आप यानि आम आदमी पार्टी जैसे एक राजनीतिक मंच की ऐतिहासिक जरुरत भारत को है। यह एक ऐसी जरुरी उपस्थिति की तरह है जैसे हाथी के लिए अंकुश। क्योकि विपक्ष कमजोर हुआ है , स्थिति में चर्चा में बने रहने के विशेषज्ञ अरविन्द केजरीवाल की सार्थक भूमिका बनी रहेगी। अरविन्द वस्तुतः भारतीय राजनीति में फुटपाथ हीरो हैं। यह व्यक्ति कहीं से भी सेलिब्रेटी नहीं लगता। बस में मिले तो कोई जल्दी सीट भी नहीं देगा। अरविन्द केजरीवाल में मध्यवर्ग की सारी कमजोरियां भी हैं। यह व्यक्ति कहीं से भी राजनीतिज्ञ नहीं बन पाया है। इस व्यक्ति की सीमा यह है कि इसे आलोचना और विरोध की भाषा तो आती है ,लेकिन प्रेम आत्मीयता की नहीं। यह मैं इस आधार पर कह रहा हूँ कि यह व्यक्ति अपना कुनबा एकजुट नहीं रख पाया। अन्ना हजारे हों या किरण बेदी सब इतनी जल्दी अलग -अलग रास्ते पर चले गए कि ऐसा संदेह होने लगा कि यह केजरी का क्रांतिकारी शुद्धतावाद है या महत्वाकांक्षी व्यक्तित्व का दुष्प्रभाव !
मैं एक कल्पना और करता रहा हूँ कि क्या यदि आप सफल हो जाती तो उस पार्टी में गए बुद्धिजीवियों की हैसियत वैसी ही बनी होती जैसी कि उनकी समाज में है। मुझे ऐसा क्यों लगता रहा है कि केजरीवाल अभी अपने व्यक्तित्व और भूमिका को लेकर सावधान नहीं हैं। जैसे कांग्रेस में जाने का मतलब अपने व्यक्तिव की स्वाधीनता खोकर राहुल गांधी की सर्वकालिक श्रेष्ठता को स्वीकार करना होता है ,वैसी ही दशा-दिशा अरविन्द केजरीवाल की पार्टी में जाने वाले बुद्धिजीवियों की भी दिख रही थी। य़दि ऐसा होता है तो आप भी एक दूसरी कांग्रेस बन कर ही रह जाएगी। यदि केजरीवाल नहीं बदले तो भारतीय राजनीति में एक नए लोकतांत्रिक मंच की आवश्यकता बनी रहेगी। यदि केजरीवाल चाहते हैं कि उनकी आप पार्टी संभावनाशील भूमिका में बनी रहे तो उचित माध्यम बनने की साधना करनी होगी। अपना ही अध्ययन कर अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं को को पहचानना होगा , अपना शोधन करना होगा। अभी तो केजरीवाल को अपने और मुखर ,आत्मीय और उदार व्यक्तित्व की तलाश करनी होगी। वे दरअसल विध्वंसात्मक भूमिका और गतिविधियों के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने कांग्रेस का सफल विध्वंस किया। उसे उसे सत्ता से बाहर कर दिया। लेकिन सृजनात्मक विश्वसनीयता कम होने से भारतीय जनता मोदी के आश्वासनों को अजमाने की दिशा में मुड़ गयी।
मैं एक कल्पना और करता रहा हूँ कि क्या यदि आप सफल हो जाती तो उस पार्टी में गए बुद्धिजीवियों की हैसियत वैसी ही बनी होती जैसी कि उनकी समाज में है। मुझे ऐसा क्यों लगता रहा है कि केजरीवाल अभी अपने व्यक्तित्व और भूमिका को लेकर सावधान नहीं हैं। जैसे कांग्रेस में जाने का मतलब अपने व्यक्तिव की स्वाधीनता खोकर राहुल गांधी की सर्वकालिक श्रेष्ठता को स्वीकार करना होता है ,वैसी ही दशा-दिशा अरविन्द केजरीवाल की पार्टी में जाने वाले बुद्धिजीवियों की भी दिख रही थी। य़दि ऐसा होता है तो आप भी एक दूसरी कांग्रेस बन कर ही रह जाएगी। यदि केजरीवाल नहीं बदले तो भारतीय राजनीति में एक नए लोकतांत्रिक मंच की आवश्यकता बनी रहेगी। यदि केजरीवाल चाहते हैं कि उनकी आप पार्टी संभावनाशील भूमिका में बनी रहे तो उचित माध्यम बनने की साधना करनी होगी। अपना ही अध्ययन कर अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं को को पहचानना होगा , अपना शोधन करना होगा। अभी तो केजरीवाल को अपने और मुखर ,आत्मीय और उदार व्यक्तित्व की तलाश करनी होगी। वे दरअसल विध्वंसात्मक भूमिका और गतिविधियों के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने कांग्रेस का सफल विध्वंस किया। उसे उसे सत्ता से बाहर कर दिया। लेकिन सृजनात्मक विश्वसनीयता कम होने से भारतीय जनता मोदी के आश्वासनों को अजमाने की दिशा में मुड़ गयी।