बुधवार, 6 मई 2020

हिन्दू धर्म

हिन्दू धर्म
पूरा हिन्दू समुदाय पुरोहित से यज्ञ या हवन कराने के पात्र और अपात्र जातियों में विभाजित है । शूद्र समझी जाने वाली अधिकांश जातियाँ न तो हवन कराने की पात्र समझी जाती हैं और न ही उनके यहाँ ब्राह्मण पुरोहित ही जाते हैं । अत्यंत लम्बा इतिहास होने और इस विभाजन को न समझ पाने के कारण ही ब्राह्मण संहिता कारों ने हवन या यज्ञ-संस्कृति मे शामिल न होने वाली जातियों को निचला वर्ण मानकर उनके लिये अपमानजनक व्यवस्था दी ।
दरअसल शूद्रों के निर्माण पर ब्राह्मणों के जातीय धर्म ग्रन्थ सीधे-सीधे तो चुप्पी लगाए हुए हैं लेकिन रामायण और शिवपुराण आदि में संभावित कारण छिपे हुए हैं । मेरा स्पष्ट मानना है कि यह अतीत के धार्मिक और साम्प्रदायिक विभाजन और संघर्ष का परिणाम है । रामकथा ऐसे बडे समुदाय के भारत में होने का पता देती है जो ब्राह्मण ऋषियों को यज्ञ नहीं करने देते थे । रामकथा इन्हें राक्षस कहती है और इन्हीं का नेता रावण को बताती है ।
रामकथा यह नहीं बताती हैं कि राक्षस यज्ञों का होने देना क्यों नहीं पसन्द करते थे ? उनके यज्ञ विरोध का कारण क्या था मैं इसके कारण को शिवपुराण में वर्णित उस घटना से जोड़ता हूँ जो यज्ञ-कुण्ड मे कूदकर सती के आत्मदाह से सम्बन्धित है । जिनकी जली हुई लाश को लेकर विक्षिप्त शिव के देश भ्रमण करने का भी वर्णन है । निश्चय ही इस घूमने ने शिव के अनुयायियों में यज्ञ के प्रति नकारात्मक भाव उत्पन्न किया होंगा । सती की मृत्यु पर जो शिव के गणों द्वारा आक्रमण हुआ उसमें भी भयानक दंगे और यज्ञ-विध्वंस की सूचना है । गुस्से मे दक्ष प्रजापति का वध होना भी वर्णित है । मेरे विचार से यहीं से भारतीय समाज यज्ञ और हवन आदि करने वाले और न करने वाले समाज में विभाजित होता है ।
आज भी किसी पर्व या प्रथा के किसी अशुभ घटना से जुड़ जाने पर उस पर्व को न मनाने का रिवाज मिलता है । यज्ञ कराने वाले सती के पिता दक्ष प्रजापति की हत्या के बाद शिव के अनुयायियों ने आस-पास के राजाओं को भी कुछ समय तक यज्ञ न करने दिया होंगा । यह सोच भी रही होगी कि मेरी रानी के कूदकर जल मरने से यज्ञ अभिशप्त हो चुका है । इसलिए आगे से यज्ञ बन्द हो जाना चाहिए ।
एक बात और ध्यान देने की है कि यज के लिए अग्नि चाहिए । पहली बार बिना किसी संसाधन के घर्षण द्वारा अग्नि उत्पन्न करना अत्यंत श्रमसाध्य होता है । जंगल या ज्वालामुखी क्षेत्र से ही पूर्वजों को अग्नि प्राकृतिक अवस्था मे मिली होगी । ग्रीष्म ऋतु में सूखी घास पर ऊंचे पहाड़ों से पत्थर आदि गिरने से उत्पन्न चिंगारियों से भी जंगलों में आग लगा करती थी । ऐसी प्राप्त अग्नि को नियन्त्रित विधि से थोड़ी-थोड़ी सूखी लकड़ियाॅ देकर जिलाए