जीवनोत्तर
विमर्श.....
मैं एक देह हूं
जिन्दा फिर भी
मेरी चिन्ता यह कि
मेरी मृत्यु के पश्चात
विचारपूर्ण ढंग से
मेरी देह के साथ
होना कैसा चाहिए
अच्छा कि्रया-कर्म.....
पहला विचार तो यह कि
क्या ही अच्छा होता
यदि मैं ऐसे ही
खुली हवा में छोड़
दिया जाता मरनें पर
दूर-दूर तक धरती
होती...आसमान भी ऊपर
और कोर्इ मनुष्य न
होता(अ)शानित के लिए......
तब भी मरा सड़ जाना
तो तय है-जानते हैं जीववैज्ञानिक
कि भोजन हूं तो मैं
भी-कि बच्चे ! गिद्ध और कौओं से
यदि तुम बच भी जाते
हो तो
हमारे जाने-पहचाने
कीटाणुओं से बच भी पाओगे कैसे !
तो न बचूं-मेरा जाता
ही क्या जो
छोड़ चला जाने पर
कोर्इ ले-ले !
जीवन भर मैं खाता
रहा जीव-सम्पदा
मरनें पर वे खा जायं
तो ही है अच्छा !
यह तो अच्छा ही
रहेगा
सहमत भी होता-सा
पाता हूं
किसी भी भूखे का
भोजन बन जाना सबसे अच्छा
लेकिन मैंने सुना कि
नहीं कहीं ऐसा है निर्जन
जहां नहीं मनुष्य
दूसरा दूर-दूर तक
यह भी कि ये कीटाणु
बहुत होते हैं गन्दे
खाते समय
सड़ा-सड़ाकर फलाते हैं दुर्गन्धों को
ते यह जिन्दा मनुष्य
की घ्राणेनिद्रयों के
होगा विरुद्ध तो
निश्चय ही विद्रोह जो होगा नहीं बचूंगा
डाक्टरगण भी सहमत
होंगे निश्चय
नहीं सह सकेगे तो
नष्ट के लिए
हिन्दू हाथ जला ही
देंगे
और मुसलमान जो मुझे
ढक देंगे कब्र में और र्इसार्इ
तो ऐसे ही बच पाएंगे
सड़ने वाले संकट से वे......
लेकिन मजा तो ऐसे
में ही आएगा कि
जैसे भी इस समय
सोचकर आ रहा मजा अब से ही
कि सोचूं कि यह धरती
भी मौत से
होगी हिन्दू या
मुसलमान-र्इसार्इ.....
जलते हुए आग के
गोलों से ठंडी हो निकली धरती
जन्म से तो हिन्दू
ही है विश्वासों में
दशरथ को फल दाता
राम-पिता भी अगिन महोदय ही थे
जीवन का जो कुछ भी
सब निकला है आग से-
वैज्ञानिकों का
समर्थन दिलाते हिन्दू होंगे खुश.......
पर मेरी तो चिन्ता
ही दूसरी
यदि धरती की मौत भी
होगी
तो वह मरेगी मौत
कौन-सी !
हिन्दू की या
मुसलमान सरीखी ?
क्या वह किसी जलते सूरज
में जाकर जल जाएगी !
या वह ठंडी
होते-होते जीवन का ही बन जाए्रगी कब्र ?
जे भी हो निकली तो
वह है आग से ही
फिर तो मैं अत्यन्त
हो रहा हुलसित
मुसलमान और र्इसार्इ
के पूर्वज जीवन-अणु भी आग-पुत्र हैं
मरें मौत चाहे
जो.....
फिर तो यह भी सोच
लिया कि
हर हिन्दू या सिक्ख-र्इसार्इ
मुसलमान,पारसी,बौद्ध-जन
और सभी माक्र्सीय
नासित-जन
सिद्धान्तत: सब ही
हैं जन्म से हिन्दू
और प्रश्न मौत धरती
की तो
यह धरती यदि
फिर आग के गोलों में
ही लय न हुर्इ
ठंडी हो गयी कब्र
सरीखी
त्ब तो सारे हिन्दू
भी मौत मरेंगेे
मुसलमान और र्इसार्इ
ही की
पर यदि मैं हिन्दू
होता तो
सोच-सोचकर ख्ुश यह
होता
क्योंकि यह दुनिया
तो मरनी है एटम बम से ही
फिर तो कोर्इ
धर्म-जाति हो
सब मनुष्य-जन मरेंगे
निश्चय
एक हिन्दू की ही मौत
!
पिता-अपराध सो-च-ते हुए....
