मंगलवार, 31 मई 2016

शेयर और गुरु-मंत्र

सिर्फ मैं ही नहीं हूँ 
दूसरे भी हैं मेरे साथ
मेरे समय में .....
सब मेरे लिए नहीं हो सकता
न मैं सभी के लिए हो सकता हूँ
हमें जीना जानना और अधिकार
सभी कुछ बाटना होगा ....
हम सिर्फ इतना ही जान सके हैं अब तक
कि हवा अधिक दबाव से
कम दबाव के क्षेत्र की ओर बहती है
और जल प्रवाहित होता है
ऊपरी तल से निचले तल की ओर ...
लेकिन ज्ञान !
हम अपनी अज्ञानता पर शरमाते हुए भी
चुपके-चुपके दूसरों से सीखते और
स्वयं को सुधारते जाते हैं ,,,,
समस्या कुछ इस तरह है कि
हमारे कसबे में
ज्ञान की एक साथ खुल गयी हैं कई दूकाने
सडक के दोनों ओर
ज्ञान भिक्षुओं का इंतज़ार कर रहें हैं
प्रदाता कोच और उनकी कोचिंग ...
वहां बैठा हर ज्ञानी
पूरेआश्वासन के साथ
जीवन का पूरा सत्र मांगता है ....
सुना है ज्ञानी होना आसान है
लेकिन समझदार होना कठिन
बहुत पहले मेरे गुरु नें दी थी यह चेतावनी
यदि तुम सफलता चाहते हो तो
अपनी अतिरिक्त समझदारी को छिपाए रहो
कि अपने समय के औसत दिमाग से
अधिक समझदार होना खतरनाक है
कि सुकरात मारा गया था अपनी समझदारी
न छिपा पाने के अपराध में
और युधिष्ठिर सिर्फ नैतिक और मूल्यजीवी बने रहने के प्रयास में
पत्नी द्रौपदी से हाथ धो बैठा ....
गुरु नें कुछ ऐसी भी दी थी सीख
कि सिर्फ अपने अहंकार को ही नहीं
अपने स्वाभिमान की उगी हुई सींगों को भी
यत्नपूर्वक छिपाए रहो ..
लोग उनका खुलेआम दिखना बर्दाश्त नहीं करते
कि तन कर खड़े होने से
झुककर बैठना अधिक आरामदायक होता है ''
उनकी सारी सीखों के बाद भी
बार-बार कर जाता हूँ गलतियाँ
जहाँ चुप रहना चाहिए बोल जाता हूँ वहां
जहाँ रुक जाना चाहिए उसके बाद भी लिखता जाता हूँ अलेख्य
उन्होंने यह भी कहा था कि
सुनिश्चित सफलता के लिए-
किसी भी साक्षात्कार में वैसा कुछ भी नहीं बताना
जिसे तुम सच समझते हो और वह वास्तव में सही भी हो
या जो सही होते हुए भी हो इतना मौलिको कि लोग
उसका विश्वास ही न कर सकें
बताना सिर्फ वही और उतना और वैसा ही सच
जितना कि प्रश्न पूछने वाला सच के रूप में जानता हो
जैसा कि सामने वाला जानता हो
और तुमसे भी सुनना चाहता हो ...
गोया ऐसे कि तुम्हें सच को नहीं बल्कि
सच के बारे में पूछने वाले को बूझना है
कि मौकरी पाना है तो सच के दंभ को नहीं
विद्वानों की अज्ञानता के प्रति सम्मान-भाव जीना सीखो
उन्हें प्रभावित करते हुए भी उन्हें इसका पता ही न लगने दो
कि वे तुमसे कितना कम जानते हैं....
(मानों सबसे सफल और सच्चे ज्ञानी
सिर्फ अपने ज़माने की दुर्बलुाताओं से
