास घर हो-बाजार न हो
न बिक सकता हुआ ही अमूल्य और आत्मीय है
सापेक्षता और तुलनात्मकता से परे........
अपने भीतर से विकसित होता हुआ जो ऊंचार्इ-दर-ऊंचार्इ
एक बौनसार्इ बनाने वाली सभ्यता के सारे गमले तोड़कर
धरती की अतल गहराइयों से जो खींच रहा हों अपने हिस्से का जीवन-रस !
जातियोमीटर : जो आप नहीं हैं
आप हैं तो होना ही है आप को-चाहे जो हों
लेकिन आप जो नहीं हैं-सही-सही वही हैं जी आप !
आप जो कर सकते हैं-वह तो आप कर ही सकते हैं
आप जो-जो नहीं कर सकते -देखे तो वहीं से जायेंगे न आप!
आप के होने से आप का न होना है महत्वपूर्ण
आप जो -जो नहीं होते हुए भी हैं-
वही तय कर देती है आप की सही-सही जाति......
जैसेकि आप बन्दर नहीं हैं इसीलिए तो आदमी हैं
आप इसीलिए आदमी हैं कि आपको प्रकृति ने दिया ही नहीं है
दिया जो बन्दर को घने बालों वाला जन्मजात कोट
आप इसलिए आदमी हैं कि एक लम्बी पूंछ पाने से चूक गए हैं आप
आप कहीं गैंडे वाली मोटी खाल पा गए होते और आदमी नहीं रह जाते
न बारिश और तूफान से डरते आपके पुरखे न ही बनाते रहने के लिए मकान
न ही बुने जाते शानदार कपड़े और न खड़ा होता अरबों -खरबों डालर का
विश्वव्यापी वस्त्र उधोग और न ही होती रंग-बिरंगे कपड़ों की फैशन-परेड
यदि नहीं होती पतली अतिसंवेदनशील त्वचा तो
एक मोटी बुद्धि के जानवर में बदल कर रह जाते आप.....
यदि कहीं पा गए होते बड़े पंख कहीं पुरखे तो
क्या खाक होते वायुयानों के आविष्कार और सवार.....
यदि आप अपनी पूंछ हिलाकर अपनी खुशी व्यक्त कर पाते
या फिर दुम दबाकर चुपचाप खिसक पाते तो रो कहां पाते
मुस्करा कहां पाते दिन में कर्इ-कर्इ बार........
हम और आप हारे हुए पैदा ही न हुए होते तो
जीतने के लिए करते ही नहीं इतना प्रकृति विरोधी आत्मघाती उत्पात !
जैसेकि आप खूंखार और डरावने नहीं हैं तो आप डकैत कभी नहीं बन सकते-
बनने की कोशिश करते तो अवश्य ही हों जाते पूरी तरह फलाप
दुर्बल या निरीह चेहरा होता तो चोर बनने के लिए ही अभिशप्त होंते आप
विकल्प में आपको बनना ही पड़ता कोर्इ उचक्का ,जहरखुरान या जेबकतरा......
जब आप और निरीह और सभ्य होने का सफल अभिनय करते तो
अपने परिचितों को चौंकाने वाला धोखा दे सकते या फिर
बन सकते एक अच्छा और कभी भी न पकड़ा जा सकने वाला जासूस.......
आपने जो अभी-अभी कहा है कि तुम कोर्इ राजनीतिज्ञ तो हो नहीं
न ही तुम हो कोर्इ बड़ा व्यापारी........
तुम कोर्इ अच्छे शूटर भी नहीं हो कि तूम्हारे खौफ से हर गलत भी हो जाये सही
कि तुम्हारे होने या न होने से क्या फर्क पडे़गा दुनिया पर
तुम जो सिर्फ पागलों की तरह एक दूसरे को रौंदती हुर्इ दुनिया पर
कुढ़-कुढ़ कर सोचते रहने के लिए पैदा हुए हो-सोचो...सोचो...और सोचो
भूत से डरे और आतंकित.....वर्तमान से वंचित-सिर्फ जीते हुए भविष्य के नाम !
तुम कुछ हो भी तो सबसे पहले यह बताओ कि तुम्हारी जाति क्या है पार्टनर !
अपेक्षाएं
तुमने किसी को क्या दिया है !
और तुम्हें क्यों कुछ मिलना चाहिए ?
किसी को कुछ भी न देते हुए..........
तुम जिसे आज अपने एक भी आंसू याद नहीं है
वे आंसू जो एक सन्देश की तरह चतुर्दिक फैल गए थे
किसी रोते हुए बच्चे की तरह जिसे सुनकर लोग दौड़ पड़े थे तुम्हारी दिशा में
एक बच्चा अनन्त काल तक बच्चा नहीं रह सकता
रोना किसी असहाय की सहायता के लिए फेली हुर्इ पुकार है
आज तुम्हें अपने रोने पर ही शर्म आ रही है
अपने चारों ओर इकटठी भीड़ देखकर शर्मा रहे हो तुम
चाहे आज तुम उकता गए हो लोगों का बार-बार तुम्हारे हाल का पूछना सुनकर
याद करो सम्बन्धों में उन पैशाचिक क्रूरताओं को
जिन्हें आज भी यादकर सिर से पांव तक सिहर उठते हो तुम
जिनके लिए तुम आज भी अपने एकान्त में दूसरों को क्षमा नहीं कर पाते
आज तुम वैसा ही हो गये हो और वैसा ही कर रहे हो व्यवहार
आज जब तुम अपने सारे दुख भूल गए हो-
हर दुखी आदमी अब तुम्हें मनोरंजक लगता है
अब तुम्हारे व्यंग्य और तुम्हारी हंसी
कांटों के जंगल की तरह फेल गए हैं चारों ओर
चारों ओर बांटते हुए घृणा !
