संस्कृत में रावण रचित शिव-स्त्रोत उपलब्ध है और वीर रस से भरा बड़ा ही रोमांचक है | |परंपरा यह मानती है कि रावण एक अच्छा कवि भी था | उसकी गलती इतनी ही थी कि वह माँ के कुल से अनार्य था और सीता के प्रेम में पड गया था और सही-गलत सब भुला बैठा | राम को रिश्तेदार बना लेने के लिए अपनी बहन सूपर्णखा भेजी तो उसे कुरूप बना कर वापस कर दिया गया | अपने बहन के अपमान का बदला लेने का उसने एक असफल प्रयास किया | यहाँ तक वह ठीक था लेकिन जब उसने राम के स्थान पर राम की निरपराध स्त्री सीता को उसकी सजा देनी चाही तो तत्कालीन समाज नें उसका साथ ही छोड़ दिया | यद्यपि यह एक सच है कि शिव का धनुष तोड़ कर शिव के अनुयायी समुदाय को आर्यों नें अपमानित किया था और वह भी रावण को विवाह में आमंत्रित कर उसके सामने धनुष तोड़वा कर |इस तरह आज के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण में रावण का भी एक न्यायिक पक्ष बनता है |
जीवन का रास्ता चिन्तन का है । चिन्तन जीवन की आग है तो विचार उसका प्रकाश । चिन्तन का प्रमुख सूत्र ही यह है कि या तो सभी मूर्ख हैं या धूर्त या फिर गलत । नवीन के सृजन और ज्ञान के पुन:परीक्षण के लिए यही दृष्टि आवश्यक है और जीवन का गोपनीय रहस्य । The Way of life is the way of thinking.Thinking is the fire of life And thought is the light of the life. All are fool or cheater or all are wrong.To create new and For rechecking of knowledge...It is the view of thinking and secret of life.
गुरुवार, 8 जून 2017
मार्क्सवाद का राजनीतिक और सांस्कृतिक पाठ : ब्राह्मणवाद के सन्दर्भ में
मुझे लगता है कि कुछ समयं तक मार्क्सवाद को सिर्फ व्यवस्था और राजनीति तक ही सीमित रखना था | उसकी सांस्कृतिक असहिष्णुता जो कुछ-कुछ मूसा के यहूदी धर्म और इस्लाम जैसी रही -उसे ले डूबी | अरे भाई तुम शोषण-मुक्त व्यवस्था बनाते -सिर्फ रोजीरोटी और बराबरी देने के नाम पर सोवियत रूस से लेकर भारत तक हर जगह सभी के सांस्कृतिक स्मृति के विलोपन की बात करने लगे | अब सभी सभ्यताओं का अतीत धार्मिक है | धर्म के वैचारिक उच्छेद के कारण अतीत की सारी स्मृतियाँ ही बिना सामानांतर वैकल्पिक विकास के ही उच्छेद योग्य घोषित कर दीी गयीं | कई ऐसे धार्मिक मेले हैं जिनकी इलाके में जन-मन की नीरसता को दूर करने में समाज-मनोवैज्ञानिक भूमिका भी है | होली जैसा विशुद्ध मौज-मस्ती का पागलपन के दौरे जैसा अद्भुत अतार्किक पर्व है | स्वयं को ,मार्क्सवादी घोषित कीजिए और मनहूस की तरह जाकर घर में बैठ जाइए | इसीलिए मैं हमेशा ही मार्क्सवादी दृष्टि और बोध को स्वीकार करते हुए भी उसकी संगठनात्मक असहिष्णु ,हिंसक किस्म का शुद्धतावाद और उसको बिना किसी प्रश्न किए तुरंत सही मान लेने के शत-प्रतिशत समर्पण की माँग से असहमत होने के कारण विवेक की नैतिक स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए स्वयं को सामुदायिक मार्क्सवादी घोषित करने से बचता रहा | यह कोई भी देख सकता है कि मेरे विश्लेषण और स्थापनाओं की पृष्ठभूमि में मार्क्सवाद की समझ भी अनिवार्य रूप से रहती है | फिर भी विचारधारात्मक रुढ़िवाद का मैं विरोधी हूँ और मुझे लगता है कि मानवता के विवेकपूर्ण भविष्य के लिए तथा ईमानदार विचारक होने की स्वतंत्रता के लिए दक्षिण-पंथ और वामपंथ दोनों ही अँध-भक्त समूहों से ही उचित दूरी बनाए रखनी होगी |
