ईश्वर-विमर्श ( तीसरा र्इश्वर)





जब र्इश्वर था-र्इश्वर तब भी नहीं था सच
क्योंकि कंस और दुर्योधन था
और उनका देखा-पाया और दिखाया सच कि
' यहां कहीं भी नहीं है र्इश्वर !

तब मनुष्य था और प्रकृति थी
यधपि मनुष्य भी नहीं था और प्रकृति भी नहीं थी
र्इश्वर भी नहीं था-सिर्फ कंस और दुर्योधन को छोड़कर !

जबकि ' र्इश्वर नहीं है -था मात्र एक विचार
क्योंकि मनुष्य ही था और प्रकृति थी
और कहीं भी नहीं थे कंस और दुर्योधन
मात्र एक विचार , एक भ्रम के अतिरिक्त
जैसे कि कहीं भी नहीं था मनुष्य-सिर्फ जीवन था........

जबकि दुर्योधन भी था र्इश्वर-अपराधी र्इश्वर !
अपराध यह कि र्इश्वर होकर भी र्इश्वर की तरह
सब कुछ न जीता हुआ......और कृष्ण भी
जबकि कृष्ण भी र्इश्वर नहीं था
जैसे दुर्योधन भी नहीं था र्इश्वर.......

फिर भी सिर्फ र्इश्वर ही था सच-क्योंकि कृष्ण था
फिर भी कहीं भी नहीं था कृष्ण
क्योंकि ' र्इश्वर  था-एक विचार....इसलिए र्इश्वर था
कृष्ण था....और कृष्ण ही र्इश्वर था!

तब प्रकृति थी ,जीवन था , पशु था ,चेतना थी और मनुष्य भी था
जबकि पशु भी था एक सिथति........संज्ञा और                    
मनुष्य भी था एक विचार-कुछ भी-
' र्इश्वर है .......' र्इश्वर नहीं है  का......
फिर भी कुछ था......कुछ है.......कुछ रहेगा-
चाहे......सिर्फ मनुष्य ही नहीं रहेगा.....एक दिन !

जबकि वहां र्इश्वर होगा.....
मुल्ला और पुरोहित होंगे......ग्रन्थ और ग्रन्थी होंगे......
मनिदर और मसजिद....गुरद्वारे और चर्च होंगे
परमाणु ,हाइइोजन और न्यूæान बम होंगे
(और ऊर्जा भी होगा सिर्फ एक विचार जैसे र्इश्वर)
सिर्फ मनुष्य ही नहीं रहेगा एक दिन........
मनुष्य-जो पहले भी नहीं था सच.......आज भी नहीं है......
और कल भी नहीं रहेगा !?

वैसे ही जैसे कि एक भयानक झूठ होगा र्इश्वर
एक भयानक विचार-सब कुछ को निरर्थक करता हुआ
सब कुछ को करता और करवाता हुआ
मनुष्य और मनुष्य की उन्मादी टकराहटों के बीच
बालू सा झरता हुआ.....मरता हुआ........

प्रतिपल तटस्थ और आसक्त.......सतत अनिर्णीत
एक भयानक चुप हुआ र्इश्वर-सब कुछ को समर्थित करता हुआ
उनके मारने और उनके मारे जाने के प्रति
उनके डरने और उनके डराये जाने के प्रति
उनके भूखों मरने और उनके
उनका भी खाना डकार जाने के प्रति
उनके सच बोलते मरने और उनके झूठ बोलते चरने के प्रति........

कुछ ऐसे कि उसकी इच्छा के बिना एक पत्ता तक नहीं हिलता
उसकी इच्छा के बिना धरती पर जन्म नहीं लेते चोर
नहीं होतीं हत्याएं धरती के किसी भी कोने में
धरती की सारी डकैतियां और सारे बलात्कार
उसकी मूर्त इच्छाएं हैं

कि उसकी इच्छा है कि जिसकी टूटी टांग-उसकी टांग टूटे
उसकी इच्छा है कि किसी दुर्घटना का षिकार होकर
जो अनितम सासें गिन रहा है
तत्काल चिकित्सकीय सहायता के बिना
अस्पताल तक न पहुंचे.....

कि बीमारियां और दुर्घटनाएं उसकी इच्छा की ही परिणति है
उसकी इच्छा है कि जो पिट रहा है पिटे
और जो किसी को पिटता देख कर हो-हो करता
बजा रहा है तालियां-बजाए तालिया....
कि जिसकी टूटी है एक टांग
उसकी दांग तोड़ने की र्इश्वर की इच्छा का सम्मान करते हुए
उसकी दूसरी भी टांग तोड़ देना
र्इष्वर की इच्छा का सम्मान और उसका काम करना है

कि दुनिया में दुर्दिन और विपतित के मारे हुए
सारे दयनीय लोग इस लिए दयनीय हैं कि
उन्हें अपमानित होता देखने की
र्इष्वर की मनोरंजक इच्छा पूरी हो सके...

उसकी इच्छा मनुश्यों की नहीं मकिखयों की इच्छा है
उसकी इच्छा है कि यह दुनिया
कूड़े के सड़े-गले-गन्दे ढेर में बदल जाए....

तो इस दुनिया में अमानवीय और कू्रर
जो कुछ भी घटित हो रहा है
सब र्इष्वर की इच्छा है
इसप्रकार र्इष्वर कू्रर और पापी है
र्इष्वर जो अषिक्षित,अनपढ़ और गंवार है
अपराधी,व्यभिचारी,निरंकुष और स्वैराचार है

उसके नाम पर होने वाले
धरती के सारे अपराधों के पीछेे इच्छाएं हैं
और इच्छाओं के पीछे र्इष्वर
और र्इष्वर के पीछे एक षातिर-दिमाग,खुदगर्ज,क्रूर मनुश्य है
र्इष्वर की ओट ले दूसरे मनुश्यों का षिकार करता हुआ...

अपने निकम्मेपन और असफलताओं का ठीकरा
र्इष्वर के सिर पर फोड़ता हुआ
अपनी विकृतियों और दुश्कमोर्ं पर परदा डालता हुआ
अपनी जिम्मेदारियों और और जवाबदेहियों से बचता हुआ
अपनी धूर्त और मक्कार भाग्यवादिता से
दुनिया की सारी बुराइयों का ठेका र्इष्वर को देता हुआ
अपने कुकमोर्ं से र्इष्वर को अभिषप्त करता हुआ...

कि युग की विडम्बनाओं में उपजा हुआ सत्य
सिर्फ इतना ही है कि जब तक मनुश्य चुप है-
सिर्फ तब तक है र्इश्वर.....बोलता है तब पूर्ववत मनुष्य
जितना चुप है उतना र्इश्वर......जितना बोलता है उतना मनुष्य !
क यह मनुष्य बोलता है कि र्इश्वर नहीं रह जाता
यह मनुष्य बोलता है कि र्इश्वर नहीं हो पाता.....

अपने गलत होने के विरुद्ध अभी कब तक
ऐसे ही कुछ भी नहीं बोलेगा र्इष्वर......मनुश्य न होता हुआ !?
अभी कब तक कुछ भी न जानेगा र्इश्वर.....मनुश्य न बन पाता हुआ!

कि यहां सिर्फ न जानता हुआ ही र्इश्वर है
और जानता हुआ ही मनुष्य.......
वैसे ही जैसे न जाना गया ही र्इश्वर है
और जाना हुआ ही मनुष्य !
या कि जितना वे उसे जानते हैं.......उतना वह मनुष्य है
और जितना वे उसे नहीं जानते.....उतना है वह र्इश्वर !

जैसे कि अभी इस पल तक वह र्इश्वर था
र्इश्वर की तरह सोचता और गुमनाम
अरबों-खरबों आम-सामान्य चेहरों में से एक
र्इश्वर की तरह सर्वव्यापी किन्तु अनाम-
न कुछ कहता हुआ.....न कुछ कहलाता हुआ
न छपता हुआ.........न लिखता हुआ.......न लिखा जाता हुआ.....
न ही दे पाता हुआ वक्तव्य.............

जब बाजार नहीं था जीवन र्इश्वर था
जब विज्ञापित-नाटकीय-औपचारिक और असहज नहीं था मन
विशिष्ट और अन्तरंग था........
जब सबरंग नहीं था जीवन....न ही बदरंग था-र्इश्वर था तब!
                                       
अब जब बाजार है-
सार्वजनिक जीवन के नाम पर अन्धा छल-व्यापार है
सिर्फ बाहर की ओर चलता-भीतर से बन्द बहरा-बाहर संसार है
अब सब है मनुष्य........
                                               
सब कुछ जानता-समझता हुआ
लड़ता-लड़ाता ,पीटता-पिटाता ,सुनता-सुनाता-गवाता हुआ-
मनुष्य है....प्रकृति है....मनुष्य के पैर हैं और पैरों के नीचे की मिटटी

आदिम इनिद्रयां हैें और आदिम वासना की धधकती हुर्इ भटठी
लिंग-बोध अर्थ से घायल देह विभाजित मनुष्य है तो
भाषा की अनन्त विभाजित सृषिट !

क्या वह शब्द ही था.......या था ज्ञान !
क्या वह अंग ही था........या थी कि्रया ?
क्या वह अनुभव ही था........या था भ्रम-कि कब और कैसे एक प्रतीति
र्इश्वर और मनुष्य........स्त्री और पुरुष में बदलकर
एक भयानक सच की तरह झूठ से सिहरा गयी थी !

जबकि एक अर्थ-सा कौंधा था प्रकाश
और र्इश्वर का चेहरा एक साथ स्त्री के चेहरे-सा सहम गया था
किसी बलात्कारी पुरुष के चेहरे-सा बहुत ही भयानक और विद्रूप हो जाता हुआ
जैसेकि मनुष्य........

इस प्रकार मनुष्य के लिए मनुष्य न होते हुए......
मनुष्य की तरह लड़ते मनुष्य के साथ मरा र्इश्वर-
न होते हुए मनुष्य के लिए मनुष्य और मनुष्य के लिये र्इश्वर
एक आत्मघाती अर्थ-युद्ध में पहले मनुष्य मरा तब र्इश्वर
जैसे कि पहले र्इश्वर मरा.......तब मनुष्य
वैसे ही जैसे कि पहले मनुष्य हुआ तब र्इश्वर
कुछ भी न होते हुए....

वैसे ही जैसे कि पहले सब कुछ था र्इश्वर
और र्इश्वर था मनुष्य
और मनुष्य था जीवन,मसितष्क और चेतना.....
और चेतना में उपजा हुआ आदिम प्रश्न ही था र्इश्वर-
मैं कौन हूं ?......मैं क्या हूं ?........मैं क्यों हूं ?