कदमताल करने वाले लोग हैं )
हे गुरुवर ! तुम्हारी दी हुई सारी शिक्षाएं याद हैं मुझे
लेकिन मैं उनका अतिक्रमण करने का अपराध करता रहा हूँ
अब मैं भी आपकी तरह बूढ़ा और अनुभवी हो चला हूँ
लेकिन मुझे लगने लगा है कि
हमेशा सुरक्षित और अनुशासित जीवन जीना
मानव जाति के हित में नहीं होता
कि इस दुनिया को बदलने के लिए
कुछ रोमांचक और मौलिक मूर्खताएं भी घटित होती रहनी चाहिए
कभी-कभी निकलना ही चाहिए बुद्धं की तरह
महल और सुख की सारी चिंताएं छोड़ कर ...
चुनना चाहिए अपमानों और अपराधों का शिकार होने की
संभावनाओं वाला जोखिमपूर्ण वर्जित रास्ता
नए बेहतर रास्तों की खोज के लिए ....
बाहर के सारे रस्ते भीड़ से भरे हुए हैं
बेहतर क्या होगा किसी के भी लिए -
वह यात्रा स्थगित कर दे और घर से ही न निकले
निकले और वह भी डूब जाए भीड़ को चीरते-तैरते हुए अपने गंतव्य की ओर
भीड़ के छटने का और पथ के मुक्त होने का इंतजार करे
स्वयं रुका रहे दूसरों को रास्ता देने के नाम पर
या दूसरों के साथ चले ....
सच तो यह है कि इसमे से कुछ भी सोचनीय नहीं है
कि जनसँख्या-वृद्धि ( भीड़} मानव जाति के उत्तरधिकरियो
प्रतिनिधियों का वैकल्पिक उत्पादन है
कि हर व्यक्ति वैकल्पिक और फालतू रूप से पैदा हुआ है
मानव-जाति की सुरक्षा और अस्तित्व की निरंतरता के लिए
हर व्यक्ति अपनी ओर से कुछ बोलना चाहता है और शोर उत्पन्न कर रहा है
एक समय में कुछ लोगों के चुप होने की जरुरत है कि
कुछ अच्छा बोलते लोगों को साफ-साफ सुना जा सके
इस सच्चाई की परवाह किए बिना कि
कि एक समय में अधिकांश लोग
एक जैसा ही सोचते-समझते और बोलते हैं ..
शर्त सिर्फ इतनी ही है कि जो बोल चुके हैं
उनका चुप होकर बैठ जाना जारी रहना चाहिए
कुछ बोलते लोग एक ही बात दुहराए जा रहे हैं मंच पर
यद्यपि वे थक गए हैं
फिर भी बोलते हुए दिखना चाहते हैं देर तक
मेरे पास अपने बोलने का कोई वाजिब कारण नहीं है
सिर्फ इस चिढ़ के अतिरिक्त
कि जो बोला जा रहा है उससे मेरी असहमति बढ़ गयी है
तब जबकि मैं न भी बोलूँ
सभी को सुनते रहने के लिए अभिशप्त हूँ
अस्तित्व की आवृत्ति एवं बारम्बारता वाली दुनिया में
जबकि संगठित होकर अपराध करने वाले गलत्कारियों की संख्या बढ़ गयी है
हमें इस दुनिया को शेयर करते हुए ही जीना चाहिए
छोड़ कर बार-बार हटने की इच्छाओं के बावजूद
मैं अभी फेसबुक पर बना रहना चाहूँगा
शेयर करते हुए
जो जहाँ और जितना है
वहां और उतना उसके लिए उसके हिस्से की दुनिया छोड़कर ....
( श्रद्धेय गुरुवर स्वर्गीय विजय शंकर मल्ल जी की पावन स्मृति को समर्पित )