तुम डर रहे हो
क्योंकि तुम्हें डरते रहने के लिए कहा गया था
इसके पहले कि तुम स्वयं कुछ सोचो और रचो
तुम्हें भी सौंपी गयी थी एक दुनिया
पहले से भी रची और सोची गयी ।
तुम सुविधाओं में और सुरक्षाओं में पले हो
तुम्हें जहरीले पौधों और जन्तुओं की पहचान करायी गयी है
तुम्हें सौंपी गयी हैं अनेक अव्याख्यायित वर्जनाएं
ताकि तुम उन्हें समझ पाने तक बचे रह सको....
इसतरह तुम एक उत्पाद हो पिछली पिता-पीढ़ी की समझदारी के......
तुमने जीने की आदतें सीखी हैं और कला
तुमनें डर सीखें हैं और दूसरों द्वारा विरासत में मिले हुए विश्वास.....
तुम कल तक बच्चे थे और आज बनने जा रहे हो पिता
तुम एक अवसर हो डरनें और न डरने के नए चयन के लिए
तुम एक जैविक पिता ही नहीं हो
तुम एक सांस्कृतिक और साभ्यतिक पिता भी हो
एक दुर्लभ अवसर हो नए आरम्भ के लिए.......
उठो ! यह तुम्हारे सोने का वक्त नहीं है ,सोचने का है
बहुत हो लिया अब अपने छत के ऊपर
खुली हवा में निकल आओ
यदि छत न हो ता मैदान में......
सबसे पहले अपने नाम के बारे में सोचना है तुम्हें
और यह किसी भी भाषा का हो सकता है शब्द
इसे संज्ञा भी कहते हैं.....
संज्ञा हर भाषा के वे शब्द होते हैं
जो दूसरी भाषाओं में भी जाकर बनें रहते हैं अपरिवर्तनीय
जिनका नहीं किया जा सकता कोर्इ अनुवाद
ये शब्द आते-जाते हैं बस उधार यूं ही...ऐसे ही
देश और भाषा से पक्षिओं सरीखे
जन-जन से ज्यों पेड़-पेड़ से उड़ते रहते और बैठते.....
अब सोचो - तुम क्यों हो राम !
यधपि यह है ही सहज पर बात कठिन
हालांकि है भाषा की ही समस्या
कि तुम्हें राम ही क्यों कहा गया ?
जबकि पीटर ,डैनी ,रहीम,करीम-करीमन कुछ भी
कहा जा सकता था.....
अब सोचो कितने वर्ष उम्र है तुम्हारी
पांच वर्ष ! दस वर्ष ? बीस ? पच्चीस ? पचास ?
अच्छा तो तुम चालीस वषोर्ं से हो हिन्दू
और तुम पचास साल से मुसलमान
पर इतना ही नहीं
दस वर्ष पहले जन्में बच्चे को
बिना पूछे ही उससे तुमनें उसे बना रखा है हिन्दू ?
उसनें मुसलमान आठ वषोर्ं से
पांच वर्ष से उसनें सिक्ख
ऐसे ही और-और.....
आखिर तुम हो कौन
होते कौन हो
किसी के होने के ऊपर
अपना होना थोप रहे जो !
श्रीमान मियां और पंडित जी !
पूछा तो नहीं था आप-आपने अपने-अपने बच्चों से
कि तुम जन्म लेना चाहते हो या नहीं !
तुम हिन्दू बनना चाहते हो या नहीं ?
तुम गोरा या काला,अफ्रीकन या बि्रटिश बनना चाहते हो या नहीं ?
तुम अमुक भाषा-भाषी या देश होना चाहते हो या नहीं -
वैसे ही जैसे तुमसे नहीं पूछा था तुम्हारे पिताओं नें
हिन्दू या मुसलमान,हिन्दी-उदर्ू या तमिल बनाते हुए.......
यधपि आप हैं और होते हुए भी पिता
बिना पूछे स्वयं को उसका अपना पिता बताकर
उसकी नन्ही पीठ पर लद जाने वाले
उसके मन-मसितष्क पर संकीर्ण असिमताओं की इबारत लिख देने वाले....
जबकि हर पिता अपनी सन्तान के साथ
उसके जन्म के साथ ही कर देता है
एक प्राकृतिक अपराध
बिना पूछे एक नए मनुष्य जीवन को धरती पर लाकर
अपनी वासना और कामना की आड़ में
किसी निरीह शिकार की तरह घायल प्शु-सा पटक देना
रोग-शोक,दु:ख और मृत्यु की युद्धभूमि में
एक असमाप्त और अन्तहीन लड़ार्इ लड़ने के लिए.....
