मैं जब -जब भी मार्क्सवाद के बारे में सोचता हूँ और उसके नजरिए से आज के पूंजीवादी व्यव्हार के बारे में समझने का प्रयास करता हूँ ,दो बातें मेरी दृष्टि में महत्वपूर्ण हैं-पहला यह कि पूंजीवाद मूलतः पूंजी का स्वामित्ववाद है .और यह कि मार्क्सवाद परंपरागत स्वामित्व की अवधारणा से सहमत नहीं है .दूसरा यह कि पूंजी के अर्जन और मूल्य -पद्धति से भी .यह लाभ को अतिरिक्त मूल्य मानता है .उसकी दृष्टि में लागत से अधिक का अर्जन अवैध है .मार्क्सवाद अतिरिक्त मूल्य से पूंजी के अर्जन को एक अनैतिक आर्थिक व्यवहार मानता है.पूंजीवादी व्यवस्था में अतिरिक्त मूल्य एक असीमित आर्थिक व्यवहार तक लाभ माना जाता है .लेकिन यदि अतिरिक्त लाभ में पूंजी अर्जन करने वाले का अपना भी पारिश्रमिक सम्मिलित हो तो एक सीमा तक अतिरिक्त मूल्य भी पारिश्रमिक के रूप में वैध ही हुआ.मैंने मार्क्सवादियों को इस सीमा रेखा पर कभी सैद्धांतिक बहस करते नहीं पाया .
वयवहार में हम देखते हैं कि पूंजी कि असमानता का एक बड़ा हिस्सा पैतृक विरासत में मिली पूंजी का परिणाम होता है .यह परिवार संस्था के स्थायित्व का प्रमुख आधार होता है .कुलीनतावाद का भी यह प्रमुख आधार है .यहाँ यह एक व्यवहारिक समस्या दिखती है कि यदि साम्यवादी व्यवस्था में व्यक्तिगत पूंजी को समाप्त करेंगे तो पारिवारिक पूंजी को भी समाप्त करना होगा -अब इसके स्थान पर सामूहिक पूंजी की अवधारणा जो लाएँगे तो देखना यह होगा कि व्यव्हार में वह कितने बड़े मानवीय समूह को संबोधित हो सकेगा .वर्तमान में निजी स्वामित्व के व्यापारिक या औद्योगिक संगठन और राष्ट्र दोनों ही दावेदार हैं . सार्वजनिकता के विस्तार कि सीमा क्या होगी !यदि यह वैश्विक या सार्वभौमिक होगा तो उसका व्यावहारिक और सैद्धांतिक स्वरूप क्या होगा ?उपभोग व्यक्ति द्वारा और स्वामित्व सम्पूर्ण मानव जाति का एक नई मनोवैज्ञानिक संस्कृति का आधार तो बन सकता है लेकिन उसके व्यावहारिक पक्ष पर सूक्ष्मता से विचार करना होगा .
समस्या का एक मानवीय पक्ष यह भी है कि संपत्ति भी मानवीय सृजन का ही एक स्वरूप प्रकार है ..यह उसके अस्तित्व और विकास का भी प्रमुख आधार है .इसलिए संपत्ति के स्वामित्व से अधिक सृजन के अधिकार और अवसरों कि व्यवस्था करनी होगी.दूसरा यह है कि औसत संपत्ति को शुन्य और समान मानकर बड़े पूंजीपतियों के होने को प्रतिबंधित किया जाए.लेकिन ये सभी पूंजीवाद और साम्यवाद के आन्तरिक सामाजिक पक्ष ही हैं .
एक अन्य समस्या यह भी है कि राजनीतिक संगठन और आर्थिक संगठन की सदस्यता का आपसी रिश्ता क्या हो ?राजनीतिक संगठन जो सार्वजनिक व्यवस्था से सम्बंधित होते हैं ,वे आर्थिक प्रबंधन से अधिक व्यापक और मानवीय सरोकार वाले होते हैं.आर्थिक प्रबंधन और व्यव्हार अपेक्षाकृत सीमित होते हैं.आज की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पूर्वज प्राचीन काल की वणिक जातियां थी .वे एक व्यापक ईकाई की तरह व्यवहार कराती थीं..
प्राचीन काल से ही देखें तो राजा सिर्फ मुद्रा और उसके मूल्य का सैद्धांतिक निर्धारण ही करता था.राजनीतिक सत्ता का अस्तित्व आर्थिक मुद्रा और मूल्य के कारखाने की तरह ही रहा है यद्यपि पूंजी के प्रचलन और व्यव्हार को बाजार ही तय करता रहा है .इसे एक विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के रूप में देखा जा सकता है .साम्यवादी व्यवस्था जिस शोषण मुक्त समाज की परिकल्पना करती है ,उसका कार्यान्वयन समाज के स्वतन्त्र मुद्रा -व्यवहार के नियमन के बिना संभव ही नहीं है .क्योंकि साम्यवादी व्यवस्था में भी स्वतन्त्र मुद्रा आर्थिक विषमता की सृष्टि करेगा .जो अंततः आर्थिक साम्यावस्था को समाप्त कर देगा .इस लिए साम्यवादी व्यवस्था में बाजार और मुद्रा कि भूमिका पर भी विचार करना होगा .