संज्ञाओं के स्थानान्तरण के पार आदिम प्रश्न ही था र्इश्वर
और उत्तर भी.......

संज्ञाएं जो पास-पड़ोस से शब्द-पहचान के लिए मिलती है-
जैसे धरती पर एक असितत्व और अधिकार
वैसे ही भाषा में एक शब्द-पद-नाम...........

कौन......क्या.........क्यों......बाहय अपेक्षाओं-बाहय जिज्ञासाओं......
बाहय प्रश्नों और बाहय उत्तरों के बाहर जैसे कोर्इ भी नहीं जानता कि
किस प्रकार कोर्इ भी असितत्व
शून्य की तरह एक निरपेक्ष र्इकार्इ भी है
जबकि वहां सिर्फ एक ही सत्य है-' है
जबक वहां सारी कि्रयाएं ' है  के बाद ही शुरू होती हें-
अपने होने के बाद कोइ्र क्या बतलाएगा कि
वह कौन है ?....क्या है ?....क्यों है ?

सापेक्ष सिथतियों में होने का पता पूछती भाषा ही अथोर्ं की पार्थिवता है
और सिथति-निरपेक्ष असितत्व की भाषा-सत्ता ही आदिम-अपाथि्रव अथ्रर्.......

होता या न होता.........होगा या चाहे नहीं भी होगा र्इश्वर-
भाषा तो होगी उनकी अपनी ही-उनका अपना ही दिया नाम.......

असितत्व की श्रंखला में कोइ्र भी निरपेक्ष असितत्व हो-चरम,परम या अनितम....
वहां सिर्फ एक ही प्रश्न होगा और उत्तर
कि वह सिर्फ ''है .....ढोता और झेलता हुआ अपना होना
जैसे जीवन........

कि एक आदिम प्रश्न ही है र्इश्वर
सिर्फ इतना ही उत्तर जानता हुआ-जो कुछ भी है.....सिर्फ है
ऊर्जा से पदार्थ तक फैला हुआ एक अनश्वर अर्थ !

जो पहले था ,है अब भी , रहेगा कल भी-सूरज
वहां भी था और सूरज यहां भी
धरती वहां भी थी और धरती यहां भी
जीवन वहां भी था और जीवन यहां भी
चेतना वहां भी थी और चेतना यहां भी
और मनुष्य ही थे वहां-जैसे कि तुम !

र्इश्वर भी........यदि जो सिर्फ है और नहीं जानता कि
उसे किसने बनाया-जैसे कि मनुष्य !
(यधपि भाषा के र्इश्वर को तो मनुष्य ने ही........)
अज्ञान वहां भी है और अज्ञान यहां भी
ज्ञान वहां भी है और ज्ञान यहां भी
और सब सिर्फ बना है......बने हैं-
प्राथमिक (प्रकृति) और द्वितीयक (भाषा) सृषिट-पर्यन्त
र्इश्वर और भगवान......गाड आलमाइटी.....खुदा और अल्लाह
और मनुष्य ( कहीं नहीं  , वैसे ही जैसे-कहीं नहीं और हर कहीं ' र्इश्वर )
जैसे कि मनुष्य-उन र्इश्वरों-अवतारों ओर पैगम्बरों से भी पहले
मनुष्य वहां भी था और यहां भी है मनुष्य.....

जबकि प्रकृति जीवन में बदल चुकी है और जीवन चेतना में
जबकि चेतना विवेक में बदल चुकी है और विवेक व्यकितत्व में
व्यकितत्व चरित्र में बदल चुका है और चरित्र सम्मान में
जबकि चेतना मनुष्य में बदल चुकी है और मनुष्य र्इश्वरीय में.......

जबकि प्रकृति है जीवन और प्रकृति है चेतना
जबकि प्रकृति है मनुष्य ओर प्रकृति है र्इश्वर
जबकि प्रकृति है सजीव और प्रकृति है सचेतन
जबकि प्रकृति है मानवीय और प्रकृति है र्इ्रश्वरीय......

जबकि सिर्फ प्रकृति है और कहीं भी नहीं है र्इश्वर
वैसे ही जैसे सिर्फ र्इश्वर है और कहीं भी नहीं है प्रकृति

जबकि प्रकृति मनुष्य में बदल चुकी है और मनुष्य र्इश्वर मे
जबकि जड़ चेतन में बदल चुका है और चेतन विचार में
जबकि विचार अनुभव में बदल चुका है और अनुभव स्मृति में
जबकि स्मृति ज्ञान में बदल चुकी है और ज्ञान निर्माण में.........

जबकि वहां अपराध भी है ज्ञान और पाप भी है सृषिट
जबकि वहां पाप है असन्तोष और अपराध है प्रतिशोध
जबकि वहां भौतिक भी है विचार और ' पदार्थ्र  भी है विज्ञान
जबकि वहां सबकुछ दूसरी बार......एक बार फिर सर्जित हुआ
जबकि सब एक बार फिर दूसरी बार किया गया !

जबकि तय था उनके होने के समानान्तर उनके र्इश्वर का न होना
कि र्इश्वर होता भी तो क्या कर लेता उनके होते !
जबकि उनके होने के विरुद्ध र्इश्वर नहीं था कहीं
थे सिर्फ वे और उनकी चीखें......उनकी हत्याएं ओर उनके प्रतिशोध
उनके अपराध और उनकी आग.......उनकी प्रतिहिंसाएं और उनका क्रोध
उनकी घृणा और उनकी र्इष्र्या.....उनकी वासना और उनके गलत्कार
उनकी उदण्डता और उनकी उत्श्रंखलता
उनकी अराजकता और उनके दाग
कि सिर्फ उनकी निरंकुा इच्छाएं ही थीं और वे-
कभी भी ,कुछ भी . कैसा भी कर सकते हुए
मनुष्य ओर उसके र्इ्रश्वर के भी विरुद्ध........

जबकि अन्तत: मनुष्य ही था
अपने विचारों और विश्वासों की पुनर्रचना करता
जैसे कि चेतना थी.......जीवन था......प्रकृति ही थी-
' मनुष्य  की रचना करती.......
वैसे ही सिर्फ मनुष्य ही था-बार-बार जाचता-परखता
फिर-फिर रचता.......
जैसे कि उनका र्इश्वर-संज्ञाओं के दोराहे पर द्वन्द्व में पड़ा
कि कहां से और कैसे है वह मनुष्य
और कैसे है र्इश्वर और क्यों ?

जबकि अब भी वह मुक्त नहीं
संज्ञा के संकट से......भाषा के जंगल से

कि वह है या नहीं - जैसे कि वह था और नहीं था
कि वह बना या उसे बनाया गया......कि उसने बनाया
जैसे कि स्पष्ट नहीं यह भी कि मनुष्य बना या किसी ने बनाया
या स्वयं ही बना निर्माता और निमा्रण के भेद को अस्वीकारता हुआ
एक प्राकृतिक अन्तर्वि्रकास के क्रम में घटित
एक समषिट-असितत्व......होता हुआ विकसित-' स्वयंभू !

कि ऐसा कुछ भी नहीं बना...जोकि न था संभावनाओं में
जो कि न बन सकता था और बनाया ही नहीं जा सकता था-बना नहीं !
और यहां जो कुछ भी हुआ-हो सकता हुआ....
नियत नियमों और संभावनाओं में-वह हुआ.......वह होगा-
यह ''मैं.......वह र्इश्वर ही बदल देता हुआ अब से
और धरती...और सूरज....और आकाश.....
और पशु को मनुष्य......पुत्र को पिता !

अपनी खुली घोषणाओं में एक नए सृषिट-बोध और र्इश्वर के लिए
युगों बूढ़े-क्षीणकाय,विकलांग भ्रष्ट र्इश्वर को
साहसपूर्वक प्रश्नांकित और निरस्त करता हुआ
अपने उत्तरित प्रस्तावों में कहता कि -
''मैं जिस र्इश्वर को जानता हूं -उसे स्वयं से घृणा करते पाया......
मैंने जिस र्इश्वर को देखा है-वह सदैव के लिए घृणा से
बन्द कर लेना चाहता है अपनी आंखें......
मैंने जिस र्इश्वर को पाया है-वह आत्मभत्र्सना के अन्धकार में
भागकर डूब मरना चाहता है अपनी व्यभिचारित सृषिट को छोड़कर.......
मैं जिस र्इश्वर से भलीभांति परिचित हूं-उससे मैंने बार-बार
शपथ-पूर्वक कहा है कि मैंने उन सभी बुरी वस्तुओं से घृणा की है
जिनसे उसे स्वयं करना चाहिए था.......
कि अब तक वह देता रहा है मनुष्य को ही जन्म और पुनर्जन्म
आगे वह स्वयं र्इश्वर ही पाएगा-भावी मनुष्यों के हाथों
ताकि वह अनन्त प्रेम का उगा हुआ पवित्र मनुष्य बनकर छा सके धरती पर.....

आदिम चुनौतियों के तर्क-युद्ध जीतता....झूम-झूम कहता कि-
तो मैं भी र्इश्वर हो जाऊंगा एक दिन
मैं भी र्इश्वर कहा जाऊंगा एक दिन
कि मैं भी नहीं रहूंगा और नहीं दूंगा किसी को दिखार्इ-
एक दिन....जैसे कि नहीं दीखता है र्इश्वर !

फिर भी मैं हूं.......फिर भी मैं रहा होऊंगा
क्या इतना ही मेरा र्इश्वर होने के लिए पर्याप्त नहीं !
ओ जाने वाले लोगों ! जबकि तुम्हें पता भी नहीं होगा
अपने माने र्इश्वर की तरह मेरा भी यहां होना और खोना.........
ओ आने वाले लोगोंं ! उनकी तरह मैं भी अनिशिचतता और
स्वतन्त्रता की उसी संभाव्य अराजक नदी की तरह बह सकता हुआ
अपने जीवन-समय और धरती से गुजरा
अपने महत्वाकांक्षी अपराधों के बोझ से
तुम्हारी भावी स्मृतियों पर अपना भी होना लाद सकते हुए !?

लेकिन आश्चर्य कि
मैं तो जीवन भर लड़ता रहा उस र्इश्वर से
और मृत्यु क्षण तक भी लड़ता रहूंगा चाहे
निरीह जीवन के पक्ष में-विपक्षी चाटुकार-लिप्सु ,भय-दोहक
अराजक बदनीयत-बदमिजाज दुगर्ुणाकार र्इश्वर के खिलाफ......

