सोमवार, 6 अगस्त 2012

भिन्न भावलोक में


जनसत्ता 5 अगस्त, 2012: सुपरिचित कवि उद्भ्रांत के संकलन अस्ति की कविताएं अद्यतन विचारशीलता, वस्तु वैविध्य, आत्मीय संवादधर्मिता और संवेदनात्मक रिपोर्ताज शिल्प के कारण ध्यान आकर्षित करती हैं।
ये एक आधुनिक बुद्धिजीवी के नागरिक मन, चिंता और बोध का विमर्श रचती हैं। समकालीन परिवेश और समाज को समझते और समझाते हुए, उसमें अपने अस्तित्व और स्व की तलाश करने वाली कविताएं आधुनिक मनुष्य के लिए अस्मिता की तलाश की चिंता से उपजी हैं। आत्माभिव्यक्तिमें सामाजिकता और सामाजिकता में आत्मान्वेषण ने उद्भ्रांत की अधिकतर कविताओं को आत्मीय, संवेदनशील, ईमानदार और अनौपचारिक रूप में विशिष्ट बनाया है।
अपने शिल्प और संरचना में ये कविताएं आत्मकथा, संस्मरण, समाचार, संस्कृति, समाज और विज्ञान संबंधी विचारों के विविध आयामों का संसार समेटे हुए हैं। इनमें ‘नई सृष्टि’, ‘दादाजी’ और ‘नवलगढ़’ शीर्षक से चार और ‘अयोध्या’ शीर्षक से सात आत्मकथात्मक कविताएं हैं तो सारा आबिदी, कालू जल्लाद, भटकती आत्माएं जैसी समाचार-पत्रों में प्रकाशित खबरों को पढ़ कर लिखी गई मार्मिक कविताएं भी। हांडी, जंगलतंत्र और बकरामंडी जैसी काव्यात्मक रिपोर्ताज शैली में लिखी गई कविताएं भी हैं जो कालाहांडी, सरिस्का के जंगल और जामा मस्जिद की बकरामंडी पर लिखी गई हैं।
कवि ने समकालीन जीवन के यथार्थ को इतने कोणों और आयामों से देखा है कि शायद ही कोई पहलू छूटा हो। इन कविताओं की सबसे अच्छी बात है कि ये एक सार्थक संवेदनात्मक पक्ष चुनती हैं। सही जीवन के पक्ष में प्रश्न उठाती और उनका उत्तर देने का भी प्रयास करती हैं। कवि ने समय और परिवर्तन की हर नन्ही आहट को सुना और दर्ज किया है। पेंटिंग, लाइट होल, ब्लैकहोल, उड़नतश्तरी, पेपरवेट, काक्रोच, टार्च, फ्लैट, पोस्टकार्ड, गांधी आश्रम और गिरगिट से लेकर इत्ता-सा ब्रह्मांड तक ‘अस्ति’ का काव्य-संसार बनाते हैं। इन कविताओं के माध्यम से उद्भ्रांत आधुनिक नागरिक जीवन-बोध और सांस्कृतिक पुनर्विचार के कवि रूप में भी सामने आते हैं। उनकी रचनात्मक चिंता परंपरा और सभ्यता के पुनर्विचार और पुनर्संस्कार की भी है।
उद्भ्रांत के यहां आधुनिक सभ्यता द्वारा निरस्त कर दिए गए परंपरागत जीवन-मूल्यों, रीतियों और विश्वासों का बड़ा संसार है। उनकी कविताएं बार-बार इस निरस्ति को समझना और समझाना चाहती हैं। उनकी कविताएं पारंपरिक विश्वासों में फंसे हुए मनुष्य के आधुनिकतावादी रूपांतरण को व्यापक और बहुआयामी विमर्श देती हैं। ‘क्या शैतान के भी सींग होते हैं’ और ‘मैंने ईश्वर को देखा प्रत्यक्ष’ ऐसी ही कविताएं हैं। उनकी ‘सारा आबिदी’ कविता सीबीएसइ की दसवीं कक्षा की परीक्षा में देश में प्रथम स्थान पाने वाली छात्रा की मार्ग दुर्घटना में हुई असामयिक मृत्यु पर लिखी गई है। संवेदनाजनित पीड़ा के निवारण के क्रम में ही कवि नियति और ईश्वर जैसी सभी सांस्कृतिक अवधारणाओं की पड़ताल करता हुआ एक प्रतिरोध रचता जाता है। ‘आत्महत्या’ कविता भी इसी तरह संवेदनात्मक रिपोर्ताज है। संकलन की अनेक कविताएं संस्मरणात्मक और संवादी हैं। कई कविताएं आधुनिकता का सांस्कृतिक विमर्श रचती हैं। ‘जैसे सपना एक चकमक पत्थर है’ कविता सृजन की दार्शनिकी प्रस्तुत करती है तो ‘नवग्रह’ में सही मूल्यांकन न होने की पीड़ा है।
‘अस्ति’ की दुनिया एक संवेदनशील सक्रिय मस्तिष्क की बेचैनियों की दुनिया है। एक समर्थ कवि की काव्यांकित दैनंदिनी, आत्मकथात्मक काव्य-रूप है। संवेदना, अनुभूति और विचार की त्रई उनकी अधिकतर कविताओं को काव्यात्मक निबंध या फिर संवेदनात्मक आख्यान बना देती है। ऐसे में अनौपचारिक अकृत्रिम भावावेग और गीतलेखन की साधना और संस्कार उनकी लंबी कविताओं को भी काव्यत्व-निर्वाह की दृष्टि से सफल बनाते हैं। 