मार्क्स के अधिकांश सिद्धांत समाज के बहुआयामी एवं बहुस्तरीय आर्थिक व्यवहार की अवहेलना करते दीखते हैं .कृषि-भूमि की समता की अपेक्षा व्यावसायिक क्षेत्र की समता की परिकल्पना अधिक जटिल होगी ही .आज के अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद के युग में बहुराष्ट्रीय आर्थिक संगठन स्वतन्त्र सरकारों की तरह व्यव्हार कर रहे हैं..इस लिए आज आर्थिक नागरिकता की भी परिकल्पना करने का समय आ गया है .एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का मजदूर एक सामान्य कम्पनी के मजदूर की तुलाना में धनी माना जा सकता है .इसतरह देखें तो सर्वहारा की परिकल्पना भी एक सापेक्षिक और तुलनात्मक परिकल्पना ही है .सामूहिक जीवन-स्तर की दृष्टि से समय शोषक राष्ट्र और शोषित राष्ट्र की परिकल्पना का भी है .स्पष्ट है कि शोषक राष्ट्र का सर्वहारा भी शोषक सर्वहारा ही होगा .परंपरागत मार्क्सवाद में यह सापेक्षिक तुलनात्मक चेतना नहीं है .आर्थिक रूप से संरक्षित और असंरक्षित नागरिक के रूप में देखें तो कर्मचारी को सर्वहारा के स्थान पर संरक्षित नागरिक मानना होगा.बेरोजगार को असंरक्षित नागरिक या सर्वहारा .जब नई पीढ़ी में सतत बेरोजगार अधिक मात्रा में उपलब्ध हो तो क्रांति के लिए कारखानों के मजदूर तलाशना भी अव्यवहारिक परिकल्पना ही लगाती है ,
.ऐतिहासिक दृष्टि से मार्क्स का समय साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का था .इसलिए सर्वहारा के अधिनायकत्व की परिकल्पना भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर की. अभियांत्रिकी के स्तर पर देखें तो अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी की अभियांत्रिकी दैत्याकार थी .पहली बार मानवजाति नें यंत्रों से असंभव को संभव करना सीखा .यांत्रिक पद्धति-निर्माण की सृजनशीलता के प्रति अतिरिक्त आस्था और उत्साह नें बड़े नियमन की भी परिकल्पना दी थी .साम्यवाद एक अधिनायक-सत्ता का भी चिंतन है .एक सबल नियामक सत्ता की परिकल्पना के पीछे साम्राज्यवाद की सत्ता-परिकल्पना का भी प्रभाव रहा होगा .मध्य-वर्ग के व्यापक विकास के साथ इस तरह से शासित होने की आज कोई परिकल्पना ही नहीं कर सकता .
वयवहार में हम देखते हैं कि पूंजी कि असमानता का एक बड़ा हिस्सा पैतृक विरासत में मिली पूंजी का परिणाम होता है .यह परिवार संस्था के स्थायित्व का प्रमुख आधार होता है .कुलीनतावाद का भी यह प्रमुख आधार है .यहाँ यह एक व्यवहारिक समस्या दिखती है कि यदि साम्यवादी व्यवस्था में व्यक्तिगत पूंजी को समाप्त करेंगे तो पारिवारिक पूंजी को भी समाप्त करना होगा -अब इसके स्थान पर सामूहिक पूंजी की अवधारणा जो लाएँगे तो देखना यह होगा कि व्यव्हार में वह कितने बड़े मानवीय समूह को संबोधित हो सकेगा .वर्तमान में निजी स्वामित्व के व्यापारिक या औद्योगिक संगठन और राष्ट्र दोनों ही दावेदार हैं . सार्वजनिकता के विस्तार कि सीमा क्या होगी !यदि यह वैश्विक या सार्वभौमिक होगा तो उसका व्यावहारिक और सैद्धांतिक स्वरूप क्या होगा ?उपभोग व्यक्ति द्वारा और स्वामित्व सम्पूर्ण मानव जाति का एक नई मनोवैज्ञानिक संस्कृति का आधार तो बन सकता है लेकिन उसके व्यावहारिक पक्ष पर सूक्ष्मता से विचार करना होगा .