रखने की समझदारी जिन कबीलों मे आयी होगी वे फिर भून कर खाने का महत्व भी जान गए होंगे । अग्नि का जलना रात में प्रकाश और जंगली निशाचर पशुओं को दूर भगाने का भी माध्यम था । अपनी तरह ही अग्नि को भी जीवित सत्ता और उसे देवता का दर्जा देने की अवधारणा का भी विकास हुआ होगा । यह बहुत कुछ कुत्ते और गायों आदि पालतू पशुओं की तरह अग्नि को भी पालतू बनाने जैसी घटना रही होगी । यह भी कि बहुत सी शिकारी खानाबदोश घुमन्तू जातियों के पास अग्नि को पालतू बनाने का धैर्य नहीं भी रहा होगा । जिस तरह भारत आज भी एक जीवित ज्वालामुखीय क्षेत्र नहीं है,उसे देखते हुए लगता है कि अग्नि पालक एवं पूजक कबीलों के भारत में आगमन के साथ ही अग्नि पूजा वाली यज्ञ संस्कृति का प्रचार-प्रसार भारत मे हुआ ओल्ड टेस्टामेंट में लूत से सम्बन्धित प्रसंग में ज्वालामुखी विस्फोट का वर्णन है । कयामत की घटना का सम्बन्ध भी ऐसी ही किसी स्मृति से है । यह भी सच है कि आज की तुलना में प्राचीन काल में अधिक ज्वालामुखी सक्रिय रहे होंगे । वैज्ञानिकों द्वारा पाए गए हिमयुग में भी मनुष्य ऐसे ही किसी ज्वालामुखीय क्षेत्र में रहकर बचा होगा । वहीँ से किसी जलती हुई लकड़ी को उठाकर आग को मशाल की तरह दूर तक ले जाना भी सीखा होगा । अधिक संभावना है कि भारत मे आग जलाए रखने की व्यवस्थित प्रथा आर्यों के आगमन के साथ ही आयी ।
राम-रावण युद्ध मे रावण की पराजय और मृत्यु के पश्चात् यज्ञ संस्कृति का संगठित विरोध तो थम जाता है लेकिन उन कबीलों और जातियों मे जिनके पुरखे कभी शिव और रावण के पक्ष से रहे यज्ञ और हवन आदि न कराने की सांस्कृतिक आदतें बनी रही । यज और हवन कराने वाले पुरोहितों की सन्तानों को भी सिर्फ इतना ही पता रहा कि अमुक-अमुक जातियों के यहाँ हवन कराने नहीं जाना है । लम्बा समय बीत जाने के बाद इसी ने सांस्कृतिक अचेतन के रूप मे शूद्र घृणा और शूद्र ग्रन्थि का रूप ले लिया । बाद मे बौद्ध मत के अनुयायी मौौर्य वंश की समाप्ति के बाद शुंग वंश के शासनकाल मे बौद्धों को भी यज्ञ न कराने वाले शूद्रों मे शामिल करते हुए उन्हें चतुर्वर्ण संकल्पना मे सबसे निकले क्रम पर रखा गया । देखने की बात यह है कि यदि यह संकल्पना अधिक पुरानी रही होती तो नन्द वंश जो शूद्र था वह शासन ही कैसे कर पाता । उस समय तक कहीं न कही शूद्र सम्मानित ही रहे होंगे ।
इस तरह शूद्र जातियों के हवन संस्कृति मे शामिल न होने का खामियाजा ही उठाना पडा । ब्राह्मण शासकों ने उन्हे अपात्र घोषित कर दिया जबकि सच यह था कि पहले पुरोहितों ने नही बल्कि शूद्रों के पूर्वजों ने ही यज्ञ संस्कृति का बहिष्कार किया था ।