दरअसल राजनीतिक कारणों से ही( जिसमें साम्यवादी कांग्रेसी सेक्युलरवादी ,दलित और पिछड़ी की राजनीति करने वाली सभी दलों की विचारधारा सम्मिलित है ) ब्राह्मण वाद और हिन्दू धर्म पर भी कभी ठीक से मार्क्सवादी आधारों पर वैचारिक बहस नहीं हुई है | संस्कृत भाषा और भाषा-विज्ञान के उन्नत विकास के कारण ब्राह्मणवादी कर्मकांड का एक बड़ा हिस्सा प्रतीकात्मक एवं काव्यात्मक भी है |इन कर्मकांडों का एक बड़ा हिस्सा प्रतीकात्मक और काव्यात्मक होने के कारण साहित्यिक महत्त्व का भी है | पूजा-पद्धति में उदात्त भाव-समर्पण और भांति-भांति की सामग्री के माध्यम से प्रकृति से जुड़ने या उसकी और लौटने का भाव भी आकर्षित करता है | समाजशास्त्रीय दृष्टि से उसमें आदिम मनुष्य की कविता और उदात्त समर्पण की भावना भी छिपी हुई है | यह उसका साहित्यिक गुणवत्ता वाला पक्ष है और मुझे नहीं लगता कि उसका अनावश्यक विरोध किया जाना चाहिए | यह पक्ष मुझे मार्क्सवाद का विरोधी नहीं लगता | उसका परंपरागत स्वरूप सामन्ती पूंजीवादी युग से पूर्व का भी है और प्रागैतिहासिक आदिम मनुष्य तक भी पहुंचता है | दान को महिमामंडित करने के कारण पूँजी-संग्रह का विरोध और वितरण को प्रोत्साहित करने के कारण भारतीय धार्मिकता में भी एक भिन्न किस्म का आदर्शवाद रहा है | लेकिन इसी ब्राह्मणवाद और पुरोहितवाद का एक गर्हित और निकृष्ट पक्ष भी सामने आता है जो इसका सामंतकालीन कुलीनाताचादी चेहरा है | इसमें आम जीवन के महत्त्व और दिव्यता का व्यापक निषेध मिलता है | ईश्वरता को कुछ कुलीन राजघरानों में ही सीमित कर दिया गया है | निर्धनता और हीनता को पूर्व जन्म के पाप से जोड़ दिया गया है | पूंजीपतियों एवं आभिजात्य वर्ग की शोषक श्रेष्ठता को भी आध्यात्मिक स्वीकृति प्रदान कर दी गयी है | वर्ण व्यवस्था के साथ दुर्भाग्य को नियति और प्रारब्ध से जोड़ दिया गया है |यहीं से ब्राह्मणवाद गर्हित हो जाता है और निंदनीय भी है क्यों कि वह मध्ययुग में आकर यथास्थितिवादी ,अप्रतिरोधी एवं भेदभाव आदि को बढ़ावा देते हुए मानवताविरोधी हो जाता है | इन दोनों चेहरों को देखते हुए ही हमें अपनी सम्यक धारणा बनानी चाहिए || वैसे भी सांस्कृतिक कार्यक्रम फुरसत की आस्वाद धर्मिता का हिस्सा हुआ करते हैं | भोजन से लेकर भजन तक वे भी मानवीय सृजनशीलता का एक पाठ प्रस्तुत करते हैं | चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी संप्रदाय और सूफी संगीत में दिल को छू लेने वाली ऐसी ही मौलिक सृजनशीलता मिलाती है | इसीलिए ऐसे विरोध को मैं गैर-जरुरी घृणा का विस्तार मानता हूँ | जब आप एक बार किसी से घृणा करने लगते हैं तो उसकी अच्छी बातें भी आपको बुरी लगने लगती हैं| मनुस्मृति की बहुत सी बातें भारत के बौद्धों के उच्छेद काल से जुडी और उसका राजनीतिक साजिशी पाठ प्रस्तुत करती हैं | पहले के लोगों द्वारा ऐसे षडयंत्र को समझ पाना संभव नहीं था | आज तो कोई भी ब्राह्मण घराने में जन्मा युवक उन साजिशों को समझ सकता है | यदि ऐसा होता तो अवर्ण-सवर्ण का भेदभाव अप्रासंगिक होता लेकिन ...|?