समस्या का एक मानवीय पक्ष यह भी है कि संपत्ति भी मानवीय सृजन का ही एक स्वरूप प्रकार है ..यह उसके अस्तित्व और विकास का भी प्रमुख आधार है .इसलिए संपत्ति के स्वामित्व से अधिक सृजन के अधिकार और अवसरों कि व्यवस्था करनी होगी.दूसरा यह है कि औसत संपत्ति को शुन्य और समान मानकर बड़े पूंजीपतियों के होने को प्रतिबंधित किया जाए.लेकिन ये सभी पूंजीवाद और साम्यवाद के आन्तरिक सामाजिक पक्ष ही हैं .
एक अन्य समस्या यह भी है कि राजनीतिक संगठन और आर्थिक संगठन की सदस्यता का आपसी रिश्ता क्या हो ?राजनीतिक संगठन जो सार्वजनिक व्यवस्था से सम्बंधित होते हैं ,वे आर्थिक प्रबंधन से अधिक व्यापक और मानवीय सरोकार वाले होते हैं.आर्थिक प्रबंधन और व्यव्हार अपेक्षाकृत सीमित होते हैं.आज की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पूर्वज प्राचीन काल की वणिक जातियां थी .वे एक व्यापक ईकाई की तरह व्यवहार कराती थीं..
प्राचीन काल से ही देखें तो राजा सिर्फ मुद्रा और उसके मूल्य का सैद्धांतिक निर्धारण ही करता था.राजनीतिक सत्ता का अस्तित्व आर्थिक मुद्रा और मूल्य के कारखाने की तरह ही रहा है यद्यपि पूंजी के प्रचलन और व्यव्हार को बाजार ही तय करता रहा है .इसे एक विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के रूप में देखा जा सकता है .साम्यवादी व्यवस्था जिस शोषण मुक्त समाज की परिकल्पना करती है ,उसका कार्यान्वयन समाज के स्वतन्त्र मुद्रा -व्यवहार के नियमन के बिना संभव ही नहीं है .क्योंकि साम्यवादी व्यवस्था में भी स्वतन्त्र मुद्रा आर्थिक विषमता की सृष्टि करेगा .जो अंततः आर्थिक साम्यावस्था को समाप्त कर देगा .इस लिए साम्यवादी व्यवस्था में बाजार और मुद्रा कि भूमिका पर भी विचार करना होगा .
मार्क्स के अधिकांश सिद्धांत समाज के बहुआयामी एवं बहुस्तरीय आर्थिक व्यवहार की अवहेलना करते दीखते हैं .कृषि-भूमि की समता की अपेक्षा व्यावसायिक क्षेत्र की समता की परिकल्पना अधिक जटिल होगी ही .आज के अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद के युग में बहुराष्ट्रीय आर्थिक संगठन स्वतन्त्र सरकारों की तरह व्यव्हार कर रहे हैं..इस लिए आज आर्थिक नागरिकता की भी परिकल्पना करने का समय आ गया है .एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का मजदूर एक सामान्य कम्पनी के मजदूर की तुलाना में धनी माना जा सकता है .इसतरह देखें तो सर्वहारा की परिकल्पना भी एक सापेक्षिक और तुलनात्मक परिकल्पना ही है .सामूहिक जीवन-स्तर की दृष्टि से समय शोषक राष्ट्र और शोषित राष्ट्र की परिकल्पना का भी है .स्पष्ट है कि शोषक राष्ट्र का सर्वहारा भी शोषक सर्वहारा ही होगा .परंपरागत मार्क्सवाद में यह सापेक्षिक तुलनात्मक चेतना नहीं है .आर्थिक रूप से संरक्षित और असंरक्षित नागरिक के रूप में देखें तो कर्मचारी को सर्वहारा के स्थान पर संरक्षित नागरिक मानना होगा.बेरोजगार को असंरक्षित नागरिक या सर्वहारा .जब नई पीढ़ी में सतत बेरोजगार अधिक मात्रा में उपलब्ध हो तो क्रांति के लिए कारखानों के मजदूर तलाशना भी अव्यवहारिक परिकल्पना ही लगाती है ,
.ऐतिहासिक दृष्टि से मार्क्स का समय साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का था .इसलिए सर्वहारा के अधिनायकत्व की परिकल्पना भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर की. अभियांत्रिकी के स्तर पर देखें तो अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी की अभियांत्रिकी दैत्याकार थी .पहली बार मानवजाति नें यंत्रों से असंभव को संभव करना सीखा .यांत्रिक पद्धति-निर्माण की सृजनशीलता के प्रति अतिरिक्त आस्था और उत्साह नें बड़े नियमन की भी परिकल्पना दी थी .साम्यवाद एक अधिनायक-सत्ता का भी चिंतन है .एक सबल नियामक सत्ता की परिकल्पना के पीछे साम्राज्यवाद की सत्ता-परिकल्पना का भी प्रभाव रहा होगा .मध्य-वर्ग के व्यापक विकास के साथ इस तरह से शासित होने की आज कोई परिकल्पना ही नहीं कर सकता .