तुम अब लोंगों से कट रहे हो
तुम अब स्वयं घृणास्पद हो रहे हो
जबकि जीना एक खेल की तरह है
जीना पूरी उत्सवधर्मिता के साथ
एक दूसरे के लिए आनन्द का आधार बनते हुए
बिल्कुल ही किसी खेल की तरह जीते हुए
एक दूसरे को अपने से बाहर और भीतर !
वहां आत्महत्या के एक असफल प्रयास के बाद
जीने के लिए लौटा हुआ आदमी
एक मुस्कराते अभिवादन में कृतज्ञता-बोध से झुकता जाता है बारम्बार
अब उसके लिए दुनिया की सारी मूर्खताएं
पत्थर की नुकीली चटटानें हैं
और दुनिया के सारे संवेदनहीन खुदगर्ज लोग कंटीली झाडि़यां
वर्जनाओं से भरे हुए एक सभ्य समाज में
बंटते और बांटते हुए सबके हिस्से का जीवन
अवरोधों और बन्द दरवाजों से भरे
एक चक्करदार भूल-भुलैया से गुजरता है.........
कभी अपने सारे प्रभावों को नकारता हुआ
पीछे की ओर उल्टे पाव भागता है जीवन
कभी किसी आकसिमक दुर्घटना से घबराए हुए
किसी æक-ड्रार्इवर सा एक के बाद दूसरी दुर्घटनाएं करता हुआ
भागता जाता है बदहवास........
निर्वासित
(ज्ञानेन्द्र पति की कविताएं पढ़ते हुए)
क्या यही वह दुनिया थी जिसे छोड़कर भाग आया था मैं !
रोने के लिए अपने आंसुओं के कम पड़ जाने के भय से.....
इस डर से कि इस दुनिया को देखते और जीते हुए
मैं समुद्र के भर जाने तक रोता रहूंगा या फिर अपने ही मर जाने तक......
कि संवेदनाओं के मर्मान्तक विस्फोट को
झेल नहीं पाएगा मेरा क्रूर न बन पाता हुआ कातर और आहत मन.....
कि कुछ और ठहरा तो किसी भी पल टुकड़े-टुकड़े होकर
आस्थाहीन असंख्य चिथड़ों में बिखर जाएगा ...........
जबकि कविता अपने समय से बहिष्कृत और असंतुष्ट कायर मनुष्यों का
एक झूठा भाषिक प्रतिसंसार रच रही थी
एक प्रति साम्राज्य -निर्वासितों के निरीह विस्थापित किसी देश की तरह......
कि मैं कविता में सिर्फ रोते हुए मरना नहीं चाहता था
एक और निराला,मुकितबोध या धूमिल की तरह....एक रेशम-कीट की मौत.....
कि इसके पहले कि अपनी कविताओं का ककून काटकर
जीते हुए ही निकल कर सच की तरह घूमने लगे कोर्इ भी कवि
उसे कलात्मक धन्यता की आग में पकाकर मार दो.......
(और उससे कातों-बुनो आलोचनात्मक अनन्यता के
चाहे कितने ही महीन-अदभुत वस्त्र !)
मैं अपनी संवेदनात्मक निरीहता के विरुद्ध
एक निद्र्वन्द्व मूर्ख की तरह हंसते हुए जीना चाहता था
अपनी पीठ पर अपमानहीनता का बोझ लेकर
जीने के हर गन्दे अवसर को मूल्यहीनता के कूड़ाघर से चुनते हुए........
कि आखिर कवियों की कितनी अर्थियां निकलने के बाद बचेगी कविता !
एक लुप्त होती बाल-सुलभ किसी नंगी आदिम प्रजाति की तरह ?
हां मैं भाग आया था- जैसे कोर्इ भयाकुल रोगी डरकर भाग निकलता है
आपरेशन टेबुल से उठकर नि:संज्ञ किए जाने से पहले या
किसी युद्ध से भागे हुए भगोड़े सैनिक की तरह.......
और अब जब कि घारदार संवेदनाओं के भयानक रक्तपात से भरे
एक भीषण काव्य-युद्ध के बाद ध्वंसावशेषों और मलबों से पटे
अपने ही दुर्गन्धाते शहर में मैं लौट आया हूं
उसके पूरी तरह मर जाने के ठीक पहले-तुम्हारी कविताओं के साथ
तुम्हारी कविताओं की दुनिया में विचरते हुए
तुम्हारी कविताओं को एक बार फिर पढ़ते हुए.......
कि जिस क्रूरतम समय में भाषा किसी पागल मनुष्य की बड़बड़ाहट की तरह
कौतूहलपूर्ण ,मनोरंजक और तमाशेदार हो चुकी हो-
कि कविताएं किसी पत्थर की चोट की तरह तिलमिलाती नहीं हाेंं....
कागज के हल्के-झूठे फूल की तरह सिर्फ गुदगुदाती हो उनकी चोट !
उस समय जीवन के पक्ष में क्यों नहीं निकलना चाहिए
कविता की दुनिया से बाहर जीवन की दुनिया में ?
किसी अनाथ-अबोध बच्चे की तरह जीती हुर्इ एक पूरी आबादी को
अपने भीतर से अंकुराते किसी बीज की तरह
समानता और सामूहिकता के सम्मानजनक शतोर्ं पर
स्वयं को बचा लेने के लिए.......
एक स्वावलम्बनपूर्ण जिन्दगी को अपनी ही शतोर्ं पर जीने के लिए.........
तब जबकि अपनी जिन्दगी बचाने की होड़ में
सम्पूर्ण क्रानित के मोर्चे को छोड़कर
उससे भागे हुए कर्इ सैनिक
खांइयों की तरह अपने लिए नौकरियां और धन्धे खोदकर
गुमनामी की गर्त में बचते हुए जीते रहने के लिए छुप गए हों !?
हां ,मैं भी बचना चाहता था और मैं नहीं देखना चाहता था
जीवन की तरह कविता को भी निरीह......