यह एक सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक सच्चाई है कि यदि कोई प्राचीन शैली की पूजा करता है और ब्राह्मण बिरादरी से है तो पुरखों की परंपरा और लिखित स्मृतियों का उत्तराधिकारी दबाव ज्यादा होने के कारण उसका संरक्षणवादीो और समर्पणवादी होना आश्चर्य का विषय नहीं है | ब्राह्मणवाद (पुरोहितवाद) की निंदा का आधार उसका असमानतावादी जातीय पूर्व्बग्रह होना चाहिए न कि उसका साझा सांस्कृतिक पाठ जिसमें लम्बे भारतीय जीवन के अनुभव समाए हुए हैं | यह एक मार्क्सवाद सम्मत तथ्य है कि सामंती पूंजीवाद ने ही उन सभी अवधारणाओं और नैतिक मूल्यों का विकास किया है जो आज भी हमारे सभी समाज की संरचना और व्यवस्था के आधार है | अब राम की भक्ति को ही ले लीजिए -यह कथा एक पत्नी विवाह और पारिवारिक एकता को प्रोत्साहित करती है | यह सच है कि मध्य काल में इसके प्रचार-प्रसार का ठेका ब्राह्मण जातीय बुद्धिजीवियों के पास रहा है | इसी तरह शिव शूद्र पौराणिक नायक है | ईमानदारी से सवर्ण इसे स्वीकार कर लें और उसका प्रचार करें तो शूद्रों को सिर्फ रविदास और अम्बेडकर से ही काम चलाना नहीं पड़ेगा | ब्राह्मणवाद से मोक्ष के लिए भी उसको ठीक-ठीक समझना होगा | जातीय विद्वेष के आधार और सांस्कृतिक दाय दोनों को ही अलग-अलग और सही-सही समझने-समझाने की जरुरत है |
सिर्फ पीपल का ही उदहारण ले लें तो नास्तिक भाव से भी चिड़ियों की बीट से उगे इस पौधे को उखाड़ कर उसे बड़ा होने तक सिचित करने की जरुरत है | धार्मिक बड़े पेंड़ को बिना मतलब सींचता है तो नास्तिक विवेक से छोटे पोधे को सींचे -लेकिन सींचे तो | जीवन का सूना क्षितिज भरने और बहुरंगी बनाने में प्राचीन मनुष्य की सृजनशीलता का अपना महत्त्व है \आत्मस्थ निष्क्रिय चिंतकों की कोई सांस्कृतिक भूमिका नहीं बनती |प्राचीन काल के भी गुफा गेही ऋषियों (पुरखे बुद्धिजीवियों ) को भुला दिया गया | सांस्कृतिक नायक वाही बने जिन्होंने लोक के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर साझा जीवन जिया | इसलिए कट्टर बुद्धिवादी भी अपनी सीमा को समझें और हो सके तो नए पर्व और उत्सव पैदा करें |बिना विकल्प दिए जीवन को नीरस बनाना समझदारी नहीं है |
दरअसल राजनीतिक कारणों से ही( जिसमें साम्यवादी कांग्रेसी सेक्युलरवादी ,दलित और पिछड़ी की राजनीति करने वाली सभी दलों की विचारधारा सम्मिलित है ) ब्राह्मण वाद और हिन्दू धर्म पर भी कभी ठीक से मार्क्सवादी आधारों पर वैचारिक बहस नहीं हुई है | संस्कृत भाषा और भाषा-विज्ञान के उन्नत विकास के कारण ब्राह्मणवादी कर्मकांड का एक बड़ा हिस्सा प्रतीकात्मक एवं काव्यात्मक भी है |इन कर्मकांडों का एक बड़ा हिस्सा प्रतीकात्मक और काव्यात्मक होने के कारण साहित्यिक महत्त्व का भी है | पूजा-पद्धति में उदात्त भाव-समर्पण और भांति-भांति की सामग्री के माध्यम से प्रकृति से जुड़ने या उसकी और लौटने का भाव भी आकर्षित करता है | समाजशास्त्रीय दृष्टि से उसमें आदिम मनुष्य की कविता और उदात्त समर्पण की भावना भी छिपी हुई है | यह उसका साहित्यिक गुणवत्ता वाला पक्ष है और मुझे नहीं लगता कि उसका अनावश्यक विरोध किया जाना चाहिए | यह पक्ष मुझे मार्क्सवाद का विरोधी नहीं लगता | उसका परंपरागत स्वरूप सामन्ती पूंजीवादी युग से पूर्व का भी है और प्रागैतिहासिक आदिम मनुष्य तक भी पहुंचता है | दान को महिमामंडित करने के कारण पूँजी-संग्रह का विरोध और वितरण को प्रोत्साहित करने के कारण भारतीय धार्मिकता में भी एक भिन्न किस्म का आदर्शवाद रहा है | लेकिन इसी ब्राह्मणवाद और पुरोहितवाद का एक गर्हित और निकृष्ट पक्ष भी सामने आता है जो इसका सामंतकालीन कुलीनाताचादी चेहरा है | इसमें आम जीवन के महत्त्व और दिव्यता का व्यापक निषेध मिलता है | ईश्वरता को कुछ कुलीन