संस्कृत जैसी व्यवस्थित भाषा का विकास करने मे सक्षम भारतीय धर्म तथा संस्कृति(मूर्ति, मन्दिर एवं पूजा पद्धति आदि ) अपनी प्रकृति मे प्रतीकात्मक तथा चारित्रिक आख्यान के रूप मे होने से प्रायः साहित्यिक प्रकृति के हैं । इसीलिए मै इन्हे कबीलाई धर्मों की तरह विशुद्ध अन्धविश्वास की तरह ही नहीं देख पाता । भाषावैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक आधारो पर मै मिथकीय प्रतीकों के कूट अर्थ को तोडने का प्रयास करता रहता हूँ । ऐसा करने की प्रेरणा मुझे उन कबाडियो से मिलती है जो निष्प्रयोज्य के विसर्जन से पहले उनमें से धातुओं को निकाल लेते हैं । मैं यह नहीं भूलता कि बुद्ध काल तक हमारा अतीत विचारपूर्ण बहसों का था। साधना का लक्ष्य जीवन का परिष्कार था और कपिल , चार्वाक और वृहस्पति जैसे अनीश्वरवादी चिन्तक भी हुए हैं ।
जीवन का रास्ता चिन्तन का है । चिन्तन जीवन की आग है तो विचार उसका प्रकाश । चिन्तन का प्रमुख सूत्र ही यह है कि या तो सभी मूर्ख हैं या धूर्त या फिर गलत । नवीन के सृजन और ज्ञान के पुन:परीक्षण के लिए यही दृष्टि आवश्यक है और जीवन का गोपनीय रहस्य । The Way of life is the way of thinking.Thinking is the fire of life And thought is the light of the life. All are fool or cheater or all are wrong.To create new and For rechecking of knowledge...It is the view of thinking and secret of life.
सोमवार, 4 दिसंबर 2023
भारतीय संस्कृति का पक्ष
गीता हो या पतंजलि के योग-सूत्र, महावीर हो या बुद्ध सभी की चिन्ता मानव-मन के नियमन की ही रही है । वे अपराध कितना कम कर पाए यह एक अलग प्रश्न है लेकिन उन्होने एक शिष्ट जीवन-पद्धति देकर जीवन एवं समाज का सामूहिक प्रबन्धन करने का प्रयत्न अवश्य किया । वे मस्तिष्क को इस सीमा तक प्रशिक्षित करने में तो सफल हुए ही कि अन्तःस्रावी ग्रन्थियाॅ के क्रिया-कलाप भी मानव-मस्तिष्क के विवेक की सीमा मे आ जाएँ । अकरणीय या वर्जनाओ से सम्बन्धित कुछ सांस्कृतिक युक्तियाँ भी आधुनिक मनोविज्ञान सम्मत हैं । जातीय एवं स्थानीय होते हुए भी उनकी काव्यात्मक भावोदात्तता एवं सामाजिक सार्थकता पर रीझने को मन करता है । जैसे ब्रह्मचर्य आश्रम के नाम पर पचीस वर्ष तक यौन हारमोनो का सिर्फ सामना करने के लिए देना आज की वयस्कता आयु-सीमा से भी अधिक है । भाई और बहन के बीच रक्षाबंधन जैसे त्यौहार, छोटे भाई की पत्नी का बडे भाई से विवाह की अनुमति न देना आदि ऐसी ही रेखांकित करने योग्य वर्जनाएं हैं । हर आता हुआ नया पुरुष अपनी ही देह के भीतर एक युद्ध लड़ता और जीतता हुआ आता है । अपने ही जीवन के वेगों को जीतने के लिए किया जाने वाला युद्ध ।
आधुनिक मनोविज्ञान भी इस तथ्य का समर्थन करता है कि इन्द्रियों द्वारा प्राप्त किसी संवेदना का प्रत्यक्षीकरण मस्तिष्क की धारणाओं, विश्वासों तथा व्याख्याओं के अनुरूप होता है । आध्यात्म के नाम पर अनेक सोद्देश्य किन्तु काल्पनिक और हास्यास्पद अवधारणाओं के बावजूद सांस्कृतिक नियामक झूठ बोलकर भी अनेक पशुओं, पक्षियों तथा वनस्पतियों सहित पर्यावरण को अधिकतम सीमा तक बचाने मे सफल रहे हैं । इस विधि से संरक्षित पर्यावरण में पितर घोषित कौओं से लेकर बन्दर, चूहे, सर्प,नीलकण्ठ,उल्लू,हाथी ,सिंह, और गाय-बैल ,नदियाँ सभी शामिल हैं ।
व्यवस्थित ढंग से संघ यानि संगठन बनाकर ,आज के शब्दों मे कहें तो संस्थागत रूप से लोगों तक अपने आदर्श के अनुरूप विचार पहुँचाने का कार्य गौतम बुद्ध ने किया था । उनके पहले लोक को उनकी भाषा मे ही संबोधित करने की चिन्ता और किसी मे नही दिखती ।