शनिवार, 27 दिसंबर 2014

ईश्वर की भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा

ईश्वर की भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा में जो अंतर है ,वह दोनों सभ्यताओं की मानसिकता और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के अनुरूप ही है .पश्चिमी सभ्यता के ईश्वर की अवधारणा जहाँ प्रकृतिपरक होने के कारण एक भौतिकवादी सभ्यता का आधार बनती है ,वहीँ भारतीय  ईश्वर की अवधारणा भावपरक होने के कारण एक आध्यात्मिक सभ्यता का ।
   "एकाकी न रमते ,सो कामयत एकोअहम बहुस्यामि" का प्रसिद्ध औपनिषदिक कथन आत्मा और परमात्मा की इसी एकता का उद्घोष करता है . यह तात्विक समानता के साथ-साथ आवयविक एकता की भी अवधारणा है .यहाँ ईश्वर स्वयं ही सभी जीवों में रूपांतरित हुआ है .वैसे ही जैसे पिता अपने पुत्र में जैविक रूप से रूपांतरित होता है .इसीलिए आध्यात्म से आशय संपूर्ण प्रकृति में व्याप्त आत्मा की एकता को अनुभूत करना है .आत्मा व्यष्टि की आत्मा है तो परमात्मा समष्टि की वृहत्तर आत्मा .इसीलिए भारतीय आध्यात्मिकता अपने से परे की संपूर्ण सृष्टि  के प्रति उदात्त आत्मीयता के रूप में है। इस अर्थ में कि जो आत्म से अधिक है वही आध्यात्म है और जो आत्मिक से अधिक है वही आध्यात्मिक । यहाँ "अधि" अपने आशय में अधिक , विस्तृत,अतिरिक्त ,ऊपर एवं परे आदि बहुत से शब्दों के अर्थों को अपने में समेटे हुए हैं. 
                ऐसा इस लिए कि भारतीय  ईश्वर परमात्मा यानि परम आत्मा तो है ही  वह परम पिता भी है। यद्यपि यह एक तथ्य है कि ईसा मसीह स्वयं को ईश्वर का पुत्र घोषित करते हैं इस तरह प्रकारांतर से  ईश्वर का साक्षात्कार परम पिता के रुप  में ही करते हैं -लेकिन सिर्फ उनके स्वीकार से ही पश्चिमी सभ्यता का सांस्कृतिक अचेतन बदल नहीं जाता। इस न बदलने का कारण ईश्वर का इस सृष्टि या जगत से वह रिश्ता है,जो सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को एक बाहरी शक्ति बना देती है।
                पश्चिमी ईश्वर इस सृष्टि से बिलकुल् अलग एक विशुद्ध निर्माता शक्ति है। वह स्वयं इस सृष्टि का अभिन्न हिस्सा नहीं है।  उसने किसी कुम्हार के घड़े की तरह इस दुनिया को बाहर से बनाया है ,उसने छः दिन में इस दुनिया कि बनाकर सातवें दिन विश्राम भी किया है.वह इस दुनिया का कृतिकार है और यह दुनिया उसकी कलाकृति की तरह है .इस तरह वह अलग है और उसकी बनायीं हुई यह दुनिया अलग। .इस तरह पश्चिमी अचेतन के व्यक्तित्व की मुख्य विशेषता उसकी सृजनशीलता है। इसीलिए उसने ईश्वर और उसकी बनायीं प्रकृति के रहस्यों के उदघाटन के लिए उसकी सृजनशीलता के रहस्यों को ही उद्घाटित करना सही समझा।  तरह पश्चिम का भौतिकवाद और उसकी वैज्ञानिक जिज्ञासा उसकी विशिष्ट  धार्मिकता का ही प्रतिफल है।
                  इसके विपरीत भारतीय ईश्वर किसी कुम्हार की तरह नहीं है। पश्चिमी अवधारणा के विपरीत  वह एक जैविक  पिता की तरह मनुष्य की आत्मा से अभिन्न शक्ति है। जैसे माता और  पिता अपने शरीर से ही  अपनी संतान को जन्म देते हैं ,जैसे कि विकसित होने के बाद पुत्र भी पिता की जगह ले सकता है- वैसे ही मनुष्य भी विकास के पश्चात ईश्वरता को प्राप्त हो सकता है। क्योकि पिता और पुत्र में तात्विक अंतर नहीं होता इसलिए मनुष्य की आत्मा और परमात्मा भी तात्विक दृष्टि से अभिन्न हैं ,भारतीय अवतारवाद का आधार यही अवधारणा है। उसका सांस्कृतिक अचेतन ईश्वर और प्रकृति के रहस्यों को जानने में नहीं बल्कि उसे किसी आत्मीय की तरह जीने में विश्वास करता है। उसकी भक्ति की प्रकृति भी भावुक है। जबकि पश्चिम में मनुष्य ईश्वर का सृजन या उत्पाद है। इसलिए पश्चिमी मनीषा मनुष्य के स्वयं ईश्वर होने की बात सोच भी नहीं सकती। इसके विपरीत भारतीय मनीषा ईश्वर होने का दंभ तो जीती रही है ,लेकिन उसने सृष्टि एवं सृजनशीलता की यात्रा को समझाने का बिलकुल ही प्रयास नहीं किया .वह सिर्फ दिव्य सृजनशीलता पर मुग्ध ही होती रही है . उसकी जाति और वर्ण वादी जातीय संरचना नें उसके विवेक को भी बाँट दिया था . हाथ और  मस्तिष्क की जातीय दूरी नें वैज्ञानिक विकास की दृष्टि से एक संभावना शुन्य समाज और सभ्यता को जन्म दिया .उसके सिद्धांतकार अलग जातियों में पैदा होते रहे और प्रयोग्कार अलग जातियों में -इससे वह बेहतर यंत्रों के विकास से भी वंचित रही . [

रविवार, 14 दिसंबर 2014

कविताएँ

जीवन के पक्ष में ....



ड्राइवर रोक दो अपनी गाड़ी 
निकल आओ अपने गति के नशे से 
रुक जाने दो यह समय
जो हिंसक गति से 
किसी के जीवन को रौंदता हुआ 
अपनी मंजिल तक पहुँच जाने का 
महत्वाकांक्षी स्वप्न देख रहा है .....

देखते नहीं -जीवन गुजर रहा है सामने से 
घूमती धरती के साथ-साथ 
समय से होड़ लेने के लिए 
 प्रजाति के रूप में दौड़ लगाता  हुआ जीवन-समय

ड्राइवर ब्रेक पर अपने पंजे कसो और 
अब रोक दो अपनी गाड़ी 
देखते नहीं सद्यः प्रसूता  कुतिया माँ के 
दूध भरे गदराए -शरमाए ललछौहें स्तन 
उसे उसके बच्चों के पास सकुशल पहुँचने दो 
हो  जाने दो ट्रैफिक जाम 
जीवन की चिरंतन यात्रा के पक्ष में .....



स्वयं के पक्ष में .





वाह भाई साहब !

यह भी खूब रही कि 
मैं स्वयं को पुरी तरह निरस्त कर दूं 
आपके पक्ष में ?

आप समय की बिना किसी परीक्षा के 
स्वयं को पुरी तरह 
उत्तीर्ण देखना चाहते हैं 
आप चाहते हैं कि आपको छोड़कर 
शेष सारे लोग नेपथ्य में 
यानि कैमरे के पीछे चले जाएं 
कि बाकी सारे लोग डिलीट हो जाएँ आपको छोड़कर 

क्या आपको पता है कि यह समय
आपकी एकल आवाज से उब सकता है 
कि जिस समय स्वयं रच रहे हैं 
उसी समय दूसरों को रचने से मना करते हुए 
वाचित हो रहे हैं दूसरों के सृजन से 
कि एक दिन आप थक जाएंगे रचते रचते....

चलो माना  कि आप अतीत की दुनिया के विश्व-विजेता हैं 
लेकिन भविष्य का कोई नया सृजन 
आपके सारे प्रायोजित एकाधिकार के 
तिलस्म को तोड़ सकता है 

आप किस-किस को 
अपने पक्ष में 
निरस्त हो जाने के लिए प्रार्थना करेंगे भाई साहब !


गुरुवार, 27 नवंबर 2014

कविता /सत्यमेव जयते/रामप्रकाश कुशवाहा

सत्य ही जीतता है
सत्य जब हार रहा होता है
तब भी वह
हार नहीं रहा होता


क्योकि सत्य का होना ही महत्वपूर्ण है
हारता या जीतता

सत्य जब हार रहा होता है
उसके पहले ही
वह जीत चुकता है
सत्य होता हुआ ....


रविवार, 23 नवंबर 2014

शून्य-काल का नायक और अँधेरा


कभी सृष्टि के उद्भव -काल में
अंतरिक्ष व्यापी अँधेरे की मिट्टी में ही
बीज की तरह अंकुराई होंगी जीवन की आँखें
अँधेरे की जड़ता के विरुद्ध
अग्निधर्मी-प्रकाशजीवी
आज भी खेल रहीं हैं वे
अँधेरे से आँख-मिचौनी ,नोक-झोंक ,मुठभेङ
अँधेरे में आज भी डूब जाती है आँखों की नाव
अदृश्यता के घोर -अथाह समुद्र में
अँधेरे में सब कुछ होते हुए भी
कुछ भी दिखाई नहीं देता
इस तरह अँधेरा चीजों को गायब नहीं करता
सिर्फ अँधेरे की अनन्त तानाशाही
अनुशासन के नाम पर
सारे अस्तित्वों को छिपाकर रखना चाहती है
कभी कानून -व्यवस्था तो
कभी पवित्र संयम के नाम पर.....

जहरीला धुंआ उगल रही हैं अंधेरे की फैक्ट्रियां
कारखानों में लगातार बढ़ रहा है अँधेरे का उत्पादन
बाजार में लोग आँखें बेच रहे हैं और आँखें खरीद रहे हैं
फिर भी लोगों के बीच
महामारी की तरह फैलता और बढ़ता ही जा रहा है अंधापन 
समय का माफिया 
रंग-बिरंगी बोतलों और आकर्षक पैक में 
बहुत ही कम कीमत पर बेच रहा है 
अँधेरे का नशीला पेय 

अँधेरे नें भक्षण कर लिया है सूरज का 
तीनों लोकों में फैलता ही जा रहा है अंधियारा 
अँधेरा सडकों पर है 
नदियों में है और हवा में भी …  

शहर में धडाधड खुल रही हैं अँधेरे की दुकानें 
अँधेरे के व्यापारी आकर्षक एवं पेशेवर ढंग से 
समय का महत्व बता रहे हैं 
अँधेरे की सबसे विशालतम रेंज उतारी है 
अँधेरे का एकाधिकार उत्पादन करने वाली कम्पनी नें -
अँधेरे की टाफी 
अँधेरे की काजल 
अँधेरे की लिपस्टिक 
अँधेरे की साडी 
अँधेरे की गाडी
अँधेरे की  टोपी 
अँधेरे की मिठाई    
अँधेरे का पेय -जिसे पीते ही आँखें 
बंद कर देती हैं कुछ भी देखना 
यद्यपि आँखे खुली-खुली सी रहती हैं 
कान सुन रहे होते हैं 
लेकिन दिमाग बंद कर देता है 
अँधेरे के बारे में सोचना ....
अब दिन हो या रात 
कोई फर्क नहीं पड़ता 
अँधेरे की सबसे अच्छी रात 
और सबसे अच्छे दिन हाँ ये 
अँधेरे की सबसे मीठी -मोहक नींद 
ले रहे समय में 
लोगों के मस्तिष्कों नें बिल्कुल
 बंद कर दिया है
अँधेरे और उसके दुष्परिणामों के बारे में सोचना 
आशंकाओं से मुक्त 
बिल्कुल निर्द्वन्द्व और भयहीन 
शांत अँधेरे समय में 
सबसे ज्यादा पढ़े जा रहे हैं 
अँधेरे के अखबार 
अँधेरे के किताबों की 
रिकार्ड तोड़ बिक्री जारी है .... 

कृष्णा पक्ष के इस पक्षघतिक अँधेरे में 
शुन्य काल के नायक के शयन -कक्ष में 
समय का विकलांग सर हिल रहा है
सिर्फ हाँ -हाँ करता हुआ 
किसी गलत समय बताने वाली घडी के 
जिद्दी -बेशर्म पेंडुलम की तरह..... 

शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

साम्यवाद की अचिंतित समस्याएँ

१   आर्थिक भाषाहीनता-

यदि हमें साम्यवादी व्यवस्था को आदर्श रूप में घटित या मूर्त देखना होगा तो सबसे पहले बाजार से बाहर  आना होगा। पूंजी के सामूहिक स्वामित्व की अवधारणा लिए हुए यह परिवारवाद में वापसी जैसा ही होगा -क्योंकि सिर्फ परिवार में ही पूंजी के मुद्रा रूप का परिचालन रोका  जा सकता है।  बाजार की आवश्यकता को स्थगित या शून्य किया जा सकता है।  पूंजी के अनियंत्रित व्यवहार तथा भावी विषमता और शोषण की समाप्ति के लिए साम्यवाद की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता है कि वह पूंजी और मुद्रा के परिचालन और व्यव्हार की निगरानी रखे  और उसे नयी विषमता की दिशा में न बढ़ने देने के लिए। एक सीमा तक अवरुद्ध रखे।
          अपनी इसी मुद्रा विरोधी निरुद्धात्मक आवश्यकता के कारण एक आदर्श साम्यवादी व्यवस्था एक नयी समस्या को जन्म देगी  जो मुद्रा के संसूचक भूमिका के निरस्त किए जाने से सम्बंधित होगी। इस तरह एक आदर्श साम्यवादी अवस्था आर्थिक मूल्यपरक संवादहीनता की स्थिति को भी जन्म देगी।  क्योंकि मुद्रा पूंजी व्यवहार की एक प्रतीकात्मक भाषा -व्यवस्था ही है। इस भाषा हीनता की प्रति पूर्ति के लिए एक समानतर सूचना -तंत्र निर्मित करना होगा। मुख्य समस्या होगी मानवीय आवश्यकता के अनुसार वस्तुओं की उपलब्धता और आपूर्ति की।  यह नियमन कि  कोई  क्या  मांगे ,इसकी पात्रता एवं अर्हता का मुद्रा अधर भी समाप्त होने पर अलग कानून बनाकर या प्रशासनिक आदेश जारी कर नियमन करना होगा।
          इस तरह किसी भी साम्यवादी व्यवस्था की प्रमुख चुनौती यह भी होगी कि  वह अपनी व्यवस्था के भीतर पूंजी के स्वतन्त्र निर्बाध  विनिमय के प्रमुख स्थल बाजार को ,जिसे निश्चय   ही पूंजीवादी  नें पैदा और अपनी  आवश्यकता के अनुरूप विकसित किया  है ,उसे अपने भीतर  देगा  नहीं ?  