रामायण का सबसे बड़ा संरचनात्मक दोष यह है कि वाल्मीकि आश्रम मे सीता से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर लिखी गयी है । उसका पूरा विमर्श सीता के हरण और रावण के मृत्यु और सीता की मुक्ति तक सीमित हो जाता है ।। वाल्मीकि व्यास जी की तुलना में भावुक रचनाकार हैं । उनमें अपने समय के सामाजिक अन्तर्विरोधों को सही ढंग से समझने की व्यास वाली प्रतिभा नहीं है । रामकथा का विन्यास अपने समय की कूटनीतिक गतिविधियों को नेपथ्य मे छोड़ता जाता है । उसमे कथानायक राम के चरित्र की तथा अन्य चरित्रों की आन्तरिक समझदारी भी शामिल नहीं की गयी है । वह यह नहीं बताती कि राम को सीता के चरित्र पर क्यों संदेह है या जनक ने ही रावण को स्वयंवर से विरत रखने के लिए शिव का धनुष ही क्यों चुना । स्वयंवर के समय तक रावण राम के पिता दशरथ और जनक से भी बडा राजा था । कहीँ जनक को यह भय तो नहीं था कि शिव का धनुष न रखने पर सीता अपनी वरमाला कहीं रावण को ही नही पहना दे ! यह भी तो हो सकता है कि खर-दंषण के वध के कारण रावण राम से बदला लेना चाहता हो और उसने कैकयी के पिता या भाई से उनके भांजे भरत को अयोध्या का राज सिहासन सौपने के नाम पर कोई परस्पर दुरभिसन्धि और कूटरचना रची हो । इस योजना मे राम को मारने के लिए कैकेयी के द्वारा राम को वन-निर्वासन कराया गया हो । यह भी तो हो सकता है कि स्वयंवर मे अप्रत्यक्ष ढंग से अपमानित किए जाने के कारण प्रतिशोध स्वरूप तथा पद्मावत के अलाउद्दीन खिलजी की तरह सीता के सौन्दर्य से अभिभूत रावण विवाह के बाद भी सीता को अपना बनाने का पागलपन न छोड़ पाया हो । यह भी तो हो सकता है कि शूपर्णखा अपना प्रणय निवेदन लेकर नहीं बल्कि प्रेम मे घायल रावण का विरह निवेदन लेकर पंचवटी सीता के पास आयी हो । सीता का रावण के साथ जाना एक पूर्व नियोजित षडयंत्र का हिस्सा रहा हो । राम ने एक पति के रूप मे सीता के द्वन्द्व और विचलन को महसूस किया हो । रावण के साथ जाने मे सीता की भी आन्तरिक सहमति और संलिप्तता महसूस की हो । राम के बाद लक्ष्मण राम के संकटग्रस्त होने की आशंका के साथ ही भेजे जाते हैं । रावण के साधुवेश मे आने पर सीता उसकी आतिथ्य मे लगी चित्रित की गयी हैं । वे कहीं भी आशंकित और दुश्चितां ग्रस्त नहीं नितांत हुई हैं । लंका मे रावण की मृत्यु के बाद सीता को पाकर राम का यह कहना कि मुझे तुम्हारे चरित्र पर सन्देह है -एक स्त्री के पक्ष मे राम को खलनायक बना देता है । इस एकमात्र अभिव्यक्ति के बावजूद वाल्मीकि का रामायण सीता केन्द्रित पाठ ही प्रस्तुत करता है । उसमें अपने समय के सारे अन्तर्विरोध और राम के अन्तर्मन के सारे अन्तर्द्वन्द्व अनुपस्थित हैं ।
