सोमवार, 12 जून 2017

राज्य की अवधारणा और लोकतंत्र

व्यवस्था का आदिम कबीलाई ढांचा और उसका अचेतन साथ-साथ जीने के स्थान पर हिंसक ढंग से अपने साथियों(नागरिकों) को जीतने का विधिसम्मत आमंत्रण देता है और फिर शुरू हो जाता है गुलामी और स्वामित्व का मान्यता-प्राप्त आदिम खेल- जिसमें मानवीय समाज और जनसँख्या दबे और दबाने वालों में बाँट दी जाती है | अपेक्षा यह की जाती है कि दबने वाले दबाने वालों का सम्मान एवं अभिवादन करें क्योंकि वे संवैधानिक रूप से दबाने के लिए ही चयनित है | मेरी चिंता और मेरा प्रश्न यह कि जीतने की होड़ को साथ-साथ जीने की होड़ से विस्थापित किया जा सकता है ? हम अपनी सत्ता और व्यवस्था को मध्य-युगीन ढांचे और आदतों से बाहर क्यों नहीं निकाल पा रहे हैं ? क्या राज्य संस्था का चरित्र ही लोकतंत्र विरोधी है ? तब हमें लोकतंत्र की नहीं बल्कि राज्य की अवधारणा ,संरचना एवं चरित्र कि ही पुनर्परीक्षा करनी चाहिए और निकलना चाहिए एक नयी परिकल्पना की तलाश में ...मुझे लगता है एक दिन नागरिक प्रशासन को सभ्य नागरिक समाज और संस्कृति तक पहुंचाना ही होगा ताकि सैनिक बल द्वारा शासित असभ्य एवं असुरक्षित समाज एक अधिक सभ्य स्वयं अनुशासित समाज में रूपांतरित हो सके ...