बुधवार, 30 अप्रैल 2014

ऐरिक हाब्सबाम की इतिहास- दृष्टि और मार्क्सवाद






ऐरिक हाब्सबाम के लिए मार्क्स  सिर्फ एक विचारधारा ही नहीं बल्कि एक ऐतिहासिक उपस्थिति भी हैंं । यधपि  एक इतिहासकार के लिए किसी भी उपस्थिति को अस्वीकार करना प्राय: असंभव ही है । यधपि वह किसी से सहमत या असहमत होने एवं  विषय की प्रकृति के कारण  र्इमानदारी से महसूस और स्वीकार करने के लिए स्वतंत्र हैं  । लेकिन एरिक की मार्क्सवाद  के प्रति पक्षधरता एवं प्रेम सिर्फ इतिहासकार होने के कारण ही नहीं है ।  मार्क्स उनके लिए  आधुनिक भौतिकवादी वैज्ञानिक सभ्यता और क्रांतिकारी  युग-परिवर्तन के स्वाभाविक दार्शनिक हैं । इसीलिए वे विचारक मार्क्स और उनकी विचारधारा कोे एक स्वााभाविक विकासक्रम में देखे जाने का आग्रह करते हैं । मार्क्सवाद उनकी दृषिट में आधुनिक भौतिकवादी वैज्ञानिक जीवन -दर्शन का स्वाभाविक विकास एवं निष् पतित है ।  आधुनिक युग के लिए वह उतना ही स्वाभाविक औा अपरिहार्य दर्शन है ,जितना कि डार्विन का विकासवाद ।  मार्क्स उनकी दृष्टि में आधुनिक पूंजीवाद और औधोगिककरण युग के अपरिहार्य दार्शनिक हैं- एक स्वााभाविक मांग हैं ।
          इसीलिए एरिक हाब्सबाम मार्क्स की उस उपस्थिति को भी एक इतिहासकार के रूप में देख पाते हैं,जिसे राजनीतिक घटनाओं और सत्ता के आधार पर देखने वाले नहीं देख पाते हैं । एरिक के लिए  मार्क्स आधुनिक विचारशीलता की एक अन्त:प्रेरणत्मक दृष्टि हैं । उनके लिए मार्क्स  उसीप्रकार आधुनिक भौतिकवादी वैज्ञानिक सभ्यता-युग की बौद्धिकता के महत्वपूर्ण वैचारिक आयाम हैं ,जिस तरह कि गेलीलियो,डार्विन,,न्यूटन,फ्रायड या आइन्स्टीन । एक विचारक के रूप् में मार्क्स के दृष्टि -संयोजन में उनके भौतिकवादी वैज्ञानिक युग की पृष्ठभूमि छिपी हुर्इ है । इसीकारण से मार्क्स को सहसा उसीप्रकार अप्रासंगिक या खारिज नहीं किया जा सकता ,जैसे कि आधुनिक वैज्ञानिक युग एवं सभ्यता को  अप्रासंगिक या खारिज नहीं किया जा सकता ।
            ऐरिक हाब्सबाम के लिए अतीत से तात्पर्य उन संवैधानिक,प्रशासनिक और संस्थागत स्मृतियों और अनुभवों से भी है , जिनके विकास में बौद्धिक मानवीय प्रयासों की एक लम्बी श्रृंखला छिपी हुर्इ है । यह सिर्फ राजनीतिक ही नहीं है ,बलिक समाज को प्रभावित करने वाली उस अभियानित्रकी के रूप में भी है ,जिसके सुधारों और परिष्कारों का भी स्मृति और इतिहास है । जिसकी समझ भविष्य के नए निर्माण का आधार बनती है । मार्क्स की चर्चा करते हुए हाब्सबाम  समाजवाद के उस यूटोपिया प्रभाव की भी चर्चा कीते हैं जो एक कार्यात्मक प्राप्तव्य या लक्ष्य आदर्श के रूप में गुजरते वर्तमान को प्रभापित करता है । अच्छे समाज का यूटोपियन माडल या बांछित राजनीतिक व्यवस्था भी समाज एवं व्यवस्था के विकास की दिशा को प्रभावित करती है । संस्थाओं और मूल्यों के प्रकार्यात्मक स्वरूप् और निर्माण को भी अतीत के विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्ष ही प्रभावित करते हैं ।