एक महाकाव्य के रूप में वाल्मीकि रामायण का रचना और अन्तिम परिमार्जित भाषाकाल राम के वास्तविक इतिहास काल यानी उपनिषद काल से निश्चय ही बहुत बाद का है । अन्यथा सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ का इतना स्मृति लोप न मिलता । परवर्ती होने के कारण इसका साहित्यिक पाठ उसके ऐतिहासिक पाठ के अनुरूप संगतिपूर्ण नहीं है । वर्तमान रामायण लम्बे समय तक आल्हा की तरंह गायी जाती रही । रामायण मे ही ऐसा प्रसंग है कि वाल्मीकि द्वारा लिखे जाने के बाद इसे लव और कुश द्वारा अयोध्या में गाकर सुनाया गया था । वाल्मीकि ने बहुत सी घटनाओं को सीता जी से पूछकर लिखा होंगा । क्योंकि उनके आश्रम मे हनुमान भी यदि जाते रहे होंगे तो उनसे भी सुनकर लिखा गया होगा । ऐसा मुझे इसलिए लगता है कि सबसे काल्पनिक और मनगढ़ंत मिश्रण हनुमान प्रसंग मे ही मिलता है । जैसाकि फादर क़ामिल बुल्के ने भी लिखा है कि वायुपुत्र हनुमान जादूगरी एवं बहुरुपियागिरी करने वाले परिवार से थे । हम सभी जानते हैं कि जादू कार्य-कारण सम्बन्ध को छिपाने के कारण ही दर्शकों को चमत्कृत करता है । इसे तथ्य छिपाने और झूठ बोलने की चतुराई के रूप में भी देखा जा सकता है । हनुमान जब पहली बार राम से मिलते हैं तो विप्र रूप मे मिलते हैं और अच्छी प्रशंसनीय परिष्कृत भाषा भी बोलते हैं । जाहिर है कि पूॅछ उस समय तक नहीं लगा रखी थी वे कपि का रूप धारण कर लंका मे प्रवेश करते है इसलिए कि जैव विविधता बन्दरो मे ही सबसे अधिक होती है और एक नए ढंग का बन्दर होने का भ्रम उत्पन्न किया जा सकता था । वायु पुत्र यानी जादूगर परिवार से आने के कारण चमत्कारिक मनगढ़ंत हनुमान के चरित्र के साथ ही मिलता है । प्रयाग से चित्रकूट तक पहुंचने के पहले उत्तर भारत के राम गंगा पार करने के लिए केवट बिरादरी और नाव का सहारा लेते हैं लेकिन दक्षिण मे जाते ही वे किसी नाव जैसी वैज्ञानिक युक्ति का सहारा नहीं लेते बल्कि बन्दरो और पक्षियों की मिली जुली सामर्थ्य के साथ मिथकीय छलांग मारते हैं । वास्तव मे अधिक संभावना समुद्री नाव से ही जाने की है । जबकि समुद्र मंथन से सम्बन्धित एक अन्य पौराणिक गल्प विष्णु के समुद्र पार जाने एवं एक योरोपीय प्रजाति की महिला लक्ष्मी के समुद्र से लाने-पाने के सन्दर्भ मे मंथन विधि यानी चप्पू या पतवार चलाने का संकेत कर चुका होता है । प्रश्न यह है कि जब विष्णु के जमाने में समुद्र मंथन यानी यात्रा के लिए बडी नौका उपलब्ध थी तो फिर बाद की पीढ़ी मे आए राम ई हनुमान किसी तैरती नौका या लट्ठे पर बैठकर लंका क्यों नहीं गए ? इससे सिर्फ इतना ही पता चलता है कि प्राचीन काल का नेतृत्व वर्ग भी जनसामान्य से तथ्यों को छिपा कर सत्ता के प्रति सिर्फ़ आस्थावान बनाए रखना चाहता था । सिर्फ बालि का गुफा भवन दक्षिण भारत मे पहाड़ो को खोखला कर बनाए जाने वाले महलों की निर्माण कला के अनुरूप है ।