रामप्रकाश कुशवाहा
३१.०५.२०१६

सोमवार, 23 मई 2016

बिकना

लोग अपनी  आत्मा बेचकर अहंकार खरीदते हैं
मैं नहीं बिका तो क्या आसमान टूट पड़ेगा
सिर्फ यही न कि मैं धरती में धंस जाऊँगा
या बहुत हुआ तो पाताल तक

न बिकना भी तो सुरक्षित होना है
बाजार को नापसंद करते हुए
घर बसाना भी कोई बुरा सौदा नहीं

लोग घर बेचकर बाजार खरीदते हैं
मुझे  नहीं बेचना  अपना घर ....

गुरुवार, 19 मई 2016

कांग्रेस की प्रासंगिकता

कांग्रेस अब भी एक सुरक्षित विकल्प है देश का लेकिन देश बचानाऔर पार्टी बचाना -भिन्न मुद्दे हैं.कांग्रेस को नेहरू परिवार से बाहर जब तक पुरे देश वासियों के लिए खोला नहीं जाएगा तब तक यह भारतीय जनता के लिए अप्रासंगिक बनी रहेगी . कोई कांग्रेसी क्यों बने जब उसका राजनीतिक कैरियर सिर्फ सांसदी और विधायकी तक ही सिमट कर रह जाएगा .कांग्रेस के पतन नें ही जनता को भाजपा की ओर जाने के लिए मजबूर किया है.एक ऐतिहासिक संस्था का  नेतृत्व के स्तर पर सिर्फ परिवारवाद तक ऐसा सिमटना   देश के लिए भी दुर्भाग्य पूर्ण है