मैं जीवन भर ल्ड़ता रहूंगा कहता -
कि हे मानवीय दुर्बलताओं के प्रतिरूप !
हे सिर्फ सम्मान ,पूजा ,श्रद्धा और प्रशंसा पाने के लिए
अपना नृशंस क्रूर हाथ आजमाने,डराने-लड़ाने के लिए ही
सृषिट का निर्माण करने वाले निकृष्ट गुण्डा-बदमाश लुच्चा-अभद्र र्इश्वर !
हे उनके अपराधी र्इश्वर !तुम्हें आनी चाहिए थी शर्म अपनी धूर्तता पर
जो तुमने जीवन्त र्इश्वरों को करते रहने को गुमराह
के अतिरिक्त कभी और कहीं-कुछ भी नहीं किया !

कि हे उनकी नाक पर षडयन्त्रकारी मक्खी की तरह
चिपककर बैठ जाने वाले रक्तपायी र्इश्वर !
तुम्हें मनुष्यों के बीच......मनुष्यों के विरुद्ध शोषक हथियार की तरह
प्रयोग करता हुआ तुम्हारा मनुष्य
पहचान बांटता है-'' तुम्हारा  और '''तुम्हारा नहीं
सही और गलत.....अच्छा और बुरा कहता हुआ
मनुष्य को शैतान बनाता मारता है............

कि हे उनके अभिशप्त र्इश्वर !
मैं तुम्हें उड़ाता रहूंगा बारम्बार करता हुआ घृणा
कहते और करते हुए तुम जा-''सुनो मुझसे डरो !
हथियार की तरह घेरे हुए......

कि मैं नहीं झुकाता अपना सिर
मैं नहीं करता तुम्हारी पूजा
मैं नहीं लेता तुम्हारा नाम
मैं नहीं मानता तुम्हारा असितत्व
क्योंकि ऐसा तू-वह हमेशा ही वीभत्स हो जाता हे
जब तू मनुष्य रूप में मनुष्य की उपेक्षा करता हुआ
भय आतंक ओर धमकियों के साथ आता है-
हे निरस्त ओर पिटे हुए उनके भ्रम-शब्द र्इश्वर.....सुनो !

तकोर्ं की सर्वग्रासी क्रीड़ा में उछालता हुआ कंटकित प्रश्न
उन सन्त-आप्तों के नाम- जिनका कहना कि'' अपना सिर झुकाओ
और उसे करो याद जिसने हमें है बनाया......
प्रश्नों में मांगता हुआ पहचान........कहता कि -'' करूंगा !करूंगा !
पर हे उनके इतिहासित र्इ्रश्वर !
तुम भी तो करोगे उसको याद ? जिसने तुम्हें बनाया !
या तुम सिर्फ बने.....यदि मनुष्य ने नहीं भी
यदि तुमने ही मनुष्य को
यदि तुम सच ही हो अनादि-अनन्त-अक्षय.....
और तुम्हारा कोइ्र्र भी रचनाकार नहीं !

लो तुम्हें भी नहीं पता अपने जन्म का.....जैसा कि हमें ?
मनुष्य जाति रूप में......तब तो भार्इ ही लगते हो र्इ्रश्वर !
यदि तुम भी सिर्फ हो-जैसे कि हम
सिर्फ ' बन  और ' हो  सकते हुए......
अपना अभिशप्त जीवन-असितत्व......अपना  ' होना  ढोते हुए
भयानक ऊब से भरे.....जन्म और मृत्यु से परे या.....में डरे !

अपनी विज्ञापित उदघोषणाओं में नए प्रश्नों-विश्वासों का सच बांटता मनुष्य
चाहता जो जानना कि '' हे उनके र्इश्वर ! मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है कि
अपना सब कुछ के साथ होना याद करते हुए
मैं हूं-अपने भीतर और बाहर भी
मैं ही हूं-बना.....जहां.....जब.....जिससे
एक मनुष्य......एक जीवन.....एक चेतना या एक जीवन-मय पदार्थ भी........
पर किसने हमें बनाया और कब !?...यदि वह पिता नहीं है तो......
स्वयं कहां रहते हुए....किससे !?

अपनी सम्पूर्ण स्मृतियों-विश्वासों की पुनर्रचना करता एक नया मनुष्य-
न मांगता....स्वयं ही पाता और देता हुआ-अपने श्रम से
जैसे पृथ्वी-जो अब जंगली नहीं बना पायेगी जीवन
नहीं रख पाएगी भूखा-पूर्व की आदिम-अराजक-अपराधिनी वह
अपने श्रम से दणिडत-संशोधित करेगा उसे मनुष्य-
अपने औचित्यपूर्ण सर्जक ज्ञान का प्रकाश ले
कि ज्ञान ही क्रानित है यदि वह
द्वन्द्व ,संशय और नैराश्य के असहमतिपूर्ण विचारों को
कर दे विभाजित और निरस्त- कि निष्ठाएं भ्रष्ट ले ली जाएं वापस
और स्मृतियां किसी भी मूल्य पर बदली जा सकें कभी भी......

स्मृतियां-उन परम्परागत अभिलाषाओं की
मन को करती हुर्इ नियनित्रत
अतीतबद्ध सम्बन्धों में पलती हुर्इ जड़ता की
आत्मघाती नियति का तिरस्कार करते हुए ( नए आरम्भ के लिए )
सब कुछ को नव उपलब्ध सत्यों-तथ्यों के आधार पर ही
जीवन रचते और जीते.......मानते और चलते हुए......

जबकि सिर्फ वही था और उसका ही मांगा पाया सच......
एक बार होते हुए....दूसरी बार भी होते हुए
पहला सच....दूसरा सच.....तीसरा सच......
पहला र्इश्वर.....दूसरा र्इश्वर......तीसरा र्इश्वर........
बिल्कुल स्वतन्त्र झूठ-सृजित सच की तरह
एक तीसरा सच.....तीसरा सृजन.....तीसरा सर्जक.......

पहला सच.....पहला सृजन कि कहीं कुछ भी नहीं
सिर्फ एक असितत्व जिसमें एकाकी छोड़ दिया गया है वह !
कहीं कुछ भी नहीं-सिर्फ एक असितत्व चक्र
जिसमें एकाकी जोड़ दिया गया है वह !

दूसरा सच..... दूसरा सृजन-दूसरा र्इश्वर कि
नहीं.......वह स्वतन्त्र और स्वच्छन्द है
उत्श्रृंखल-उन्मादक जीवन-सुख जीते हुए....जीने के लिए
पूरी तरह उन्मुक्त है वह !
नहीं ....कहीं-कुछ भी नहीं......नहीं कोर्इ्र र्इश्वर
सब बिल्कुल ही झूठ है......झूठ है सब.......
हां-हां......पूरी तरह स्वतन्त्र है वह-यह कहने के लिए-
सब बिल्कुल ही झूठ है......झूठ है सब
कहीं कुछ भी सच नहीं.....सच नहीं......सच नहीं.......

तीसरा सच......तीसरा सृजन......तीसरा र्इश्वर कि
अकेला नहीं है वह......सब वह ही है....हां वह ही है
हां वह ही था......हां उसे होना ही चाहिए
धरती ,देह ,जीवन , मन और विचार से
अपनी जड़ता में सुप्त पदार्थ से जीवन्त सचेतन मनुष्य तक व्याप्त एक अर्थ-
पहला सच......दूसरा सच......तीसरा सच......

करता हुआ मनुष्य और मनुष्य......जीवन और जीवन को
अनिवार्य-अविभाज्य-अटूट अन्तर्सम्बन्धों में परिभाषित कि-
'' मैं जो हूं अपने भीतर-यह वही है जो वहां है.....
मैं जो हूं अपने भीतर-बाहर का.....बाहर से.....बाहर तक भी हूं !

मैं जो हूं अपने भीतर-बाहर से बिल्कुल अलग
यहां अकेला-अनाम-अज्ञात-अजनबी छुपा बैठा.......
ऐसा ही बाहर भी है......ऐसा ही हर में है
ऐसा कुछ भी नहीं है छुपा-छुपाया या अनकहा विशिष्ट ऐंठा.....

मैं जो हूं अपने भीतर......उसे सब जानते हें अपने भीतर
मेरे भीतर का सच.......उनके भी भीतर का सच है !

वह जो है- जड़ता से जीवन तक
चेतना से भाषा तक होता हुआ
हां उसे होना ही था......हां उसे होना ही है
हां वह ही था........हां वह ही है.......हां वह ही रहेगा
हां उसे होना ही होगा -
पहला र्इश्वर........दूसरा र्इश्वर......तीसरा र्इश्वर
तीसरा सृजन.....तीसरा सर्जक-
ताकि कहीं भी न रहे र्इश्वर- सिर्फ मनुष्य हो
ताकि कहीं भी न रहे मनुश्य- सिर्फ र्इश्वर हो
चाहे कहीं भी न रहे शब्द-र्इश्वर और शब्द-मनुष्य
चाहे भूल या खो जाए शब्द.....चाहे शब्द हो या न हो
जो है वही हो - सिर्फ सच.....जैसे जीवन और चेतना
विचार से भावों और भावों से व्यकित्व....व्यकितत्व से चरित्र और
चरित्र से आचरण तक व्याप्त एकात्म सृषिट-
विश्व ,मानवता ओर एकार्थ असितत्व की तरह........

जबकि यहां सब कुछ एक बार है
किन्तु दूसरी बार नहीं.......

सब कुछ पहली बार सत्य है और सही
अद्वितीय है और उपसिथत.......तार्किक है और तातिवक
र्इष्वर है और मनुष्य......प्रकृति है और प्राकृतिक
सिर्फ दूसरी बार न होता हुआ......

जबकि एक बार होते हुए
दूसरी बार भी होते हुए
एक बार है.........एक बार हैं
किन्तु दूसरी बार फिर स्वयं होकर
तीसरी बार सबके साथ-साथ एक साथ होने की
समस्या का बोझ ढो रहा है वह !

कि एक बार होते हुए भी सब दूसरी बार न होकर ही
है अराजक और उत्श्रृंखल...आपराधिक और असभ्य
असामाजिक और अनैतिक....अधारणीय और अविश्वस्त
अशान्त और असंतुष्ट......
क्या यही है वह पाप और अपराध
अज्ञान है और शैतान....दु:ख है और अपमान
दुर्भाग्य है और नर्क-सिर्फ दूसरी बार न होता हुआ
न होता हुआ - साथ-साथ तीसरी बार.......तीसरा सच कि
मनुष्य विचार को रचता है और विचार मनुष्य को
इस प्रकार मनुष्य के अन्दर.......मनुष्य के समानान्तर
मनुष्य के ,ारा पुनरूत्पादित होता रहेगा र्इश्वर
र्इश्वर होता रहेगा मनुष्य......मनुष्य होता रहेगा र्इश्वर
र्इश्वर होता........न होता हुआ
चाहे सिर्फ मनुष्य !
यही है सत्य का स्वर...यही है सत्य अनश्वर
जैसे कहीं नहीं र्इश्वर.......वैसे ही कहीं नहीं मनुष्य
फिर भी दिए गए अथोर्ं और पाए गए शब्दों के युद्ध में
जीतता हुआ........जीतेगा बार-बार मनुष्य
मनुष्य होता हुआ.......होकर मनुष्य.....होगा मनुष्य ही र्इश्वर
र्इश्वर ही मनुष्य.......

