शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

जातिदंश का इलाज

कल जातीय अभिमान की शिकार एक अपमानित छात्रा अपने अनुभव सुनाते समय भावुक होकर रो पड़ी | मैं उसकी अधिक वैचारिक सहायता नहीं कर सका | सांत्वना में जो थोडा-बहुत बोल सका वह कुछ इसप्रकार था कि भारत में जन्म लेने के कारण हम सभी जाति-प्रथा का सामना करने के लिए अभिशप्त हैं | यद्यपि जातिप्रथा की उत्पत्ति के भी ठोस ऐतिहासिक कारण थे |साइबेरिया के हिम-क्षेत्र से लेकर सहारा के रेगिस्तान तक के समुदायों का भारत में अलग-अलग समय में स्थानान्तरण और प्रवास हुआ है | इसलिए ये सभी मिलकर एक जाति में नहीं बदल पाए और अलग-अलग जाति के रूप में बचे रह गए |लेकिन ये मानव जाति के बचपन से जुडी मान्यताएं हैं |इसे लेकर हमें बिलकुल लज्जित नहीं होना चाहिए | इस सम्बन्ध में मैंने उन्हें अपना गोपनीय नुस्खा उन्हें बताया | जिसे सुनकर छात्राएं बहुत प्रसन्न हुईं | दरअसल जब मुझसे कोई जातिवादी पूर्वाग्रही मिलता है तो मैं उसे पिछले ज़माने का जोकर और मूर्ख मानकर उससे अपनी सापेक्ष श्रेष्ठता के लिए प्रसन्न होने लगता हूँ | उसे बेचारा और बौद्धिक दिवालिएपन का शिकार होने के कारण दयनीय भी मानता हूँ कि उस बेचारे के पास बड़प्पन का कोई निजी आधार नहीं होगा | जिसके कारण वह अतीत के काल्पनिक यूटोपिया में छिपा और घुसा हुआ एक मिथ्या श्रेष्ठता -जीवी व्यक्ति बनकर रह गया है | अपनी वर्त्तमान सच्चाइयों के विरुद्ध उसे मैं एक कुंठित व्यक्ति समझता हूँ | मैंने छात्राओं से कहा कि वे भी यदि उचित समझें तो ऐसे व्यक्तियों को, समय के विरुद्ध एक अश्लील झूठी मूर्ख और घटिया उपस्थिति के रूप में देखकर उससे अपनी तुलनात्मक श्रेष्ठता के लिए प्रसन्न हो सकती हैं -उसके समानांतर जब वह उन्हें अपने से छोटा समझकर खुश हो रहा हो उनके पास भी ऐसे व्यक्तियों को छोटा समझने और खुश होने के पर्याप्त वैज्ञानिक आधार हैं |