राणाप्रताप का नायकत्व

इतिहास में बहुत सी घटनाएँ ऐसी घटी हैं जैसी नहीं घटनी चाहिए थीं.युद्ध और हत्याएं तो आज भी नहीं होनी चाहिए. मानव जाति की एक विशेषता है कि वह जीवित लोगों के पक्ष में मृत लोगों को विस्मृत कर देती है. कुछ ऐसे कि जैसे जीवित रहना अपने आप में सही होने का एक पक्ष हो.हारे हुआ के वंशज भी पराजय बोध की हीनता से बचने के लिए चुप होने लगते हैं. कभी-कभी तो हराने वालों के वंशज भी हराने वालों की ओर से हराने का जश्न मनाने लगते हैं. ऐसे में यह जरुरी हो जाता है कि ऐसी घटनाओं को दो इंसानों या मानव-समूहों के बीच युद्ध केरूप में देखें .कुछ लोग कुछ इस तरह रागात्मक जुडाव अनुभव करने लगते हैं कि लगता है कि लड़ने,हारने और जीतने वाले कोई और नहीं स्वयम वे ही हैं.हम जबतक अतीत की घटनाओं को उचित दूरी से नहीं देखेगे स्वयं ही एक पक्ष बन जाया करेंगे. इतिहास की पुरानी गलतियाँ दुहरायी जाति रहेंगी.इसलिए सब से अधिक जरुरी है इन्सान को इन्सान के रूप में देखना.ताकि हम स्वस्थ मानवीय संबंधों वाला नया इतिहास बना सकें.इतिहास में बहुत सी घटनाएँ ऐसी घटी हैं जैसी नहीं घटनी चाहिए थीं.युद्ध और हत्याएं तो आज भी नहीं होनी चाहिए. मानव जाति की एक विशेषता है कि वह जीवित लोगों के पक्ष में मृत लोगों को विस्मृत कर देती है. कुछ ऐसे कि जैसे जीवित रहना अपने आप में सही होने का एक पक्ष हो.हारे हुआ के वंशज भी पराजय बोध की हीनता से बचने के लिए चुप होने लगते हैं. कभी-कभी तो हराने वालों के वंशज भी हराने वालों की ओर से हराने का जश्न मनाने लगते हैं. ऐसे में यह जरुरी हो जाता है कि ऐसी घटनाओं को दो इंसानों या मानव-समूहों के बीच युद्ध केरूप में देखें .कुछ लोग कुछ इस तरह रागात्मक जुडाव अनुभव करने लगते हैं कि लगता है कि लड़ने,हारने और जीतने वाले कोई और नहीं स्वयम वे ही हैं.हम जबतक अतीत की घटनाओं को उचित दूरी से नहीं देखेगे स्वयं ही एक पक्ष बन जाया करेंगे. इतिहास की पुरानी गलतियाँ दुहरायी जाति रहेंगी.इसलिए सब से अधिक जरुरी है इन्सान को इन्सान के रूप में देखना.ताकि हम स्वस्थ मानवीय संबंधों वाला नया इतिहास बना सकें.
                 एक और बात यह है कि मध्यकालीन राज्य-व्यवस्था वंशानुगत होते हुए भी उनके पीछे कोई न कोई समूह रहता था.कहीं न कहीं वे समूह और उनके वंशज आज भी हैं .इसीलिए चीजें संवेदनशील हो जाती हैं. राणाप्रताप और अकबर का युद्ध भी ऐसी घटनाओं में से एक है.कभी-कभी लगता हैकि राणाप्रताप अगर नहीं लड़ते तो मानसिंह वाला रिश्ता हिन्दू-मुसलमानों को और समीप लाता.लेकिन ध्यान से देखने पर पता चलता है कि ऐसा करना अकबर और मानसिंह के हाथ में भी नहीं था.सबसे पहले तो मृत्यु-संस्कार की बिलकुल भिन्न रूढ़ियाँ हिन्दू और मुसलामानों को दो अलग समुदायों में बांटती हैं.फिर हिन्दू धर्म जातीय होने से जब तक ब्राह्मण जाति अकबर को क्षत्रिय मानकर उससे अपने ढंग का पूजा करवा कर भरपूर दान-दक्षिणा नहीं लेती तब तक अकबर को क्षत्रिय राजा नहीं मान सकती थी,इस जाति के पास असहमत लोगों को सिर्फ शूद्र मान लेने का ही जातीय बोध है.यदि उनका बस चलता तो अकबर को भी शूद्र राजा मानकर हिन्दू धर्म में शामिल कर लेते.या फिर आग-पानी पत्थर आदि किसी के भी कुल का घोषित कर देते..राणाप्रताप नें भी अकबर को संभवतःसांस्कृतिक रूप से स्वीकार नहीं किया था.इस दृष्टि से वे पूर्वज (मध्यकालीन)भाजपाई कहे जा सकते हैं.इसके बावजूद उन्हें अपनी प्रजा के शासक के रूप में स्वतन्त्र रहने का अधिकार था.वे दूसरे व्यक्ति और समूह की अधीनता क्यों स्वीकार करते. वे अपनी स्वतंत्रता की भावना के लिए सम्माननीय हैं .इतिहास का अनुभव हमें बताता हैकि कभी-कभी सारी दुनिया गलत हो सकती है और सिर्फ एक व्यक्ति सही.मैं किसी के पक्ष के सही-गलत का निर्णय बहुमत के आधार पर नहीं करना चाहता.
            यह ठीक है कि राणा प्रताप आज के राष्ट्रवाद के लिए आदर्श नायक न रह कर सिर्फ जातीय नायक होने तक सिमट कर रह गए हैं.लेकिन आप जैसे विद्वान् को इतिहास के साथ छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए..उन्होंने अकबर के विस्तारवादी आक्रमण का विरोध किया था.अकबर पर आक्रमण तो नहीं किया था.अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए संघर्ष किया था.जब लडे थे तब मुसलमान सत्ता भारत के लिए विदेशी ही थी.इस बात को मुसलमान भी अस्वीकार नहीं करेंगे.यद्यपि आज की सांप्रदायिक एकता की दृष्टि से वे एक प्रासंगिक और उपयोगी नायक नहीं रह गए हैं . फिर भी एक शानदार व्यक्ति के रूप में उनका सम्मान तो अकबर भी करता रहा होगा . आप क्यों नहीं करना चाहते ! मार्क्सवादी दृष्टिकोण से भी मूल्यों का विकास सामन्त-युग में ही हुआ. कुछ नहीं तो जिन्दा रहने के लिए घास की रोटी खाने के वैकल्पिक अविष्कार का श्रेय तो राणाप्रताप को दे ही सकते हैं.इतनी घास और पेड़ों के होते हुए भुखमरी से जो मौते होती हैं वह तो नहीं होती.आखिर बन्दर तो जी ही लेते हैं.इसे हीआज के राजनीतिज्ञों के लिए उनका अवदान समझिए . 
अकबर को राणाप्रताप से विस्थापित किया ही नहीं जा सकता ऐसा करना ठीक नहीं है. अकबर नें भी  राणाप्रताप के सह-अस्तित्व को स्वीकार कर लिया था और उनका पुत्र भी राजा बना था. 