एक ऐसे समय में जब-हर क्रूरता के समानान्तर........
हर बुरार्इ के प्रतिरोध में अच्छार्इ को संकल्पपूर्वक
एक निर्णायक पहल करनी ही होगी
कि मैं कविता को आत्महत्या से ठीक पहले लिखे जाने वाले
सुसाइड नोट की तरह पढ़ना नहीं चाहता था..........
एक बड़बोले युग के किसी ऐसे आदमी की तरह
जिसका भाषिक अभिव्यकित मात्र से ही उठ गया हो विश्वास ........
और जो सोचता रहता हो यह कि कविता भी अपने हस्तक्षेप में
बन्दूक की तरह निर्णायक क्यों नहीं हो सकती !
कवि ! तुम्हारी कविताएं-जो किसी कैमरे की तरह
अपराधियों और अपराधों की शिनाख्त का साक्ष्य रचती हैं
तुम्हारा संवेदनशील मन जो घटनास्थल पर मौजूद
किसी दुर्घटना के सबसे प्रामाणिक और आहत गवाह की तरह
एक बेबस चीख बनकर कविता में फूट पड़ता है......
और एक डरे हुए समझदार आशंकित âदय की धड़कनें
उसमें साफ-साफ सुनी जा सकती है........
जैसे कागज के पृष्ठ पर तड़पती हुर्इ मछलियों की तरह छपी
तुम्हारी कविताएं बचा लेना चाहती हों जीवन का हर कतरा
किसी संवेदनशील मनुष्य के राग,मन और पीड़ा के ताजे जल से सींचकर.....
जैसे किसी ज्वालामुखी के अगिनप्रवाह में जीवित दबी बस्ती
फासिल में बदल गयी हो या संवेदनाओं के संग्रहालय की तरह....
और कविता की हर भाषिक मुद्रा में दर्ज हो दम तोड़ते जीवन की हर एक चीखं
कि ओजोन परत के क्षय के साथ पूरी धरती ही धमन-भटठी में बदल कर
सभी को बस भूनने ही वाली हो और सिर्फ स्वयं को बचा लेने की
निर्मम होड़ और भगदड़ में दब कुचलकर हमेशा के लिए
रौदा और टूट-फूट जाने वाला हो समय.......
एक स्वार्थी सभ्यता के बर्बर अतिचारों के बाद
सब कुछ बदल जाने वाला हो सहारा के निर्मम-क्रूर रेगिस्तान में !
शास्त्र-चर्चा : एक नए स्वर्ग के लिए
जो सबसे अच्छे थे अब तक पैदा ही नहीं हुए शायद
कम अच्छे मारे गए गर्भपात में
कमतर अच्छे आकर भी छोड़कर चले गए दुनिया......
फिर हम आए हम !
क्या पता पुण्य क्षीण होने पर
देवताओं नें स्वर्ग से गिराए थे धक्के मारकर
या फिर हम कीट-पतंगों से रेंगते हुए
पिछले दरवाजे से यहां तक पहुंचे !
हमारे जन्म पर शास्त्रों ने आशीर्वाद नहीं कहे
अभुक्त थे जो हम-गिरे हुए लौकिक या नारकीय !
स्वर्ग मृत्यु के पार था इसलिए देवता भी नहीं थे हम
और मारे जाने के लिए अभिशप्त
अपने होने से ही प्रमाणित कि मुक्त नहीं हम ।
तो अच्छे लोगों के विरुद्ध निरन्तर घृणास्पद होती जाती नियति में
शास्त्रसम्मत यही है कि हममें से कोर्इ मुक्त नहीं हैं
अपने पवित्र संकल्पाों और प्रार्थनाओं के बावजूद
हम सभी पापी हैं और कुकर्मी.......
न होते तो हमारा जन्म ही क्यों होता- कहते हैं शास्त्र !
हम सब विद्रोह के लिए अभिशप्त तिरष्कृत-त्रिशंकु की सन्ताने हैं
और हमारी मुकित सिर्फ विश्वामित्र बनने में है........
हमारे लिए प्रतिबनिधत स्वर्ग की अश्लील नागरिकता के समानान्तर
एक बार फिर रचने में है एक नया स्वर्ग !
रोना कोर्इ दृश्य नहीं है
रोना कोर्इ दृश्य नहीं है दृश्य का डूब जाना है
एक पहाड़ी झरने के पीछे
जलते हुए जीवन का अपने सारे वस्त्र उतारकर
कूद पड़ना है अथाह खारे समुद्र में.....
यहां कहीे दूर तक
रोने की कोर्इ जगह दिखार्इ नहीं देती
इस शहर में देर तक मुस्कराने के बाद
रोने के लिए किधर जाते होंगे लोग !?
रोते हुए बच्चे के लिए कविता
एक दिन आएगा
जब तुम्हें रोना भी उतना ही व्यर्थ लगने लगेगा
जितना कि हंसना !
एक दिन आएगा जब दुखी होकर सोचना?
पतझड़ के पत्तों की तरह झड़ जाएगा तुम्हारे जिस्म से
एक दिन आएगा-जब तुम्हें
जुलार्इ महीने की वर्षा की झड़ी जैसी
बात-बात में आएगी हंसी
एक दिन आएगा जब सांप के बूढ़े केंचुल की तरह
चुपचाप छोड़कर तुम्हें खिसक जाएगा दुख.......
एक दिन आएगा जब तुम हंसना सीख जाओगे
एक दिन आएगा
जब तुम अपने रोने की इच्छा पर ही
हंस दांगे फिस्स-से !
एक दिन आयेगा
जब सामने आकर खड़ी होगी तुम्हारी मौत
और उसे देखकर रुक ही नहीं रही होगी तुम्हारी हंसी !
घास पर उगी औरतें
कड़ी धूप में अपने पैरों तले कुचली हुर्इ
दूब और छाया की तरह
हिल रही हैं घास पर उगी हुर्इ औरतें
जैसे हिलते हैं पेड़......
