बुधवार, 15 जनवरी 2014

द्वंद्व-युद्ध

जहाँ तक सम्भव हुआ है
मैंने उस बुराइयों की आत्मा का भी सम्मान किया है
इस  विश्वास के साथ कि
एक दिन वह अपनी ही घृणा और अहंकार के बोझ से थक जाएगा
समझ जाएगा एक दिन
युद्ध और जीतने की इच्छा की निरर्थकता
जिसमें  मेरी कभी भी दिलचस्पी नही रही है। .......

मैं तो बिना लड़े ही
उसे विजयी घोषित कर देने की योजना पर अमल करता रहा हूँ
इसलिए कि लड़ना कभी भी
मेरे जीवन की प्राथमिकता में नहीं था
वह सिर्फ इतनी सी बात से मुझसे चिढ़ता रहा है कि
उसकी इच्छा और योजना के अनुरूप
उसकी चुनौतियों और पुकार को अनसुना करते हुए
मैं उससे लड़ने उसकी ही शर्तों पर बहर क्यों नहीं  आया। ....

यह उसकी नाराजगी हो सकती है कि
मैं उसके खेल में शामिल क्यों नहीं हुआ !
कि मेरे हटाने के बाद उसे जीतने के लिए कुछ विशेष नहीं था
वह सिर्फ इतना नहीं जानता कि
सभी को अपने से बाहर देखने की आदत में निहित है
उसके शैतान होने का रहस्य
उसे नहीं मालूम है तो सिर्फ आत्मीयता की परिभाषा !

वह परायेपन की मुद्रा के साथ जीतना चाहता है
सारी दुनिया के साथ मुझे भी
जबकि मैं आत्मीयता से
उसे पता ही नहीं है शयद बाजारू होना
सारी चालाकियों के बावजूद सिर्फ धूर्त और आवारा होना है
और होना है घर से बेघर। ……