         राणाप्रताप पर सोचते हुए जब मैं अकबर की पत्नी जोधाबाई के भाई,आमेर  के  राजा मान सिंह के बारे में सोचता हूँ जिसके साथ भोजन करने से इनकार कर राणाप्रताप नें हल्दीघाटी का युद्ध मोल ले लिया था -इस दृष्टि से हल्दीघाटी का युद्ध वस्तुतः दो राजपूत घरानों के बीच विचारधारा आधारित युद्ध था.राणाप्रताप का पक्ष आम रूढ़िवादी हिन्दू जनता का पक्ष था तो मानसिंह का पक्ष प्रगतिशील हिन्दू जनता का.राजा मानसिंह को एक विचारक के रूप में देखने पर उसका व्यक्तित्व मुझे अबोध एवं मानवतावादी विचारधारा तथा वसुधैव कुटुम्बकम में विशवास रखने वाला भारतीय मन लगता है. सबसे महत्वपूर्ण यह है कि उस परिवार ने अकबर को संप्रदाय निरपेक्ष एक मनुष्य के रूप में देखा. उसे एक राजा मानकर जोधाबाई को ब्याहा . अकबर महान की छवि रचाने में सहयोगी वही प्रगतिशील भारतीय परिवार था ..इससे हिन्दू-मुस्लिम एकता के एक नए युग का सूत्रपात हुआ. बाद के  औरंगजेब और अंग्रेजों की विभेदकारी भूमिका को छोड़ दिया जाय तो आज भी उस परिवार का ही गुप-चुप निवेश ध्यान आकर्षित करता है.. लेकिन मुझे लगता है कि मध्यकाल की उस हिन्दू पहल और प्रयास के बावजूद मुस्लिम समाज की अंतर्मुखी किस्म की कबीलाई मूल की  सामुदायिकता इस धर्मं के अनुयाय्यियों को सम्पूर्ण मानव-जाति का हिस्सा नहीं बनने देतीं .इस्लाम की रूढ़िवादी जड़ता औरअसम्वादी प्रकृति को देखते हुए दुनिया को इस्लाम के साथ उसी तरह जीना सीखना होगा,जैसे लोग किसी बड़ी चट्टान या पहाड़ के साथ बिना किसी अपेक्षा और शिकायत के जीते रहते हैं