राजघरानों में ही सीमित कर दिया गया है | निर्धनता और हीनता को पूर्व जन्म के पाप से जोड़ दिया गया है | पूंजीपतियों एवं आभिजात्य वर्ग की शोषक श्रेष्ठता को भी आध्यात्मिक स्वीकृति प्रदान कर दी गयी है | वर्ण व्यवस्था के साथ दुर्भाग्य को नियति और प्रारब्ध से जोड़ दिया गया है |यहीं से ब्राह्मणवाद गर्हित हो जाता है और निंदनीय भी है क्यों कि वह मध्ययुग में आकर यथास्थितिवादी ,अप्रतिरोधी एवं भेदभाव आदि को बढ़ावा देते हुए मानवताविरोधी हो जाता है | इन दोनों चेहरों को देखते हुए ही हमें अपनी सम्यक धारणा बनानी चाहिए || वैसे भी सांस्कृतिक कार्यक्रम फुरसत की आस्वाद धर्मिता का हिस्सा हुआ करते हैं | भोजन से लेकर भजन तक वे भी मानवीय सृजनशीलता का एक पाठ प्रस्तुत करते हैं | चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी संप्रदाय और सूफी संगीत में दिल को छू लेने वाली ऐसी ही मौलिक सृजनशीलता मिलाती है | इसीलिए ऐसे विरोध को मैं गैर-जरुरी घृणा का विस्तार मानता हूँ | जब आप एक बार किसी से घृणा करने लगते हैं तो उसकी अच्छी बातें भी आपको बुरी लगने लगती हैं| मनुस्मृति की बहुत सी बातें भारत के बौद्धों के उच्छेद काल से जुडी और उसका राजनीतिक साजिशी पाठ प्रस्तुत करती हैं | पहले के लोगों द्वारा ऐसे षडयंत्र को समझ पाना संभव नहीं था | आज तो कोई भी ब्राह्मण घराने में जन्मा युवक उन साजिशों को समझ सकता है | यदि ऐसा होता तो अवर्ण-सवर्ण का भेदभाव अप्रासंगिक होता लेकिन ...|?
यह एक सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक सच्चाई है कि यदि कोई प्राचीन शैली की पूजा करता है और ब्राह्मण बिरादरी से है तो पुरखों की परंपरा और लिखित स्मृतियों का उत्तराधिकारी दबाव ज्यादा होने के कारण उसका संरक्षणवादीो और समर्पणवादी होना आश्चर्य का विषय नहीं है | ब्राह्मणवाद (पुरोहितवाद) की निंदा का आधार उसका असमानतावादी जातीय पूर्व्बग्रह होना चाहिए न कि उसका साझा सांस्कृतिक पाठ जिसमें लम्बे भारतीय जीवन के अनुभव समाए हुए हैं | यह एक मार्क्सवाद सम्मत तथ्य है कि सामंती पूंजीवाद ने ही उन सभी अवधारणाओं और नैतिक मूल्यों का विकास किया है जो आज भी हमारे सभी समाज की संरचना और व्यवस्था के आधार है | अब राम की भक्ति को ही ले लीजिए -यह कथा एक पत्नी विवाह और पारिवारिक एकता को प्रोत्साहित करती है | यह सच है कि मध्य काल में इसके प्रचार-प्रसार का ठेका ब्राह्मण जातीय बुद्धिजीवियों के पास रहा है | इसी तरह शिव शूद्र पौराणिक नायक है | ईमानदारी से सवर्ण इसे स्वीकार कर लें और उसका प्रचार करें तो शूद्रों को सिर्फ रविदास और अम्बेडकर से ही काम चलाना नहीं पड़ेगा | ब्राह्मणवाद से मोक्ष के लिए भी उसको ठीक-ठीक समझना होगा | जातीय विद्वेष के आधार और सांस्कृतिक दाय दोनों को ही अलग-अलग और सही-सही समझने-समझाने की जरुरत है |
सिर्फ पीपल का ही उदहारण ले लें तो नास्तिक भाव से भी चिड़ियों की बीट से उगे इस पौधे को उखाड़ कर उसे बड़ा होने तक सिचित करने की जरुरत है | धार्मिक बड़े पेंड़ को बिना मतलब सींचता है तो नास्तिक विवेक से छोटे पोधे को सींचे -लेकिन सींचे तो | जीवन का सूना क्षितिज भरने और बहुरंगी बनाने में प्राचीन मनुष्य की सृजनशीलता का अपना महत्त्व है \आत्मस्थ निष्क्रिय चिंतकों की कोई सांस्कृतिक भूमिका नहीं बनती |प्राचीन काल के भी गुफा गेही ऋषियों (पुरखे बुद्धिजीवियों ) को भुला दिया गया | सांस्कृतिक नायक वाही बने जिन्होंने लोक के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर साझा जीवन जिया | इसलिए कट्टर बुद्धिवादी भी अपनी सीमा को समझें और हो सके तो नए पर्व और उत्सव पैदा करें |बिना विकल्प दिए जीवन को नीरस बनाना समझदारी नहीं है |
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