शनिवार, 19 जनवरी 2013

अतीतजीविता से मुक्ति

मानव-सभ्यता की अस्तित्व -यात्रा पीढ़ी-दर-पीढ़ी पुनरूत्पादन एवं पुनर्प्रशिक्षण  की प्रक्रिया से होकर गुजरती है । सिर्फ अस्तित्व  की दृष्टि से ही नहीं बलिक मन,बुद्धि और विचार के धरातल पर भी आज का मनुष्य बीते हुए कल के मनुष्य  का प्रतिफल है । इसीलिए आज के मनुष्य की अनेक समस्याओं का उदगम भी प्राचीन मनुष्य द्वारा जिए गए जीवन की घटनाओं ,आदतों और स्मृतियों में है । ये स्मृतियां ही उस साभ्यतिक अचेतन का निर्माण करती हैं ,जो आज के मनुष्य को सोचने,जीने और करने की एक सांस्कृतिक पद्धति देती है। विकास की इस श्रृंखलित निरन्तरता के कारण आज के मनुष्य को बदलने की प्रथम-द्रष्टया प्रविधि उसकी स्मृति को ही बदल देने या फिर नयी पीढ़ी के मनुष्य को उसकी स्मृति-श्रृंखला से ही बाहर निकाल देने के रूप में संभव हो सकती है । सैद्धांतिक और नैतिक दृष्टि से भी क्योंकि  गुजरे हुए समय को बदलना संभव नहीं है , न ही अतीत से जुड़ी हुर्इ स्मृतियों को ही बदलना संभव है-सुनियोजित और सुनिश्चित बदलाव के लिए की गयी इतिहास की हर कृत्रिम पुनर्व्याख्या उसें संदिग्ध और अविश्वसनीय ही अधिक करेगी -इतिहास और स्मृति से बाहर निकलकर मूल्यपरक जीवनयापन के लिए एक परिष्कृत विवेक अर्जित करना ही वर्तमान और भावी मानव-जाति के लिए मुक्ति  का एकमात्र रास्ता है ।
         अतीतबद्ध,स्मृति-जीवी इतिहासित मनुष्य पुराने सामाजिक आदतों का पुनर्वाहक बनकर पुनरावर्ती घटना-चक्र को जन्म देता है । अपनी अतीतजीवी दृष्टि के अनुरूप ही समकालीन परिवेश  का भी अतीतीकरण करता जाता है । दृष्टि के अतीतीकरण के साथ ही प्रतिकूल मान्यताओं से जुड़ा समकालीन मनुष्य भी उसके लिए समस्यात्म्क परिसिथति का अवयवी हिस्सा बन जाता है । यह इतिहासित मनुष्य ही अपने प्रतिक्रियात्मक विवेक और व्यवहार के कारण अनेक सामाजिक अपराधों और दुर्घटनाओं की श्रृंखला को जन्म देने और जीने के लिएअभिशप्त है । आज का प्रबुद्ध मनुष्य भी इसी अर्थ में पराधीन या गुलाम है कि वह एक पूर्वनिर्धारित मस्तिष्क बनकर रह गया है । प्रतिक्रियात्मक जीवन और प्रतिबनिधत विवेक के कारण वह अतीतजीवी सभ्यता के यानित्रक उत्पाद की तरह सामने आता है । एक ही जीवन के अलग-अलग साभ्यतिक संज्ञान एवं व्याख्याओं नें उसे अनेक मानवीय विश्वों में बांट दिया है । वह अनेक परस्पर विरोधी अस्मिताओं में बंट गया है । तमाम बौद्धिक विकास के बावजूद वह अपने ही भीतर के शैतानी हत्यारे जीन की तलाश  नहीं कर पाया है । इस इतिहासित मनुष्य को उसके प्रतिक्रियात्मक विवेक से निकालकर विशुद्ध ,उचित ,मौलिक ,अधतन और मूल्यपरक विवेक की ओर ले जाना  सामूहिक रचनाशीलता की प्रमुख चिन्ता होनी चाहिए ।
          इस समय भारतीय बुद्धिजीवियों में परिकल्पनात्मक अतीतीकरण की शिकार तीन प्रजातियाँ दिख रहीं हैं -भारतीय मूल के सांस्कृतिक पुरातनताजीवी ,जिसके केंद्र में ब्राह्मण जाती की पेशेवर सामाजिकता भी है .दूसरी प्रजाति इस्लामी जिहाद की परिकल्पनाएं जीती हैं ,तीसरी प्रजाति बिना किसी आवश्यक समझदारी के बिना सोचे-समझे (सिर्फ पढ़े-जिए के आधार पर  )अपने  क्रन्तिकारी होने के मुगालाताजीवी महत्वाकांक्षी बुद्धिजीवियों की है (जिसमें से एक मैं स्वयं भी हूँ).
ये तीनों अपने पिछड़ेपन की नकारात्मकता के साथ प्रगति और विकास की प्रक्रिया को अपने-अपने ढंग से अवरुद्ध कर रहे हैं .ये तीनो ही धड़े अत्यन्त ही मूर्खतापूर्ण ढंग से विद्वता के घमंड को जी रहे हैं .स्वीकृति की सामाजिकता और सामूहिकता के कारण इनका सामुदायिक विवेक सापेक्षिक प्रभाव के कारण अपनी वैचारिक अयोग्यताओं को समझने के अयोग्य है .