रविवार, 19 मई 2013

एक अधूरी कविता

सारी उडाने असमर्थता से शुरू हुई थीं
पिता के आदेशों और अनुशासनों से बंधे हुए मन के भीतर
उड़ता रहा मन पिता के प्रतिबंधों के दायरे में
अपनी जीवित देह छोड़कर

सामने से सायरन बजाते हुए गुजर रही थीं पुलिस की गाड़ियाँ
मैं जितना ही डरता गया
पुलिस से बचने के लिए पुलिस में भारती होने की सोचने लगा
पुलिस वाले नेताओं की ड्यूटी में  थे
फिर मैं भी देखने लगा स्वप्न
की मैं भी घिरा रहूँ ऐसे ही पुलिस से
सबसे चमकदार वस्त्र और सबसे असरदार मुस्कान में