समकालीन कविता के संपूर्ण परिदृश्य को सामने रख कर उद्भ्रांत की कविताओं के वैशिष्ट्य पर अलग से विचार करें तो कुछ इस तरह का आलोचनात्मक परिप्रेक्ष्य उभरता है। समकालीन लोकप्रिय हिंदी कविता ने बहुत चालाकी से एक बाजारोन्मुख पेशेवर शिल्प विकसित किया है। अमूर्तन, अस्पष्टता, खुसरो की पहेलियों जैसी ज्ञानरंजकता इस कविता के शिल्प की विशेषता है। पारदर्शी और स्पष्ट संवेदनात्मक आत्माभिव्यक्ति इस कविता के लिए एक घटिया कलावस्तु बन जाती है। अबूझ शिल्प की ये कविताएं प्राय: विशेषज्ञों के लिए लिखी जाती हैं और आम जनमानस की समझदारी की सीमा से दूर रहती हैं। बाजार पर नियंत्रण और बराबरी के सैद्धांतिक आधार वाले बहुसंख्यक लोकतांत्रिक समाज में नेतृत्व का अलग पेशेवर मनोविज्ञान हुआ करता है। चाहे साहित्य-लेखन ही क्यों न हो, सत्ता के प्रभावी केंद्र के रूप में विकसित होने के लिए उचित दूरी का मनोविज्ञान छिपाव की कला का एक अलग शिल्प रचता है। संभव है कि विज्ञापित होने के लिए पाठक से भी दूरी बनाए रखना और संप्रेषणीयता की दृष्टि से अबूझ बने रहना ही उंचाई के छवि-निर्माण की दृष्टि से युक्तियुक्त हो।
उद्भ्रांत की कविताएं बौद्धिकता के साथ-साथ संवेदनशीलता और भावुकता का मानसिक पर्यावरण बचाने के रचनात्मक प्रयास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। समकालीन भावबोध वाली उनकी कविताओं में कविता के समकालीन बाजार की प्रचलित कलात्मक-बौद्धिक मुद्रा से अलग सहज संवेदनात्मक साक्षात्कार का शिल्प मिलता है। ये कविताएं एक और बिंदु पर महत्त्वपूर्ण हैं। विचारधारात्मक वर्जना के कारण एक अघोषित सेंसरशिप के रूप में मुख्यधारा की प्रगतिशील कविता ने आम भारतीय जनमानस के बहुत-से सांस्कृतिक प्रश्नों और   मनोग्रंथियों को अछूता छोड़ दिया था। उदाहरण के लिए, जाति और धर्म की बहुत-सी सामाजिक निर्मितियां, जो हमारे समाज में तो हैं, भले बुद्धिजीवियों ने उचित भाषा में या वैचारिक प्रतिरोध के स्तर पर उनका संज्ञान न लिया हो। ये कविताएं प्रगतिशीलता को आधुनिकता से जोड़ कर उसकी समझदारी को एक वृहत्तर आयाम दे देती हैं।
उनकी कविताओं में पाठक से अधिक से अधिक संवाद करने की आकांक्षा दिखती है, और वे एक अलग तरह का तरल-सरल शिल्प सामने लाती हैं। गीत लेखन से गद्य कविताओं की ओर आने के कारण उनकी काव्यभाषा में एक विशिष्ट सांगीतिक संस्कार दिखता है। परंपरागत शब्दावली में कहा जाए तो उनकी कविताएं गीतात्मक संस्कार लिए अभिधा की कविताएं हैं। सर्जना का सौंदर्य उनकी काव्यभाषा की सहज बुनावट और संप्रेषणीयता में है।
उनकी कविताएं अनौपचारिक शिल्प की कविताएं हैं। उनके काव्य में माध्यम का रचाव गौण है और सच कहा जाए तो वह कवि की प्राथमिकता में ही नहीं है। माध्यम के अकृत्रिम रचाव के कारण ही ये कविताएं सीधे संवेदना तक ले जाती हैं। वे प्रतीकबहुल बौद्धिक दुरूहता के स्थान पर बिंबों का भावपूर्ण संसार रचती हैं। यह संवेदनाधर्मिता ही उनकी कविताओं को सार्थक और विशिष्ट बनाती है। उनकी कविताएं कलात्मक रचाव की नहीं, बल्कि संवेदनात्मक उपस्थिति की कविताएं हैं। हर भावुक विक्षोभ उनके यहां कविता बन गया है।
रामप्रकाश कुशवाहा
अस्ति: उद्भ्रांत; नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 2/35 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली; 750 रुपए।