मंगलवार, 17 मई 2016

परशुराम

सामान्यतः परशुराम को सामंती अभिजन के विरुद्ध सामान्य आदमी के प्रतिरोध के रूप में देखा जाता है .कथा के अनुसार सहस्रार्जुन नामक राजा जमदग्नि ऋषि के आश्रम में भव्य आतिथ्य पाने के बाद उनकी गाय कामधेनु पर रीझ जाता है और उसे ऋषि से अपने लिए मांगता है .ऋषि द्वारा मना करने पर उनकी गाय को बलपूर्वक ले कर चल देता है .ऐसे ही प्रतिरोध के क्षण में परशुराम के आदर्श नायक रूप का उदय होता है .वे पीछे से जाते हैं और प्रत्याक्रमण कर राजा सहस्रार्जुन का उसके सैनिकों संग संहार करते हैं और अपनी गाय कामधेनु को वापस लाते हैं . वे जनसामान्य के विरुद्ध सामंती निरंकुशता के प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में ही पुरानों में विष्णु के आवेशावतार के रूप में समादृत हैं .विष्णु का चरित्र भारतीय संस्कृति में लोक-कल्याण के प्रति समर्पित जीवन और कार्यों का प्रतीक रहा है .कथा में वे दमित-शोषित वर्ग के सात्विक क्रोध के प्रतीक हैं .उनके क्रोध में एक स्पष्ट सन्देश निहित है . लेकिन तब आप क्या करेंगे जब वही परशुराम आपको एक नए अत्याचारी और हिंसक अभिजन का नया पाठ रचते दिखें .
            पौराणिक नायक होने से परशुराम जी को सांस्कृतिक नायक होने का गौरव प्राप्त है..रामकथा में राम से नहीं उलझकर और चुपचाप यानि क्रोध से चीखने-चिल्लाने के बाद उनका चले जाना राम को आशर्वाद देने वाला और उनकी महिमा बढ़ाने वाला ही माना जाता है,
जब मैं यह जानने का प्रयास करता हूँ कि वास्तव में वहां क्या हुआ होगा तो सबसे पहले यही लगता कि ऐसी कोई घटना घटी भी होगी तब आर्य कबीलों नें ऐसे स्थान पर प्रवास किया होगा जहाँ के राजा ब्राह्मणों को भी अबध्य नहीं मानते होंगे-यदि मानते भी होंगे तो सहस्रार्जुन द्वारा गाय छीनने के बाद परशुराम द्वारा राजा की हत्या कर देने पर उसके पुत्रों नें प्रतिशोध वश उनके पिता जमदग्नि की हत्या कर दी होगी.इस द्वंद्व में सांस्कृतिक संयम यावर्जनाएं टूट गयी होागी. दूसरा उनके आपराधिक स्तर के क्रोधी होने की बात भीसामने आती है. यह भी कि परशुराम वास्तव में अंधविश्वास युग के नायक हैं.उन दिनों ब्राह्मण अबध्य माना जाता था. स्पष्ट है कि वे सभी क्षत्रिय जो उनके हाथों मारे गए उनके परिजनों में से अधिकांश नें ब्रह्म-हत्या के डर से किसी नें भी बाण आदि से उन पर हमला नहीं किया.किसी का पुत्र यदि बदला भी लेता तो उस परिवार को ब्रह्म-हत्या का दोषी मान लिया जाता.. इस आधार पर मुझे उनकी वीरता संदिग्ध लगती है. मेरे पिताजी कहा करते थे कि मुझे कोई नहीं मारे तो मैं सारी दुनिया को मार सकता हूँ.. परशुराम नें कोई पुस्तक नहीं लिखी है शायद-लिखी हो तो मुझे इसकी जानकारी नहीं. हाँ वे प्रतिष्ठित ऋषि जमदग्नि के पुत्र थे. पिता नें मा के चरित्र पर संदेह कर परशराम से उनकी हत्या करवा दी थी. क्योंकि हत्या नाबालिग अवस्था में की थी -इसलिए आज के क़ानून के अनुसार भी उन्हें फांसी की सजा नहीं हो पाती. फरसा एक ऐसा हथियार है जिससे हत्या बहुत ही समीप जाकर ही की जा सकती है . यह भी संभव है कि परशुराम जी नें अधिकांश क्षत्रिय राजाओं की हत्या पैर छूकर प्रणाम करते समय ही धोखे में की हो.आखिर वे ऋषि वेश धारी हत्यारे थे यदि उन्होंने. ऐसा किया होगा तो इसमें वीरता जैसी कोई बात नहीं दिखती