एक बार है ( एक ! )....दूसरी बार भी है
किन्तु तीसरी बार..... सारी दुनिया के साथ
एक बार फिर न हो पाता हुआ.....
अतृप्त-अनभिव्यक्त-अपूर्ण-अभिशप्त एकाकी हो रहा है वह !
होते हुए भी न होते हुए-
पहला सच........दूसरा सच.........तीसरा सच.......
पहला र्इश्वर..........दूसरा र्इश्वर.........तीसरा र्इश्वर.......
 
किन्तु दूसरी बार फिर स्वयं होकर
तीसरी बार सबके साथ-साथ एक साथ होने की
समस्या का बोझ ढो रहा है वह !

कि एक बार होते हुए भी सब दूसरी बार न होकर ही
है अराजक और उत्श्रृंखल...आपराधिक और असभ्य
असामाजिक और अनैतिक....अधारणीय और अविश्वस्त
अशान्त और असंतुष्ट......
क्या यही है वह पाप और अपराध
अज्ञान है और शैतान....दु:ख है और अपमान
दुर्भाग्य है और नर्क-सिर्फ दूसरी बार न होता हुआ
न होता हुआ - साथ-साथ तीसरी बार.......तीसरा सच कि
मनुष्य विचार को रचता है और विचार मनुष्य को
इस प्रकार मनुष्य के अन्दर.......मनुष्य के समानान्तर
मनुष्य के ,ारा पुनरूत्पादित होता रहेगा र्इश्वर
र्इश्वर होता रहेगा मनुष्य......मनुष्य होता रहेगा र्इश्वर
र्इश्वर होता........न होता हुआ
चाहे सिर्फ मनुष्य !

यही है सत्य का स्वर...यही है सत्य अनश्वर
जैसे कहीं नहीं र्इश्वर.......वैसे ही कहीं नहीं मनुष्य
फिर भी दिए गए अथोर्ं और पाए गए शब्दों के युद्ध में
जीतता हुआ........जीतेगा बार-बार मनुष्य
मनुष्य होता हुआ.......होकर मनुष्य.....होगा मनुष्य ही र्इश्वर
र्इश्वर ही मनुष्य.......

एक बार है ( एक ! )....दूसरी बार भी है
किन्तु तीसरी बार..... सारी दुनिया के साथ
एक बार फिर न हो पाता हुआ.....
अतृप्त-अनभिव्यक्त-अपूर्ण-अभिशप्त एकाकी हो रहा है वह !
होते हुए भी न होते हुए-
पहला सच........दूसरा सच.........तीसरा सच.......
पहला र्इश्वर..........दूसरा र्इश्वर.........तीसरा र्इश्वर.......
पहली सृषिट........दूसरी सृषिट.........तीसरी सृषिट-
मनुष्य की !

समषिट सृषिट से व्यषिट मनुष्य और
पयषिट मनुष्य से समषिट मनुष्य तक
रचित-पुनर्रचित होता हुआ
र्इश्वर प्राकृतिक और सामाजिक
निवर्ैयकितक और मानवीय......तथ्यनिष्ठ और वैज्ञानिक
नकारों से स्वीकारों तक.....विडम्बनाओं से अपवादों तक
जीवन से मृत्यु तक संवादित और सार्वभौम.........
वह एकमात्र सर्वोच्च शब्द-पद अद्वितीय
वह निर्विकल्प संज्ञानक अर्थ-समषिट !
वह सर्व वस्तुतों का केन्द्रीय विज्ञान-स्वर
वह जैव-सन्दर्भों का अनिवार्य न्यायिक अभिज्ञान
वह सर्वोत्तम मानवीय आदशोर्ं का सम्पूर्ण संज्ञापन
वह मनुष्य के चिर-काम्य स्वप्नों का आदिम सम्मूर्तन
वह मनुष्य के भीतर से उपजता हुआ
जीवन का सबसे प्रामाणिक ओर अन्तरंग स्वर-'र्इ स्वर......
वह था.......वह है.......वह रहेगा....
जैसे कि जीवन....जैसे कि सृषिट.....जैसे कि शून्य
मृत्यु के विरुद्ध ''है की तरह
होने कें लिए...होता हुआ वह रहेगा......
कि्रयाओं और प्रतिकि्रयाओं में !

कि वहां जीवन चाहे जैसा भी जिया गया हो
जब तक मरेगी नहीं मृत्यु.....तब तक मरेगा नहीं र्इश्वर-
मृत्यु ही र्इश्वर है और मृत्यु के हाथ र्इश्वर के हाथ हैं !
कि सारे हाथ र्इश्वर के हाथ हैं और सारे लिंग र्इश्वर के
कोर्इ कुछ भी पैदा करे सब उसका हो जायेगा
क्योंकि जीवन है वह और तुम !

सारे रास्ते उसी की ओर जाते हैं
और सारे पुत्र उसी के हो जाते हैं ।

मधुमकिखयां अपने छत्तों में पालती रहें मधु
मधु मांगने वाले हाथों की तरह
एक दिन सारा मधु उतार ले जायेगा र्इश्वर......

र्इश्वर समय है और इतिहास
र्इश्वर चतुर व्यंग्य है और परिहास
कि उनके सारे श्रम और वीरताएं
अपने पुत्रों को राजगददी सौंपने के सपने ढोते हाथ
र्इश्वर के काम आ गए
और उनके सारे व्यकितगत सपने सार्वजनिक !

उसे क्या पड़ी है कि लोकतानित्रक समय में
लोकतानित्रक शर्म की बात सोचे
सार्वजनिक अधिकारों के सम्मान में किसी एक को
पुश्त-दर-पुश्त प्रधानमंत्री बनने से रोके
या कोर्इ सच्चे-झूठे आरोपों की प्रचारक सीढि़यां लगाका
लोक के सर्वोच्च तानित्रक प्रभुत्व की कुर्सियां न धोखे !
कि र्इश्वर बिना शर्म है और जो
स्वयं अपनी इच्छा से ही नंगा होकर नाचना चाहता हो
उसकी आंखों के सामने.......उसके स्वागत सम्मान और सेवा में.....
उसे वह क्यों रोके ?

कि जन ही र्इश्वर है
और जन के जीवन के हाथ र्इश्वर के हाथ हैं......

फिर वह कैसे नासितक होता भला !
जबकि उसका र्इश्वर तो मनुष्य बन गया था
और मनुष्य हत्यारा और भ्रष्ट कोतवाल
गुण्डा अपनेता और सरकारी लोकपाल
धनपति ,भिखारी और कंगाल....अपराधी ,वेश्या और दलाल
थोपी गयी मृत्यु और जीवन का सवाल....

प्राचीन धर्मशास्त्रों द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त के अनुसार कि                                        
र्इश्वर से बाहर कुछ भी नहीं है.......कि मनुष्य ही र्इश्वर है-
यदि कोर्इ मनुष्य बुरा आचरण करता है या अभद्र है तो
माना जाएगा र्इश्वर ही बुरा आचरण वाला या अभद्र है-
इसी सिद्धान्त के सत्यापन और व्यावहारिक परिणति की भाषिक प्रस्तुति यह कि )
भूखा-प्यासा ,कायर और डरा-डरा र्इश्वर.......गन्दा बीमार र्इश्वर
अब कभी भी स्वस्थ नहीं हो सकता हुआ बूढ़ा-खूसठ झूठा और लबार र्इश्वर
अब कभी भी स्वस्थ नहीं हो सकता हुआ.......पतित-फूहड़
व्यभिचारी और लाइलाज र्इश्वर !

''बीड़ी के धुंएं में डूबा हुआ उसका पीला चेहरा
सिगरेट के धुंएं-सा शालीन हो गया है
कितना भव्य और सुन्दर दिखने लगा है
अधुनातन पगला और बचकाना र्इश्वर.........!

जब वह जानवर के बच्चे-सा उचक-उचक रखता है पांव
बार्इ के कोठे की आदिम सीढि़यों पर या शराबघर के सामने
अकेला खड़ा होकर उल्लू के बच्चे-सा मुस्कराता है
नशे में धुत उठता है गिरता है.......कितना घिनौना ,कितना फिसडडी
जानवर सा गन्दा खड़ा बूढ़ा-बीमार र्इश्वर
आदिम शैतान र्इश्वर अब कभी भी स्वस्थ नहीं होगा !?

हे उसके अपराधी ,वेश्या और दलाल र्इश्वर !
हे उसके व्यभिचारी , लंपट और कामी र्इश्वर !
हे र्इश्वर हत्यारे और भ्रष्ट कोतवाल !
गुण्डा ,अपनेता और सरकारी लोकपाल !
धनपति और भिखारी कंगाल !-वह कैसे नासितक होता भला ?
यह जानता और मानता हुआ कि उसके र्इश्वर नें कुछ भी नहीं जन्माया
वह तो स्वयं जन्मा है जीवन के रूप में-सिर्फ भोग रहा जीने की पीड़ा
या दुष्कमोर्ं में लिप्त......सत्य का सामूहिक आत्म-निर्वासन भोगता हुआ
रचता हुआ नर्क..........

उससे वह कैसे करे घृणा......छोड़कर भाग जाए कैसे
अस्वीकार कैसे करे-जब वह भी स्वयं है उसका एक रूप......एक हिस्सा
उसके ही घृणित अपराधों का एक तथाकथित किस्सा-स्वीकार कैसे करे !?
कौन करेगा उसके र्इश्वर का उद्धार ?
उसका र्इश्वर पतित और पापी हो गया है
जीवन-सन्तापी हो गया है......मानव-अभिशापी हो गया है

जबकि अपनी पशुता पर लजिजत
मानव-चेतना का आदिम विद्रोह........
जीवन-अथोर्ं की तंग जकड़नों का निस्सीम नकार और
गर्हित क्षुद्र निजता का उन्मुक्त प्रतिवाद-आदिम व्यंग्य था र्इश्वर !