          एक विचारधारावादी मार्क्स का समर्थक मार्क्स को एक आकसिमक -अप्रत्याशित  आविष्कारक परिघटना के रूप् में देखता है । वह उन्हें सम्पूर्ण रूप से एक समग्र प्रारम्भ-बिन्दु के रूप में देखता है । जबकि हाब्सबाम उन्हें मानव-सभ्यता के स्वाभाविक ज्ञानात्मक विकास-क्रम में उपसिथत  युग-प्रवर्तक विचारक के रूप् में देखने का आग्रह करते हैं ।मार्क्स की विचारधारा में निहित उन आधुनिक अन्तदर्ृषिटयों को पहचानने का आग्रह करते हैं,उन सूत्रों को भी-जो एक विचारक और विचारधारा के रूप में मार्क्स के विवेक-संयोजन को संभव करते हैं ।
          कोर्इ असिमतावादी गैरमार्क्सवादी सोवियत रूस के पतन के बाद सहसा ही मार्क्स को पूरी तरह खारिज मान सकता है । कुछ वैसे ही जैसे तालिबानियों नें गौतमबुद्ध की प्रतिमा का ध्वंसकर उन्हें अनुपसिथत करना चाहा । इस दृष्टान्त के माध्यम से एरिक हाब्सबाम की  इतिहासकार की दृषिट को समझना तभी संभव हो सकता है ,जब हम यह कल्पना करें कि तालिबान के विस्फोटकों नें  बुद्ध की विशालकाय प्रतिमा को जब ढहाया होगा तब उस विशालकाय प्रतिमा को बनाने वाली चटठानें वहीं मलबे एवं पत्थरों के रूप् में गिरी होंगी । विध्वंस के बाद भी एक विशालकाय मलबे का ढेर वहां होगा ही होगा । ऐसे ही मार्क्स की विचारधारा के निर्माता तत्व भी मार्क्स के पूर्व एवं उनके समकाल में उपसिथत तत्व रहे होगे ।  मार्क्सवाद को अप्रासंगिक एवं कालातीत घोषित कर देने के बाद भी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के उन महत्वपूर्ण तत्वों की उपसिथति को उसके प्रभावों में देखा जा सकता है । उन  शकितयों और प्रवृतितयाेंं की पहचान के रूप में भी जो पूर्ण विसर्जित नहीं की जा सकतीं ।
          इसी इतिहास-दृषिट के कारण वे अपनी पुस्तक 'आन हिस्æी  की भूमिका में स्वीकार करते हैं कि  मार्क्स के बिना मैं सामाजिक रूचि का विकास कदापि नहीं कर पाता । माक्र्स और सक्रिय क्रानितकारी युवा मार्क्सवादियों नें मुझे अनुसंन्धान का विषय और प्रेरणा दी,जिसके कारण मैं लिख सका ।मार्क्स की भौतिकवादी इतिहास-दृषिट इतिहास के अध्ययन की सवोर्ंत्तम दिशा-निर्देशक है । चौदहवीं शताब्दी के महान विद्वान इब्न खाल्दून नें इतिहास को विभिन्न कायोर्ं और पेशे वाले मनुष्यों की गतिविधियां माना है । हाब्सबाम यह स्वीकार करते हैं कि यह दृषिट ही आधुनिक पूंजीवाद और योरोपीय मध्य-युग के बाद उसकी परिचालक परिवर्तनों को समझनें की कुन्जी रही है । (पृ0 11) एरिक हाब्सबाम के लिए मार्क्सवाद आधुनिक विश्व कोसमझने ंके लिए अन्तदर्ृषिट के विकास का एक प्रातिभ बौद्धिक निवेश है ।
 दरअसल विश्वप्रसिद्ध बि्रटिश साहित्यकार टी.एस. इलियट की तरह एरिक हाब्सबाम भी एक सातत्यवादी विचारक हैं । उनके लिए भी अतीत कोर्इ निरसितयोग्य  अवधारणा नहीं बलिक प्रवाहित वर्तमान के रूप् में एक सतत बोध-आयात्मक उपसिथति है । अपनी पुस्तक 'आन हिस्æी की भूमिका में वे जिखते हैं -'' अतीत जिसका हम अध्ययन करते हैं ,पह हमारे मसि तष्क की (अवधारणात्मक ) निर्मित है । यह एक औचित्यपूर्ण सैद्धानितक वैधता के साथ निर्मित होता है ,भले ह ीवह तार्किक और साक्ष्यपूर्ण (प्रमाण सम्मत ) न हो और यह अतीत विश्वासों की भावात्मक व्यवस्था के रूप् में होता है ।