सोमवार, 20 जुलाई 2015

सृजनशीलता का जादू और नियतिवाद



http://epaper.jansatta.com/c/5025082मानव - जाति नें राजनीति का जो तंत्र विकसित किया है उस पर भी न्यूटन के गति जड़त्व के नियम लागू होते हैं .जैसेकि हर चलती हुई चीज अनंत काल तक चलते रहना चाहती है .वैसे ही हर सत्ताधारी सत्ता में बने रहना चाहता है .लोकतंत्र में भी एक बार जड़ जमा लेने के बाद सत्ताधारियो को हटा पाना आसान नहीं होता .लोकतंत्र में भी एक बार यह मान लेने के बाद कि सबके लिए प्रधानमंत्री होना संभव नहीं है -प्रारब्धवाद या नियतिवाद प्रकारांतर से वापस लौट आता है .संसाधनों एवं समीकरणों का ध्रुवीकरण सबके लिए प्रधानमंत्री हो पाना संभव नहीं रहने देता .भारत में आजकल ऐसी ही स्थिति बन गयी है और सबके प्रधानमंत्री बन सकने की सैद्धांतिक ही सही लोकतन्त्र के अस्तित्व के लिए आवश्यक अवधारणा निम्न और मध्यवर्ग के लिए तो दूर की कौड़ी ही हो गयी है .यहाँ प्रधानमंत्री होने को एक प्रतीकात्मक दृष्टान्त के रूप में ही मैं ले रहा हूँ .यह कत्तई जरुरी नहीं है कि सभी लोग सिर्फ प्रधानमंत्री बनने  के बारे में ही सोचें.आशय सिर्फ इतना ही है कि सोचें तो भी  शक्तियों और समीकरणों की वैसी बाधा न हो जो उनके होने को असम्भव कर दे .
          इस दृष्टान्त का विलोम यह है कि लोग इतने हताश हो जाएँ कि छोटा आदमी बड़ा होने के बारे में सोचना ही छोड़ दे या ऐसे ही एक दुखी आदमी सुखी होने के बारे में ..इस दृष्टि से देखें तो दुनिया के सारे धर्म मानवीय सृजनशीलता को हतोत्साहित करते हैं .हालत तो यहाँ तक पहुँच जाती है कि लोग टीका भी लगवाने से कतराने लगते हैं कि इससे ईश्वर का अपमान होगा .बहुत पहले मुझे परीक्षा देने के लिए एक ऐसे ग्रामीण परिवार में ठहरना पडा था जिसके घर में चेचक निकली थी और उसी के दीवार के बाहर लिखा था कि चेचक की सूचना देने वाले को पांच हजार रुपये का ईनाम दिया जाएगा .यह सब कुछ एक मनोवैज्ञानिक हत्या की तरह होता है कि छोटा आदमी हमेशा के लिए अपने छोटेपन को स्वीकार कर ले अथवा कि एक निर्धन व्यक्ति अपनी निर्धनता को ..यह व्यवस्था के प्रति समर्पण-आत्मसमर्पण का एक दूसरा पक्ष है ,जो मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति कि दृष्टि से न सिर्फ नकारात्मक है ,बल्कि समाज के लिए भी अस्वस्थकर है .यह व्यवस्था के परिवर्धन और परिष्करण की आशा और आस्था की मनोभावना को ही ध्वस्त क देता है .एक निष्क्रिय-निठल्ला निराशावादी कुंठाग्रस्त  समाज यदि अपनी सृजनशीलता और विवेकपूर्ण प्रतिरोध  से  यदि अपने पर्यावरण को बदल सकने का जादू भूल जाता है तो इससे दुर्भाग्य कि बात और क्या हो सकती है ! यहाँ सृजनशीलता से आशय मेरा सिर्फ व्यक्तिगत या पारिवारिक सृजनशीलता से नहीं है बल्कि उस सामूहिक सृजन शीलता से है जो राजनीतिक व्यव्हार के क्षेत्र में आन्दोलन और क्रांतियों के रूप में भी प्रकट होते रहे हैं .इससे यह रहस्य भी अनावृत होता है कि आध्यात्मवाद का मानवीय सृजनशीलता और उसके हस्तक्षेप से विरोध क्यों है .
            नियतिवाद अपने वैज्ञानिक अर्थों में तो कार्य -कारण की एक सुसंगत और अपरिहार्य श्रृंखला को व्यक्त करता है ,लेकिन अपने समर्पण वादी आध्यात्मिक अर्थ में यथास्थिति वाद को बढावा देता है . कई बार जब आग लगी हो और उस समय यदि कोई आँखें बंद किए लेटा कुछ सोच रहा  हो तो उसकी आँखें तब तक नहीं खुल सकतीं जब तक कि वह व्यक्ति स्वयं जलने न लगे .इसप्रकार देखें तो हमारे भाव और विचार हमरी नियति के अंतिम निर्णायक नहीं हैं .कई बार जब हम जीने की सोचते हैं हमारा रुग्ण-जर्जर शरीर बिना हमसे पूछे ही हमारे मरने की घोषणा कर देता है ..बचपन में गावों में कई लोग काल्पनिक रूप से चोर के कभी भी किसी भी रात आ जाने की आशंका के साथ बगल में लाठी रख या छिपाकर  सोते थे  .अक्सर उनकी जिन्दगीमें वह चोर कभी आता ही नहीं था .कभी-कभी ऐसा भी होता था कि वह चोर अप्रत्याशित रूप में आ जाता था और वे सोते-सोते ही चोर की  चालाकी के शिकार हो जाते थे .कई लोग जो जीनेटिक रूप से अच्छे होते हैं , न ही कभी बीमारी के बारे में सोचते हैं और न ही कभी बीमार ही होते हैं ,कुछ जिन्दगी भर बीमारी के बारे में सोचते रहते हैं और कभी बीमार होते ही नहीं ,जबकि कुछ ऐसे भी अभागे होते हैं जो बिना सोचे ही बीमारी की चपेट में पड़ जाते हैं .यह कहा जा सकता है कि हमारा जिन्दगी भर बीमार होना या स्वस्थ होना एक संयोग भी हो सकता है .संभवतः इसीलिए गीता में पाचवां हिस्सा यानि बीस प्रतिशत ही दैव यानि नियति को दिया गया है .इसी बीस प्रतिशत के अप्रत्याशित में ही ईश्वर का भय भी छिपा है .लेकिन यह तो नियति वाले ईश्वर के बारे में है .