२. पूंजीवादी पर्यावरण की उपज महानगरों(महाबजारों )जैसी बड़ी संरचनाओं का साम्यवाद की परिकल्पना के अनुसार पुनर्विन्यास हेतु विसर्जन  ताकि आर्थिक  समानता का अधिक से अधिक पर्यावरण निर्मित किया जा सके। पूंजीवादी व्यवस्था में उपलब्ध  विविध उत्पादों में जो गुणात्मक विविधता है वे एक जटिल विषमता बोध का निर्माण करते हैं ,इसलिए समानता की अवधारण से उनपर पुनर्विचार करना होगा। 

शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

ज्ञानेन्द्रपति : स्त्री के पक्ष में पुरुष - विमर्श प्रस्तुत करती कविताएँ

राजनीति के वर्तमान सर्वग्रासी दौर में कवि और उसकी कविता से संवेदनात्मक-भावात्मक नेतत्त्व की प्रत्याशा करना आज असंभव-सा लगने लगा हो; लेकिन जिन कवियाें में अब भी कविकर्म की नेतृत्त्वकारी भूमिका के लिए समर्पित सृजनशीलता बची हुर्इ है,उनमें ज्ञानेन्द्रपति का नाम महत्त्वपूर्ण है । बदलते समय के अनुरूप वांछित संवेदनात्मक परिष्करण अथवा भावात्मक नेतृत्व की चैतन्यता का सृजनात्मक प्रयास ही कविकर्म को सार्थक ,प्रबुद्ध एवं अधतन बना सकते हें । निरन्तर विकसित होती सभ्यता के साथ कदमताल करते हुए और उससे कर्इ कदम आगे भी चलकर संवेदनात्मक नेतृत्व प्रदान करने वाली कविताएं ; जो कविता की सामाजिक जरूरत ,औचित्य ,आस्था और विश्वसनीयता को पुनर्जीवन देती हैं । हिन्दी में बहुत कम कवि ऐसे हैं जिनकी कविताएं तेजी से बदल रहे मानवीय समय में जीवन-राग,संवेदना और उसके निरन्तर जटिल होते पर्यावरण की दशा और दिशा की सही समझ प्रदर्षित करती हैं । वैश्वीकरण और बाजारवाद के वर्तमान दौर में कवि,कविता और कविकर्म के असितत्व के लिए सजग ज्ञानेन्द्रपति की कविताएं हिन्दी कविता की परम्परा में प्रबुद्ध एवं संवेदनशील कविता की एक विशिष्ट संरचना प्रस्तुत करने के कारण ध्यान आकर्षित करती हैं । इसलिए भी कि उनकी कविताएं प्रगतिशीलता को केवल शोषित जन की पक्षधरता तक ही सीमित न करते हुए सभ्यता-विकास की वृहत्तर चुनौतियों और दायरे को भी अपने कविकर्म का लक्ष्य बनाती रही हैं ।
      ज्ञानेन्द्रपति हिन्दी के उन विरल कवियों मेें से एक हैं जिन्होंने समकालीन हिन्दी कविता को न सिर्फ विशिष्ट संरचना और कलात्मक पहचान दी है बलिक उत्तर-आधुनिक समय की मानवीय चुनौतियों का सामना करने तथा एक सभ्य और संवेदनशील मानवीय समाज की रचना के लिए कविता की सृजनशीलता को लोक की सृजनशीलता तक विस्तार दिया है । ज्ञानेन्द्रपति की कविताएं विकसित होती मानव-सभ्यता के साथ बदलती मानवीय संवेदना, आत्मीय रिश्तों के स्वरूप,सरोकारों ,जरूरतों एवं उसके पर्यावरण की सुरक्षा-संरक्षा की सही समझ रखती हैं । इस दृषिट से वे माक्र्सवादी पृष्ठभूमि से आए माक्र्सवादोत्तर उत्तर-आधुनिक समय के सबसे जरूरी एवं प्रासंगिक कवि हैं । उनकी कविताओं में यथार्थबोध के साथ-साथ काल-बोध भी एक आवश्यक आयाम है; संभवत: इसीलिए वे सिर्फ जीवनबोध के ही नहीं ,भविष्यबोध के भी कवि हैं । उनकी 'संशयात्मा जैसी पूर्ववर्ती संग्रह की कविताएं सोवियत संघ के पतन के बाद माक्र्सवादी एवं क्रानितकामी कवियों में फैली आम कुण्ठा एवं हताशा के विपरीत बेहतर समय-निर्माण की चुनौतियों को नेतत्वकारी विचारक चिन्ता के साथ गम्भीर विमर्श के रूप में प्रस्तुत करती रही हैं । इसी क्रम में उनके नवीनतम कविता संग्रह 'मनु को बनाती  मनर्इ  की कविताएं भी सभ्यता-समीक्षा का स्त्री-केनिद्रत विमर्श प्रस्तुत करती हैं । इस संकलन की कविताएं जीवन के व्यापक निरीक्षण तथा विरल एवं विशिष्ट अनुभवों से बुनी गयी हैं । जीवन के सूक्ष्म निरीक्षण से उपजे कल्पना-वलयित आकर्षक शब्द-बिम्बों की छटा वाली ज्ञानेन्द्रपति की प्रिय अभिव्यकित पद्धति इस संकलन की कविताओं का भी विशिष्ट काव्यभाषा और अलग संरचना देती है । इन कविताओं में भारतीय स्त्री के जीवन-व्यापार और यथार्थ के विविध रूपों का सूक्ष्म एवं प्रामाणिक अंकन है । स्त्री जीवन के मर्म का समाजशास्त्रीय एवं मनोवैज्ञानिक आयामों में किया गया विशेषज्ञ अन्वेषणत्मक अन्वीक्षण इन कविताओं को विशिष्ट बनाता है । कवि नें मिथकीय वृत्तान्तों ( जरत्कारू)से लेकर लोक और उसके पवोर्ं तक स्त्री-जीवन,यथार्थ और नियति की पड़ताल की है । यह पड़ताल पुनरावृत्ति के रूप में नहीं बलिक अदेखे-अचर्चित रह गए स्त्री-यथार्थ की शोधपूर्ण एवं विवार-संवेध समग्र प्रस्तुति के लिए महत्त्वपूर्ण है।
     स्त्री-विमर्श के इस दौर में स्त्री और पुरुष दोनों ही रचनाकारों के कर्इ कविता संग्रह इधर प्रकाशित हुए और चर्र्चा में आए हैं । इस प्रतिस्पद्र्धा में ज्ञानेन्द्रपति की स्त्री केनिद्रत कविताओं का महाकाव्यात्मक समग्रता के दावे के साथ 'मनु को बनाती मनर्इ संग्रह का प्रकाशित होना स्त्री-विमर्श के पुरुष-पक्ष को समझनें की दृषिट से तो महत्वपूर्ण है ही,उसके कर्इ अछूते पहलुओं को भी पहली बार कविता और विमर्श के दायरे में लाता है । स्त्री पर विचार करते हुए ज्ञानेन्द्रपति का नजरिया त्रिकाल-आयामी है । अतीत की सामंतों और कवियों की खिदमत में खड़ी सित्रयों,आर्यासप्तशती और गाथा सप्तशती की साहितियक स्मृतियों से बाहर आकर वह अपनें युग की स्त्री का नया साक्षात्कार करना चाहता है । 
       ज्ञानेन्द्रपति की इस संग्रह की कविताओं में उपसिथत स्त्री-विमर्श न सिर्फ सिर्फ स्पस्थ,पूरक और संवादी पाठ की प्रस्तावना करता है ,बलिक हिन्दी में उच्च-अभिजातवर्गीय स्त्री-विमर्श की असामाजिकता एवं स्वैराचारी आत्मजीविता को श्रमजीवी वर्ग की सृजनशील समाजधर्मी स्त्री के यथार्थ से विस्थापित एवं प्रश्नांकित भी करता है । यह एक तथ्य हें कि मर्दवादी पुरुष-प्रधनता की मानसिकता वाला समाज अतीत की सामन्तकालीन परम्पराओं का ही अवशेष है । स्त्री की असुरक्षा का अधतन भयावह रूप सामन्ती अतीत वाले समाज के पूंजीवादी समाज में संक्रमण एवं विस्थापन से पैदा हुआ है । इस क्रम में प्राचीन श्रमजीवी  सृजनशील समुदाय की सित्रयां अधिक स्वतंत्रता एवं समानताजीवी रही हैं । ज्ञानेन्द्रपति का यह संग्रह अपनी बहुआयामी पड़ताल से भारतीय स्त्री -यथार्थ के कर्इ अछूते-अलक्षित पक्षों पर प्रकाश डालता है । यधपि प्रथम द्रष्टया ये कविताएं स्त्री-विमर्श के पुरुष-पक्ष को स्वस्थ सामाजिकता के दायरे में प्रस्तुत करती प्रतीत होती हैं । इस प्रस्तुति में स्त्री-विमर्श के प्रचलित पाठ से विचारक कवि ज्ञानेन्द्रपति की असहमति एवं आलोचना दोनों ही है । स्त्री-मुकित के विमर्श का पूंजीवादी पाठ स्त्री के निरंकुश विलास के अधिकार का अराजकता की सीमा तक वकालत करता है जबकि श्रमशील समाज की स्त्री में अब भी यथोचित सम्मान ,समानता एवं स्वाभिमान के साथ उपसिथत है ।       
         ज्ञानेन्द्रपति की ये कविताएं साहित्य की स्मृति और लोक की स्मृति दोानें के ही गहन परिचय,अन्तरंग आत्मीय साक्षात्कार का परिणाम हैं । सृजनशीलता का सम्यक इतिहास-बोध उनकी कविताओं को विशिष्ट परिप्रेक्ष्य और पृष्ष्ठभूमि देती हैं । वे असम्बद्ध,व्यकितपरक,अराजक या एकाकी नवता के कवि नहीं हैं । वे सम्पूर्ण वा³गमय की सापेक्षता में नवता,मौलिकता एवं विकास के कवि है । उन्होंनें स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की सहचर जीवनानुभूतियों एवं स्मृतियों का अत्यन्त विस्तृत एवं प्रामाणिक संग्रह इन कविताओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है । इस संकलन की अधिकांश कविताएं सध:प्रसूत,क्षणिक या तरत्कालिक प्रतिकि्रयाओं के रूप में रचित नहीं हैं ;बलिक वे दीर्घकालिक चिन्तन एवं रचना-प्रक्रिया का परिणाम हैं। उनकी ये कविताएं प्रणय-संवेदनाओं एवं अनुभूतियों का उदाŸाीकरण करती हैं-'वे पर्वत वहां अभी भी हैं-'पृथ्वी के उठे हुए मंजु उरोज तथा 'वे प्रशान्त झीलें तुम्हारी और बड़ी हो आर्इ आंखों के भीतरप्रेम की चमक बन गयी हैं । ('पहाड़ से लौटकरकविता) इन कविताओं की परिकल्पना के पीछे कविता के कलात्मक सृजन-विकास की लम्बी परम्परा देखी जा सकती है-'फिर यह कोर्इ कविता हैमेरे रक्त का सरसिजदल खुल रहे हैं जिसके तुम्हारी ओरओ मेरे प्रभात !'पुरुषप्रिया जैसी कविताएं जीवन के उन अथोर्ं को भी पकड़नें का प्रयास करती हैं,जो जीवन क उच्चस्तरीय दार्शनिक प्रत्यक्षीकरण से ही संभव हो सकती है-'तुम्हीं हो आदिम प्रकृति-पुरुष-प्रियातुम्हारे उदर पर सर रखकर जब-जब मैंने मरना चाहा हैमेरी धमनियों में जीवन की गति तेज हो गयी है ।
        संंवेदित कल्पना की उन्मुक्त -उन्नत उड़ानें, मानवीय सरोकारों की प्रदुद्ध चेतस पड़ताल,कलात्मक अभिव्यकित एवं लयात्मक चिन्तन ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं को एक विरल पठनीयता देती है ।    ज्ञानेन्द्रपति एकल इकहरी संवेदना और लीवनानुभवों के कवि नहीं हैं ं। बया के घोंसले की तरह अपनी हर कविता को जीवन के विविधि अनुभव-सन्दभोर्ं से बुनते हैं । इस दृषिट से उनकी 'समय और तुम कविता की पंकितयां देखी जा सकती हैं ,जिसमें एक युवती के वय-वार्धक्य और अध-कपारी के दर्द के साथ कवि खनिज-समृद्ध दक्षिणी गोलाद्र्ध की उपमित चिन्ता से पाठकीय बोध को जोड़ देता है-'समय तुम्हारे सिर में भरता है समुद्र-सा उफन उठने वाला अधकपारी कादर्दकि तुम्हारा अधशीशदक्षिण गोलाद्र्ध हो धरती काखनिज-समृद्ध होते भी दरिद्र और संताप-ग्रस्त।
     इस संकलन की कर्इ कवितओं में विविध वर्गीय और बहुवर्णीय स्त्री-जीवन के चित्र अंकित है । दीवाली बे-दीया,एक गंगामुखी जीवन,'ग्वालम्मा से दूध मांगने गर्इ है, 'अंजोरिया, 'मालती , 'पडोस की धोबिन,'बाटी वाली तार्इ'दशाश्वमेध पर की रुकमिनिया,'टेर,'मस्तीपुर की दुखिया,'मीनू जी आदि । 'ओ मेरी धरती जैसी कविताएं स्त्री-जीवन की अर्थवत्ता का उदात्त बिम्बांकन प्रस्तुत करती हैं । यह कविता जीवन और धरती के बीच के भ्रवनात्मक रिश्ते को मां और शिशु के वत्सल सम्बन्ध के रूप में परिभाषित करती है । 'हर पल किसी की प्रतीक्षा थी कविता उस सहचर के स्मरण को समर्पित है ,जिसके बिना जीवन को थका देने और घबरा देने वाली यात्रा पूरी नहीं की जा सकती । 'तुम्हारी आवाज की खनक में कविता रसोंर्इ को सिर्फ भूख के पोषण के केन्द्र में ही नहीं ,बलिक प्रेम के पोषण के केन्द्र के रूप में प्रत्यक्षीकरण करती है । 'चूडि़यां कविता में कवि चूडि़यों का जीवन-रंगी साक्षात्कार करता है । उसके अनुसार' चूडि़यों में रंगकेवल चूड़ी के कारखाने से ही नहीं आता है ।
            'मेरे तट जैसी कविताएं स्त्री के प्रति पुरुष-मन के समर्पण और राग का नया वृत्त-चित्र प्रस्तुत करती हैं । यधपि यह दौर स्त्री के प्रति अत्यन्त ही क्रूर एवं बर्बर रूप में हिंसक है । जिस तरह धरती से उसका पर्यावरण छीना जा रहा है ,उसी तरह स्त्री से उसका घर छीना जा रहा है । कवि ज्ञानेन्द्रपति नें कविता में ही सही उस मानवीय पर्यावरण को बचानें और उसे वापस लौटानें की कोशिश की है । ये कविताएं एक स्त्री-विरोधी समय में हिंसक होते पुरुष मन को एक मर्मस्पर्शी संवेदनात्मक स्मृति देना चाहती हैं । ये न भूलने योग्य स्त्री-जीवन के प्रसंगों तक पाठकों को ले जाना चाहती हैं । पुरुष-सभ्यता की सारी चकाचौंध को अपनी दुहरी पीठ पर उठाए सकून और असीस बांटती सित्रयां हैं । उनका कृतज्ञ पुरुष-मन स्त्री असितत्व का साक्षात्कार अपनी आत्मा के नंगे तलवों के लिए सुकोमल जूते सिलने वाली मोचिन एवं रफूगर जादूगर ( पुरुष को रचने वाले ) रचनाकार के रूप में करता है ।