जबकि असितत्व है असितत्व का अपना सगा-जैसे जीवन जीवन का
और अनन्त विभाजित असितत्वों के पार
अविभाजित एकात्म असितत्व ही र्इश्वर है

दूर कहीं गहरे अथोर्ं-सम्बन्धों में
जुड़ जाती सारी सत्ताएं........हो जाती हैं एक
अन्धकार में जैसे जाते डूब सारे दृश्य और रंग
उगती ज्यों एकाकी सत्ता अन्धकार की
सभी शब्द जैसे आ जाते एक शब्द-'' भाषा  में
वैसे ही सारे '' हैं ओं  का होना होता एक !

जबकि मनुष्य है प्रकृति
और मनुष्य की सर्वोत्तम इच्छा प्रकृति की सर्वोत्तम इच्छा है
मनुष्य का सर्वोत्तम विवेक प्रकृति का सर्वोत्तम विवेक है
मनुष्य का सर्वोत्तम न्याय प्रकृति का सर्वोत्तम न्याय है
मनुष्य का सर्वोत्तम निर्णय प्रकृति का सर्वोत्तम निर्णय है
मनुष्य का सवर्ौत्तम निर्माण प्रकृति का सर्वोत्तम निर्माण है
मनुष्य का सर्वोत्तम कार्य प्रकृति का सर्वोत्तम कार्य है
मनुष्य की सर्वोत्तम चेतना प्रकृति की सर्वोत्तम चेतना है
मनुष्य का सर्वोत्तम विश्वास प्रकृति का सवर्ौत्तम विश्वास है
मनुष्य का सर्वोत्तम विचार प्रकृति का सवर्ौत्तम विचार है
मनुष्य का सर्वोत्तम विकास प्रकृति का सवर्ौत्तम विकास है
जबकि प्रकृति है मनुष्य और मनुष्य का सर्वोत्तम अर्थ
प्रकृति का सर्वोत्तम अर्थ है....जैसे कि ' र्इश्वर ।

वहां सदैव ही दूसरों के होने को अभिशप्त करता हुआ उनका ' होना
अन्तत: स्वयं उनके अपने ही 'होने  को अभिशप्त करेगा.......

कि उनकी जितनी ही प्रार्थनाएं हाेंगी-वापस उन तक ही लौट आएंगी
और उनके ही बांटे अभिशाप स्वयं उन तक.......
उन्हें मरना ही होगा अपनी ही हत्यारी हथेलियों के लिए
जितनी ही पीड़ाएं फूटेंगी-चीखती चली जाएगी उनकी चीख.....
उनका रोना-स्वयं उन्हें ही रुलाने के लिए होगा....

आह! जिन्हें मालूम है-सारी यातनाएं
अपने से बाहर फेंकने के लिए है और जिनकी प्रतीक्षा है कि
जब तक मरेगा नहीं कोर्इ- उनकी जगह ...उनके लिए
तब तक उनका सुरक्षित बच निकलना असंभव ही होगा उनके लिए.........

आह ! जिन्हें अपना मरना दिखार्इ नहीं देता
आयाातित मृत्यु और हत्याओं के बीच नहीं दीखता अपना शव
कभी भी बन्द नहीं होगी जिनकी हिंसक चढ़ार्इ
अभी भी भोगी नहीं जिनने स्वयं प्रायोजित अन्धकार की अन्धी खुदी खांर्इ !

जबकि वहां र्इश्वर एक स्वप्न था-जो अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है
र्इश्वर एक कल्पना था- जो अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है
र्इश्वर एक लक्ष्य था- जो अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है
र्इश्वर एक आदर्श था- जो अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है
र्इश्वर एक भविष्य था- जो अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है
र्इश्वर एक विचार था- जो अभी तक सत्य नहीं हुआ है
र्इश्वर ही मनुष्य था- जो अभी तक नहीं हो सका है !

उनके आदिम ठहरे सड़े-गले , मक्कार और निरस्त र्इश्वर के विरुद्ध
खुले वातायन से अब भी नहीं आता कोर्इ प्रकाश
र्इश्वर की तरह....र्इश्वर की जगह..... मनुष्य का हाथ
मनुष्य की सहायता के लिए क्यों नहीं बढ़ता !?

जबकि वह मनुष्य कोर्इ भी हो सकता था
वह मनुष्य कोर्इ भी हो सकता है
वह मनुष्य कोर्इ भी हो सकेगा - जैसे कि तुम !

उनके ' होने  के विरुद्ध अपने ' होने  को संघर्षपूर्वक ढोता हुआ वह-
या तो वे इसके बिना ही समझ जाएं - या तो यह
लोकतन्त्र के लिए एक सच्चे और र्इमानदार आदमी के सपने में सब कुछ को
व्यंग्य-सत्य में बदल देता हुआ अनिवार्य तथ्य-कथन !

कि उसके विश्वासों में अब भी सुरक्षित
'मसीहा  आएगा जरूर.....चाहे मसीहा आए या न आए
'मसीहा  गाएगा जरूर.....चाहे मसीहा कहलाये या न कहलाये
वह मसीहा कोर्इ भी हो सकेगा- जैसे कि तुम !

कि पैगाम दिए जाएंगे जरूर......पैगम्बर के बिना
और वे निश्चय ही होंगे पैगम्बर
अपनी पीठ पर ठहराव के विरुद्ध
नर्इ सुबह का विचारक सूर्य उठाए !

जबकि र्इश्वर था एक विचार
विचार था एक जीवन......और अवतार भी था एक सकि्रय पद
प्रकि्रया में.....जीवन में विचारों का सम्पूर्ण मूर्तन
विचारों का जीवन तक .......जीवन से धरती तक हस्तक्षेप !

जबकि विचार का सकि्रय पद था अवतार
जबकि विचारक भूमिका में एक कार्मिक व्यकित था अवतार
जबकि विचार प्रकि्रया में एक प्रतिनिधि प्रायोजक न्यायिक शकित था अवतार
वह अवतार कोर्इ भी हो सकता था
वह अवतार कोर्इ भी हो सकेगा- जैसे कि तुम !

सोचो......सोचो कि उपजा हुआ धरती से
धरती पर जीवन-यह धरती मुझसे हुर्इ है जीवन्त
मैं हूं चेतन-मनुष्य-यह धरती मुझसे हुर्इ है सचेतन
मैं धरती का हूं.......सारी धरती है मुझमें
मैं धरती से हूं......मैं कहीं बाहर से नहीं आया हूंं

सोचो....सोचो कि ब्रहमाण्ड मैं भी हूं
मुझ तक है ब्रहमाण्ड- मुझसे है और मुझमें
मैं कोर्इ अलग से नहीं बना हूं........

जो पहले था , है अब भी ,रहेगा
सूरज वहां भी था और सूरज यहां भी
धरती वहां भी थी और धरती यहां भी
जीवन वहां भी था और जीवन यहां भी
चेतना वहां भी थी और चेतना यहां भी
और मनुष्य ही थे वहां- जैसे कि तुम !
उन र्इश्वरों ,अवतारों और पैगम्बरों से भी पहले
मनुष्य वहां भी था और यहां भी है मनुष्य

जबकि वहां कोर्इ अकेला ही र्इश्वर
कहीं भी नही होगा-सर्वशकितमान ,स्वयंभू और अद्वितीय
सब कुछ होता हुआ मनुष्य-अपरमुखापेक्षी......
फिर भी हर कहीं-हर कोर्इ हो सकेगा र्इश्वर
र्इश्वर कोर्इ ही नहीं रह पाता हुआ
जैसे कि राजा कोर्इ ही नहीं रह पाएगा
और हर कोर्इ भी बन सकेगा राजा

लोकतंत्र में र्इश्वर होने का ढोंग रचती
केनिद्रत सत्ता के उत्पीड़क जड़तन्त्र को विस्थापित करते हुए
स्वयंभू.....सर्वशकितमान......आतंकवादी-एक छत्र र्इश्वर को निरस्त करते हुए
सब कुछ को निरपेक्ष ,तटस्थ ,विकेनिद्रत ,सुरक्षित और सहिष्णु र्इश्वर में
क्रते हुए रूपान्तरित....क्रते हुए सब कुछ -
स्वत:स्फूर्त ,सकि्रय ,सुविचारित ,अद्वितीय.....लोकतानित्रक....मानवीय......
बुद्धि ,ज्ञान ,विवेक और विचार का र्इश्वर.....विज्ञान का र्इश्वर
जैसे कि मनुष्य ! लोकतंत्र में......

भाषा का र्इश्वर .....भाषा में र्इश्वर
स्मृतियों कल्पनाओं का.......आदिम अज्ञानों और विवश अभावों का
एक बार फिर जीवनमय होता....कहता और करता हुआ-
दु:ख और विडम्बनाओं में.......शोषण और पीड़ाओं में
परपीड़क निरंकुश इच्छाओं और त्रासद अलगावों में
असितत्व की सार्थक निर्विकार रमणीय सत्ता को
विद्रूप , प्रदूषित , निरर्थक और छिन्न-भिन्न करती हुर्इ अवस्थाओं में
होता ,करता और कहता हुआ सर्वसत्यमान कि -
''मैं र्इश्वर नहीं हूं ! भाषा की यादृचिछक संभावनाओं में
कुछ भी कहा जा सकता हुआ-कोर्इ भी सांयोगिक संज्ञा
वैसे ही जैसे कि मैं नहीं हूं मनुष्य-एक अनाम-निरपेक्ष प्रकृति-जीवन
कुछ भी कहा जा सकता हुआ.....

कि संज्ञाओं ,व्याख्याओं और अवधारणाओं की बहुवैकलिपक सृजनात्मकता में
कोर्इ भी संज्ञापित जीवन कभी भी निरपेक्ष असितत्व नहीं होता
भौतिक रसायनों की सांयोगिक किन्तु दिव्य लीलामयता में
वह सब -जिसे कहा गया प्रभु.......जिसे कहा गया परमेश्वर
जिसे कहा गया यहोवा......जिसे कहा गया गाड
जिसे कहा गया होरमज्द......जिसे कहा गया अल्लाह
पूछता है सर्वसत्यमान- कि सिर्फ वही ,वैसा ही ,उतना ही मैं क्यों हंू ?
और-और अनन्त......कोर्इ दूसरा भी अर्थ-नाम क्यों न हो सकता हुआ !?

कि कहता है सर्वसत्यमान-
कि मैं र्इश्वर नहीं हूं.....जैसे कि नहीं हूं मनुष्य
पौधों से लेकर पशुओं तक.......ऊर्जा से लेकर पदार्थ तक
कुछ भी हो सकता हुआ.......फिर भी मैं सत्य हूं !
सिर्फ सत्य हूं ! जैसे कि मनुष्य.....