इस समय जबकि कुत्ते की तरह हांफ रहा है दिन
हवा सो रही है......पत्ते हैं खामोश
और सिर्फ सूरज ही नटखट बच्चे-सा
खेल रहा है उनकी पीठ पर
उनका आंचल बार-बार
धरती पर खिसका देता हुआ.......
आंधी आएगी और गिर जाएंगे पेड़
ढह जाएंगी गगनभेदी इमारतें भूकम्प से
लेकिन जब तक थमेंगी नहीं घूमती हुर्इ धरती
हिलती रहेंगी घास पर उगी औरतें......
घड़ी के पेण्डुलम की तरह नहीं
जुगाली करती भैंस के जबड़े की तरह
दुनिया के सारे पानी को
दूध में बदल देने के लिए ।
गुमशुदा की तलाश में
जो कभी थे वे अब कहां हैं !
कन्धे से अचानक उड़ा लिए गए बोझ की तरह
खटक रहा है उनका जाना
वे- जिनके होने से बनी हुर्इ थी अपनी दुनिया.....
खुली हुर्इ आंखे.....और दृश्य गायब
परदे पर छोड़कर यादों के कुछ नाचते......
कुछ धुंधलाए बिन्दु....और कुछ सवाल......
कोर्इ अन्धा हवा में अपनी छूट गर्इ
लकड़ी टटोलता है जैसे-सभी दिशाओं में
पगलाए हाथों की तरह लहराने लगता है स्तब्ध परिवार
हमें छोड़कर कहां चले गए !-बिलखती है मां
पिता गिरता है धड़ाम से
पीछे से खींच ली गर्इ कुर्सी पर
अपनी बूढ़ी थकी देह टेकने के प्रयास में
दुख घर की बची-खुची पूंजी लेकर
भटकने लगता है रेलवे स्टेशन से अस्पताल
अपने भीतर अनेक आशंकाएं छुपाए
पुलिस स्टेशन से लेकर अखबार के पन्नों तक
रपट और इश्तहार बनकर शब्द-शब्द रिसने लगता है दुख
भटके हुए बच्चों की शिनाख्त से लेकर
मुर्दाघरों में मुंह ढककर लेटे लावारिस गुमनाम शवों तक
अपनों से आंखमिचौनी करता है समय
गुमशुदा की तलाश में ।
असुरक्षा
उसे बच्चों से प्यार था
और बच्चों को प्यार से छूने के अपराध में ही
कर्इ बार पीटा गया वह....
उसे देखते ही पिताओं ने अपने-अपने बच्चे
अपनी भुजाओं में भींच लिए थे
मांओं ने बच्चों को दूसरी बार अपने पेट में छिपा लेने के लिए
कंगारुओं जैसे एक और गर्भ की कामना की थी
अकेले मे वह बड़बड़ाता हुआ घूमता-
ये सारे बच्चे अपराधी बनेंगे एक दिन
कैसी अजीब दुनिया है यह !
यहां हर मां दूसरी मां के खिलाफ है
और हर पिता दूसरे पिता के
कैंसर से कम भयानक नहीं है इनका पागल परिवारवाद
ये एक दिन सारी दुनिया को अपनों और दूसरों के बीच बांट देंगे.....
एक दिन वह आसमान की ओर
अपना चेहरा उठाकर बुदबुदाया-हे पिता !
फिर धरती पर गिरकर मां-मां कहता हुआ बच्चों-सा रोने लगा
उस वक्त बस्ती के सारे पुरुष
उसे पीटने के लिए अपने-अपने घरों में लाठियां लेने गए थे ।
मां नहीं जानती
मां कहती हैं-जब तू छोटा था....कितना मोटा था !
जब तक पलटती नहीं थी तुझे अपने हाथों
बिना करवटें बदले लेटा रह जाता था तू !
मोटे तकिया की तरह.....
अब तो समय के पंख लगाकर उड़ गया हूं मै
उसकी पहुंच से बहुत दूर.....
मां की यादों मे एक छोटा-सा नक्शा छोड़कर बचपन का
उसे पता नहीं है कि इस बीच मैने कितने किए अपराध
कितनी दफाएंं लगा दी हैं जिन्दगी ने मेरे जीने के विरुद्ध
या कि कितने व्यापक संहारों का एकमात्र जीवित साक्षी हूं मै
उसकी समझ से परे है मेरी भाग-दौड़
मेरी अकुलाहटें और मेरा रोना-जो मेरे बचपन की तरह
मेरे सपाट चेहरे के भीतर कहीं खो गया है.....
मां को मालूम नहीं हैं आइन्स्टीन के सिद्धान्त
ऊर्जा के कभी भी नष्ट न होने और उसके सिर्फ
रूप बदल लेने के वैज्ञानिक सिद्धान्त...
उसके लिए चिन्ता का विषय है मेरा दिनोदिन दुबला होते जाना
उसके लिए समझ से परे है मेरी चिन्ताएंं
मैं वर्षों से प्रयास कर रहा हूं कि चिडि़या की तरह भूल जाए मां
उसे छोड़कर उड़ आए इस बच्चे को......
किसी फौजी की बहादुर मां की तरह रख ले अपने दिल पर पत्थर
कि मुझे भी तो जूझने हैं कितने मोर्चे
लड़नी हैं कितनी लड़ाइयां.....जीतने हैं युद्ध
इस छोटी-सी जिन्दगी में !
मां नहीं जानती-ऊर्जा के कभी भी नष्ट न होने
और सिर्फ रूप बदल लेने का नियम
नहीं तो समझा लेता उसे
कि दुबलेपन के बावजूद नष्ट या व्यर्थ नहीं हुआ होगा
मेरा निरन्तर घटता द्रव्यमान !
या अब तक वही अपना रूप बदलकर बन गर्इ होती धरती
और मैं दूर-दूर तक विचरण करता
अपनी प्यारी मां की ही गोद में.......