        ज्ञानेन्द्रपति की रचनात्मक प्रतिभा जीवन के अनुभवों को कविता की भाषा में किस प्रकार रूपान्तरित करती है ,इसे देखना है तो उनकी 'पड़ोस की धोबिन शीर्षक कविता को देखा जा सकता है। धोबिन का निजी जीवन और पेशेगत सामाजिक कर्म से जुड़ी प्रत्यक्ष असितत्वगत संवेदनाओं को कवि नें पूरी प्रभावशीलता के साथ चित्रित करते हुए उसके जीवन के प्रसंगों को ही नर्इ उदभावनाओं वाले काव्य-उपकरणें में बदल दिया है । कपड़े की सिलवटें और भाग्य की सिलवटें दोनों को ही सृजन के लौह-ताप से हल किया जा सकता है । अन्त तक पहुचते-पहुंचते कवि नें अपनें संकेत को अस्पष्ट ही रहनें दिया है कि शिशु और मां के स्तन में से कौन इश्तरी की भूमिका में है ! कि दोनों में से कौन किसकी सिलवटें मिटा रहा है । वात्सल्य एवं मातत्व की दुहरी-तिहरी परतें कभी शिशु-कपोल का डिठौना बनते तो कभी 'भैंहों के बीच बिन्दी भर का चुम्बन बनकर उसे अभवों में भी जीवन जीने का रस और अर्थ प्रदान करती रहती है ।
         संकलन की 'जाने कहां  कविता का काव्यात्मक सौन्दर्य पेड़ पर रहने वाली गिलहरी और फलैट में रहने वाली लड़की की भावपूर्ण विडम्बनात्मक तुलना में है । 'स्वाद  कविता श्रम की सामाजिकता को सुख का आधार घोषित करती है । 'आवाज कविता स्त्री-असन्तोष और विद्रोह की चेतना को धुंएं के रूपक के माध्यम से व्यक्त करती है । 'विलाप कविता विलाप को 'सोग के राग के रूप में दार्शनिक प्रत्यक्षीकरण करती है । 'मस्तीपुर की दुखिया कविता पुत्र-शोक के बावजूद आजीविका के लिएदारु बेचने को विवश एक निम्नवर्गीय युवती का मार्मिक काव्य-चित्र है । 'गूंजता रहता है कविता यौन सेविकाओं की आन्तरिक रिक्तता और प्रेमहीन काम-व्यापार का अत्यन्त ही शिष्ट एवं शालीन काव्यांकन है । संवासिनी काण्ड कविता अखवारों में सुर्खियां बटोर चुकी ,राजकीय संरक्षण गृह में यौन शोषण का कुकृत्य करते सामाजिक अपराधियों पर लिखी गयी एक प्रतिरोध कविता है -'वह संरक्षण-गृह जो वस्तुत: स्त्रीत्व की वधशाला थी ....सब कुछ हमारी गूंगी आंखें के सामनें सम्पन्न हुआ था होता रहा थाहम देखते रहे थे चील-झपटटे स्लोमोशन में  ।'एक उन्मुक्त हंसी  कविता स्त्री के उन्मुक्त हंसी हंसने के अधिकार को नैतिक समर्थन समाज की विरोधी मानसिकता की पृष्ठभूमि में करती है । स्वकीया या एकान्त समर्पित प्रेम-व्यवहार की अत्यन्त आकर्षक झांकी 'पीठ की हंसी  कविता में है । 'थनैली परम्परागत ज्ञान से विचिछन्न एक आधुनिका के बहानें थनैली नाम की एक जड़ी के गुणधर्म का काव्यात्मक संरक्षण है । 'एक धुंधली तस्वीर कपिता तस्वीरों में संरक्षित समय और वास्तविक जीवन-समय के अन्तर के त्रासदी-बोध का अंकन है । प्रबुद्ध युवतियों की आत्महंता मौत का प्रश्न 'मरक्युरिक क्लोराइड से दिल्ली वि.वि. में तीसरी आत्महत्या के बाद शीर्षक कविता उठाती है ।
     'प्रगम,'तीरेनीमकश,आम मंजरियों  की गन्ध,अमृत कुम्भ, अधरामृत  वृत्त, मैं तुम्हारी कविता हूं,खिले आ रहे हैं,अंगूरी पेठे -सी ,जैसी कविताएं प्रणय की मन:सिथतियों के चित्र प्रस्तुत करती हैं ।सारे पुरुष-अहंकार के बावजूद स्त्री के प्रति समर्पित यौनिकता पुरुष-मन को निरीह,विनमं एवं आग्रहशील बनाती है । ज्ञानेन्द्रपति की कर्इ कविताएं स्वस्थ प्रेम के सामाजिक पक्ष को काव्यांकित करती है । स्त्री के प्रति समर्पित पुरुष-प्रेम का यह चरित्र उस स्त्री पर बल-प्रयोग करने वाले उस आपराधिक पुरुष-चरित्र की विरोधी है । 'टेर कविता काशीवास कर रही बूढ़ी विधवाओं के ऊपर लिखा गया एक सम्पूर्ण काव्य-पिेर्ताज है । आर्थिक हितों को जीनें वाली संवेदन और आस्थाविहीन आधुनिकता किसप्रकार विधवाश्रम जैसी सांस्कृतिक आर्थिक संस्थाओं का व्यावसायिक रूपान्तरण कर रहा है,इसका प्रामाणिक वृत्तान्त यह कविता प्रस्तुत करती है । विधवाओं के नाम पर बनी अतीत की शानदार संस्था के कर्ता-धर्ता होटल-संचालन कर रहे हैं । यह लम्बी कविता एक अप्रत्याषित एवं गम्भीर मोड़ लेती है अपने समय के एक वर्ग की प्रतिगामी मानसिकता और अतीतमोह का सामाजिक-राजनीतिक पुन:पाठ प्रस्तुत करती हुर्इ । बीते हुए समय के न बीतने देने के व्यापक सामुदायिक स्वार्थ एवं निहितार्थ हैं-वे बीते हुए समय की चौकीदारी करते हैंउसका पूजन-अर्चन वंदन-अभिनंदंनवह सत्ता का चौरा है उनको ।  यह कविता वाराणसी में बाल-विधवाओं पर बन रही दीपा मेहता के फिल्मी सेट का विद्रूपण के आरोप के साथ ध्वंस करने वाले वर्ग-विशेष का साहितियक प्रतिरोध रचती है ।
      इस संग्रह में असावधन एवं नासमझ स्त्री -जीवन के लिए चेतावनी का बोध सम्प्रेषित करने वाली कविताएं भी हैं । 'सुखदेवी का दुखान्त शीर्षक कविता प्रणय-प्रवंचकों के विरुद्ध लिखी एंसी ही एक चेतावनी कविता है । कविता एक युवा पड़ोसी के साथ भागी हुर्इ इक्कीस वर्षीया युवती की हत्या और बर्बर लूट का प्रभावी काव्यांकन करती है । 'अर्ज किया है  जैसी कविता असितत्व की प्रभावशीलता का अंकन करती है तो 'प्रगम जैसी कविता का व्ैशिष्टय लैंगिक सम्मान और आत्मीयताबोधक भाषा के सूक्ष्म व्यवहार में है । इसी तरह 'कार्इ के समान लग जाओ (तुम मेरी छाती से) जैसी कविता और 'तुम्हारे बिन दिन पहाड़ हुआ तुम्हारे बिना घर तिहाड़ हुआ जैसी पंकितयों में कवि के नए उपमानों की प्रयोगशीलता देखी जा सकती है । 'तुम भविष्य की तरह कविता में प्रणय का भावांकन दार्शनिक प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से किया गया है-'तुम भविष्य की तरह मेरे आगे फैली होऔर मैं वर्तमान की तरह तुम्हें खोल रहा हूं-तुम मेरा दिवास्वप्न हो! इसी तरह 'अमृत-कुम्भ और 'अधरामृत जैसी कविताओं का वैशिष्टय स्त्री और वुरुष के बीच के नैसर्गिक आकर्षण के श्लील और शिष्ट साक्षात्कार की प्रस्तावना में है । थनैली कविता परम्परागत ज्ञान से विचिछन्न एक आधुनिका के बहानें थनैली नाम की एक जड़ी के गुण-धर्म का काव्यात्मक संरक्षण है ।'एक धुंधली तस्वीर कविता तस्वीरों में संरक्षित समय और वास्तविक जीवन-समय के अन्तर के त्रासदी-बोध का अंकन है । स्त्री और पुरुष का जीवन एक-दूसरे से प्रभावित होता और करता हुआ ,सिर्फ एक -दूसरे सेजुड़ता और एक-दूसरे को जीता ही नहीं,बलिक उसे बदलता भी है -'मैं तुम्हारी कविता हूं....मेरे शब्द बदल दोअपनें जीवनानुभव जोड़ो ।
    ' वह दिन कविता प्रेम की अविस्मरण्ीयता का अंकन उस क्षण के सम्पूर्ण परिदृश्य के स्मृति-अंकन द्वारा करती है । कवि के लिए प्रेम सृजन की प्रस्तावना है -'एक उत्कणिठत कोपल मेंजिस तरह पारदर्शी हो जाता है हरीतिमा का रहस्यउस दिन मेंझलक उठा था जीवन का रहस्य। 'तुम्हारे मौन में कविता वर्जना-मुक्त गगन में उड़ान की स्त्री की आकांक्षा को चिडि़या का रूपक एवं प्रतीकांकन देती है -'मैंने कहा : तुम्हें येचिडि़याएं देता हूं। नारी-मन की मुकित आकांक्षओं की ऐसी ही अभिव्याकित 'चिडि़यों के बीच कविता में भी की गर्इ है । यह कविता इस निष्कर्ष के साथ समाप्त होती है कि स्त्री को पीछे छोड़ने पर पुरुष का जीवन रात बन जाता है । स्त्रीविहीन पुरुष का न तो स्वस्थ वर्तमान है और न ही भविष्य ।
       स्ंकलन का उत्तराद्र्ध समानधर्मी मूल्यों वाले सहजीवी स्त्री और पुरुष जीवन का आदर्शात्मक दृष्टान्त प्रस्तुत करती हैं । ये दृष्टान्त वास्तविक जीवन के दीर्घकालिक सूक्ष्म-निरीक्षण के परिणाम होने के कारण कल्पना-लोक का नहीं बलिक जीवन-लोक का ही प्रतिमान प्रस्तुत करते हैं । संकलन की 'पाणि-ग्रहण,संकल्प-पत्र,'टेढ़े चिबुक वालानन्हा आम,'वह तुम हो,'दृश्य वह अनुपम,'गेहूं'लता एक निफूली,'एक भंगेड़ी कवि की संगिनी का आत्मवक्तव्य आदि ऐसी ही गृहस्थ एवं सहचर जीवन-छवियों से निर्मित कविताएं हैं । ये कविताएं स्त्री और पुरुष के पूरक सह-असितत्व की दार्शनिक प्रस्तावना करती हैं । कवि का संकेत स्पष्ट है । वह प्रतिक्रियावादी और नकारात्मक स्वातं़य वाले अस्वस्थ स्त्री-विमर्श के पक्ष में नहीं है । कवि की परिकल्पना का आधार शोषणरहित सामाजिकता में उपसिथत आवयविक स्त्री जीवन है । ये कविताएं त्रासद पुरुष-सत्ता के निषेध का तो समर्थन तो करती ही हैं ,उसे स्त्री-जीवन के उल्लास और विस्तार के अवसर के रूप में होनें की प्रस्तावना भी करती हैं । इस दृषिट से ' मैं एक पेड़ हूं  कविता देखी जा सकती है। इस कविता के माध्यम से कवि पुरुष-सत्ता के ऐसे रूपान्तरण की कामना करता है जिसमें स्त्री किसी गिलहरी के समान जड़ों से शुरू होकर फुनगी के करीब तक उल्लास-रोमांचित दौड़ती जाए ।
           दरअसल आदिम कृषि और शिकार-आधारित सभ्यता में और आज की स्त्री सम्बन्धी हमारी मानसिकता का आधार सामन्ती युग के जीवन-मूल्य हैं,जब बाहुबल और युद्ध ही जीवन केसुख और सुरक्षा निर्धारित करते थे;जबकि वर्तमान सभ्यता बौद्धिक शकित और सम्पदा आधारित यानि आर्थिक सभ्यता की है।  इसमें स्त्री को भी शकित-केन्द्र के रूप में स्थापित होनें की गुंजाइश बनी है । समझदारी के इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के अभाव में स्त्री-विमर्श का युगानुरूप् स्वस्थ और सही पाठ निर्धारित नहीं किया जा सकता । युगबोध के अभाव में अधिकांश स्त्री-विमर्श असामाजिक विमर्श बनकर रह गए हैं । साहित्य में ता स्त्री-पक्ष की यौन-उत्तेजनाओं एवं व्यवहार की वर्जनारहित उन्मुक्त अभिव्यकित को विमर्श की साहसिक एवं क्रानितकारीअभिव्यकित मान लिया गया है । जबकि सच्चार्इ यह है कि प्रेम की अपनी जड़ता होती है और वह स्त्री या पुरुष को सामान्य से विशेष की ओर ले जाता है । व्यकित-विशेष का चयन और विशिष्टता बोध ही प्रेम को भी विशिष्ट सामाजिक व्यवहार बनाता है । इसके विपरीत बाजारवादी शकितयां परिवार और समाज विद्रोही निरंकुश-अराजक व्यकितवाद की दिशा में स्त्री-स्वातंत्रय को हवा दे रही हैं । जिसका उददेश्य बाजार में बिकाऊ माल के रूप में स्त्री की अधिक से अधिक उपलब्धता सुनिशिचत कराना है । ज्ञानेन्द्रपति की कविताएं स्पष्ट रूप में इस असामाजिक स्त्रीवादी सोच का प्रतिपक्ष प्रस्तुत करती हैं । उत्तराद्र्ध की अनेक कविताओं में स्त्री-जीवन को उसके सामाजिक आर्थिक ताने-बाने के बिम्बों-छवियों के साथ वे प्रस्तुत करते हैं । उनकी कतिएं इस तथ्य की अनदेखी नहीं करती कि परिवार सामाजिकता के निर्माण की प्राथमिक र्इकार्इ हैं । इसीलिए परिवार बसाना और प्रेम में पड़ना अकेले जीने की स्वतंत्रता का निषेध और परस्पर का समर्पण मांगती है । अविवाहित ब्रहमचारी हो या अपराधी दोनों की ही स्त्री-विरोधी स्वतंत्रता जैसे असामाजिक होती है ,कुछ वैसी ही व्यकितवादी स्वतंत्रता की जीवी स्त्री की भी होगी । इस दृषिटकोण से देखें तो प्रतिक्रियाादी स्त्री-विमर्श भी अपनी असामाजिक परिवार-विरोधी स्वतंत्रता के कारण मानवता-विरोधी होगा । संग्रह की कर्इ कविताएं पुरुष के जीवन में स्त्री की भूमिका और प्रभाव को परिभाषित करती हैं। स्त्री को अधिक जगह देने के आकांक्षी कवि ज्ञानेन्द्रपति की इन कविताओं को स्त्री के पक्ष में आधुनिक पुरुष-मन के रूपान्तरण की काव्यात्मक प्रस्तावना के रूप में देखा जा सकता है । आधी आबादी के यथार्थ ,जीवन और नियति को ही काव्य-विषय बनाने के बावजूद कथ्य के स्तर पर इनकविताओं में दुहराव नहीं है । यधपि अपनी रचना-प्रक्रिया में ये कविताएं जीवन की स्मृति और साहित्य की स्मृति दोनों की ओर ही बार-बार वापस लौटती हैं । इस मानसिक यात्रा में ही ज्ञानेन्द्रपति युगानुरूप् संवेदना की पुनर्रचना और पुन:पाठ रचते हैं । स्त्री के प्रति वांछित पुरुष-व्यवहार और मानसिकता के प्रतिमान की प्रस्तावना करते हैं । स्त्री केनिद्रत महाकाव्यात्मक आवयविकता तथा पूरक आयाम वाली इन कविताओं को कवि सृजित आदर्श साहितियक स्मृति तथा स्त्री विषयक स्वस्थ विमर्श की प्रस्तावना के रूप में देखा जा सकता है ।ं 
           समीक्षित पुस्तक-     'मनु को बनाती मनर्इ(कविता-संगह)
                    कवि-    ज्ञानेन्द्रपति
           प्रकाशक-  किताबघर प्रकाशन, 48555624,अंसारी रोड,दरिया गंज, नर्इ दिल्ली -110002
                प्रथम संस्करण-2013 मूल्य-250
                    