( पृ0 8) इसतरह एरिक हाब्सबाम की यह दृषिट इतिहस को अतीत की घटनाओं से अलग एक स्वतंत्र मानसिक पाठ के रूप् में देखे जानें का आग्रह करती है । 'बाबरी मसिजद के विध्वंस पर उनकी प्रतिक्रिया को देखें तो  उनकी इसी इतिहास-दृषिट का विस्तार है ।  जिसके अनुसार वे सिर्फ घटनाओं को ही नहीं ,बलिक मानसिकता को भी एक निर्णायक परिघटना की तरह देखने का आग्रह करते हैं ।  मिथकीयकरण जब जनता के व्यवहार का हिस्सा बनता है तो वह भी इतिहास की जीवित परिघटना के रूप में विचारणीय बन जाता है ।  ( समकालीन सोच,पृ0 13,रोमिला थापर का 'ऐरिक हाब्सबाम की याद में शीर्षक आलेख,,अनुवादक ध्रुवकुमार सिंह )
            अपनी पुस्तक 'आन हिस्ट्री   के 'द सेंस आफ पास्ट शीर्षक अध्याय में हाब्स बाम अतीत को मानवीय बोध के स्थार्इ आयाम के  रूप में देखते हैं ।  जो उसकी संख्या,मूल्यों तथा सामाजिक व्यवहार की अन्य पद्धतियों को समझने के लिए अपरिहार्य सूचनात्मक आयाम की तरह है । एक इतिहासकार की मुख्य समस्या अतीत के इस बोध की प्रकृति को विश्लेषित करने तथा उसके परिवर्तनों और रुपान्तरणें को समझने की रहती है । ( वही,पृ0 13 )  हाब्सबाम के अनुसार बहुत-सी सशक्त रूढि़यां,रीतियां और परम्पराएं  , जो यधपि अतीत के मनुष्य के स्वीकार का परिणाम होती हैं ,वर्तमान के मनुष्य को भी प्रभावी ढंग से बांधे रहती हैं ।  इसतरह अतीत को समझे बिना पर्तमान मनुष्य को पूरी तरह समझा नहीं जा सकता ; क्योंकि वर्तमान मनुष्य की सामाजिक आदतें अतीत के सामूहिक विषयों का ही परिणाम है । अतीत वर्तमान मनुष्य के लिए भी पुरानी बोतल में नयी शराब की तरह है । वे दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि  आधुनिकता की प्रक्रिया के विधार्थी  बीसवीं शताब्दी के भारत को समझने ंके लिए परम्परा की प्रबल ग्रनिथयों के साक्षात्कार से गुजरते हैं । चाहे वह गुजरना जानबूझकर अर्थात सचेतन रूप् में हो या अनायास की व्यावहारिक विवशता में  । यह प्रक्रिया भी उसे अतीत के पुनरान्वेषण की ओर ले जाती है ।( पृ0 15 )
  इस तरह हम देखें तो सामाजिक परिवर्तन की यह प्रक्रिया,चाहे वह परम्परा-सन्दर्भी ही क्यों न हो-अतीत वर्तमान को निरन्तर ही प्रभावित करता हुआ रूप् देता रहता है ।  आधुनिकतावादी सारे परिवर्तनों के बावजूद विश्वास की एक स्थार्इ व्यवस्था मनुष्य के वर्तमान व्यवहार को एक वृत्तीय या घुमावदार परिवर्तन के रूप में प्रदर्शित करती है । एरिक हाब्सबाम के अनुसार अतीत के इसी निर्णायक प्रभाव के कारण वर्तमान का मनुष्य एक साथ ही नया-पुराना या पुराना-नया के रूप में बना रहता है ।
       मार्क्सवाद की पूर्वपीठिका पर प्रकाश डालते हुए उसपर की गयी उनकी यह वैचारिक टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि   इसका इतिहास में मुख्य योगदान परिकल्पनाओं का परिचय है ,प्राकृतिक विज्ञान और  सामाजिक अनुसंधनों से प्रेरित दृतितयों और प्रतिदशोर्ं(माडलों) का इतिहास में अनुप्रयोग है । इस दृषिट से डार्विन के विचारों को एक निर्णायक ऐतिहासिक हस्तक्षेप के रूप में देखा जा सकता है ।  परिवर्तन का एक विकासवादी सिद्धान्त ,जो यधपि जीवविज्ञान के क्षेत्र का है ।  ऐतिहासिक परिवर्तनों को समझने की दृषिट से  मुख्य योगदान सामाजिक विज्ञानों पर आधारित ( विशेषत: अर्थशास्त्र के जर्मन ऐतिहासिक स्कूल ) विशेषत: कार्ल मार्क्स का सामाजिक परिवर्तनों में अर्थ के निर्णायक होनें के सिद्धान्त का है ।