.गीता प्रेस ,गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण के अवतार कथांक ,जनवरी २००७ ,वर्ष ८१ ,संख्या १ के पृष्ठ २२६ पर दिए गए विवरण को पढ़ा तो उनके नर-बलि में लिप्त होने के प्रबल संकेत भी मिले .कुछ अंश की अविकल प्रस्तुति इस प्रकार है – “भगवान् परशुराम नें पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से हीं कर दिया .वे क्षत्रियों को ढूँढ-ढूंढ कर एकत्र करते और कुरुक्षेत्र में ले जाकर उनका बध कर डालते .इस प्रकार परशराम जी नें क्षत्रियों के रक्त से पांच सरोवर भर दिए .वह स्थान ‘समन्तपंचक’ नाम से प्रसिद्ध है “ इस विवरण को जरा ध्यानपूर्वक पढ़ें .परशुराम जी नें यह नरसंहार कोई सेना बनाकर नहीं किया था .यह तो लिखा है कि वे जाति-विशेष के लोगों को एकत्र करते थे .अप्रत्यक्ष सूचना यह भी है कि तीर्थ के लिए ले जाते थे .कोई सामान्य बुद्धि वाला भी यह समझा सकता है कि लोगों को मारने के लिए डरा कर या बलपूर्वक हांक कर मरने के लिए नहीं ले जाया गया था .उन्हें अपना उद्देश्य छिपाकर तीर्थ-यात्रा के बहाने ले जाते थे और फिर उनकी हत्या कर देते थे .उनकी कार्य-शैली ब्रिटिशकालीन ठग-हत्यारों पिंडारियों जैसी ही थी . 
इसके बावजूद परशुराम की मूल पौराणिक कथा का केंद्रीय संवेदनात्मक पक्ष सामंत राजाओं के मनमानेपन का विरोध ही माना जाएगा .इस अर्थ में यह एक सार्थक कथा कही जा सकती है कि समाज नें किसी वर्ग को यदि कुछ विशेषाधिकार सौंपे हैं तो उस विशेषाधिकार का दुरुपयोग करने पर समाज को यह अधिकार है कि वह प्रदत्त विशेषाधिकार वापस ले ले या समाज भी उस वर्ग या समूह से वैसा ही व्यवहार करे जैसा कि वह वर्ग या समूह बाकी समाज के साथ कर रहा है .
परशुराम की कथा में सामंत शासक सहस्रार्जुन जमदग्नि की कामधेनु गाय को बलपूर्वक छीनने का प्रयास करता है.परशुराम अपने जातीय मर्यादाओं और अनुशासन को तोड़ डालते हैं क्यों कि दूसरा वर्ग इसे पहले ही तोड़ चूका है .उससे उसी के स्तर पर निपटा जा सकता है ..इसके बाद की कथा जैसे प्राचीन कालीन दो माफियाओं के खूनी युद्ध में बदल जाती है.ऐसा लगता है कि प्रतिशोध की आग में जल रहे परशुराम ने अपना शेष जीवन असामान्य मनोविज्ञान के एक केस की तरह क्रूर मनो-विक्षिप्त हत्यारे के रूप में बिताया था .वे शासक जाति के लोगों को तीर्थयात्रा के नाम पर ले जाते रहे और बीच में लोगों की हत्या कर देते रहे .पहले ज़माने के लोग क्योकि हर चरित्र ईश्वर की इच्छा से प्रेरित मानते थे इसलिए उनके हत्यारे रूप को भी ईश्वर की लीला के रूप में स्वीकार कर लिया गया . 
यद्यपि मूल चरित्र और वास्तविक घटना पर काफी लीपापोती की गयी है .ऐसे स्थलों को थोडा सा ही विचार कर पहचाना जा सकता है .बहुत पहले बचपन में पढ़ने के कारण स्मृति के आधार पर मैंने फेसबुक पर की गयी अपनी पोस्ट में उन्हें मात्र माँ का ही हत्यारा समझा था लेकिन गीता प्रेस ,गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण के अवतार कथांक ,जनवरी २००७ ,वर्ष ८१ ,संख्या १ के पृष्ठ २२६ पृष्ठ २२४ पर दिए गए विवरण के अनुसार उन्होंने माता सहित चार सगे भाईयों की भी हत्या कर दी थी .सामान्यतः इसे पितृ-–भक्ति का उदहारण माना जाता है. कथा में यह चमत्कारिक प्रसंग भी डाला गया है कि बाद में प्रसन्न होकर जमदग्नि ऋषि नें अपनी दिव्य शक्ति से परशुराम की माता और उनके मृत चरों भाइयों को पुनर्जीवित कर दिया था .लेकिन बाद के घटनाक्रम में जिस प्रकार भाई सदैव ही अनुपस्थित रहते हैं –उससे यह तथ्य स्वतः प्रमाणित होता है कि परशुराम सदैव के लिए अपने भाइयों को खो चुके थे .क्योंकि सहस्रार्जुन के पुत्रों द्वारा उनके पिता का सिर काटते समय पौराणिक कथाकार के अनुसार उनके भाई भी उनके साथ वन में दूर चले गए थे .