हम चाहते हैं.....
तुम्हारे जिए और दिए हुए सच
हमारे प्रष्नों से घायल हो चुके हैं
हम तुम्हारी गलतियों-मूर्खताओं को वैसे ही जानते हैं
जैसे आने वाली पीढि़यां जानेंगी हमारी मूर्खताओं को......
हम तुम्हारी दी हुर्इ निष्ठाओं से छले गए हैं
हम घर से बेघर समय से असमय हुए हैं
तुम्हारी दी हुर्इ दाढि़यां नोच डालने की हद तक
खुजली पैदा करती हैं हमें लहूलुहान करती हुर्इ.....
हम नहीं चाहते कि हमारा नाम
तुम्हारी बनार्इ हुर्इ जातियों के र्इमानदार कुली के रूप में लिखा जाए...
हम अपने वंशजों को अपना भारवाहक बनाने वाली
तुम्हारी हिंसक परम्परा के खिलाफ हैं
हमें नहीं चाहिए आदमी की खाल उधेड़कर
उसके लहू में डुबोकर लिखे गए तुम्हारे सनातन दिव्य ग्रन्थ.....
हम तुम्हारी सभी को मारकर जीने वाली अमरता के खिलाफ हैं
तुम्हारा हमारे समय पर लदकर बलात जीवित रहना
एक अप्राकृतिक अपराध है
हम न्याय चाहते हैं.....हम तुम्हारी मृत्यु चाहते हैं पितामह!
हम चाहते हैं कि आने वाली पीढि़यों को भी
नयी सभ्यता के लिए अपना नया पितामह चुनने का अधिकार मिले
बताओ ! तुम्हारी मृत्यु कैसे होगी ?
झुर्रियों में अंकित दुख
हम दुखी हैं और हमारा नैतिक कर्तव्य है कि
हम दुखी रहें
दुख-जो एक असफल समझदारी का नाम है
हमें अपनी भूलों-गलतियों को
एक सबक की तरह दुहराते हुए रहना है दुखी !
और प्रायषिचत के लिए.....
हम रहेंगे दुखी.....क्योंकि हम जानते हैं कि
दुखी होने के फायदे हैं अनेक
कि दुख के विज्ञापन पर ही निर्भर हैं हमारी सफलताएं
जिसके लिए सजग हैं हम !
कि जब हम होंगे दुखी
हमारे ऊपर व्यंग्य से हंसते लोगों पर
गाज बनकर गिरेगी चुप्पी......और हम पर बादल सुख के
कवि होंगे तो कविताएं लिखेंगे और अमर कर जायेंगे अपना दुख
क्योंकि यह तय है कि यादों में ही होना है
हमारी सारी यात्राओं का अन्त
छीने हुए सुखों का बोझ ढोते-ढोते हम होंगे दुखी
सबसे सुखी आदमी बनने का हिंसक इतिहास
और अनुभव बनकर झुर्रियों में अंकित हो जाएंगे दुख
एक दिन हम झुक जाएंगे बूढ़ों की तरह
उपदेशों में बांटते हुए सुख का भय.....
और अपने दुखों को टूटे हुए दांतों की तरह याद करते हुए
अपनी लम्बी उम्र की झूठी सफलता पर पोपले मुंह मुस्कराएंगे
दुख को अपनी हडिडयों में छिपाकर चेहरे पर छोड़ जाएंगे
खोखली हंसी !
शहर
यह एक ऐसा जंगल है जिसके पेड़ों की पतितयों में
नहीं पाया जाता क्लोरोफिल
यह एक ऐसा जंगल है जिसमेें उगे हुए हैं सिर्फ पत्थर के पेड़़ !
इसकी गलियों से गुजरना खतरनाक है
इसकी सड़को पर घूमते हैं जेबकतरे
वैसे यह पूरी बस्ती मकडि़यों की है....
बदलाव
मौसम जब बदलता है तो चूहे के बिल में भी बदलता है
चूहे के बिल को छोड़कर निकल भागता है सांप
चूहा भी बदलता है
बदल जाते हैं लोग-बाग मौसम जब बदलता है
नयी गालियां
उनके दिमाग के बिल्कुल सडि़यल हैं कम्प्यूटर चिप्स
उनके दिमाग में भरी हैं मृत सूचनाएं
उनके दिमाग में संरक्षित है आदिम मध्ययुगीन मन
नए जमाने की भोगवादी नासितकता से
एडसवादी आसितकता की ओर लौटते हुए
जिन्दा हैं वे देहधर्मी मरेला !
अभिनेताओं की बस्ती में
एक बहुत पुराना सपना
जिसे अब कोर्इ भी नहीं देखता मैंने देखा....
कि अच्छी-अच्छी बातों से बदल जाएगी यह दुनिया.....
कि मुंह जो सिर्फ खाने के लिए बने हैं
कम और अच्छा बोलें तो बदल सकती है यह दुनिया....
सपने में हाथ ऊंघ रहे थे और चेहरे
अभिनय करने का आदेश पाने की प्रतीक्षा में थे....
अभिनय से दुनिया क्या बदलती ?
दुनिया बदल गर्इ अभिनेताओं की बस्ती में
टूट रहे हैं सपनों के पैर और हाथ स्मृतियों के
बढ़ते जा रहे हैं विकलांग
कुत्ते थोड़ा सोचते तो अच्छा रहता उनकी बहादुरी के लिए
और क्रानितकारी कहलाते....
समय वैसे भी बहुत कम है
जमाना है अब सिर्फ शिकारी कुत्तों का....
कुत्ते जो सिर्फ कुर्सियों के लिए उग्र,उन्मद और खूंखार.....
कुत्ते जो कुर्सियों के लिए
पागल और परेशान...हिंसक और लहूलुहान
एक-दूसरे को काटते-चींथते हुए
जिनके पहरे में व्यवस्था का स्वांग ......