        मार्क्स ऐसे प्रथम विचारक हैं जिन्होंने ऐतिहासिक विकास केे आर्थिक आधार और उसके महत्व को सर्वप्रथम रेखांकित किया  । अथवा यह कहें कि मानवता के इतिहास का सामाजिक आर्थिक सफलता की व्यवस्था के आधार पर इतिहास लिखा । उन्होंने इतिहास में वर्ग और वर्ग संघर्ष के वास्तविक आधारों का परिचय कराया  ।  इसी सन्दर्भ में एरिक हाब्सबाम अभद्र(वल्गर) मार्क्सवादियों में लोकप्रिय मार्क्स के उन सूकित वाक्यों को भी रेखांकित करते हैं,जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-  इतिहास के सामाजिक परिवर्तनों में अर्थशास्त्रीय तत्व आधारभूत प्रमुख कारक हैं ,जिनपर अन्य कारक आधारित हैं । आर्थिक आधार मानव-विकास की केन्द्रीय संरवना है । कि मार्क्सवाद इतिहास-दृषिट ऐतिहासिक घटनाओं के वैयकितक और अतार्किक घटनाशील स्वरूप को नकारता है । कि ऐतिहासिक अनुसंधान के क्षेत्र में पूंजीवादी विकास और औधोगिककरण में मार्क्स की रूचि ऐतिहासिक अध्ययन के क्षेत्र में मार्क्स का विशेष योगदान है  इत्यादि के रूप् में रेखाकित की जा सकती है ( आन हिस्ट्री .पृ0 192-193) इस तरह ऐतिहासक अध्ययन के क्षेत्र में मानवजाति के विकास को सामाजिक संघर्ष के रूव में व्याख्यायित करना मार्क्स का सबसे महत्वपूर्ण योगदान माना जा सकता है ।  आधुनिक पूूंजीवाद और औधोगिककरण के  अर्थ-संरचनात्मक विश्लेषण और उसके तार्किक आधरों को निर्मित करने के लिए हाब्सबाम माक्र्स की सराहना करते हैं । उनकी दृषि ट में मार्क्स का ऐतिहासिक अवदान विभिन्न मानव-समुदायों के कार्यात्मक पार्थक्य और उनके विकासात्मक रूपान्तरण को समझनें और निश्चय के लिए एक यानित्रक दार्शनिक पद्धति का आविष्कार करना था ।( आन हिस्æी,पृ0 198 ) प्राचीन मानव-विकास में उसकी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की अभियानित्रकी और उसके अन्तर्विरोधें की भूमिका को मानव-प्रगति और परिवर्तन के सन्दर्भ में समझना था ।(वही ,पृ0 202 ) यधपि वे यह भी स्वीकार करते हैं कि विश्लेषण माक्र्सीय द्वन्द्वात्मक माडल प्रयोग एवं व्यवहार में उतना आसान और सीधा-सपाट नहीं है ,जितना कि भद्र और अभद्र माक्र्सवादी उसे समझते हैं ,क्योंकि क्रानितकारी परिवर्तनों और समाज की सिथर कि्रयाशीलता को समझनें में उनकी मनमानी व्याख्या की जा सकती है । ( वही,पृ0 202 ) फिर भी मार्क्स का यह अवदान कम महत्वपूर्ण नहीं है । नयी पीढी के इतिहासकारों को विश्लेषण पद्धति,प्रेरणा और विवेक देने के कारण ऐरिक हाब्सबाम मार्क्सवाद को एक दार्शनिक स्कूल की शैक्षणिक भूमिका में पाते हैं । वही.पृ0 206 )