अंत मे आपके प्रश्न पर इतना ही कहना उपयुक्त होगा कि भविष्य की अनिश्चितता से उबरने के लिए मनोवैज्ञानिक अवलम्बन के लिए समूची मानवजाति अपने ढंग से पूजा और प्रार्थना तो करती ही आयी है लेकिन राक्षसपति रावण और उसके पुत्र मेघनाथ ने आर्यों की तरह ही यज्ञ और हवन आदि कराया यह भी कहाँ प्रमाणित होता है । प्रमाणित तब मानता जब शृंगी और वशिष्ठ की तरह लंका के किसी पुरोहित का नाम लोग मुझे बताते ।
स्पष्ट है कि दलित भी आज की अवधारणा है । नन्द वंश तक तो शूद्र भी दलित नहीं रहे हैं, शासक रहे हैं । अभी वाला भारतीय समाज शुंग काल के बाद का है । शुंग यानी ब्राह्मण काल में ही बौद्धों की जातक कथाओं की तर्ज पर अठारह पुराणों सहित वाल्मीकि रामायण और मनुस्मृति आदि सभी लिपिबद्ध किये गये ।
आज स्वयं को वाल्मीकि से जोडने वाली एक जाति जो सफ़ाई से जुडी है उसका कहना है कि इस्लाम स्वीकार न करनें के दण्ड स्वरूप उसके पुरखों को सफ़ाई का गन्दा काम दिया गया ।
पहले स्वतंत्र कबीले हुआ करते थे । महाभारत काल में मातृसत्तात्मक कबीले भी थे । गंगा और सत्यवती आदि ऐसे ही मातृसत्तात्मक कबीलों की उन्मुक्त स्त्रियाँ हो सकती हैं ।
अत मे प्रमाणों और आधारों को लेकर एक टिपण्णी- नए बने मन्दिरों की तरह नए लिखे ग्रन्थों को भी अति प्राचीन बताने की एक विशेष प्रवृत्ति ब्राह्मण धर्म ग्रन्थों मे मिलती है । अपौरुषेय, अनादि और लोकोत्तर बताना उनके पेशे की दृष्टि से भी जरूरी था । बौद्ध धर्म के स्वर्णिम युग मौर्य काल के बाद सनातन धर्म के पुनरुत्थान हेतु समर्पित शासक पुष्यमित्र शुंग मे एक बात तो यह प्रशंसनीय दिखती है कि उसने जातक कथाओं की तर्ज पर अठारह पुराणों की रचना करवायी ।पाणिनी के द्वारा संस्कारित भाषा संस्कृत मे वाल्मीकि रामायण को प्रस्तुत कराया लेकिन अपने प्रशस्ति गान से सम्बन्धित कुछ भी नहीं लिखवाया । सम्भवतः उसे मनोवैज्ञानिक बाधा रही हो कि राजवंश का हत्यारा होने के कारण लोग उसके प्रशस्ति गान को स्वीकार नही करेंगे ।
हमें जानना चाहिए कि ब्राह्मण धर्म ग्रन्थ प्राय एकमात्र स्रोत होते हुए भी सत्य तक पहुंचने के विश्वसनीय आधार नहीँ हो सकते । उनकी समझ देशकाल,रूढ़ियों और जातीय परम्पराओं से आच्छादित है ।यद्यपि जातीय तंत्र होते हुए भी विशेष मूल्य परक दृष्टिकोण के कारण सैकड़ो राजवंशों की सैकड़ो पीढियाँ को एक तरह से खारिज करते हुए उपेक्षित छोड़ दिया गया है । इसी कारण ऐसे हजारों राजा हुए है जिनका कोई सांस्कृतिक योगदान नहीं दीखता । संस्कृत साहित्य मे तो अकबर का भी उल्लेख संभवतः न मिले । मैं जो कहना चाहता हूँ उसे बहुत कम लोगों ने समझने का प्रयास किया है । हमारी संस्कृति के प्रवाह को निर्णायक मोड़ देने वाले चरित्र और घटनाएं कम ही हैं ।