कुर्सियां कुत्तों की ओर फेंक दो
लेकिन झुण्ड के बीच गिरे बच्चे को उठाओ
समय हमें माफ नहीं करेगा......
कुर्सियां कुत्तों की ओर फेक दो और जब तक वे लड़ें
उनके पंजों में गिरे हुए बच्चे के बारे में कुछ सोचो !
बच्चे जो कुर्सियों के नीचे दब गए हैं.....
वैसे ही जैसे.....
मैं जीवन ही पुकारता हूं तुम्हें !
मैं जीवन ही मांगता हूं तुम्हें
वैसे ही जैसे नदियां-
एक-दूसरे को ढूंढ़ती और पाती हुर्इ
फिर नदी बन जाती हैं.......
वैसे ही जैसे पेड़ों की लम्बी कतार मिलकर
घनी हाियाली में खो जाती है
मैं जीवन पुकारता हूं तुम्हें
मैं जीवन ही मांगता हूं तुम्हें......जीवन !
दर्द
एक दर्द मैं....एक दर्द तुम !
एक दर्द जिसे मैंने ओढ़ लिया
एक दर्द जिसे तुमने जोड़ दिया
एक दर्द जिससे मैंने होड़ लिया
एक दर्द मैंं-जिससे मैंने मुख मोड़ लिया.....
और बन गया इनका-उनका-सबका दर्द !
भटकाव
सम्बन्धों के इस अन्धे मोड़ पर
यह कौन-सा दण्ड तुमने अपने आप को दिया
कि तुम अपने पास फिर वापस न आ सको !?
दूर-उूर तक फेले हुए सन्नाटे में
दुनिया के पापों की सजा स्वयं को देने के लिए
चीखते-कोसते हुए दौड़ा-दौड़ाकर अपना ही शिकार करना !
दिलचस्प....बहुत ही दिलचस्प
अपनी शर्मिन्दगी का दण्ड.....अपने अपमान का बदला....
नहीं.....तुम्हें इस दुनिया में आने की जरूरत ही नहीं थी
नहीं.....तुम्हें इस दुनिया में कभी आना ही नहीं था......
अपने आने का दण्ड.....अपने होने का दण्ड
अपने जीने का दण्ड भुगतो........
दूर-दूर तक फैले हुए सन्नाटे में
अपने असितत्व के हिंसक-अराजक संघर्ष में
दुनिया के पायों की सजा स्वयं को देते हुए
दौड़ा-दौड़ाकर अपना ही शिकार करना.....
दिलचस्प....बहुत ही दिलचस्प....इसके पहले कि
बीमारों की भीड़ तुम्हें ही बीमार कहना शुरू कर दे
इसके पहले कि अभिशाप की खोज करते हुए
अभिशप्त व्यवस्था को ही न बदल दिया जाय
अभिशापों की आत्महंता खोज में स्वयं को अभिशप्त मानकर
रोने के लिए....रोते हुए.....
आंसुओं में डूब मरने के लिए अभिशप्त हो तुम !
माफ करना भर्इ
माफ करना भर्इ ! मैं तुम्हारे सपने से भिड़ गया....
धरती इत्ती सी रास्ते कुछेक
पग-पग पगबाधा और फेकमफेंक....
होना भूगोल में रोना इतिहास का
कन्धों पर ढोते हुए यादों की लाश
साफ कहना भर्इ ! मैं तुम्हारे सपने से भिड़ गया!
जिन्दगी में चाहा जो चाहत की खोज में
मेरा चाहना तुम्हारे चाहने से लड़ गया....
माफ करना भर्इ ! मैं तुम्हारे सपनों से भिड़ गया !
अन्तर्सम्बन्ध
असितत्व है असितत्व का अपना सगा
जैसे जीवन जीवन का.....
दूर कहीं गहरे अथोर्ं-सम्बन्धों में
जुड़ जाती हैं सारी सत्ताएं
हो जाती हैं एक.......
अन्धकार में जैसे जाते डूब
सारे दृश्य और रंग
उगती ज्यों एकाकी सत्ता अन्धकार की.....
सभी शब्द आ जाते जैसे एक शब्द-' भाषा में
वैसे ही सारे हैंओं का होना होता एक !
यथार्थ
मौसम बदल रहा है
हाथों मेेंं उग रहे हैं हथियार
अविश्वास बरस रहा है मूसलाधार
मूर्ख लड़ रहे है
आस्था की अपनी अनितम लड़ार्इ घमासान...
चौराहे पर बैठा रो रहा है
हकलाता हुआ समय
चटटान पर मुक्के मार रहे हैं
कुछ रूठे हुए बच्चे....
सड़के खाली होती जा रही हैं जुलूसों से
राजपथ पर घूम रही हैं बिलिलयां
और लोग-बाग
अपने-अपने पालतू कुत्तों द्वारा
काट लिए जाने के भय से
अपने-अपने कमरों में जा दुबके हैं...
पूरा देश बदल दिया गया है रंगमंच में
अभिनेता बेहतर अभिनय कर रहे हैं नेताओं से
और दर्शक हैं हम
न हिलने-डुलने-बोलने की षर्त पर
रुके हुए समय की तरह
बैठे सभी स्पन्दहीन.....
इस शर्त से बंधे कि
जागते रहो देखते रहो...
अपराधियों की बिल्कुल ही दूसरी प्रजाति हैं हम
जिसकी नियति में है
अपराधों को होते हुए देखना.....
ऐसे कि जैसे हम कहीं हों ही नहीं
गहरी मोहनिद्रा में ऊंघते और सोते हुए...