हां-हां महोदय ! पितृ-ऋण नहीं
पिता-एक प्राकृतिक अपराधी सन्तान का
भुगते जो उसके पालन-पोषण की सजा
सजा पूरी हो क्षमा मिल जाने तक.....
हां-हां महोदय । यह होगा आपका अपराध
एक पुत्र को जन्म देना या पुत्री को
उतना ही जितना एक रूत्री की बिना सहमति के
किए सम्पर्क पर होने वाली सार्वजनिक भत्र्सना बलात्कार की !
कि एक मानव-शिशु हमेशा ही होता है-
एक प्राकृतिक बलात्कार का शिकार और परिणाम
चहे वह विवाहित दम्पति से जन्मा हो या फिर अवैध सम्बन्ध से....
दूसरा बलात्कार कि उसको दे दिया एक नाम
तीसरा कि बिना पूछे ही उससे दे दिया एक धर्म
और उसका पिता होने का करते हुए दुरुपयोग
लगे पीटनेढालने उसे आतंकवादी अनुशासन में
अपनी सनकों की शिक्षा का पाठ पढ़ाते हुए
अपने र्इश्वर और खुदा को भी बुला लिया
अपने बलात्कार के परिणाम से अपने होने का
अनधिकृत हिस्सा मांगने....
जाओ पिता ! अब भी समय है कि
उसके उगनें में हस्तक्षेप न करते हुए
संकीर्णताओं से परे की उदारता के साथ
उसे फूलने-फलने और विकसने दो
होने दो मनुष्य-उसे छोटा मत समझो
मत बनाओं उसे अपने अहंकार का चौकीदार
बौनसार्इ या फिर निजी जागीर उसे
क्योंकि वह ह ैअब तक के सम्पूर्ण मानव-जाति के वैशिवक
उत्तराधिकार में मिले अनुभवों और सूचनाओं से समृद्ध
तुम तक बूढ़ी हुर्इ मानव-जाति का सहज उत्तराधिकारी !
तुम्हारा शिशु होते हुए भी अब तक की सभ्यता का
तुमसे भी बूढ़ा सदस्य मनुष्य होगा वह
वह ज्ञान-वृद्ध शिशु !
जाओ पिता ! और मांगो उस नवजात मनुष्य से
घुटने टेककर,उसके मस्मत को चूमते हुए मांगो क्षमा
यदि तुम मां भी हो चाहे
यदि तुम पिता भी हो चाहे
यदि तुम र्इश्वर,खुदा या गाड भी हो चाहे......
उसे चूमो ! उसे पुकारो ! और उससे मांगों क्षमा
उसके साथ खेलते और उसे प्रसन्न करते हुए
उसके लिए दूध और रोटियों की खोज में
भटको सारी धरती !
और यह मत भूलो कि
एक जिन्दा मनुष्य की हत्या कर देने से
अधिक भयानक पाप है
एक नए मनुष्य के जीवन को
उसकी इच्छा के विरुद्ध बिना पूछे इस धरती पर
भूख ,रोग और संकटों से लड़ने के लिए बुला लेना.....
उसके सामने टेककर घुटनें
उससे मांगते हुए क्षमा
उसे धीरे से अपनी बाहों में उठाओ !
शायद वह हंस दे और तुम्हारी सजा
पूरी तरह माफ कर दी जाय......
कि आयेगी
सरकार.....
लोकतंत्र की मौज
मनाती हस्ती जड़,
और तंत्र का शोक
मनाती बस्ती जड़
इतने जड़ कि
जैसे नदी किनारे बिखरे पत्थर
इतने जड़ कि
जितना मौन पहाड़......
अन्तहीन
प्रतीक्षा में सोयी अलसायी.......
पहले जैसे कि वे
देख रहे होते थे
सूना आसमान कि
आयेगी बरसात और
बादल.......
कुछ वैसे ही
हां कुछ वैसे ही
जैसे आने वाली
होती है बारात
नहीं गयी आदत जो
वह अलाव
संस्कृति
घोर प्रतीक्षा
की सूनी पत्तलें बिछाए
धैर्य-धीर से
कि आयेगी सरकार
कि कर देगी सब
काम
कि डाक्टर और
मजदूर बनकर
हाथ पर हाथ धरे
बैठे
हो जायेगा काया
पलट
बन जायेंगे
रास्ते -मकान
खुल जायेंगे
बन्द दरवाजे और
बन्द खिड़कियां
सुख की
कि आयेगी सरकार
जैसे नहर में
पानी
जैसे बिजली,जैसे सड़क
जैसे गर्मी और
बरसात......