पौराणिक कथाओं में ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि मारे गए क्षत्रिय राजा उनसे लड़ने की इच्छा रखते थे. या उन्हें लूटने आए थे. हमला करने की सोच रहे थे. बस एक ही कारण समझ में आता है कि माता का हत्यारे जानकर उससमय के राजा भी उनका यथोचित सम्मान करने में कतराते होंगे. .अपमानित महसूस कर विद्वेष वश परशुराम नें उनकी हत्याएं कर दी होंगी.वे राम की हत्या क्षत्रिय होने के कारण इसलिए नहीं कर पाए क्योंकि विष्णु का अवतार उन्हें ब्राह्मण जाति जन्म से पहले ही मान चुकी थी. विष्णु के रूप में राम को भी परशुराम की तरह किसी की भी हत्या करने का धार्मिक-सांस्कृतिक लाईसेन्स प्राप्त था. राम परशराम की भी हत्या कर सकते थे-स्वर्ग भेजने के नाम पर.परशराम स्वर्ग जानेसे बचने के लिए चुपचाप वहांसे खिसक लिए.सन्देश यह कि हमारे बहुत से पुरखे गलत भी हो सकते हैं..उन्हें बिना सोचे-समझे अपना गौरव बढ़ाने वाला जातीय नायक घोषित करने से बचें.आज के लोक तांत्रिक समय में ऐसे जातीय नायकों को अपना आदर्श मानना उचित नहीं है. 
यद्यपि मैं आज तक यह नहीं समझ पाता हूँ कि यदि पुराणकार यदि अतिचारी सामंत शासकों के विरुद्ध यदि एक प्रतिरोधी नायक गढ़ना चाहते थे तो उसमें माँ और भाइयों की हत्या करने का प्रसंग क्यों डाला ? यदि इस लिए डाला कि वास्तविक परशुराम नें किशोरावस्था के पूर्व पारिवारिक हत्याएं भी की थीं और पूरणकारों नें ईमानदारी से उसका अविकल वर्णन किया है तो यह पुराणकारों के पक्ष में तो प्रशासनीय ही कहा जाएगा . यहीं आधुनिक समाजशास्त्रीय विश्लेषण में यह स्त्री-स्वतंत्र्त्य विरोधी पुरुष-प्रधान समाज का निर्माता और प्रेरक चरित्र और पाठ लगता है .इस रूप में इसे स्त्रियों के लिए एक चेतावनी के रूप में भी देखा जा सकता है .
इन सबके बावजूद भारत के प्राचीन जातीय सामंतकाल के युग में, प्राचीन काल के उस कानून विहीन समय में एक दृष्टान्त के रूप में परशु राम की कथा नें तत्कालीन शासकों को निरंकुश न होने की चेतावनी दी होगी .यह भी कि सामान्य मनुष्य के अधिकारों का भी सम्मान करना चाहिए . उसके मानवीय रूप को और स्पष्टता के लिए विमर्श के दायरे में लाया जाय. आखिर यह भी तो परशुराम नें ही सिखाया है कि समाज-विरोधी होने पर किसी भी सत्ता और पाठ को ख़ारिज कर देना चाहिए

गुरुवार, 5 मई 2016

उड़ान

मैं उड़ना चाहता था
चाहता था कुछ वैसी हवा लगे
जैसी वर्षों से नहीं चली
चाहता था अभी बरस पड़े पानी झमाझम
नदियाँ मुझसे बात करने मेरे घर तक आ जाएँ
भले ही डूब जाए मेरा घर
वह घर जिसकी सरहदे
काट देती हैं सारी दुनिया से
बाँट देती हैं आकाश.....
मैंने जब सोचा था सड़क चौड़ी हो जाये
मैंने नहीं सोचा था कितना हिस्सा ढह जाएगा मेरा अपना घर
मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि एक सीमा के बाद
दुनिया को जीतने के लिए सारे सपने
एक दिन थके-हारे लौट आते हैंअपने घर
सिर्फ वे ही नहीं लौटते
जोअपने परिवार के संग जाते हैं
और दुनिया के किसी भी छोर पर बसा लेते हैं अपना घर
मैं नींद में था शायद
अपने सपनों को बसाने के लिए
उजाड़ते हुए सारी धरती ....