सर्वसत्यमान कहता है कि जैसा कि पहले भी था-
वह था.....वह है.....वह रहेगा- बदले अथोर्ं और विज्ञानों में
संशोधित-मानवीय और विचारपूर्ण पहचानों में
जीवन के नित्य स्पन्दनों और श्वासों में.....âदय के जीवन्त रासों में
शिराओं -धमनियों में बिना थके दौड़ती हुर्इ रक्त की जीवित धाराओं में
वह जीवन के साथ धरती ,सूर्य और आकाश की तरह बना रहेगा
वह अन्धकार से जूझते निरन्तर प्रकाश की तरह बना रहेगा.......

यधपि यह सच है कि अन्धकार भी वह है और प्रकाश भी
पदार्थ भी वह है और ऊर्जा भी
और यह निरपेक्ष वैकासिक सत्य भी कि सत्य की मानवीय आकांक्षाओं में
सकि्रयता ही प्रकाश है और निषिक्रयता ही अन्धकार
और ऊर्जा का आत्मस्थ-अदृश्य होना ही सृषिट का पदार्थ में
अनन्त का अन्धकार में बदल जाना है और समय का 'समापित में
और यह भी कि जीवन का न होना है अन्धकार
और होना प्रकाश है.........

सर्वसत्यमान चाहता है कि जो 'प्रकाश है
वह प्रकाशित ही बना रहे
और जो प्रकाश्य हो -प्रकाशित हो
और जो प्रकाशनीय था रहे प्रकाशित ही !
जो मृतकों के साथ हैं जीवन तक पहुंचें
और जो भूत जीवी हैं उन्हें नया मन मिले
जो इतिहास और अतीत के खण्डहरों में पड़े हैं
उन्हें नया भवन मिले........
जो ठहरे हुए , रूढ़,पंगु और जड़ीभूत हो चुके है
उनके पैरों में गति और जीवन मिले.........

उनकी धरती कबि्रस्तानों और मरघटों की न हो
उनके मनों में एक नए जीवन की कल्पना और प्रकाश हो
एक नए जीवन का कामी अहसास और उपसिथति हो
उनकी आंखें सिर्फ पीछे की ओर देखने के लिए न हो
वे भयानक सपनों से मुक्त हों
उनके सिर बुरी बातों की पत्थरों से न कुचलें
उनका महत्वपूर्ण सत्य पीढि़यों में पुनर्जीवित,प्रवाहित और विकसित होता रहे
वे सहज निर्विकार और निर्दोष हों
उनकी हंसी में पवित्रता हो और बुद्धि में बच्चों सी विकासमान जिज्ञासा
वे नवीनता के प्रति चंचल और उत्साही हों
और उनका मसितष्क नए मौलिक प्रश्नों से भरा हो.....

कि जो सर्वसत्यमान वहां था .......वह सर्वसत्यमान है अब भी और यहां भी
सोचता ,कहता , करता और जीता हुआ
एक पवित्र ,सवर्ौत्तम और समषिट विवेक
सर्वसत्यमान वहां भी कहता था और सर्वसत्यमान यहां भी !
जैसे कि मनुष्य.........
 
सर्वसत्यमान कहता है कि जो छपेगा रहेगा याद
और जो छिपेगा भुला दिया जायेगा
जो बचाने का प्रयास करेगा-वह खो देगा
और जो छिपायेगा स्वयं भूल जाएगा
जो प्रकट करेगा- रखेगा याद..... और याद रखा जाएगा......
जो मारेगा वह मरा हुआ होगा
और मारता हुआ भी अमर समझा जाएगा
कि जो मारेगा उसे अमर कहा जाएगा
और जो बचाएगा अवश्य मारा जाएगा........

इस प्रकार भी वे सामूहिक मृत्यु को प्राप्त होंगे !

कि उनकी भाषा विरासत में मिले मृत शव्दों से भरी होगी
और धरती बूढ़े कब्रों से.........और उनके पुत्र
धरती पर पांव रखने के पहले ही लौट जाएंगे.......
उनके पेट रोटियों से भरे होंगे और दिमाग शब्दों से
उनकी भाषा में भूखे पेटों का जिक्र होगा !

उनकी बुद्धि हत्यारे यन्त्रों के निर्माण में लगी होगी
उनके कन्धों पर मृत्यु के गोले होंगे
उनके पानी में उनके दुष्ट कर्मों का जहर घुला होगा.....
वे अपने आसमान को काले धुंएं से भर देंगे
उनकी गलियों में हत्याएं होंगी और उनकी आत्मा....
प्रतिशोध के ज्वालामुखियों से टूट और कांप रही होगी......
वे अपने ही समर्थन के दल-दल में औंधे मुंह गिरकर
छटपटा रहे होंगे- वे जीवन मांगेंगे और मृत्यु पाएंगे !

सर्वसत्यमान कहता है कि मूखोर्ंं का प्रभु पवित्रता और शानित नहीं
ऐश्वर्य ,आतंक ,र्इष्र्या और आश्चर्य के लिए होगा
उनकी स्मृतियों में हत्याएं होगी और धमोर्ं में शैतान
वे उनकी दुर्बलताओं ,अवगुणों ,अपराधों और
अपने अभिशापों-पापों का नर्क उठाए...'स्वर्ग पर चढ़ार्इ करेंगे
वे यधपि शातिर और धूर्त होंगे किन्तु न्याय और विश्वास की बातें करेगे
वे स्वयं अज्ञानी होंगे किन्तु अन्य मनुष्यों में शपथपूर्वक सत्यज्ञान का प्रचार करेंगे
वे छुपे हुए डाकुओं-लुटेरों की तरह मुझ मनुष्यों के बीच स्वयं को
अज्ञात का प्रतिनिधि भविष्यवक्ता -एकमात्र तदाकार
नबी और पैगम्बर होने का प्रचार करेंगे......
वे सारे मनुष्यों को बिना शर्त मुक्त स्नेह से
सौंपे गए सर्वोत्तम विवेक के पवित्र प्रकाश को
अपनी यश-चर्चा , प्रभुत्व-प्रभाव और
प्रचारक महत्वाकांक्षाओं के अन्धकार और धुंएं से ढंक देंगें ......

सर्वसत्यमान कहता है कि
वे प्रतिनिधि झूठे ,चालाक और नाटकीय मनुष्य
स्वयं को सर्वज्ञ पैगम्बर-मसीहा घोषित करते हुए
औरों को मूर्ख और दीन करेंगे और कहेंगे-
सारे मनुष्यों को उसके द्वारा मुक्त भाव से बांटे गए
शकित ,सम्मान और अधिकार का अपहरण करते हुए
उनके वंशजों-पीढि़यों तक का अपमान और भत्र्सना करेंगे
और इसप्रकार अपने सत्यज्ञान के अधिकार और प्रकाश से वंचित
वे निरीह मनुष्य भेड़ और बकरियों के समान हांके और चराए जाएंगे........

अपना सब कुछ शैतान को सौंप देते हुए
इसप्रकार वे एक साथ शैतान के राज्य में प्रवेश करेंगे
वे शैतान से प्रेरित और उसके अनुयायी होंगें
वे शैतान के बताए हुए रास्तों पर चलेंगे
वे शैतान के सामथ्योर्ं के विनम्र और अबोध गायक होंगे
वे शैतान के आश्चर्यपूर्ण चिàों और कायोर्ं की कभी न खत्म होने वाली चर्चा में लिप्त होंगे
वे नशेबाजों ,मधपों ,कायरोंं और हीनों की तरह
स्वयं को असमर्थ और व्यर्थ मानकर
शैतान से अपने लिए - अपने बीच से
निरंकुश ,दंभी और पाखंडपूर्ण शासक की कामना करेंगे.......

वे स्वयं को छोटा करते जाने की शपथपूर्वक घोषणा करेंगे
वे स्वयं को छोटा रखने के लिए संकल्प लेंगे
वे अपने छोटेपन के प्रति प्रतिबद्ध होंगे
वे अपनी दीनता का अभिनय करते हुए अपने शासक की महानता के गीत गाएंगे
वे उसकी स्तुति में झूठी प्रशंसा के गीत गाएंगे और
अपने उल्टे हथियारों और झुके हुए सिरों से सलामी देंगे
वे रोटियों के लिए स्वयं को छोटा करने को विवश होंगे
और धरती पर जिन्दा रहने के लिए शैतान के आदेशों पर बुरे-बुरे काम करेंगे
शैतान उन्हें गोलियां और बारूद देगा और पीने के लिए मदिरा......

उनकी धरती काल्पनिक सीमाओं में बांट दी गयी होगी
और उन सीमाओं को छूने वाले लोग शैतान की दृषिट में अपराधी होंगे
शैतान उन्हें उनके मुकित प्रयासों के लिए दणिडत करेगा
उन्हें भयानक यातनाएं और मृत्यु-दण्ड देगा
उन्हें अपने ही भाइयों और पड़ोसियों की हत्या करने के आदेश दिए जाएंगे
वे एक-दूसरे का बध करने के लिए सम्मानित और पुरस्कृत होंगे
उनके द्वारा बहाए गए लहू के लिए
उनके वस्त्रों पर स्वर्णपदक और तमगे होंगे........

सर्वसत्यमान कहता है कि उसने जब
सृषिट की रचना की तब शैतान नहीं था-
उसने आदम की रचना की और उसे प्यार किया
उसने आदम को प्यार किया और अपने सारे अधिकार उसे दे दिए
उसने आदम को प्यार किया और उसे भी
अपने जैसी एक नर्इ सृषिट रचने की शकित दी
उसने आदम को उसके कर्मों में स्वतंत्र और स्वयंभू किया
उसने आदम को उसके दुष्कमोर्ं पर प्रायशिचत दी
उसने आदम को उसकी भूलों के लिए क्षमा दिया
उसने आदम को उसकी क्रूरताओं के लिए दया दी
उसने आदम को उसकी निर्मम हत्याओं के लिए दूसरों के प्क्ष में
अपने जीवनदान और आत्मोत्सर्ग की व्यवस्था दी
उसने आदम को अपने सारे कमोर्ं का न्यायी और उत्तरदायी किया.....

सर्वसत्यमान कहता है कि उसने जब
सृषिट की रचना की शैतान नहीं रचा-
सबसे पहले आदम ने अपने कमोर्ं में अहंकार उत्पन्न किया
फिर आदम ने अपने पुत्रों को अहंकारपूर्ण कमोर्ं की प्रतिस्पद्र्धा और प्रतिशोध की परम्परा दी
प्रतिस्पद्र्धा और प्रतिशोध ने घृणा.......घृणा से क्रोध और क्रोध से अविवेक
अविवेक से अज्ञान...... अज्ञान से शैतान ......शैतान से असुरक्षा
असुरक्षा से स्वार्थ.... स्वार्थ से लोभ
लोभ से अर्थ......अर्थ से अपराध और अपराध से पाप उत्पन्न हुआ
पाप से संघर्ष और संघर्ष से युद्ध ,अराजकता और हत्याएं हुर्इं
हत्याओं से भय और भय से राज्य उत्पन्न हुए
राज्य से शकित और शकित से शासक उत्पन्न हुए
शासकों से सीमाएं और सीमाओं से आतंक उत्पन्न हुआ........