उनके पूर्व के जननायकों के यश का आधार अभिजन या विशिष्ट वर्गीय स्वीकृति रही है । बुद्ध को लम्बा जीवन मिला था । लोक के लिए बोधगम्य दृष्टान्त कथाएं जिन्हे जातक कथाएं कहा गया खूब रची गयीं । भव्य व्यक्तित्व के कारण बुद्ध को ही प्रतिमान के रूप मे विज्ञापित किया गया । संगठन और संसथाओ की अपनी सामूहिकता होती है । पूरा जीवन समर्पित कर चुके बुद्ध के अनुयायियों के पास इतना जीवन-समय था कि वे 'अप्प दीपो भव 'की चिन्ता छोड़ कर बुद्ध की मूर्तियों की रचना मे लग गए । ऐसा लगता है कि विदेशों मे बहुत से ऐसे भी धर्म प्रचारक पहुँचे जो बुद्ध का दर्शन फैलाने के स्थान पर आजीविका के लिए मूर्ति स्थापित कर पूजा करवाने मे लग गए । अरब वगैरह तक पहुँचते-पहुँचते यही बुद्ध मात्र मूर्ति स्वरूप बुत हो गये । ऐसा लगता है कि मुहम्मद साहब ने इस्लाम प्रवर्तन के समय जिन बुतो को तुड़वाया होगा -व्हाॅ बौद्ध धर्म के दार्शनिक पक्ष से पूरी तरह अनभिज्ञ बुद्ध की मूर्तियों की सिर्फ पूजा करने वाले पुरोहित रहे होंगे । यह भी कि असली दार्शनिक बौद्ध धर्म विश्व के बहुत से हिस्सों में नहीं पहुँचा । या फिर पूर्व प्रचलित शिवलिंगो की पूजा की तर्ज पर बुद्ध यानि बुत पूजा भी सुदूरवर्ती क्षेत्रों में प्रचलित रही ।
साफ है कि भारत मे भी बौद्ध धर्म को पहले मूर्तिपूजा मे बदला गया और फिर उनको देखते हुए बुद्ध की तर्ज पर दूसरे पौराणिक नायकों की भी मूर्तियाँ बनने लगीं । मूर्तिपूजा से दिमाग को आराम मिला और चढावे की संस्कृति विकसित हुई । जैसा कि प्रायः देखने मे आता है कि पेशे विचार और दर्शन को भी बाजार की एक उपस्थिति मे बदल देते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्ध काल से पहले का प्राचीन भारत मूर्तियों और मन्दिरों का देश नहीं रहा है । उनके पास ग्रामीण एवं नागरिक समाज थे जिनमें वैचारिक बहसे चलती रहती थीं । ऐसा नहीं है कि उनके पास आस्धा की पथराई हुई शिलाएँ बिल्कुल नहीं थी । भोले माने जाने वाले सबसे सरल अनगढ़ पाषाण- देवता आदि शिव तब भी थे । स्त्री-पुरुष के सृजनांगो तथा ब्रह्माण्ड के अनगढ़ प्रतीक के रूप में । बुद्ध के पहले की आस्था का स्वरूप साहित्यिक आख्यानों और विमर्शो के रूप में रहा है । इसीलिए ऐतिहासिक यथार्थ को देखते हुए मुझे मूर्तियों और मन्दिरों वाला भारतीय धर्म कम बुद्धि के लोगों एवं बच्चों के लिए लगता है । इन मूर्तियों का वास्तविक रहस्य इनके साहित्यिक पाठ मे है । पौराणिक नायकों के प्रतीकार्थ और चारित्रिक आख्यानों मे है । सिर्फ उन अंशो को छोड़कर जिसे अपनी आजीविका और पेशेवर स्वार्थ के कारण पुरोहित वर्ग ने लोगों का भयादोहन कर अर्थार्जन के लिए रची हैं ।
इस दृष्टि से राम भी हमारी सभ्यता के बीज-पुरुष ही लगते है । वे एकल दाम्पत्य के आदि प्रतिमान हैं और किसान-सभ्यता की कौटुम्बिक संरचना का भी । इस दृष्टि से हर वह व्यक्ति जिसने अपने जीवन पर्यन्त किसी एक ही महिला से विवाह का संकल्प ले रखा हो -मुझे राम का प्रतिरूप ही लगता है । संभवतः तुलसीदास जी ने भी इसी दृष्टिकोण से ही 'सिया राम मय सब जग जानी ' कहा था । यह अकारण नही है कि आराम मे भी राम है और हराम मे 'हे राम' यानि शिकायत के रूप में है
इससे पता चलता है कि अरबी और फारसियो के पुरखे भी राम से प्रभावित देश रहे ही होंगे । एक विवाह करने वाले ईसाइयों और मुसलमानों को भी राम का अनुगामी तो माना ही जा सकता है । यद्यपि जो लोग होमर की कृतियों और ट्राय युद्ध से परिचित होंगे या सिकन्दर की लड़ाइयों से भी परिचित होगे , उन्हे रामकथा के अनेक अंश समानधर्मा लग सकते हैं । लेकिन इतने लम्बे काल तक चले कुलीनतंत्र मे सन्तानहीन होने के कारण किसी राजवंश का खतरे मे पडना और नियोगप्रथा द्वारा वंश चलाने का प्रयास असंभव नही लगता ।या फिर संभावित या सैद्धांतिक सच तो माना ही जा सकता है हमारी सभ्यता और संस्कृति का ।
यद्यपि आनुवांशिक सामन्तवादी व्यवस्था का वाहक होने के कारण उसने एक विषमतापूर्ण पक्षपाती समाज निर्मित किया लेकिन एक बहुलतावादी बहुजातीय -बहुभाषीय समाज मे जातीय रूप से ही सही दुभाषिये की भूमिका मे तो रहे ही संस्कृत के विद्वान । आज सनातन धर्म के कर्मकाण्ड का बहुत कुछ अन्धविश्वासपूर्ण और अतार्किक लगता है लेकिन उसकी पूजाविधियो मे प्राचीन शैशवकाल की रुढ़ियों के अभिनय छिपे हुए है । उसके कर्मकाण्ड मे संभव है कि कुछ काव्यात्मक अनुभव एवं व्यवहार भी हो-एक धार्मिक सांस्कृतिक मनोरंजन के पुरातात्विक व्यवहार के रूप में ।
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