मंगलवार, 15 जुलाई 2014

यह दुनिया

यह दुनिया जो एक मकड़ी के जाले की तरह है
और मैं भी हूँ उस जाले का एक तार
दूसरों से जुड़ा हुआ
जोड़ता हुआ दूसरों से
दूसरों से बंधा हुआ
बांधता हुआ दूसरों को
मेरा हिलना हिलाता है दूसरों को
मेरा टूटना तोड़ देता है -
संवेदना के कोमल तार
इसी जाले पर दौड़ती है समय की मकड़ी

मैं एक अदृश्य बुनावट का हिस्सा हूँ समाज की
मेरा होना सिर्फ अकेले का
अपनें असम्बद्ध एकांत में होना नहीं है
शायद इसीलिए जब मैं दूसरों को तोड़ता हूँ
स्वयं टूट जाता हूँ
जब मैं छोड़ता हूँ दूसरों को
स्वयं छूट जाता हूँ
मेरी यात्रा एक सामूहिक यात्रा है सम्पूर्ण मानव -जाति की

शायद इसीलिए
मेरे सौभाग्य का ईश्वर
मेरे मित्रों और मेरे चाहने वालों की
शुभकामनाओं से बना हुआ है
दूसरों को मुझसे मिलाने वाली ख़ुशी में रचा-बसा है
मेरी आत्मा का सच्चिदानन्द !

और मेरे दुर्भाग्य का शैतान भी
मुझे नापसन्द करने वालों की घृणा में छिपा हुआ है
उनकी अरुचि से बना हुआ है
मेरे निर्णयों के प्रति असहमतियों से बना है
मेरे अस्तित्व और सार्थकता का प्रतिपक्ष …

मेरा अच्छा या बुरा होना
सिर्फ मेरे भीतर का ही
मेरे भीतर तक ही होना नहीं है।

सोमवार, 30 जून 2014

गंगा किनारे का भ्रमण

आगे कोई भी घाट
शेष  नहीं है
सिर्फ बहती हुई गंगा का अंतहीन प्रवाह है
समय की तरह
अब मुझे भी वापस लौट चलना चाहिए
प्राकृत गंगा से जनगंगा की और
यानि जीवन के शुद्ध वर्तमान में ...

शनिवार, 14 जून 2014

दुनिया का भविष्य और जनसंख्या वृद्धि का संकट

जनसत्ता 17 जुलाई, 2014 :में प्रकाशित -

 http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=73737:2014-07-17-06-33-43&catid=21:samaj


विश्व की जनसँख्या जितनी तेजी से बढ़ रही है हम मनुष्यों के लिए यह धरती कम पड़ती जा रही है .यह दुनिया भी किसी गैस के बंद सिलेंडर की तरह ही है .जिसमें जैसे-जैसे गैस सिलेंडर में भरते जाते हैं , गैस के परमाणु आपस में तेजी से टकराने लगते हैं , तापमान बढ़ता जाता है और एक समय ऐसा आता है जब बढ़ते दबाव को न सह पाने के कारण सिलेंडर में विस्फोट  हो जाता है .वैश्विक तापमान वृद्धि के प्राकृतिक संकट से पहले मानवीय पर्यावरण ख़राब होने का संकट अधिक है ..आज के बढ़ते अपराध और बिगड़ती कानून व्यवस्था में इसकी झलक देखी जा सकती है .सायकिल एवं बसों के टायर पंचर होनें में भी यही सिद्धांत कई बार काम करता है .         
              देखा जाय तो एक सियार का काम एक मांद से चल सकता है लेकिन आदमी को तो रहने की आवश्यकता के हिसाब से नहीं बल्कि उसके धन और प्रदर्शन के रुतबे के हिसाब से घर चाहिए ..कंकरीट का जंगल बढ़ाता जा रहा है .खेती की जमीन को वे लोग हड़पते जा रहे हैं जो आमदनी के दुसरे जरियों के कारण महंगा अनाज भी खरीद सकते हैं .कृषि-भूमि खरीद कर उसका क्षेत्रफल कम करने के बावजूद उनपर कोई तात्कालिक प्रभाव नहीं पड़ने वाला है .         
             अनेक सांस्कृतिक - सामाजिक कारक हैं इस जनसंख्या वृद्धि के पीछे .भारतीय मूल के लोगों का धार्मिक कारणों से पुत्र मोह जो उन्हें पुत्र होने तक संतानोत्पत्ति करते रहने के लिए विवश करता है .इसमें बंश की अवधारणा और बांस नामक एक घास-कुल की वनस्पति से उपमा की भी नक्रारात्मक भूमिका है. . बांस की एक विशेषता होती है कि उसका नया पौधा बांस की जड़ के पास ही फूटता है .उसमे बीज नहीं पे जाते इस लिए वह दूर-दूर अन्यपौधों कि तरह नहीं उग सकता .इसका साम्य बस इतना ही है कि विवाह के बाद स्त्रिया विस्थापित हो जाति है जबकि पुरुष घर में ही बना रहता है .देखा जाय तो बेटी दुसरे परिवार में जैविक विशेषताएँ लेकर जाती है तो दुल्हमें बैठे -बैठे ही बाहर से आकर किसी परिवार या कुल  के गुण-तंत्र को बदल देती हैं .कहने के लकी सिर्फ आर्थिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक स्वरूपों ही बना रहता है .फिर भी भारत में यह अंध -विश्वास इतना प्रचलित है कि एक उपमा ही जनसंख्या बढ़ा रहा है .इसी तरह शूद्रों का ब्रह्मा के पैरों से उत्पन्न होना भी एक उपमा ही है ,जो बहुतों को अपमानित करती रहती है .       
             .मानव जाति कई समूहों में बंटी है .हर समूह का सामाजिक व्यवहार .जीवन-दर्शन और जीने का मकसद अलग है .पूरी मानव जाति पुरातनपंथी और नवान्वेषी दो खेमों में बनती हुयी है। मानव जाति के भविष्य का आखिरी निर्णय उसकी सृजनशीलता ,संघर्ष और प्रतिरोध पर भी टिका हुआ है। कुछ हैं जो सिर्फ आस्था ,आतंकवाद और उत्पादन में लगे हुए हैं। कुछ परिवार नियोजन के सरकारी कार्यक्रमों को भी धर्म-विर्रुद्ध बताकर उसका उसका बहिष्कार करने वाले लोग हैं कुछ मानव जाति को उसकी सम्पूर्णता में नहीं बल्कि बल्कि अपनी जाति और कौम की संकीर्णता में देखने वाले लोग भी है। ऐसे लोगों की चिंता यह रहती है कि एक दिन उनकी जाति अल्पसंख्यक होकर लुप्त हो जाएगी और केवल कौम विशेष के लोग ही इस धरती पर दिखेंगे। ऐसे लोगों के लिए जवाब कुछ इस तरह ही होना चाहिए कि मानव जाति का बचना ज्यादा जरूरी है। वह किस कौम एवं विचारधारा के साथ बचाती है यह उतना महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं है।         
             वैसे देखें तो आज की जनसंख्या में कुछ हैं जो आध्यात्मवादी हैं और अपनें पवित्र अस्तित्व की महिमा में डूबे हुए हैं .कुछ महान पवित्र आत्मा यानि कि परमात्मा के सम्मान में झुके हुए हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो भटक रहे हैं किसी नयी दुनिया की खोज में .यद्यपि ऐसे लोग बहुत ही कम हैं ,लेकिन हैं जिन्होंने बूढ़ी और अपर्याप्त होती जा रही दुनिया के असुरक्षित भविष्य का साक्षात्कार कर लिया है और उसकी सुरक्षा के लिए चिंतित भी हैं ..अध्यात्मवादी और समर्पण वादी दोनों ही चुपचाप बड़ी संख्या में या यह कहें कि जातीय स्तर पर अपना उत्पादन बढाने में लगे हैं .निश्चय ही यह दुनिया एक दिन ऐसे ही लोगों से भर जायेगी .जीवन की निरंतर बदती प्रतिस्पर्धा इन्हें पागल बनाएगी और अपराधी .इनके वंशज अपराध करेगे और दंगे .ऐसे में एक ही उपाय नजर आर्ता है कि जनसँख्या बदने दी जाये और नयी धरती खोजी जाये .इसमें अंतरिक्ष विज्ञानं का विकास हमारी सहायता कर सकता है .तब हम एक ही क्यों कई धरतियों पर फ़ैल कर बस सकते हैं .यदि ऐसा हो पाता है तो एक दिन उत्पादनवादियों के निरंतर उत्पादन से इस नरक हो चुकी दुनिया को छोड़कर बुद्धिमान और समर्थ खोजी किसी और ग्रह पर भागकर बस जायेंगे .सिर्फ नालायक ही रह जायेंगे इस धरती पर कीड़े -मकोड़ों की तरह .....     
          यद्यपि अतीत में मानव जाति नें धरती का भार कम करने के दूसरे उपाय भी किये हैं जो युद्ध आदि द्वारा सामूहिक आत्म ह्त्या से मिलता है। इसे कृष्ण और राम द्वारा धरती का भार कम करने वाले पौराणिक युद्धों में देखा जा सकता है। कहते हैं चंगेज खान नें भी अपने ढंग से यह भार कम किया था। दो विश्व-युद्धों की भी इसमें आंशिक भूमिका रही होगी। आंशिक इस लिए कि युद्धों से जनसँख्या का बहुत कम होना संदिग्ध है।  क्योंकि युद्धों में सिर्फ पुरुष ही मारे जाते रहे हैं और सभी जानते हैं कि प्रजाति वृद्धि का जविक तंत्र स्त्रियों के पास रहता है। यद्यपि यह भी सच है कि दांपत्य के संस्थागत स्वरूप के कारण वैधव्य का अभिशाप भी जीती रहीं हैं ,किंन्तु अतीत के सामंती युग में बहु पत्नी प्रथा के कारण जनसंख्या वृद्धि की दर अधिक कम नहीं हुई होगी।  बुद्ध के आन्दोलन में यदि युवा स्त्रियाँ भी भिक्षुणी बनी होंगी तो माना जा सकता है कि उससे जनसँख्या में वृद्धि न होने का उद्देश्य सिद्ध हुआ होगा।तिब्बत के बौद्धों में आज भी जनसँख्या नियमन के लिए बौद्ध भिक्षुणी के रूप में आजीवन अविवाहित रहने की भी प्रथा रही है। इसे जनसँख्या का सांस्कृतिक नियमन कह सकते हैं। फिलहाल तो  एक रास्ता चीन का तो दूसरा परम माननीय वाला भी है कि विवाह करिए पर सम्बन्ध स्थगित रखिये। एक अन्य विज्ञानं का सहारा लेकर निरोधक उपायों वाला है। भारत सरकार को चाहिए कि निरोधक बांटने की जिम्मेदारी स्वास्थ्य विभाग से लेकर  डाक या राशन बांटने वाली दुकानों को दे दे। इस महान परियोजना के लिए ए. टी. एम्.  जैसी मशीन भी चौराहे-चौराहे  पर लगायी जा सकती है। सुलभ इंटर्नेशनल वाले दुबे जी भी यह कार्य करा सकते हैं।लेकिन वोट बैंक के चक्कर में भारत का लोकतंत्र आत्महंता जनसँख्या-वृद्धि की और बढ़ रहा है। एक राजनीतिक किंकर्तव्यवविमूढ़ता  समस्या को और बढ़ा रही है।

