मुझे बाजार और राजनीतिक समय के विवेक पर विश्वास कभी नहीं रहा है (यहाँ बाजार से मेरा आशय कालाबाजारी से है , जिसमें मूल्य बढ़ाने के लिए जमाखोरी आदि करके कृत्रिम अभाव भी पैदा किया जाता है.जरुरी नहींकि उसका मूल्यांकन ईमानदार ही हो.मेरी अभिव्यक्ति में बाजार उपलब्ध इतिहास, कृत्रिम एवं प्रायोजित समय का भी द्योतक है.)मैंने विलक्षण प्रतिभाशालियों को अपनी श्रेष्ठता का आत्मविश्वास न छिपा पाने के कारण बेरोजगार होकर नष्ट होते हुए देखा है.उनका अपराध सिर्फ इतना ही था कि वे व्यवस्था द्वारा उच्च पदों पर बैठाए गए नालायकों का औपचारिक सम्मान नहीं कर पाए. मुझे बिना समाज को साथ लिए घोषित और विज्ञापित महानताएं संदिग्ध लगती हैं.दरअसल होता यह है कि बहुत चर्चित जगहें महत्वकांक्षी अयोग्यों को कूट-रचना कर सफल होने के लिए उत्तेजित करती हैं. अंततः बाजार के नियम सार्वजनिक छवियों पर लागू होते ही हैं. विज्ञापितों में से कुछ की महानता को तय करने वाले भी सामान रुचियों और पक्षधरता वाले लोग रहे हैं. मेरा सदैव से यह मानना रहा है कि सामाजिक सार्थकता और सृजनात्मक विशिष्टता दोनों के आधार पर ही किसी रचनाकार के अवदान का मूल्यांकन होना चाहिए - न कि समर्थकों और निंदकों के संख्याबल के आधार पर.
मेरा यह भी मानना रहा है कि पूर्वाग्रह रहित विश्लेषण के आधार पर बाजार द्वारा विज्ञापित कई नाम ,जितना कि वे विज्ञापित किए गए हैं- तटस्थ विश्लेषण के बाद उससे कमतर भी सिद्ध हो सकते हैं और कई उससे बहुत अधिक महत्वपूर्ण हो सकते हैं , जितना कि वे जाने जाते हैं.ऐसा साहित्यिक विपणन प्रभाव और राजनीतिक आधारों पर संभव है.
हिंदी साहित्य में बहुत कुछ अमूल्यांकित अथवा संदिग्ध मूल्यांकित विज्ञापित है.बहुत कुछ ऐसा है जिसे विज्ञापित होना चाहिए था लेकिन उसे समय-सम्बन्ध के समीकरणों नें मंच से नेपथ्य में विस्थापित कर दिया. हिंदी साहित्य की सृजनशीलता को वैयक्तिक और सामूहिक (संगठनात्मक) दोनों ही प्रकार की सामाजिकता नें संदिग्ध और प्रदूषित भी किया है . पूर्व-निर्धारित शर्तों के आधार पर व्यापक पैमाने पर सृजनशीलता का निषेध भी प्रस्तुत किया गया है और लोगों की मानसिक ऊर्जा को अतीतागामी यूटोपिया एवं कल्पनाजीविता की ओर मोड़ने की साजिश भी हुई है.