तिलिस्म टूट नहीं रहे हैं
जादूगर कर रहे हैं मन्त्रपाठ
और हम जड़ होते जा रहे हैं।
पिता-सूत्र
यह दुनिया अब भी एक जंगल है
उगे हुए पत्थर के पेड़ों से भरी
अगर चाहते हो जीना तो बचकर रहना होगा गुपचुप
सड़क पर निकलो तो रहो सजग धोखे के डर से
सोचो ऐसा घूर रहे हैं पागल कुत्ते
अफ्रीका के जंगल में हो ऐसा सोचो
लोफर खूंद रहे सड़कों पर बर्बर शेरों के झुण्ड सरीखे
मांस नोचने को आतुर आंखों से लुच्चे-व्यभिचारी.......
पर दुश्मन तो बैठा बेटे देह के भीतर
यौवन तो ज्यों बाढ़ की नदी हारमोन की
हारमोन की वेगवती जलधारा में यदि तैर सको तो
बचकर पार निकल जाओगे विजयी बनकर......
कि्रकेट
आक्रमणकारी दौड़ रहे हैं
अपने हाथ मे घातक हथगोले उठाए हुए
प्रभुत्व ,वर्चस्व और अधिकार के स्टाम्प को उखाड़ फेंकने के लिए
अपने प्रतिद्वन्द्वी को अपने सामने से हमेशा के लिए हटा देने के लिएं....
जैसे तेज तूफानी हवा में कोर्इ पेड़
अपनी जड़ों से धरती को पकड़े रहने की जिद के साथ
दाएं-बाएं झुकता हुआ स्वयं को बचाने का प्रयास कर रहा हो
अपनी ओर आते हर प्रहार को व्यर्थ करता हुआ
बल्लेबाजी के साथ डटकर 'रन बनाता जाता हुआ लगातार........
धरती घूम रही है और घूमती हुर्इ धरती पर जिन्दा खड़े रहने के लिए
दिन-रात दौड़ लगाती हुर्इ हांफ रही है जिन्दगी
घूमते ग्लोब पर सीधे खड़े रहने का प्रयास करते
सरकस के किसी पुराने कलाकार की तरह......
एक महिला किसी बल्लेबाज की तरह शालीनता से मुस्कराती हुर्इ खड़ी है
एक जोर-जोर से चीखते आक्रोशित पुरुष के असमाप्त प्रत्युत्तर में
गहरी अंधेरी रात में अपनी शोर मचाती हुर्इ भारी æक को
चलाता हुआ ड्राइवर अपनी नींद से लड़ता हुआ दबाता जाता है एक्सीलेटर
सŸाा से बाहर हो चुका प्रतिपक्ष का नेता एक दु:स्वप्न की तरह देखता है
शान्त और मजे से गुजर रहे निरापद समय को
गेदबाज एक लम्बी दौड़ लगाकर जबड़े और मुÇटठयां भींच कर फेंक रहा है गेद
समय को जीत लेने की जिद के साथ अन्तहीन प्रतिस्पद्र्धा में
अपने प्रतिरोधी असितत्व को मछुआरों की जाल की तरह खींचते हुए
बह रहे हैं वे समय की धारा में - खेलते हुए कि्रकेट का खेल...........
जड़ता
यह कहां उगा हूं मै-अपने पिता पेड़ के इर्द-गिर्द
विकास की सारी संभावनाओं से हीन-मृत्यु के किस चबूतरे पर !
किसी सर्वहारा की मलिन झोपड़ी में या किसी बूजर्ुआ के महलनुमा
शानदार घर के भीतर किसी उन्मादी क्रानितघात में मार दिए जाने के लिए......
यह कहां पैदा हुआ हूं मै- कहां बसा हूं....
इस पुराने नगर के सबसे पिछड़े प्रवासी.......
सबसे अधतन विस्थापित-आगन्तुक की सन्तान !
किसी अचानक बाढ़ में नदी की तलहटी में डूब जाने के लिए अभिशप्त घर में
किसी गन्दे नाले में फिसलकर न गिर जाने के लिए संघर्ष करती झोपड़पटटी में
स्टेशन से पानी लाने की दूरी पर खुले आसमान के नीचे बने प्लासिटक के शिविर घर में या
फिर एक दिन सहसा समुद्र की सुनामी लहरों में डूबकर भुला दिए जाने की प्रतीक्षा में
मछलियां पकड़ने का खेल-खेलते घर में........
जैसे कर्इ डाकू अपनी पकड़ का बध करने के लिए
एक साथ अपने हथियारों की सफार्इ कर रहे हों.........
यह किन अजनबी लोगों से घिरा हूं मैं-
किस भाषा में गाये जा रहे कौन से गानों के साथ ?
ये मुझे पकड़कर मेरा कौन-सा हश्र करने जा रहे हैं ?
औरतें तरह-तरह के पकवानों के साथ घेर कर मुझे अपना बनाने का उत्सव मना रही हैं
और बस्ती के सारे पुरुष गर्म शलाखों से दागे जाने वाले सांड़ की तरह
मुझपर जैसे अपनी मुहर लगाने के लिए मुझे घेरकर खड़े हैं....
नार्इ अपने तेज धार वाले उस्तरे के साथ मेरा ध्यान बंटाने के लिए
तरह-तरह की हास्यकर आवाजें निकाल रहा है
वह मेरे ऊपर झुक रहा है....मेरी ओर उसके बढ़ रहे हैं हाथ
मुझे नहीं पता कि वह मेरे बालों का मुण्डन करेगा या काटेगा लिंग-चर्म .......
अब इसे छोड़ दो...अब यह कहीं नहीं जाएगा
जैसे किसी गहरी खांर्इं में गिरा हुआ हाथी केवल चिग्घाड़ता रह जाता है
कभी बाहर नहीं निकल पाता-अब यह भी किसी पालतू-प्रशिक्षित तोते की तरह
जो कुछ भी बताया और सुनाया गया है-वही-वही गाएगा.....