          इतिहासकारों पर माक्र्स का महत्वनूर्ण प्रभाव सिर्फ उनके वैचारिक निष्कषेर्ं के कारण ही नहीं है बलिक मानव विकास के अतीत की समस्याओं और प्रवृतितयों को समझनें के क्रम में प्रस्तुत किए गए सूक्ष्म निरीक्षणों का अभूतपूर्व और मानक माडल प्रस्तुत करने के कारण भी है । ( माक्र्स एन्ड हिस्æी शीर्षक आलेख,'आन हिस्æी पृ0 210)  माक्र्सवादी और गैरमाक्र्सवादी दोनों ही प्रकार के इतिहासकार इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या करते समय किसी न किसी रूप में उस समझ को आत्मसात किए हुए हैं । भले ही प्रत्यक्ष या मूल रूप में माक्र्स की स्थापनाएं आज आलोचना का विषय बन गयी हों ।( वही,पृ0 211)
           मार्क्सवाद पर प्रशंसात्मक टिप्पणी करते हुए ऐरिक हाब्सबाम ऐरिक वुल्फ को उदधृत करते हुए कहतेे हैं कि उत्पादन की वास्तविक प्रक्रिया पर विचार करते समय मार्क्स और एंगेल्स 'मानव और प्रकृति के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध,आजीविका,सामाजिक श्रम और संस्थाओं की प्रकृति का संशिलष्ट विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं । (वही,पृ0 212 ,यूरोप एण्ड द पीपुल विदाउट हिस्æी से उदधृत )  उत्पादन की प्रकृति और मनुष्य के आपसी रिश्तों में एक प्रक्रियात्मक शकित की भूमिका मार्क्स कर एक महत्वपूर्ण अवधारणा है ,जो आर्थिक आधार को समाज की सर्वोच्च संरचना के रूप् में व्याख्यायित करता है । ( वही ,पृ0 213 ) साम्यवाद की परिकल्पना मार्क्स द्वारा मानव-अतीत की की गयी अर्थ आधारित छानबीन और विश्लेषण का ही आमनित्रत या आगामी निष्कर्ष है । उसे ऐरिक हाब्सबाम एक विचारधारात्मक संगति में ही देखते हैं । मनुष्य के भौतिकवादी सामाजिक जीवन और उसकी मानसिक चेतना के  आधारभूत रिश्तों की खोज को ऐरिक हाब्सबाम मार्क्स द्वारा संस्कृति से निकाले गए निश्कर्ष के रूप् में देखते हैं । मार्क्स के इस सुझाव की प्रशंसा करते हैं कि ऐतिहासिक परिवर्तनों को उत्पादन की प्रकृति में बदलाव से ही समझा जा सकता है । ( पृ0214 ) मार्क्स क ी इतिहास-दृषिटको निष्कर्षत्मक रूप् में हाब्सबाम इस रूप् में वयाख्यायित करते हैं-मनुष्य अपने इतिहास को सिर्फ बनाता है लेकिन उको चुनता नहीं है । क्योंकि अतीत के आर्थिक आधार तथा परिसिथतियों वाला समाज उसे विरासत में वर्तमान के रूप् में प्राप्त होता है । उसकी दूसरी विरासत वर्ग और वर्ग-संघर्ष की होती है । पूंजीवादी इतिहास पर बहस के लिए मार्क्स के लिए दोनों अवधारणाएं अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है।
 इसतरह हम देखें तो आज के इतिहासकारों के लिए चाहे वे मार्क्सवादी हों या नहीं; मार्क्स एक अघोषित एवं सर्वव्यापी समझ में परिणति हो गए हैं । हाब्सबाम के अनुसार भावी इतिहासकारों के लिए उनका मार्क्सवादी होना या न होना एक अनावश्यक प्रश्न बन जाएगा । ऐसा इसलिए भी होगा कि ऐसी यूटोपया को जीना भविष्य के जटिल सामाजिक विकास को देखते हुए सीधे-सीधे संभव नहीं हो पाएगा ,भविष्य के (यानित्रक) समाज में वर्ग और वर्ग-संघर्ष की पहचान भी उतनी आसान नहीं होगी-बावजूद इसके यह भी सच ीै कि भविष्य के मनुष्यों के सामनें भी मार्क्स  का यह प्रश्न बना ही रहेगा कि हमें मिला हुआ वर्तमान विश्व कहां से आया है और मानवजाति एक बेहतर भविष्य को कैसे प्राप्त कर सकती है ?  