शनिवार, 24 मई 2014

आस्तिकता का समाज - विज्ञान

भारत में विचारधारा विशेष को जीने और मानने वालों के लिए अच्छे दिन आ गए है। इस लिए कि वे जिस सांस्कृतिक पर्यावरण को जीना चाहते थे ,उसका अब समकालीन राजनीति से अब कोई विरोध और चुनौती नहीं है। उनके विरोधी हतोत्साहित हुए हैं और वे पूरी उन्मुक्तता के साथ अपने चित्त  जिएंगे। ऐसे में संभव है कि आध्यात्मिकता का अतिरिक्त महिमामंडन हो. इसमें मुख्य चिंतनीय बात यह है कि भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा समर्पण वादी है। इसमें विरोध और असहमति जीने की कोई सशक्त जातीय परंपरा नहीं मिलती।
       मैं भी यह मानता हूँ कि ईश्वर के भरोसे जीना अत्यंत सुखदायी होता है। सच तो यही है कि बचपन में माता-पिता पर आश्रित होने के कारण हम  सभी समर्पण और आस्था वादी होते है। यह वह दौर होता है जब हम स्वयं को मिली दुनिया को पूरी तरह सच मानकर उसे पूरी सहमति के साथ जीने का प्रयास करते हैं। लेकिन जैसे - जैसे हम समझदार होते जाते हैं ,यथार्थ जगत के अभावों और अंतर्विरोधों से परिचित होते जाते  हैं ,हमारे लिए पूर्ण समर्पणवादी और आस्तिक होना मुश्किल होता जाता है। हम जैसे -जैसे व्यवस्था से मोहभंग के शिकार होते जाते हैं ,वैसे -वैसे भीतर से अपराध-बोध के शिकार होते जाते हैं कि हमारे बचपन का स्वर्ग छिन गया है।
      हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी समस्या को ईश्वर पर छोड़ने  मतलब सामाजिक स्तर  पर दूसरों के विवेक पर छोड़ना भी हो सकता है। यदि हम दूसरों से अयोग्य और मुर्ख है तो आस्तिक और समर्पण वादी होना फायदेमंद हो सकता है , विपरीत यदि दूसरे हमारी तुलना में बेवकूफ औरअयोग्य हुए तो  आस्तिक   होकर कुछ अच्छा घटने की प्रतीक्षा करना सिर्फ समय बरबाद करना ही होगा। ऐसी आस्तिकता और समर्पण से कोई भला होने वाला नहीं है। इसी लिए असंतुष्टों और बुद्धिमानों के लिए ज्ञानमार्गी होना ही उचित है और मूर्खों तथा अयोग्यों के लिए भक्तिमार्गी  होना।
        इस इस तरह विश्लेषण से यह तथ्य सामने आया कि अगल-बगल मुर्ख और अयोग्य अधिक हों तो संशयवादी और ज्ञानमार्गी  होना ही श्रेयष्कर है। इसके विपरीत यदि अगल-बगल अधिक योग्य और बुद्धिमान व्यक्ति उपस्थित हों ,जिन पर भरोसा किया जा सकता हो तो चुपचाप दूसरों का नेतृत्व स्वीकार कर उन्हें सहयोग देना ही उचित है। ऐसे ऐसे में सिर्फ महत्वकांशा से वशीभूत होकर किया गया विरोध सिर्फ वातावरण ही ख़राब करता है। इससे समाज का भला नहीं होगा।   

शुक्रवार, 23 मई 2014

अरविंद केजरीवाल और उनकी फ्लॉप आप पर दृष्टिपात

आप यानि आम आदमी पार्टी जैसे एक राजनीतिक मंच की ऐतिहासिक जरुरत भारत को है। यह एक ऐसी जरुरी उपस्थिति की तरह है जैसे हाथी के लिए अंकुश। क्योकि विपक्ष कमजोर हुआ है , स्थिति में चर्चा में बने रहने के विशेषज्ञ अरविन्द केजरीवाल की सार्थक  भूमिका बनी रहेगी। अरविन्द वस्तुतः भारतीय राजनीति में फुटपाथ  हीरो हैं। यह व्यक्ति कहीं से भी सेलिब्रेटी नहीं लगता। बस में मिले तो कोई जल्दी सीट भी नहीं देगा। अरविन्द केजरीवाल में मध्यवर्ग की सारी कमजोरियां भी हैं। यह व्यक्ति कहीं से भी राजनीतिज्ञ नहीं बन पाया है। इस व्यक्ति की सीमा यह  है कि इसे आलोचना और विरोध की भाषा तो आती है ,लेकिन प्रेम  आत्मीयता की नहीं। यह मैं इस आधार पर कह रहा हूँ कि यह व्यक्ति अपना कुनबा एकजुट नहीं रख पाया। अन्ना हजारे हों या किरण बेदी सब इतनी जल्दी अलग -अलग रास्ते पर चले गए कि ऐसा संदेह होने लगा कि यह केजरी का क्रांतिकारी शुद्धतावाद है या महत्वाकांक्षी व्यक्तित्व का दुष्प्रभाव !
        मैं एक कल्पना और करता रहा हूँ कि क्या यदि आप सफल हो जाती तो उस पार्टी में गए बुद्धिजीवियों की हैसियत वैसी ही बनी होती जैसी कि उनकी समाज में है। मुझे ऐसा क्यों लगता रहा है कि केजरीवाल अभी अपने व्यक्तित्व और भूमिका को लेकर सावधान नहीं हैं। जैसे कांग्रेस में जाने का मतलब अपने व्यक्तिव की स्वाधीनता खोकर राहुल गांधी की सर्वकालिक श्रेष्ठता को स्वीकार करना होता है ,वैसी ही दशा-दिशा अरविन्द केजरीवाल की पार्टी में जाने वाले बुद्धिजीवियों की भी दिख रही थी। य़दि ऐसा होता है तो आप भी एक दूसरी कांग्रेस बन कर ही रह जाएगी। यदि केजरीवाल नहीं बदले तो भारतीय राजनीति में एक नए लोकतांत्रिक मंच की आवश्यकता बनी  रहेगी। यदि केजरीवाल चाहते हैं कि  उनकी आप पार्टी संभावनाशील भूमिका में बनी रहे तो  उचित माध्यम बनने की साधना करनी होगी। अपना ही अध्ययन कर अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं को को पहचानना होगा , अपना शोधन करना होगा। अभी तो  केजरीवाल को अपने और मुखर ,आत्मीय और उदार व्यक्तित्व की तलाश करनी होगी। वे दरअसल विध्वंसात्मक भूमिका और गतिविधियों के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने कांग्रेस का सफल विध्वंस किया। उसे उसे सत्ता से बाहर  कर दिया। लेकिन सृजनात्मक विश्वसनीयता कम होने से भारतीय जनता मोदी के आश्वासनों को अजमाने की दिशा में मुड़ गयी।

