व्यवस्था-चिंतन,निर्माण और रूपान्तरण एक सतत प्रक्रिया है.लोग नियमित क्रांति को तो विकास और परिवर्तन समझते हैं और अनियमित या आकस्मिक क्रांति को ही क्रांति समझते हैं.समस्याए इसलिए व्यवस्था के परिष्कार को सतत क्रांति कि सैद्धांतिक अवधारणा के रूप में देखा जाना चाहिए.बढ़ती जनसंख्या के साथ चीजें इतनी गतिशील हैं कि पूर्व-निर्धारित परिकल्पनाओं से काम नहीं चल सकता.अतीत की सूचनाओं और ज्ञान पर आधारित
अतीत कि सूचनाओं और ज्ञान पर आधारित परिकल्पनाएं पिछड़ जाया कराती हैं .व्यवस्था सम्बन्धी परिकल्पनाएं भी उनमें से एक है .बढ़ती जनसँख्या के सापेक्ष बढ़ रही हैं.
इसलिए क्रांति कि प्रतीक्षा में व्यवस्था के रूपान्तरण को देर तक स्थगित नहीं रखा जा सकता.किसी तरह का स्थगन समस्या को बढ़ाएगा ही.दूसरी बात यह है कि व्यवस्था कि सृजनशीलता और परिष्कार की अपनी सीमाएं हैं.मानव-जाति कि सृजनशीलता के सारे आयामों को सिर्फ व्यवस्था कि सृजनशीलता के माध्यम से ही नहीं पाया जा सकता.बाजार-व्यवस्था बहुत कुछ स्वायत्त और अपने ही नियमों से संचालित होती है.क्रांति को सिर्फ राजनीतिक सृजनशीलता के दायरे में रखकर सोचने वाले संकीर्णता के कारण गलत भी हो सकते हैं.
अतीत कि सूचनाओं और ज्ञान पर आधारित परिकल्पनाएं पिछड़ जाया कराती हैं .व्यवस्था सम्बन्धी परिकल्पनाएं भी उनमें से एक है .बढ़ती जनसँख्या के सापेक्ष बढ़ रही हैं.
इसलिए क्रांति कि प्रतीक्षा में व्यवस्था के रूपान्तरण को देर तक स्थगित नहीं रखा जा सकता.किसी तरह का स्थगन समस्या को बढ़ाएगा ही.दूसरी बात यह है कि व्यवस्था कि सृजनशीलता और परिष्कार की अपनी सीमाएं हैं.मानव-जाति कि सृजनशीलता के सारे आयामों को सिर्फ व्यवस्था कि सृजनशीलता के माध्यम से ही नहीं पाया जा सकता.बाजार-व्यवस्था बहुत कुछ स्वायत्त और अपने ही नियमों से संचालित होती है.क्रांति को सिर्फ राजनीतिक सृजनशीलता के दायरे में रखकर सोचने वाले संकीर्णता के कारण गलत भी हो सकते हैं.