सर्वसत्यमान कहता है कि इसप्रकार आदम और उसके वंशजों ने
अपने दुश्ट कमोर्ं और अज्ञान से शैतान को जन्म देते हुए
शैतान में बदल जाते हुए 'स्वर्ग के राज्य के समानान्तर
'नर्क का राज्य उत्पन्न किया - अपने लोभियों और पाखणिडयों से
अपने स्वार्थियों और अपराधियों से ......अपने मूखोर्ं और व्यभिचारियों से
अपने भ्रष्टों और भोगियों से.......अपने कुविचारकों, कुनियामकों और रोगियों से
अपने आलस्य और उपेक्षा से.......दायित्वहीनता और निषिक्रयता से
'स्वर्ग के राज्य को 'नर्क और अभिशाप के राज्य में बदल दिया.........

सर्वसत्यमान कहता है कि वह अपने प्रिय आदम की भूलों,
गलतियों,भटकावों और दंभ से रचे गए नर्क के राज्य से क्षुब्ध होकर
अपने 'स्वर्ग के राज्य सहित स्वयं को असार्थक और निरस्त
समाप्त और अप्रासंगिक करेगा.......

तब जब वह अपनी प्राण-वायु के समुद्र को काले धुंएं से भर देगा
तब जबकि वह बहती हवाओं को गन्दा करेगा और अपनी सांसों को भी
तब जबकि वह जल में अपने ही द्वारा घोले गए जहर से मर रहा होगा मछलियों की तरह
तब जबकि उसकी भूख की भीड़ से रौंदी जाती हुर्इ थककर दम तोड़ने लगेगी धरती
तब जबकि उसके हिस्से का अन्तरिक्ष उसके ही द्वारा फेंके गए मलबों से भर जाएगा
तब जबकि अपनी ही महत्वाकांक्षाओं के अतिचार से
अपनी ही दुनिया को बीमार करता हुआ
एक दिन स्वयं ही बीमार होकर दम तोड़ने लगेगा आदम.......
उस दिन जब आदम अपने ही अपराधों के बोझ तले दबकर मरने लगेगा......
अपने द्वारा दिए गए जीवन के अधिकार की समापित के लिए
उसको सौंपे गए आसमान को मृत्यु के विकिरणों से भर देगा.......

सर्वसत्यमान कहता है कि आदम को दिए गए अपने हर दान के लिए
अपनी भूल पर प्रायशिचत और मनुष्य को अभिशप्त करेगा
अपने द्वारा दिए गए जीवन के अधिकार की निरसित से और
उसको सौंपे गए आसमान को मृत्यु के विकिरणों से भरकर .......

अपने दिए हर अधिकार को वापस लेकर और अपने दिए हर अधिकार की समापित से
दुखों और अज्ञान से पीडि़त करके और अपने कुकृत्यों पर शर्म और अपराध-बोध के उदय से
दीनों ,कायरों और मूखोर्ं को तेजस्वी विवेक की आत्मा देकर और दंभी परपीड़कों के पतन से
अपनी महानता के प्रचार के लिए दूसरों की महानता और सम्मान का अपहरण करने वाले-
समर्थ-सनकियों और गुमराहों को असमर्थ और अपमानित करते हुए और
ज्ड़ीभूत वैधानिक प्रभुओं की आदिम व्यवस्था की समापित से.........
सर्वसत्यमान कहता है कि वह एक नए पुनर्जन्म के लिए
धूतोर्ं को मूर्ख और शैतान को शून्य करेगा....शैतान के राज्य का विनाश करेगा......

वह सब कुछ को सर्वसत्यमान और असत्य का अवसान करेगा
वह जैसा है वैसा नहीं......जैसा होना चाहिए वैसा ही होने देगा
जो कुछ और जिसका है ,उसका ही और उसको ही देगा.......
वह शैतान की शरारतों को पवित्र आचरण से परास्त करेगा और
शैतान की चालाकियों को पवित्र बुद्धि से निरस्त.......
चेतना देखे कि अब वह कोर्इ दूसरा नहीं बलिक एकमात्र स्वयं होगा
एक और अद्वितीय-पदार्थ से ऊर्जा और ऊर्जा से सृषिट तक
सृषिट से जीवन तक और जीवन से चेतना तक
चेतना से अर्थ तक और अर्थ से भाषा तक....
भाषा से मनुष्य तक और मनुष्य से प्रकृति.....सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड तक
सिर्फ वही प्रकाशित और सर्वसत्यमान !

सर्वसत्यमान कहता है कि वह देह में आंख की तरह है और सृषिट में जीवन-सा
पदार्थ में चेतना की तरह है और जड़ता में मन-सा
मन में भाव और विचार की तरह है और सारे ब्रहमाण्ड में मनुष्य-सा !

कि जिज्ञासु ,तटस्थ ,र्इमानदार और विनम्र विचारक मनुष्य ही
सर्वसत्यमान की सर्वोत्तम-प्रतिनिधि अभिव्यकित है
और उसका विवेक ही र्इश्वर......
कि मनुष्य र्इश्वर है और र्इश्वर मनुष्य
कि प्रकृति मनुष्य है और मनुष्य प्रकृति
और प्रकृति का सर्वोत्तम विकास ही र्इश्वर का सर्वोत्तम विकास है
और मनुष्य के सारे प्राकृतिक अर्थ और विश्वास र्इश्वर के !

कि प्रकृति का सम्पूर्ण असितत्व ही पहला सच है ....पहला र्इश्वर !
अन्तरिक्ष के ओर-छोर तक फेला सर्वव्यापी और अनाम.......
मनुष्य के भाषाग्रस्त मन और बुद्धि के बाहर-
सम्पूर्ण भूतों की वास्तविक और आश्चर्यपूर्ण उपसिथति की तरह....

दूसरा सच .....दूसरा र्इश्वर कि अपने सारे आविष्कारों और
सभ्यता के अपने सारे विकास के साथ मनुष्य का हर निर्माण प्राकृतिक है
प्रकृति की अन्तर्निहित संभावनाओं का विकास-कि वह हो सकता था और हुआ
वह सोच सकता था और उसने सोचा-जो कुछ सोचा गया.......
जो कुछ सोचा जा रहा है और जो कभी भी सोचा जाएगा-
सब अपनी संभाव्यता में प्राकृतिक है......कि वह कर सकता था और उसने किया......
कि वहां साधारण ही असाधारण है और सामान्य ही असामान्य
कि यहां हर जीवन जड़ता का भविष्य है और हर जड़ जीवन का अतीत.....
कि यहां भाषा रचता मनुष्य भी प्राकृतिक है और मनुष्य की रची भाषा भी
कि अपने रचे सारे विश्वासों और अविश्वासों ....धारणाओं और परिकल्पनाओं के साथ
अपनी सम्पूर्ण संवेदनाओं और भावनाओं के साथ......अद्वितीयता ,दिव्यता और विशिष्टता के
अतिभव्यीकृत आत्ममुग्धता के मोहक दावों के बाद भी मनुष्य एक फसल है-
जिसके मसितष्क के ज्ञान तन्तुओं में भाषिक सृषिट के अन्तर्गत
सृजित संज्ञान के रूप में उपसिथत है दूसरा सच-दूसरा र्इश्वर !
भाषा का र्इश्वर......भाषा में र्इश्वर-र्इश्वर साभ्यतिक-सांस्कृतिक और मानवीय !
उसके उत्सवों और उल्लासों में......उसके भावों और उछवासों में......
उसके दुआओं और बददुआओं.....उसके आशीर्वादों और शापों में......

तीसरा सच.......तीसरा र्इश्वर कि हर जीवन एक पूर्ण सृषिट है
हर जीवन प्रकृति की एक पूर्ण और पवित्र उत्पतित है....अभिव्यकित है....उपसिथति है
कि पर्यावरण के सम्पूर्ण-साझे उत्तराधिकार के लिए 'मनुष्य  भी
एक अपूर्ण और संकीर्ण नस्लीय अवधारणा है......
कि सम्पूर्ण असितत्व  से हर जीवन के अभिन्न अन्तर्सम्बन्ध और एकता का
सर्वव्यापी व्यकितत्वीकरण और जीवन की अदभुतता की पहचान है र्इश्वर.......
र्इश्वर एक स्वामित्व है हर जीवन का ब्रहमाण्ड के हर कण पर......
र्इश्वर एक अर्थ-सौन्दर्य है जीवन की गरिमापूर्ण विस्मयता का.........

तीसरा सच.......तीसरी सृषिट......तीसरा र्इश्वर कि
र्इश्वर एक स्वप्न है और संकल्प-
मानव जाति के शैशवकालीन सारे सपनों और सम्पूर्ण अच्छाइयों को एक बार फिर
विश्लेषणजन्य विसृषिटकरण से अर्थ-शून्य हो चुके जीवन को
उसके अचेतन-अन्धविश्वासी भयभीत समर्पण से बाहर
सचेतन ,सृजन और संश्लेषणधर्मी ऐसे समर्पण की
जिसके रिश्ते प्रागैतिहासिक कबीलों से बाहर
सुदूर आकाशगंगाओं के गुमनाम विस्फोटों से भी हों.......
जिसके चुम्बन में डूबकर घुल जाय काला अन्तरिक्ष !

कि दुनिया की हर आंखें संवेदना झंकृत बेतार से जुड़ी हों
कि दुनिया का हर दिल दूसरे दिल से आत्मीय अन्तर्संवाद करता हुआ धड़के
कि कांपते अधरों की थरथराहट हत्या में उठे हाथों तक पहुंचे
कुछ ऐसे कि घृणा भरे थूक के दलदल में डूब जायें दुनिया की सारी बन्दूकें
सारे टैंक और मिसार्इल-पक्षाघात से हमेशा के लिए बन्द हों जांये क्रूरता रचने वाले दांत.....
तीसरा र्इश्वर.......तीसरा सृजन कि एक बार फिर यह दुनिया
सर्वव्यापी सरोकारों में पुनर्जीवित हो उठे......कि एक सम्पूर्ण -साझे स्वार्थ और
सामूहिक सपने का हिस्सा बनकर-एक सम्पूर्ण साझे उत्तराधिकार और दायित्वबोध के साथ
एक आनन्दपूर्ण सम्पूर्ण सामाजिक संवाद में एक बार फिर सृजित
और साकार हो जाये- पहला र्इश्वर और दूसरा र्इश्वर....
तीसरा र्इश्वर कि हर मनुष्य बन जाये एक शिष्ट-शालीन ,छोटा किन्तु
सम्पूर्णता का प्रतिनिधि एक प्रतिबद्ध और निर्विरोधी र्इश्वर........
मानवता के शोषक अतीत से मुक्त एक सहयोगी और वैकलिपक भूमिका में
अपने आत्मीय श्रम-सृषिट का प्रदाता और वितरक-
मानवीय,साभ्यतिक , सांस्कृतिक और प्रबुद्ध व्यवस्थायित र्इश्वर......