बुधवार, 30 अप्रैल 2014

ऐरिक हाब्सबाम की इतिहास- दृष्टि और मार्क्सवाद






ऐरिक हाब्सबाम के लिए मार्क्स  सिर्फ एक विचारधारा ही नहीं बल्कि एक ऐतिहासिक उपस्थिति भी हैंं । यधपि  एक इतिहासकार के लिए किसी भी उपस्थिति को अस्वीकार करना प्राय: असंभव ही है । यधपि वह किसी से सहमत या असहमत होने एवं  विषय की प्रकृति के कारण  र्इमानदारी से महसूस और स्वीकार करने के लिए स्वतंत्र हैं  । लेकिन एरिक की मार्क्सवाद  के प्रति पक्षधरता एवं प्रेम सिर्फ इतिहासकार होने के कारण ही नहीं है ।  मार्क्स उनके लिए  आधुनिक भौतिकवादी वैज्ञानिक सभ्यता और क्रांतिकारी  युग-परिवर्तन के स्वाभाविक दार्शनिक हैं । इसीलिए वे विचारक मार्क्स और उनकी विचारधारा कोे एक स्वााभाविक विकासक्रम में देखे जाने का आग्रह करते हैं । मार्क्सवाद उनकी दृषिट में आधुनिक भौतिकवादी वैज्ञानिक जीवन -दर्शन का स्वाभाविक विकास एवं निष् पतित है ।  आधुनिक युग के लिए वह उतना ही स्वाभाविक औा अपरिहार्य दर्शन है ,जितना कि डार्विन का विकासवाद ।  मार्क्स उनकी दृष्टि में आधुनिक पूंजीवाद और औधोगिककरण युग के अपरिहार्य दार्शनिक हैं- एक स्वााभाविक मांग हैं ।
          इसीलिए एरिक हाब्सबाम मार्क्स की उस उपस्थिति को भी एक इतिहासकार के रूप में देख पाते हैं,जिसे राजनीतिक घटनाओं और सत्ता के आधार पर देखने वाले नहीं देख पाते हैं । एरिक के लिए  मार्क्स आधुनिक विचारशीलता की एक अन्त:प्रेरणत्मक दृष्टि हैं । उनके लिए मार्क्स  उसीप्रकार आधुनिक भौतिकवादी वैज्ञानिक सभ्यता-युग की बौद्धिकता के महत्वपूर्ण वैचारिक आयाम हैं ,जिस तरह कि गेलीलियो,डार्विन,,न्यूटन,फ्रायड या आइन्स्टीन । एक विचारक के रूप् में मार्क्स के दृष्टि -संयोजन में उनके भौतिकवादी वैज्ञानिक युग की पृष्ठभूमि छिपी हुर्इ है । इसीकारण से मार्क्स को सहसा उसीप्रकार अप्रासंगिक या खारिज नहीं किया जा सकता ,जैसे कि आधुनिक वैज्ञानिक युग एवं सभ्यता को  अप्रासंगिक या खारिज नहीं किया जा सकता ।
            ऐरिक हाब्सबाम के लिए अतीत से तात्पर्य उन संवैधानिक,प्रशासनिक और संस्थागत स्मृतियों और अनुभवों से भी है , जिनके विकास में बौद्धिक मानवीय प्रयासों की एक लम्बी श्रृंखला छिपी हुर्इ है । यह सिर्फ राजनीतिक ही नहीं है ,बलिक समाज को प्रभावित करने वाली उस अभियानित्रकी के रूप में भी है ,जिसके सुधारों और परिष्कारों का भी स्मृति और इतिहास है । जिसकी समझ भविष्य के नए निर्माण का आधार बनती है । मार्क्स की चर्चा करते हुए हाब्सबाम  समाजवाद के उस यूटोपिया प्रभाव की भी चर्चा कीते हैं जो एक कार्यात्मक प्राप्तव्य या लक्ष्य आदर्श के रूप में गुजरते वर्तमान को प्रभापित करता है । अच्छे समाज का यूटोपियन माडल या बांछित राजनीतिक व्यवस्था भी समाज एवं व्यवस्था के विकास की दिशा को प्रभावित करती है । संस्थाओं और मूल्यों के प्रकार्यात्मक स्वरूप् और निर्माण को भी अतीत के विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्ष ही प्रभावित करते हैं ।
          एक विचारधारावादी मार्क्स का समर्थक मार्क्स को एक आकसिमक -अप्रत्याशित  आविष्कारक परिघटना के रूप् में देखता है । वह उन्हें सम्पूर्ण रूप से एक समग्र प्रारम्भ-बिन्दु के रूप में देखता है । जबकि हाब्सबाम उन्हें मानव-सभ्यता के स्वाभाविक ज्ञानात्मक विकास-क्रम में उपसिथत  युग-प्रवर्तक विचारक के रूप् में देखने का आग्रह करते हैं ।मार्क्स की विचारधारा में निहित उन आधुनिक अन्तदर्ृषिटयों को पहचानने का आग्रह करते हैं,उन सूत्रों को भी-जो एक विचारक और विचारधारा के रूप में मार्क्स के विवेक-संयोजन को संभव करते हैं ।
          कोर्इ असिमतावादी गैरमार्क्सवादी सोवियत रूस के पतन के बाद सहसा ही मार्क्स को पूरी तरह खारिज मान सकता है । कुछ वैसे ही जैसे तालिबानियों नें गौतमबुद्ध की प्रतिमा का ध्वंसकर उन्हें अनुपसिथत करना चाहा । इस दृष्टान्त के माध्यम से एरिक हाब्सबाम की  इतिहासकार की दृषिट को समझना तभी संभव हो सकता है ,जब हम यह कल्पना करें कि तालिबान के विस्फोटकों नें  बुद्ध की विशालकाय प्रतिमा को जब ढहाया होगा तब उस विशालकाय प्रतिमा को बनाने वाली चटठानें वहीं मलबे एवं पत्थरों के रूप् में गिरी होंगी । विध्वंस के बाद भी एक विशालकाय मलबे का ढेर वहां होगा ही होगा । ऐसे ही मार्क्स की विचारधारा के निर्माता तत्व भी मार्क्स के पूर्व एवं उनके समकाल में उपसिथत तत्व रहे होगे ।  मार्क्सवाद को अप्रासंगिक एवं कालातीत घोषित कर देने के बाद भी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के उन महत्वपूर्ण तत्वों की उपसिथति को उसके प्रभावों में देखा जा सकता है । उन  शकितयों और प्रवृतितयाेंं की पहचान के रूप में भी जो पूर्ण विसर्जित नहीं की जा सकतीं ।
          इसी इतिहास-दृषिट के कारण वे अपनी पुस्तक 'आन हिस्æी  की भूमिका में स्वीकार करते हैं कि  मार्क्स के बिना मैं सामाजिक रूचि का विकास कदापि नहीं कर पाता । माक्र्स और सक्रिय क्रानितकारी युवा मार्क्सवादियों नें मुझे अनुसंन्धान का विषय और प्रेरणा दी,जिसके कारण मैं लिख सका ।मार्क्स की भौतिकवादी इतिहास-दृषिट इतिहास के अध्ययन की सवोर्ंत्तम दिशा-निर्देशक है । चौदहवीं शताब्दी के महान विद्वान इब्न खाल्दून नें इतिहास को विभिन्न कायोर्ं और पेशे वाले मनुष्यों की गतिविधियां माना है । हाब्सबाम यह स्वीकार करते हैं कि यह दृषिट ही आधुनिक पूंजीवाद और योरोपीय मध्य-युग के बाद उसकी परिचालक परिवर्तनों को समझनें की कुन्जी रही है । (पृ0 11) एरिक हाब्सबाम के लिए मार्क्सवाद आधुनिक विश्व कोसमझने ंके लिए अन्तदर्ृषिट के विकास का एक प्रातिभ बौद्धिक निवेश है ।
 दरअसल विश्वप्रसिद्ध बि्रटिश साहित्यकार टी.एस. इलियट की तरह एरिक हाब्सबाम भी एक सातत्यवादी विचारक हैं । उनके लिए भी अतीत कोर्इ निरसितयोग्य  अवधारणा नहीं बलिक प्रवाहित वर्तमान के रूप् में एक सतत बोध-आयात्मक उपसिथति है । अपनी पुस्तक 'आन हिस्æी की भूमिका में वे जिखते हैं -'' अतीत जिसका हम अध्ययन करते हैं ,पह हमारे मसि तष्क की (अवधारणात्मक ) निर्मित है । यह एक औचित्यपूर्ण सैद्धानितक वैधता के साथ निर्मित होता है ,भले ह ीवह तार्किक और साक्ष्यपूर्ण (प्रमाण सम्मत ) न हो और यह अतीत विश्वासों की भावात्मक व्यवस्था के रूप् में होता है ।( पृ0 8) इसतरह एरिक हाब्सबाम की यह दृषिट इतिहस को अतीत की घटनाओं से अलग एक स्वतंत्र मानसिक पाठ के रूप् में देखे जानें का आग्रह करती है । 'बाबरी मसिजद के विध्वंस पर उनकी प्रतिक्रिया को देखें तो  उनकी इसी इतिहास-दृषिट का विस्तार है ।  जिसके अनुसार वे सिर्फ घटनाओं को ही नहीं ,बलिक मानसिकता को भी एक निर्णायक परिघटना की तरह देखने का आग्रह करते हैं ।  मिथकीयकरण जब जनता के व्यवहार का हिस्सा बनता है तो वह भी इतिहास की जीवित परिघटना के रूप में विचारणीय बन जाता है ।  ( समकालीन सोच,पृ0 13,रोमिला थापर का 'ऐरिक हाब्सबाम की याद में शीर्षक आलेख,,अनुवादक ध्रुवकुमार सिंह )
            अपनी पुस्तक 'आन हिस्ट्री   के 'द सेंस आफ पास्ट शीर्षक अध्याय में हाब्स बाम अतीत को मानवीय बोध के स्थार्इ आयाम के  रूप में देखते हैं ।  जो उसकी संख्या,मूल्यों तथा सामाजिक व्यवहार की अन्य पद्धतियों को समझने के लिए अपरिहार्य सूचनात्मक आयाम की तरह है । एक इतिहासकार की मुख्य समस्या अतीत के इस बोध की प्रकृति को विश्लेषित करने तथा उसके परिवर्तनों और रुपान्तरणें को समझने की रहती है । ( वही,पृ0 13 )  हाब्सबाम के अनुसार बहुत-सी सशक्त रूढि़यां,रीतियां और परम्पराएं  , जो यधपि अतीत के मनुष्य के स्वीकार का परिणाम होती हैं ,वर्तमान के मनुष्य को भी प्रभावी ढंग से बांधे रहती हैं ।  इसतरह अतीत को समझे बिना पर्तमान मनुष्य को पूरी तरह समझा नहीं जा सकता ; क्योंकि वर्तमान मनुष्य की सामाजिक आदतें अतीत के सामूहिक विषयों का ही परिणाम है । अतीत वर्तमान मनुष्य के लिए भी पुरानी बोतल में नयी शराब की तरह है । वे दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि  आधुनिकता की प्रक्रिया के विधार्थी  बीसवीं शताब्दी के भारत को समझने ंके लिए परम्परा की प्रबल ग्रनिथयों के साक्षात्कार से गुजरते हैं । चाहे वह गुजरना जानबूझकर अर्थात सचेतन रूप् में हो या अनायास की व्यावहारिक विवशता में  । यह प्रक्रिया भी उसे अतीत के पुनरान्वेषण की ओर ले जाती है ।( पृ0 15 )
  इस तरह हम देखें तो सामाजिक परिवर्तन की यह प्रक्रिया,चाहे वह परम्परा-सन्दर्भी ही क्यों न हो-अतीत वर्तमान को निरन्तर ही प्रभावित करता हुआ रूप् देता रहता है ।  आधुनिकतावादी सारे परिवर्तनों के बावजूद विश्वास की एक स्थार्इ व्यवस्था मनुष्य के वर्तमान व्यवहार को एक वृत्तीय या घुमावदार परिवर्तन के रूप में प्रदर्शित करती है । एरिक हाब्सबाम के अनुसार अतीत के इसी निर्णायक प्रभाव के कारण वर्तमान का मनुष्य एक साथ ही नया-पुराना या पुराना-नया के रूप में बना रहता है ।
       मार्क्सवाद की पूर्वपीठिका पर प्रकाश डालते हुए उसपर की गयी उनकी यह वैचारिक टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि   इसका इतिहास में मुख्य योगदान परिकल्पनाओं का परिचय है ,प्राकृतिक विज्ञान और  सामाजिक अनुसंधनों से प्रेरित दृतितयों और प्रतिदशोर्ं(माडलों) का इतिहास में अनुप्रयोग है । इस दृषिट से डार्विन के विचारों को एक निर्णायक ऐतिहासिक हस्तक्षेप के रूप में देखा जा सकता है ।  परिवर्तन का एक विकासवादी सिद्धान्त ,जो यधपि जीवविज्ञान के क्षेत्र का है ।  ऐतिहासिक परिवर्तनों को समझने की दृषिट से  मुख्य योगदान सामाजिक विज्ञानों पर आधारित ( विशेषत: अर्थशास्त्र के जर्मन ऐतिहासिक स्कूल ) विशेषत: कार्ल मार्क्स का सामाजिक परिवर्तनों में अर्थ के निर्णायक होनें के सिद्धान्त का है ।
        मार्क्स ऐसे प्रथम विचारक हैं जिन्होंने ऐतिहासिक विकास केे आर्थिक आधार और उसके महत्व को सर्वप्रथम रेखांकित किया  । अथवा यह कहें कि मानवता के इतिहास का सामाजिक आर्थिक सफलता की व्यवस्था के आधार पर इतिहास लिखा । उन्होंने इतिहास में वर्ग और वर्ग संघर्ष के वास्तविक आधारों का परिचय कराया  ।  इसी सन्दर्भ में एरिक हाब्सबाम अभद्र(वल्गर) मार्क्सवादियों में लोकप्रिय मार्क्स के उन सूकित वाक्यों को भी रेखांकित करते हैं,जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-  इतिहास के सामाजिक परिवर्तनों में अर्थशास्त्रीय तत्व आधारभूत प्रमुख कारक हैं ,जिनपर अन्य कारक आधारित हैं । आर्थिक आधार मानव-विकास की केन्द्रीय संरवना है । कि मार्क्सवाद इतिहास-दृषिट ऐतिहासिक घटनाओं के वैयकितक और अतार्किक घटनाशील स्वरूप को नकारता है । कि ऐतिहासिक अनुसंधान के क्षेत्र में पूंजीवादी विकास और औधोगिककरण में मार्क्स की रूचि ऐतिहासिक अध्ययन के क्षेत्र में मार्क्स का विशेष योगदान है  इत्यादि के रूप् में रेखाकित की जा सकती है ( आन हिस्ट्री .पृ0 192-193) इस तरह ऐतिहासक अध्ययन के क्षेत्र में मानवजाति के विकास को सामाजिक संघर्ष के रूव में व्याख्यायित करना मार्क्स का सबसे महत्वपूर्ण योगदान माना जा सकता है ।  आधुनिक पूूंजीवाद और औधोगिककरण के  अर्थ-संरचनात्मक विश्लेषण और उसके तार्किक आधरों को निर्मित करने के लिए हाब्सबाम माक्र्स की सराहना करते हैं । उनकी दृषि ट में मार्क्स का ऐतिहासिक अवदान विभिन्न मानव-समुदायों के कार्यात्मक पार्थक्य और उनके विकासात्मक रूपान्तरण को समझनें और निश्चय के लिए एक यानित्रक दार्शनिक पद्धति का आविष्कार करना था ।( आन हिस्æी,पृ0 198 ) प्राचीन मानव-विकास में उसकी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की अभियानित्रकी और उसके अन्तर्विरोधें की भूमिका को मानव-प्रगति और परिवर्तन के सन्दर्भ में समझना था ।(वही ,पृ0 202 ) यधपि वे यह भी स्वीकार करते हैं कि विश्लेषण माक्र्सीय द्वन्द्वात्मक माडल प्रयोग एवं व्यवहार में उतना आसान और सीधा-सपाट नहीं है ,जितना कि भद्र और अभद्र माक्र्सवादी उसे समझते हैं ,क्योंकि क्रानितकारी परिवर्तनों और समाज की सिथर कि्रयाशीलता को समझनें में उनकी मनमानी व्याख्या की जा सकती है । ( वही,पृ0 202 ) फिर भी मार्क्स का यह अवदान कम महत्वपूर्ण नहीं है । नयी पीढी के इतिहासकारों को विश्लेषण पद्धति,प्रेरणा और विवेक देने के कारण ऐरिक हाब्सबाम मार्क्सवाद को एक दार्शनिक स्कूल की शैक्षणिक भूमिका में पाते हैं । वही.पृ0 206 )
          इतिहासकारों पर माक्र्स का महत्वनूर्ण प्रभाव सिर्फ उनके वैचारिक निष्कषेर्ं के कारण ही नहीं है बलिक मानव विकास के अतीत की समस्याओं और प्रवृतितयों को समझनें के क्रम में प्रस्तुत किए गए सूक्ष्म निरीक्षणों का अभूतपूर्व और मानक माडल प्रस्तुत करने के कारण भी है । ( माक्र्स एन्ड हिस्æी शीर्षक आलेख,'आन हिस्æी पृ0 210)  माक्र्सवादी और गैरमाक्र्सवादी दोनों ही प्रकार के इतिहासकार इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या करते समय किसी न किसी रूप में उस समझ को आत्मसात किए हुए हैं । भले ही प्रत्यक्ष या मूल रूप में माक्र्स की स्थापनाएं आज आलोचना का विषय बन गयी हों ।( वही,पृ0 211)
           मार्क्सवाद पर प्रशंसात्मक टिप्पणी करते हुए ऐरिक हाब्सबाम ऐरिक वुल्फ को उदधृत करते हुए कहतेे हैं कि उत्पादन की वास्तविक प्रक्रिया पर विचार करते समय मार्क्स और एंगेल्स 'मानव और प्रकृति के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध,आजीविका,सामाजिक श्रम और संस्थाओं की प्रकृति का संशिलष्ट विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं । (वही,पृ0 212 ,यूरोप एण्ड द पीपुल विदाउट हिस्æी से उदधृत )  उत्पादन की प्रकृति और मनुष्य के आपसी रिश्तों में एक प्रक्रियात्मक शकित की भूमिका मार्क्स कर एक महत्वपूर्ण अवधारणा है ,जो आर्थिक आधार को समाज की सर्वोच्च संरचना के रूप् में व्याख्यायित करता है । ( वही ,पृ0 213 ) साम्यवाद की परिकल्पना मार्क्स द्वारा मानव-अतीत की की गयी अर्थ आधारित छानबीन और विश्लेषण का ही आमनित्रत या आगामी निष्कर्ष है । उसे ऐरिक हाब्सबाम एक विचारधारात्मक संगति में ही देखते हैं । मनुष्य के भौतिकवादी सामाजिक जीवन और उसकी मानसिक चेतना के  आधारभूत रिश्तों की खोज को ऐरिक हाब्सबाम मार्क्स द्वारा संस्कृति से निकाले गए निश्कर्ष के रूप् में देखते हैं । मार्क्स के इस सुझाव की प्रशंसा करते हैं कि ऐतिहासिक परिवर्तनों को उत्पादन की प्रकृति में बदलाव से ही समझा जा सकता है । ( पृ0214 ) मार्क्स क ी इतिहास-दृषिटको निष्कर्षत्मक रूप् में हाब्सबाम इस रूप् में वयाख्यायित करते हैं-मनुष्य अपने इतिहास को सिर्फ बनाता है लेकिन उको चुनता नहीं है । क्योंकि अतीत के आर्थिक आधार तथा परिसिथतियों वाला समाज उसे विरासत में वर्तमान के रूप् में प्राप्त होता है । उसकी दूसरी विरासत वर्ग और वर्ग-संघर्ष की होती है । पूंजीवादी इतिहास पर बहस के लिए मार्क्स के लिए दोनों अवधारणाएं अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है।
 इसतरह हम देखें तो आज के इतिहासकारों के लिए चाहे वे मार्क्सवादी हों या नहीं; मार्क्स एक अघोषित एवं सर्वव्यापी समझ में परिणति हो गए हैं । हाब्सबाम के अनुसार भावी इतिहासकारों के लिए उनका मार्क्सवादी होना या न होना एक अनावश्यक प्रश्न बन जाएगा । ऐसा इसलिए भी होगा कि ऐसी यूटोपया को जीना भविष्य के जटिल सामाजिक विकास को देखते हुए सीधे-सीधे संभव नहीं हो पाएगा ,भविष्य के (यानित्रक) समाज में वर्ग और वर्ग-संघर्ष की पहचान भी उतनी आसान नहीं होगी-बावजूद इसके यह भी सच ीै कि भविष्य के मनुष्यों के सामनें भी मार्क्स  का यह प्रश्न बना ही रहेगा कि हमें मिला हुआ वर्तमान विश्व कहां से आया है और मानवजाति एक बेहतर भविष्य को कैसे प्राप्त कर सकती है ?  