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

आंशिक साम्यवाद की परिकल्पना

ऐसा लगता है कि  भारतीय नेतृत्व वोट बैंक की राजनीति के कारण सिर्फ जनसंख्या -विस्फोट की प्रतीक्षा करता रहता है। मानव -संसाधन की दृष्टि से जनसंख्या का बेतहाशा उत्पादन है तो एक बड़ी जनसंख्या का असफल और अयोग्य होना स्वाभाविक ही है। बाजारवादी व्यवस्था में बिकने की दृष्टि से अयोग्य यानि कि मूल्यहीन जनसँख्या के पुनर्वास के लिए भी बड़ी परियोजनाएं चाहिए। इसके लिए किसी बड़े विरोध यानि क्रांति की प्रतीक्षा करना भी एक मूर्खता ही है।  इसलिए कि क्रान्ति के बाद भी व्यवस्था की सृजनशीलता और  की जरुरत पड़ेगी । व्यक्ति की  निर्बाध सृजनशीलता को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से तो पूंजीवादी व्यवस्था ही सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए कि वह व्यक्ति को असीमित पूंजी के सृजन का अवसर और अधिकार देती है। इस दृष्टि से वह व्यक्ति की प्रतिभा को सर्वश्रेष्ठ  पुरस्कार देने वाली व्यवस्था है। ऐसे में अयोग्य एवं असफल जनसँख्या के जीवनाधिकार के लिए आंशिक साम्यवाद की परिकल्पना करनी होगी। ऐसी जनसंख्या के लिए समानांतर रूप से सुरक्षित क्षेत्र एवं तंत्र की रचना करनी होगी।
                   मेरा सुझाव है कि गांवों में हर ग्राम-पंचायत में कुछ ऐसी भूमि होनी चाहिए जो सरकारी हो और जिसपर सामूहिक खेती किया जा सके। ग्राम-पंचायत के अधीन कुछ ऐसे उत्पादन और दुकाने होनी चाहिए जिस पर गांव के अयोग्य लोगों को रोजगार मिल सक. . . कुछ आश्रय -केंद्र और भण्डारे ऐसे होने चाहिए जहाँ ऐसी नालायक जनसंख्या निःशुल्क भोजन पा सके।  इस तरह हमें मिलीजुली व्यवस्था के बारे में सोचना चाहिए।
                        गांवों में बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास खेत हैं और वे खेती नहीं करते या फिर वे खेती की स्थिति में ही नहीं हैं। उनके पास इसलिए खेत हैं क्योंकि उनके पुरखों के पास थे। बहुत से लोग खेत बेचते भी रहते हैं। जैसे दूसरे लोग खेत खरीदते रहते हैं ,वैसे ही सरकारें भी तो खरीद सकती हैं। यह दूसरा दौर  इसलिए जरूरी है कि पिछली सरकारों नें भूमिहीनों को ग्राम सभा के चरागाह तक आबंटित कर दिए हैं। ऐसे में गांवों   में सामूहिक भूमि बची ही नहीं है। ऐसे में सरकारें कानून बनाकर भूमि अपहरण करने के स्थान पर भूमि- क्रय भी तो कर सकती हैं। ऐसा करना मानवीय सहायता और न्यूनतम सुरक्षा के लिए आवश्यक है। अन्यथा यह भी सच है कि  अधिक संरक्षण लोगों को नकारा भी बनाता है। सरकारी योजनाएं जिस तरह समय - असमय कार्यान्वित होती हैं ,वह कई बार समाज के आर्थिक पर्यावरण को बिगाड़  भी देता है। मनरेगा की योजनाएं कई बार उस बहुमूल्य समय में कार्यान्वित की गयी हैं जब किसानो को मजदूरों की विशेष जरुरत थी। ऐसी विषमता एवं विसंगति से बचा जाना चाहिए। क्योंकि गलत समय की गयी शासकीय सहायता शासन को ही खलनायक की भूमिका में ल देती हैं। ऐसी सहायताएं पूरक समय सारणी में संपन्न होनी चाहिए।