पहला र्इश्वर है
दूसरा र्इश्वर हुआ
तीसरा र्इश्वर होना है..... और होगा-
सृषिटकरण की एक अन्तहीन श्रृंखला में.........
मानव की प्रबुद्ध और सचेतन सर्जक चिन्ताओं ,स्वप्नों और सकि्रयताओं में
ब्रहमाण्ड के अन्तरिक्षीय विस्तार में फैले हुए पहले र्इश्वर के समानान्तर
तीसरा र्इश्वर-एक बार फिर........

असितत्व के सर्वव्यापी विस्तार की तरह
जो है....जहां है....जैसा है-जैसा हो सकता है और जैसा होना चाहिए !
जीवन की पृष्ठभूमि पर .....जीवन के समानान्तर
एक मानवीय पुनर्सृषिट-उतनी ही प्राकृतिक.....जितना कि मनुष्य !

कि मनुष्य को होना और दिखना चाहिए
कुछ ऐसे कि जैसे र्इश्वर दिख रहा हो मनुष्य बनकर
दिखना चाहिए असंख्य नक्षत्रों और सूरज की तरह
चुपके-चुपके रचते हुए अपना होना
गरजना और बरसना चाहिए किसी बादल की तरह.....
तीसरा र्इश्वर'-जहा र्इश्वर के होने से भी महत्वपूर्ण है
र्इश्वर के होने का स्वप्न और र्इश्वर होने की आकांक्षा
और जहां एक नैतिक मनुष्य होना जीवित र्इश्वर को साकार करना है
सत्य बोलते और सुनते हुए......जीते हुए जीवन-न्यायी और मानवीय

तीसरा र्इश्वर- जो कि सपने देखता है विराटता के
अपनी सर्वव्यापकता को एक बार फिर पाने और देखने का अभिलाषी
मनुष्य के जीवन,कल्पनाओं और शब्दों में एक बार पुन:
सृजित होता हुआ र्इश्वर
अनन्त सम्भावनाओं वाली सृजनशीलता की अन्तहीन नियति !
असंख्य असितत्वों में बंटी-बिखरी सामूहिकता की पुनप्र्रापित......

तीसरा र्इश्वर तो जन्म ल्ेता है सही क्रोध से
सही नाराजगी और नापसन्दगी में
सही प्रतिरोध और नागरिक विरोध में
एक र्इमानदार असहमति के साथ जन्म लेता है तीसरा र्इश्वर
एक नए सर्जक की भूमिका में......

तीसरा र्इश्वर किसी बच्चे के पराश्रित जीवन की तरह
दूसरों से सिर्फ मांगते रहने का नाम नहीं है
तीसरा र्इश्वर एक विकासपूर्ण स्वावलम्बन है
विकेनिद्रत असितत्वों का एकीकृत संयोजन है-
एक नर्इ दुनिया....नये विश्वासों को जन्म देता हुआ......
अनसुलझी समस्याओं के नए समाधानों को आविष्कृत करता हुआ.....

तीसरा र्इश्वर एक पिता मनुष्य है
अपनी ही शतोर्ं पर एक नर्इ दुनिया को
पाने और देने की प्रस्तावना करता हुआ.....
तीसरा र्इश्वर किसी र्इश्वर की खोज में भटकना नहीं
अपने भीतर ही र्इश्वर को रचना है
र्इश्वर हो जाना है....र्इश्वर को जीना है-र्इश्वरता लाना है

कि अंधेरे में छिप जाते हैं सारे रंग
और जीवन व्यक्त नहीं हो पाता है
तीसरा र्इश्वर एक अर्थ है और प्रकाश......
तीसरा र्इश्वर एक अनश्वर प्रतीक है
मनुष्य जाति की सम्पूर्ण अच्छाइयों और सृजनधर्मिता का
तीसरा र्इश्वर एक यात्रा है अपनी पिछली सारी उपतबिधयों को
आत्मार्पित कर जन्म पाने वाली एक नर्इ मनुष्यता का.......
तीसरा र्इष्वर एक जीना है
जीवन को उसके सभी आयामों की सम्पूर्णता में
तीसरा र्इष्वर र्इष्वर को खोजना नहीं र्इष्वर होना और बनना है
अपने साथ-साथ दूसरों को भी जीना है
अपनी और दूसरों की र्इष्वरता को साझे और सम्पूर्ण सम्मान के साथ !
तीसरा र्इष्वर अक्षय और अन्तहीन असितत्वचक्र का सम्पूर्ण साक्षात्कार है


जबकि वहां ज्ञान ही भाषा है और भाषा ही 'र्इश्वर
भाषा ही 'र्इश्वर है और भाषा ही 'मनुष्य- जैसे कि ' जीवन .....
जबकि वहां भूमिकाएं संज्ञा बन गर्इ है और असितत्व ही शब्द
जबकि वहां शब्द ही सत्य बन चुके हैं और भ्रम ही विचार
जबकि वहां सब जीवन था और उसके असितत्व की व्यवस्थाएं
और कहीं भी नहीं थे सच -स्त्री और पुरुष
जाति और धर्म.....'खुदा और 'र्इश्वर
सिर्फ भाषा के अतिरिक्त !

मैं कैसे कहूं कि सब र्इश्वर की ओर से है
मैं परिसिथतियों के अर्थहीन दुष्चक्र में फंसे जीवन की तरह
निरीह और मूर्खतापूर्ण र्इश्वर का क्या करूंगा ?
मैं क्या करूंगा उस र्इश्वर का जो अपने पुत्र का बार-बार लहू बहाए जाने के बाद भी
सभ्य और संवेदनशील नहीं हुआ अपने पुत्रों को करने के लिए क्षमा
सब कुछ सही हो जाने की सम्वादहीन प्रतीक्षा में
अपने सृजनशील प्रयासों की जगह निषिक्रय प्रार्थना को मैं नहीं दे सकता
कि सम्पूर्ण विश्वास के उस सबसे नाजुक क्षण में
अपने निरीह पुरखों की तरह में क्यों द्वन्द्वग्रस्त और अभिशप्त रहूंगा कि
कौन सा सच र्इष्वर की ओर से है और कौन सा षैतान की ओर से.......

कि सारे आदिम पवित्र विष्वासों के बावजूद
पारम्परिक र्इष्वर एक सम्पूर्ण नैतिक अवधारणा नहीं है
कि वह नहीं निरस्त कर पाता है मनुश्य से
उसकी अपराध करने की स्वतंत्रता....
कि मनुश्य के अपराध करने ओर अपराधी बनने की स्वतंत्रता ही
र्इष्वर को एक बाध्यकारी नैतिक सत्ता नहीं रहने देती.....
कि कर्मों के अच्छे और बुरे परिणामों के बीच
वे सभी चीजें जो कभी र्इष्वर की ओर से थीं
वे अब षैतान की ओर से हो गयी हैं
अतीत के हर अलग मूल के धार्मिक विष्वास
अलग षैतानी दीवार की तरह बन गए हैं ........

जबकि  हर अनैतिकता एक संकीर्णता है
और हर संकीर्णता एक अज्ञानता......
मनुश्य की अपनी अनैतिकताओं और अपराधों के लिए
मनुश्य को उसके सारे उत्तरदायित्वों यानि जवाबदेहियों से मुक्त कर
मैं किसी अदृष्य कुंठित षैतान को जिम्मेदार नहीं बनाना चाहता......

जबकि मनुश्य की अपराध करने की स्वतंत्रता ही प्रमाणित करती है कि
मनुश्य ही र्इष्वर है और जो र्इष्वर होकर भी र्इष्वर की तरह चारित्रिक व्यवहार नहीं कर रहा है
कि वह इस लिीए षैतान है कि वह र्इष्वर की तरह नहीं जी रहा है
कि इस दुनिया में र्इष्वर को खोजने की नहीं
बलिक र्इष्वर की तरह होने ,जीने ,करने और बनने की जरूरत है

जबकि इस दुनिया में हैं अनेकों धर्म
और किसी प्रचलित एक धर्म को मानना ही
अनेक दूसरे धमोर्ं को न मानना है
जबकि दुनिया के सारे धर्म अतीत की मानव-जाति से प्राप्त एक भूतपूर्व विचार हैं
वंषानुगत दाय में मिले पैतृक विचार की तरह
क्योंकि र्इष्वर भी एक विचार है......

क्योंकि विचार की तरह ही एक मनुूश्य का र्इष्वर
दूसरे मनुश्य के र्इष्वर से भिन्न है
कि र्इष्वर के नाम पर विचारों का प्रदूशण
र्इष्वरों के प्रदूशण तक पहुंच गया है
मैं उस प्रदूशण का क्या करूंगा ?

मैं मानव सभ्यता के सांस्कृतिक अतीत से त्यागपत्र देना चाहता हूं
मैं मानव जाति का आदिम विषुद्ध चित्त वापस पाना चाहता हूं
मैं सभी विचारों,विष्वासों,अवधारणाओं और कल्पनाओं से परे
अपने प्राकृतिक चैतन्य को जीते हुए चित्त को वापस पा लेना चाहता हूं
मैं सम्पूर्ण उपसिथतियों के अंग-रूप में
अपनी पूर्वबोधीय निजता को  पुनव्र्याख्यायित करना चाहता हूं
मैं पहचान की सभी संकीर्णताओं का निशेध

कि यहां जो है जहां है और जिस भी रूप में है
र्इष्वर है और र्इष्वर की ओर से है
र्इष्वर अफ्रीका की तरह काला है और
इंग्लैंड की तरह गोरा
र्र्इष्वर भारत की तरह जैसा है तैसा है......
र्इष्वर अपने ही भीतर से उगा
अपने असितत्व का नैसर्गिक पहचान और स्वाभिमान है
र्इष्वर एक द्वन्द्वपूर्ण संघर्ष है-
अपनी स्वार्थपूर्ण लालची इच्छाओं और नैतिक संकल्पों के बीच.....
र्इष्वर एक भय है हीनता और निरीहता में पलते हुए जीवन के तिए
प्रभुत्व और श्रेश्ठता का आतंक है र्इष्वर
प्रकृति में