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

आंशिक साम्यवाद की परिकल्पना

ऐसा लगता है कि  भारतीय नेतृत्व वोट बैंक की राजनीति के कारण सिर्फ जनसंख्या -विस्फोट की प्रतीक्षा करता रहता है। मानव -संसाधन की दृष्टि से जनसंख्या का बेतहाशा उत्पादन है तो एक बड़ी जनसंख्या का असफल और अयोग्य होना स्वाभाविक ही है। बाजारवादी व्यवस्था में बिकने की दृष्टि से अयोग्य यानि कि मूल्यहीन जनसँख्या के पुनर्वास के लिए भी बड़ी परियोजनाएं चाहिए। इसके लिए किसी बड़े विरोध यानि क्रांति की प्रतीक्षा करना भी एक मूर्खता ही है।  इसलिए कि क्रान्ति के बाद भी व्यवस्था की सृजनशीलता और  की जरुरत पड़ेगी । व्यक्ति की  निर्बाध सृजनशीलता को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से तो पूंजीवादी व्यवस्था ही सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए कि वह व्यक्ति को असीमित पूंजी के सृजन का अवसर और अधिकार देती है। इस दृष्टि से वह व्यक्ति की प्रतिभा को सर्वश्रेष्ठ  पुरस्कार देने वाली व्यवस्था है। ऐसे में अयोग्य एवं असफल जनसँख्या के जीवनाधिकार के लिए आंशिक साम्यवाद की परिकल्पना करनी होगी। ऐसी जनसंख्या के लिए समानांतर रूप से सुरक्षित क्षेत्र एवं तंत्र की रचना करनी होगी।
                   मेरा सुझाव है कि गांवों में हर ग्राम-पंचायत में कुछ ऐसी भूमि होनी चाहिए जो सरकारी हो और जिसपर सामूहिक खेती किया जा सके। ग्राम-पंचायत के अधीन कुछ ऐसे उत्पादन और दुकाने होनी चाहिए जिस पर गांव के अयोग्य लोगों को रोजगार मिल सक. . . कुछ आश्रय -केंद्र और भण्डारे ऐसे होने चाहिए जहाँ ऐसी नालायक जनसंख्या निःशुल्क भोजन पा सके।  इस तरह हमें मिलीजुली व्यवस्था के बारे में सोचना चाहिए।
                        गांवों में बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास खेत हैं और वे खेती नहीं करते या फिर वे खेती की स्थिति में ही नहीं हैं। उनके पास इसलिए खेत हैं क्योंकि उनके पुरखों के पास थे। बहुत से लोग खेत बेचते भी रहते हैं। जैसे दूसरे लोग खेत खरीदते रहते हैं ,वैसे ही सरकारें भी तो खरीद सकती हैं। यह दूसरा दौर  इसलिए जरूरी है कि पिछली सरकारों नें भूमिहीनों को ग्राम सभा के चरागाह तक आबंटित कर दिए हैं। ऐसे में गांवों   में सामूहिक भूमि बची ही नहीं है। ऐसे में सरकारें कानून बनाकर भूमि अपहरण करने के स्थान पर भूमि- क्रय भी तो कर सकती हैं। ऐसा करना मानवीय सहायता और न्यूनतम सुरक्षा के लिए आवश्यक है। अन्यथा यह भी सच है कि  अधिक संरक्षण लोगों को नकारा भी बनाता है। सरकारी योजनाएं जिस तरह समय - असमय कार्यान्वित होती हैं ,वह कई बार समाज के आर्थिक पर्यावरण को बिगाड़  भी देता है। मनरेगा की योजनाएं कई बार उस बहुमूल्य समय में कार्यान्वित की गयी हैं जब किसानो को मजदूरों की विशेष जरुरत थी। ऐसी विषमता एवं विसंगति से बचा जाना चाहिए। क्योंकि गलत समय की गयी शासकीय सहायता शासन को ही खलनायक की भूमिका में ल देती हैं। ऐसी सहायताएं पूरक समय सारणी में संपन्न होनी चाहिए।

सोमवार, 10 मार्च 2014

विवेक की साधना

 हाँ मुझे करनी है विवेक की साधना
मुझे जीना सीखना होगा ईश्वर एवं पिता के बिना 
जैसा कि मुझे बताया गया था 
कि परमपिता ईश्वर सबकी इच्छाओं और सबके स्वार्थों का प्रतिनिधि है 
इस पतनशील सामूहिकता के समय में 
उसकी जिम्मेदार सत्ता के प्रतिनिधि के रूप में 
मुझे उससे असहमति के लिए भी तैयार रहना होगा 
और एक लम्बे निर्वासन और उपेक्षा के लिए भी 

सम्भव है मनुष्य को अपना बंधुआ बनाये रखने वाली 
मनुष्यविरोधी सत्ताधारी शक्तियां मुझे पसंद न करें 
शक्त्तियां जो सामूहिक मूर्खता को 
सामूहिक समझदारी के रूप में विज्ञापित करती रहती हैं 
जिन्होंने एक बड़ी भीड़ को 
अपने बुने भ्रमजालों में फंसा लिया है 
और किसी अनुचित जातीय एकता की तरह अश्लील 
आश्वस्त और निर्लज्ज हो गयी हैं 

फिलहाल तो अब तक का भय,दुःख और मृत्यु कारक ईश्वर 
एक भगदड़ की तरह है 
जो रौंदते समय में नहीं सोच पाता कि 
कौन कुचला जा रहा है और क्यों ?

फिलहाल तो ईश्वर एक निर्णायक त्रासदी है 
जिसपर किसी भी टिप्पणी का कोई अर्थ नहीं है। 

विवेक की साधना

 हाँ मुझे करनी है विवेक की साधना
मुझे जीना सीखना होगा ईश्वर एवं पिता के बिना 
जैसा कि मुझे बताया गया था 
कि परमपिता ईश्वर सबकी इच्छाओं और सबके स्वार्थों का प्रतिनिधि है 
इस पतनशील सामूहिकता के समय में 
उसकी जिम्मेदार सत्ता के प्रतिनिधि के रूप में 
मुझे उससे असहमति के लिए भी तैयार रहना होगा 
और एक लम्बे निर्वासन और उपेक्षा के लिए भी 

सम्भव है मनुष्य को अपना बंधुआ बनाये रखने वाली 
मनुष्यविरोधी सत्ताधारी शक्तियां मुझे पसंद न करें 
शक्त्तियां जो सामूहिक मूर्खता को 
सामूहिक समझदारी के रूप में विज्ञापित करती रहती हैं 
जिन्होंने एक बड़ी भीड़ को 
अपने बुने भ्रमजालों में फंसा लिया है 
और किसी अनुचित जातीय एकता की तरह अश्लील 
आश्वस्त और निर्लज्ज हो गयी हैं 

फिलहाल तो अब तक का भय,दुःख और मृत्यु कारक ईश्वर 
एक भगदड़ की तरह है 
जो रौंदते समय में नहीं सोच पाता कि 
कौन कुचला जा रहा है और क्यों ?

फिलहाल तो ईश्वर एक निर्णायक त्रासदी है 
जिसपर किसी भी टिप्पणी का कोई अर्थ नहीं है। 

रविवार, 2 मार्च 2014

नामवर होने के लिए

नए  आलोचक मित्र नें कहा -कविता लिखते हो !
सिर्फ कविता लिखने से ही काम नहीं चलेगा
कोई आलोचक भी होना चाहिए तुम्हारे पास

मैंने कहा-आलोचक  बनना  चाहते हो !
कोई वाणिज्यिक* है तुम्हारे पास !
फिर क्या ख़ाक बनोगे और बनाओगे लोगों को नामवर* !

*व्यवसायी, वणिक,  प्रकाशक,  बनिया
**नामी ,प्रसिद्ध।


गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

परिशंसा --महाशिवरात्रि की रात्रि में जागते हुए चिंतन

 मैं नहीं जानता कि वे स्वार्थ में हैं या प्रेम में
वे भय में हैं या विनम्रता में
उनका विनम्र एवं पवित्र समर्पण मुझे अभिभूत करता है
उनकी आस्था मुझे ईर्ष्यालु बनाती है
उनका विश्वास मुझे अविश्वास से भर देता है

हे प्रभु !क्या चमत्कार है कि
ये पीढ़ी दर पीढ़ी
सदियों से छले हुए लोग हैं
उनकी आस्था अटूट है
और उनकी जनसँख्या पर्याप्त
और वे सभी चुपचाप अपनी प्रजाति कि अमरता के लिए
समर्पित हैं
मैं जनता हूँ कि वे बार-बार मारे जाने के बावजूद
बचे रहेंगे
कि अस्तित्व की इतनी  पुनरावृत्ति है कि
इतनी  दुर्घटनाओं -आशंकाओं के बावजूद  वे  सुरक्षित हैं

हे प्रभु ! इतनी क्रूरता के बावजूद वे कितने आश्वस्त एवं आभारी हैं
उनकी अच्छाइया सारी बुराइयों पर
और सारी असुविधाओं के बावजूद
उनका जीवन उनकी मृत्यु पर  भारी है।


शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

भारतीय धर्म एवं संस्कृति का समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य