बहुत गहरार्इ तक खोदे गए गडढे में
मेरी नन्हीं कोमल जड़ों को दफनाकर
अपनत्व और प्यार के जल में सींचने के बाद
उन्होंने मुझे पूरी तरह घेर दिया है
अपने प्यार के सीमेन्ट और शुभचिन्ताओं की ठोस र्इंटों से
कभी भी नष्ट हो जाने के भय के बाड़े में बन्दकर
अब वे पूरी तरह सन्तुष्ट और मेरी सुरक्षा-चिन्ताओं से मुक्त हैं
अब वे एक-दूसरे को दे रहे है बधाइयां और
एक-दूसरे से मिला रहे हैं हाथ-थपथपा रहे हैं पीठ
एक अधूरी सभ्यता के विकलांग नागरिक की सदस्यता उपहार में देने के लिए
एक सम्पूर्ण मनुष्य की तरह मेरा जीना समाप्त कर देने और
मेरे मसितष्क को बधिया बना देने की खुशी में-
डाकुओं के किसी बर्बर कबीलार्इ गिरोह की तरह........
टभी तो मैं जल्दी से जल्दी बढ़कर छू लेना चाहता हूं आसमान
तकि अपनी जड़ों को स्वस्थ ,मजबूत और विकसित करने के बाद मैं तोड़ सकूं हर दीवार
अभी तो अपने जान की दुश्मन बकरियों से ही डरा हुआ......खतरे में जी रहा हूं मैं
एक दिन मैं जाति और सम्प्रदाय के सभी बाड़ों को तोड़कर
उनसे बाहर निकलना चाहूंगा-किसी मजबूत मोटे गगनचुम्बी पेड़ की तरह....
एक दिन मैं हाथियों के झुंड को
अपने मजबूत तने से अपनी पीठ रगड़ते-खुजलाते देखकर देर तक मुस्कराऊंगा.......
कबडडी
वह हंस रहा है.....किसी शरारती बच्चे की तरह
दायें-बायें फेंक रहा है हास-परिहास की फबितयां-जैसे हथगाोले.....
दूसरों के मर्म को उत्साहपूर्वक धकियाते हुए जीता जाता है छेड़ने का सुख !
उसके भीतर लहरा रहा है एक उफनता समुद्र
आक्रमण के लिए तैयार किसी भूखे शेर की तरह
अपने फूलते फेफड़ों में भर रहा है वह बाहर की ताजी हवा
उसकी आंखे चमक रही हैं किसी नरभक्षी भेडि़ए की तरह
अपने नथुने फैलाए सांड़ की तरह धरती पर पटक रहा है अपने खुर
अब वह किसी भी पल टूट पड़ सकता है अपने प्रतिपक्षिओं पर......
उसकी हर सांस एक जीवन की तरह है
जिसे पूरी तरह जी लेना है उसके पूरी तरह खत्म हो जाने तक......
किसी गुर्राते हुए भेडि़ए की तरह बड़बड़ाता हुआ वह फेंकता जाता है कोर्इ मारक शब्द
स्वयं पकड़ लिए जाने से बचते हुए
वह जिसको भी छूता है वह मर जाता है.....
घोषणा-पत्र
अपने हिस्से की दुनिया के लिए लड़ रहा हूं युद्ध
अपने विश्वासों की दुनिया के लिए लड़ रहा हूं युद्ध......
मेरी दुनिया मुझे वापस दो
मेरी दुनिया को छोड़ दो और
अपनी दुनिया में चले जाओ
यदि तुम मेरी भी दुनिया हो
मेरी ही दुनिया हो
मेरी दुनिया की तरह रहो.....
तुम्हारा कोर्इ भी नियम सत्य नहीं है
तुम्हारा कोर्इ भी अधिकार वैध नहीं है-
यदि वह मनुष्य को उसका जीवन ,स्वतन्त्रता और सम्पत्ति
जो कि उसकी धरती है-सुरक्षित उसका उसे
वापस नहीं कर देता एक बार फिर......
एक मनुष्य की तरह.....मनुष्य होते हुए....मनुष्य का
जो कि मैं भी हूं और वह.......
तुम मुझे मुक्त करो-मैं एक मनुष्य
एक मनुष्य को झेलते रहने के लिए बाध्य क्यों हूं-
यदि मुझे एक मनुष्य द्वारा....मनुष्य की तरह स्वीकारा नहीं गया !
मैं एक मनुष्य.....एक मनुष्य द्वारा मुझे मारा क्यों गया !?
तुम मेरी दुनिया मुझे दो !
मेरी दुनिया को मत छलो !
मेरी दुनिया को छोड़कर अपनी दुनिया में चले जाओ......
यदि तुम मेरी भी दुनिया हो
मेरी ही दुनिया हो
तो मेरी दुनिया कर तरह रहो
जैसे कि मैं तुम्हारी भी दुनिया की तरहाहता हूं......
तुम मेरी दुनिया हो
जैसे कि मैं भी तुमहारी दुनिया हूं
जैसेकि वह भी है
मेरी और तुम्हारी दुनिया.....
होना....
मैं नहीं जानता कि वह क्या है
जिसे मैंने पाया और तुमने दिया....
मैं नहीं जानता कि वह कौन है
जिसे तुमने दिया नाम और पुकारा.......
मैं नहीं जानता कि वह किसका है-
जो उसे खोजता हुआ आएगा और उसका होगा
जो मांग ले जाएगा उसे और पाएगा !
किन्तु इतना अवश्य जानता हूं मैं
कि उसका होना अनिवार्य है और तुम्हारा......
ताकि मैं जब किसी को पुकारूं
मेरी पुकार लौटती प्रतिध्वनियों की तरह
मुझ तक ही वापस न लौट आए......
ताकि मैं कुछ भी न होने के विरुद्ध
सभी को होता हुआ देखूं.....
ताकि मैं तुममें भी सत्यापित हो सकूं
कि तुम थे तुम हो तुम रहोगे
तम्हारा होना अनिवार्य है
जैसे कि मेरा होना.....
क्योंकि मैं अपने से बाहर भी
स्वयं को होता हुआ देखना चाहता हूं !