भारतीय धर्म एवं संस्कृति की मुख्य दार्शनिक  विशेषता एक संपूर्ण आत्मीय तथा एकतापूर्ण पर्यावरण के निर्माण में थी ,यद्यपि व्यवहार में वह समाज के आवयविक सिद्धान्त की  समर्थक तथा  आनुवांशिक एवं जातीय राजतंत्र की पोषक होने के कारण सामुदायिक स्तर  पर घोर रूढ़िवादी रही  है। उसने सामाजिक स्तर पर श्रेष्ठता और हीनता के मनोवैज्ञानिक प्रतिमान गढ़े।   ऐसा प्रतीत होता है कि समाजशास्त्रीय दृष्टि से वह एक बन्द कबीले के अन्तः सम्बन्धों की आतंरिक संरचना एवं प्रस्थिति का सामुदायिक विस्तार है। धीरे-धीरे एक कबीले का पुरोहित आस-पास के अन्य कबीलों का भी पुरोहित बनता गया और एक विशिष्ट जातिवादी समाज की रचना होती गयी। जैसी कि कहावत है कि ज्योतिष-विद्या  सिर्फ ज्योतिषी की ही आजीविका चला सकती है -भारतीय दर्शन और उसकी अवधारणाओं में पुरोहित-वर्ग तटस्थ भूमिका ,उदासीनता , निठल्लेपन एवं परजीविता की आत्मा समाई हुई है। उसके समर्पण का दर्शन दूसरों के वर्चस्व और अधीनता को बिना किसी विरोध या प्रतिरोध के स्वीकारने का सन्देश देता है। इसे मुख्य धारा की धार्मिकता यानि ब्राह्मण-जातीयता के पार्श्व -प्रभाव के रूप में भी देखा जा सकता है। यह जातीय मनःस्थिति ब्राह्मण को जातीय  श्रेष्ठता का दम्भ तो  देती है ,लेकिन आर्थिक रूप से दान-दक्षिणा के रूप में परजीविता का महिमा-मंडन भी करती है। संतोष-जीविता का यह महिमा-मंडन इस रूप में भारतीय संस्कृति के अनुयायियों में  सृजनात्मक असंतोष का निषेध करती है। उसका सन्तोषजीविता का सन्देश एक बड़ी जनसंख्या को भाग्य एवं प्रतीक्षा- जीवी बनाता है। सामाजिक भूमिकाओं का आवयविक विभाजन, हर व्यक्ति से उसके लिए निर्धारित जातीय चरित्र और भूमिका की मांग करने लगता है। इससे एक स्थिर किन्तु गतिहीन समाज की रचना होती है।
                इसके बावजूद भारतीय संस्कृति में जो सबसे आकर्षक बात जो मुझे दिखाई पड़ती है ,वह पवित्रता के बहाने काम-चिंतन का दमन या फिर उसका उदात्तीकरण है। काम भावना पर विजय को जीवन के पुरुषार्थ या चुनौती के रूप में लेने के कारण उसने साधु -संतों के रूप में काम -मुक्त व्यक्तिव का भी आदर्श प्रस्तुत किया था तो दूसरी ओर  कृष्ण की  श्रृंगार-गाथाएं ,आध्यात्मिकता के बहाने काम -भावना के विरेचन की मनोवैज्ञानिक व्यवस्था भी करती हैं। यदि अरस्तू का कैथार्सिस या विरेचन की अवधारणा सही है तो कृष्ण-कथा की इस सांस्कृतिक भूमिका को भी स्वीकार करना होगा। इसके विपरीत राम-कथा के समाज-वैज्ञानिक प्रभाव के अध्ययन से जो बातें सामने आती हैं ,उसमें आक्रमण के स्थान पर प्रत्याक्रमण एवं प्रतिरोध की क्षमता का महिमामण्डन प्रमुख है। यह सम्भवतः राम-कथा का ही प्रभाव है कि आज भी भारतीयों पर वैश्विक पर्यावरण बिगाड़ने का आरोप कम ही लगाया जा सकता है। किसी के विश्लेषण में मैंने पढ़ा था कि सामाजिक सौहार्द की दृष्टि से राम का चरित्र अनारम्भी  है। राम का चरित्र संयम में रहने का सन्देश देता है। दूसरों के अस्तित्व का सम्मान करने एवं हिंसा की पहल न करने का सन्देश भी। राम-कथा किसान-जीवन के ताने -बाने के लिए या यह कहें कि जन-सामान्य के लिए सिर्फ एकल दांपत्य की प्रथा के आदर्श प्रतिमान की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है ,बल्कि वह कुटुम्बा-निर्माण की आधारभूत दार्शनिकी भी उपलब्ध कराती है। वह अर्थ और पूंजी के  पारिवारिक विभाजन को हतोत्साहित करती है :सामूहिक श्रम का प्रोत्साहित कराती है। इस तरह साझी खेती को बढ़ावा देती हुई मेड़ बंदी की कुप्रवृत्ति को भी कम करती है।
                       यद्यपि सामाजिक संवेदनशीलता  और दायित्वबोध के  चारित्रिक आदर्श का केंद्रीय एवं प्रारंभिक मिथकीय चरित्र  विष्णु से सम्बंधित है। परवर्ती महापुरुषों के लिए उनका पौराणिक चरित्र एक स्थायी मानक है। इन कथा-नायकों के चरित्र में ऐसे पर्याप्त तत्व हैं ,जो भारतीयों के लिए ब्राह्मण-जातीय
 परजीवी  धार्मिकता का संतुलनकारी  प्रतिपाठ प्रस्तुत करते हैं। इन सब के बावजूद यह ईमानदारी से स्वीकार करना होगा कि प्राचीन भारत में ज्ञान के प्रकाशक एवं संरक्षक के रूप में ब्राह्मण जाति की एक ऐतिहासिक  एवं महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आज के समतावादी युग में प्रतिगामी दिखने एवं होने के बावजूद वह अपनी समय-सापेक्षता में कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण था। उसने एक मानक एवं परिष्कृत केंद्रीय भाषा विकसित की। प्राचीन भारत के बहुभाषी समाज में संस्कृत के विद्वानों नें ज्ञान के संरक्षक के साथ-साथ दुभाषिए की भी भूमिका निभाई। काश्मीर का संस्कृतज्ञ सुदूर दक्षिण के किसी भी राजा के दरबार में रहने वाले संस्कृतज्ञ से संवाद स्थापित कर सकता था। स्थानीय एवं भिन्न भाषाओँ कि बहुलता के बीच जातीय रूप से ही सही ब्राह्मणों की यह भूमिका असाधारण ही कही जाएगी। उनके पास ज्ञान और स्मृतियों के संरक्षण और विज्ञापन का आज की मीडिया की तरह ही ऐसा सशक्त  जातीय तंत्र था कि जिसको भी चाहा भगवान बना दिया।

परजीविता का महिमामंडन
jansatta.com
http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=61988%3A2014-03-15-05-41-10&catid=21%3Asamaj

बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

समय-चरित

समय-चरित 


चींजें नफ़रत से भरी हुई हैं
जो होना चाहिए था वह नहीं हो रहा है और
जो नहीं होना चाहिए था हो रहा है वह

जिस दिन फूल सबसे अधिक खिले थे
बह रही थी सबसे सुन्दर सबसे सुखकर हवा
उस दिन दूरदर्शन पर बज रहा था मातमी धुन
रो रहा था रेडियो तिन दिनों के राष्ट्रीय शोक की सूचना के साथ

चीजें चुपचाप हाथ से खिसक रही थीं
बाज़ार बोलना सीख रहा था अपनी अपनी भाषा
ए .टी .एम .सिर्फ हजार रूपए की नोट उगल रहे थे
दूकानदार छोटे नोटों के अभाव को देखते हुए
बढ़ा कर बोल रहे थे वस्तुओं के दाम

बढ़ती हुई असुरक्षा के साथ लोग
लौट रहे थे जातिवाद के सबसे  विश्वसनीय प्लेटफार्म पर
आवारागर्दी से पिछड़ते हुए युवा
बढ़ती हुई कुंठा और अवसाद के साथ
और आक्रामक ,हिंस्र व बलात्कारी होते जा रहे थे

विचारक अधिकांशतः बेरोजगार थे और कुछ नौकरी में
निरुद्देश्य कार्यकर्ता घूम रहे थे सडकों पर
मंच को हथियाने के बाद डकैत
अपने हथियारों से बारूदी राख साफ कर रहे थे

गेहूँ के दाम पहली बार आसमान छू रहे थे
खुश था किसान कि धरती के सोना ने
पहली बार बाजार में उचित सम्मान पाया है
वित्तमंत्री बिगड़ रहे थे अपने सचिव पर
कि कैसे हुई चूक और अब तक पहुँची क्यों नहीं
विदेश से मगाई गई गेहूं की खेप
और किन परिस्थितियो में पिछड़ गए सरकारी जलयान ...

सब कुछ इतना आकर्षक था कि स्वप्न हो जैसे
मुख्या-धारा का घटिया नायक मुस्करा रहा था
सामूहिक मोहभंग घटित करने के बाद
किताबों से बाहर  निकलकर
जंगलों में गीत गा रहे थे वैकल्पिक नायक बनने के सपने

चीजें जटिल होती जा रही थीं
और एक नासमझ पर्यावरण
अतिउत्साह में
सब-कुछ को मटियामेट कर देना चाहता था ...

समय का सच

बेशर्म श्रेष्ठता
हिंसक बल
बहुमत की मूर्खतापूर्ण दादागिरी
और आधिकारिक विचारहीनता
इस अनैतिक समय का
सबसे बड़ा जीवन -मान है। …

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

आस्था का संकट

मैं जब दरवाजा खोलता हूँ मुझे नहीं पता कि
दरवाजे के बाहर जो खड़ा है आगंतुक
उसका चरित्र कैसा है !
मैं जब दरवाजा खोलता हूँ
किसी सज्जन के आगमन की प्रत्याशा के साथ
बाहर स्वजन के स्थान पर खड़ा मिलता  है दुर्जन

मैं दरवाजा बंद रखने पर स्वयं को सुरक्षित समझता हूँ
मैं जब दरवाजा बंद रखता हूँ
होता है स्वजन का अपमान
मेरा स्वजन बाहर भटकता है लावारिस
मैं जब दरवाजा खोलता हूँ स्वजन के लिए
स्वजन को धक्का देकर मेरे घर में घुस आता है हत्यारा

इस तरह दरवाजा खोलना एक साथ ही
स्वागत और असुरक्षा है
मुझे नहीं पता कि मैं जब खोलूंगा द्वार
उससे कौन आएगा भीतर
ईश्वर या शैतान ?
कि विश्वास के उस भावुक दुर्बल क्षण  में
विश्वासघाती दुर्घटना
सारे जीवन को नकारात्मकता से भर देती है।

हे पिता ! हे पूर्वजों !
तुम्हारी दी हुई आस्था नें
असुरक्षित कर दिया है मुझे
मेरी एक ही आस्था
ईश्वर और शैतान दोनों को ही  मुक्त आमंत्रण देती  है /

कि मुझे यह नहीं पता है कि
मैं जब-जब भी खोलूंगा  द्वार
उससे कौन आएगा मेरे भीतर
ईश्वर य़ा शैतान ?
जबकि हर आस्था परनिर्भरता विकसित करती ही है। 

बुधवार, 29 जनवरी 2014

आप की भूमिका और भविष्य

कल" समकालीन सोच" से जुड़े मेरे एक मार्क्सवादी कवि मित्र जे ०के ० सिंह (पूरा नाम जितेन्द्र  कुमार सिंह जो समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं  ) अरविन्द केजरीवाल के वर्ग को लेकर परेशान थे। वे इसे एक सुधारवादी आंदोलन मानकर असली क्रांति को भटकाने  वाला यानि दूर करने वाला आंदोलन मान रहे थे। उनकी दृष्टि में यह इतिहास की एक साजिश है। वे इस बात के लिए भी दुखी थे कि इस साजिश के कारण अब क्रांति उनके जीवन-काल  में नहीं हो पाएगी। इस आंदोलन नें एक बार फिर वास्तविक क्रांति की आतंरिक ऊर्जा को जनमन से दूर कर दिया है। उन्होंने अपने सोचने पर मेरी व्यक्तिगत राय चाही।  मैंने उन्हें बताया कि यह आपके समझने यानि अण्डर-स्टैंडिंग की व्यक्तिगत समस्या है। मैं यह भी उन्हें कहने के लिए सोचता रहा कि आपमें एक विचारधारात्मक अक्षमता विकसित हो गयी है ,जिसके कारण मार्क्सवाद के अतिरिक्त कुछ सोच ही नहीं पाते। मैंने उन्हें सुझाव दिया कि आप इस समस्या को कुछ इस तरह से सोचें -कि आपने (विचारधारा  के रूप में ) मार्क्सवाद की एक नहर बनायीं थी और सोचा था कि इतिहास का पानी सिर्फ इसी नहर से निकले लेकिन इतिहास के जीवंत प्रवाह नें पहले ही बंधे को तोड़ दिया और नाले के रूप में बह निकला। अब यह नाला ही सही पानी तो इसी नाले से हीबह रहा है। इस बहाने को मानसिक रूप से स्वीकार करने में आपको वक्त लगेगा।
             फिलहाल उनकी चिंता यह थी कि वे केजरीवाल की विचारधारा को किस परंपरा से जोड़ें !स्वाभाविक है कि टोपी के आधार पर वे इसे गांधी की परंपरा और कांग्रेस से जोड़ते तो कुमार विश्वास के मोदी प्रेम के आधार पर भाजपा से।  उन्होंने अंतिम निष्कर्ष यह निकाला कि वास्तव में यह अभी तक तो गांधी की परम्परा वाली कांग्रेस से ही जुड़ती है ,आगे भविष्य ही जाने। इसमें बहुत से मोटा वेतन पाने वाले लोग भी शामिल हैं ,इस आधार पर इसे पूंजीवाद का हरावल दस्ता भी माना जा सकता है-एक अन्य मित्र नें सुझाया । मैंने चुटकी ली कि जनमहकवि घाघ नें जो सूत्र दिया है वह तो "निषिद्ध चाकरी भीख निदान" वाला है- इस आधार पर तो सारे नौकरशाह भिखारी ही माने जाने चाहिए और इसी आधार पर सर्वहारा भी । वैसे भी उनका जीवन स्तर इतना खर्चीला तो होता ही है कि नौकरी छूटते ही भीख मांगने लगें। दूसरे कितना भी अधिक वेतन पाने वाला हो ,नौकरशाह होता है हिस्सा मध्यवर्ग का ही।
              बहस में यह भी बात सामने आई कि इस आंदोलन में बहुत से घटिया लोग भी महिमामंडित हो गए हैं। अगर केजरीवाल जन भावना के निमित्त के रूप में अपनी ऐतिहासिक  भूमिका को  नहीं पहचान पाए तो अन्य पार्टियों के नेताओं की तरह कुछ निकटवर्ती अवसरवादियों से घिर जाएंगे और उनका भी वाही हश्र होगा जो आज कांग्रेस और भाजपा का है। आप एक  इतिहास की एक स्वाभाविक उपस्थिति तभी बन पाएगा जब केजरीवाल भी आप को बहते पानी की तरह योग्य बुद्धिजीवियों के लिए एक ईमानदार  तटस्थ मंच के रूप में विकसित कर पाएंगे। कांग्रेस की स्थापना ह्यूम नें कि थी लेकिन उसकी ऐतिहासिक भूमिका ह्यूम की प्रत्याशा से काफी दूर निकला गयी। नदियों कि तरह आंदोलन भी इतिहास की अपनी जरुरत के अनुसार आतंरिक वेग से संचालित होते हैं। बहुत से लोग (अण्णा हजारे की तरह ) अपनी भूमिका निभाकर अप्रासंगिक होकर पीछे छूट सकते हैं ,लेकिन आप को एक वैकल्पिक मंच के रूप में योग्य राजनीतिज्ञों की तलाश जारी रखनी चाहिए। हो सकता है कि आप की कोई पिछली शानदार परंपरा नहीं हो। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वह जीवित इतिहास में उपस्थित वर्तमान का एक हिस्सा है  वह अतीत के अनुभवों से कम संचालित होकर भी यदि वर्त्तमान के अनुभवों और आवश्यकताओं से संचालित होता है तो -यह भी एक ऐतिहासिक भूमिका बनती है।