कविता - चयन

कुशवाहा रामप्रकाश

                                                           दिनेश कुशवाह 

हमने एक-दूसरे के पीछे  
एक जैसी पूंछ देखी और शरमाये  
पर हमारे पास शर्म से लाल गाल नहीं  
टभकते दुख थे
जिन्होने हमें मित्र बना दिया।

जिस दिन वे कहते मेरा सारा दोष
मेरी छः फिट तीन इंच कि ऊंचाई में है
उस दिन वे जरूर एक कविता लिखते।

एक दिन उन्होने एक बड़े दर्पण में
डॉ रामप्रकाश कुशवाहा को देखा
और आश्चर्य से भर गए कि
उन्होने इस ऊंट से पढ़ने और
लिखने का इतना अधिक काम लिया ।

उनकी सारी गृहस्थी एक झोले में होती
जिसे वे सलीब कि तरह कंधे पर ढोते
उन्हे अक्सर कोलंबस कि आत्मा का खयाल आता
वे ज्ञान के लुटेरे को सदी का समुद्री डाकू
और उनके अड्डे को अमरीका कहते ।

वे नौकरियों के लिए जाते
और वापस कर दिये जाते
आकर ईसा कि तरह बुदबुदाते
उन्हे क्षमा करना प्रभु!
वे नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं।

मैं जब भी गुर्राता वे खूब जानते हैं
वे कहते शांत हो बंधु!
सारे निर्णायकों कि आत्मा मर चुकी है
और उनकी लाशें कुटेव कर रही हैं
पर यूं ही नहीं रहेगा सब दिन
एक दिन बदलेगा
और मौसम जब बदलता है
तो चूहे के बिल में भी बदलता है
उसका घर छोड़कर भागता साँप।

मैं बेरोजगार हूँ
पर हारा नहीं हूँ कहीं अगर मैं
उनके हाथों टूटा
तो भी एक ऐसा दर्पण बन जाऊँगा
जिसके आखिरी टुकड़े तक
उन्हे दिखेगा
अपने हत्यारे इतिहास का अपराधी चेहरा।

ब्रजमण्डल जैसा है समूचा भारतवर्ष
जहां सबकुछ सुलभ है
पर मख्खन कुछ लोग ही खा रहे हैं
सदाचार ही नहीं
कदाचारों कि भी लीलाभूमि है यह देश ।

वे प्रेम को संवेदना का कालिक विस्तार कहते
और दुआ सलाम तक भूल चुकीं
पुरानी प्रेमिकाओं को जीवन का सबसे दिलचस्प झूठ।

जहां जहां जिस ठौर उन्होने किया था  प्रेम
वहाँ वहाँ एक शिलापट्ट लगवाने कि इच्छा होती
हालांकि एक ज्ञानवृद्ध नीरस आचार्य कि तरह
दिखने के बावजूद वे प्रेम के नाम
किशोरियों कि तरह शरमाते
जैसे सामने वाली से नैना मिलते ही
उनका छाप तिलक सब छिन जाएगा ।

बीच बाजार खड़ी अट्टालिकाओं को वे
मध्यकालीन मायाहाट कहते
जहां त्रिपुर सुंदरियों का कम सिर्फ नैन मटकाना है
निरर्थक गप्पबाज़ उन्हें कालनेमि लगते
पर चिरकुट से चिरकुट आदमी भी
उन्हे हास्यास्पद नहीं लगता
प्रचंड मूर्ख को भी वे प्रेम पूर्वक झेल लेते ।

वे भाषा से प्यार करते और धरती से नेह
नंगे पैर चलने ने उन्हे पागल होने से बचा लिया
और किसी भी बात पर दो बार
सोचने कि आदत ने अत्महत्या से।

उन्हें सिर उठाकर बांग देता मुर्गा
बहुत पसंद था
साष्टांग दंडवत करते आदमी को देखकर
उन्हें हंसी आ जाती थी।             


पहले वो आए साम्यवादियों के लिए

और मैं चुप रहा क्योंकि मैं साम्यवादी नहीं था 

फिर वो आए मजदूर संघियों के लिए

और मैं चुप रहा क्योंकि मैं मजदूर संघी नहीं था 

फिर वो यहूदियों के लिए आए

और मैं चुप रहा क्योंकि मैं यहूदी नहीं था 

फिर वो आए मेरे लिए

और तब तक बोलने के लिए कोई बचा ही नहीं था

                                                            मार्टिन नीमोलर (1892-1984)



सबसे ख़तरनाक
           पाश

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती

बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।









र्इश्वर पर


दिनेश कुशवाह  

                                                                                                                                                                                          की कविता

                    र्इश्वर के पीछे



ईश्वर के अदृश्य होने के अनेक लाभ हैं
इसका सबसे अधिक फायदा
वे लोग उठाते हैं
जो लोग हर घड़ी यह प्रचारित करते रहते हैं
कि  ईश्वर हर जगह और हर वस्तु में है।

इससे सबसे अधिक ठगे जाते हैं वे लोग
जो लोग इस बात में विष्वास करते हैं कि
भगवान हर जगह है और,
सब कुछ देख रहा है।

बुद्ध के इतने दिनों बाद
अब यह बहस बेमानी है कि
ईश्वर है या नहीं है
अगर है भी तो उसके होने से
दुनिया की बदहाली पर
तब से आज तक
कोर्इ फर्क नहीं पड़ा।

यों उसके हाथ बहुत लम्बे हैं
वह बिना पैर हमारे बीच चला आता है
उसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती
अंधे की लकड़ी के नाम पर
वह बंदों के हाथ में लाठी थमा जाता है
और ईश्वर के नाम पर
धर्म युद्ध की दुहार्इ देते हैं
बुष से लेकर लादेन तक।

र्ईश्वर की सबसे बड़ी खामी यह है कि
वह समर्थ लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ पाता
समान रूप से सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान 
प्रभु प्रेम से प्रकट होता है पर
घिनौने बलात्कारियों के आड़े नहीं आता
अपनी झूठी कसमें खाने वालों को वह
लूला-लंगड़ा-अंधा नहीं बनाता
आदिकाल से अपने नाम पर
ऊँच-नीच बनाकर रखने वालों को
सन्मति नहीं देता
उसके आस-पास
नेताओं की तरह धूर्त
छली और पाखण्डी लोगों की भीड़ जमा है।

यह अपार समुद्र
जिसकी कृपा का विन्दु मात्र है
उस दयासागर की असीम कृपा से
मजे में हैं सारे अत्याचारी
दीनानाथ की दुनिया में
कीड़े-मकोड़ों की तरह
जी रहे हैं गरीब।

ईश्वर के अदृष्य होने के अनेक लाभ हैं
जैसे कोर्इ उस पर जूता नहीं फेंकता
भृगु की तरह लात मारने का सवाल ही नहीं
उस पर कोर्इ झुंझलाता तक नहीं
बलिक लोग मुग्ध होते हैं कि
क्षीरसागर में लेटे-लेटे कैसी अपरम्पार
लीलाएं करता है जगत का तारनहार
दंगा-बाढ़ या सूखा के राहत शिविरों में गये बिना
मंद-मंद मुस्कुराता हुआ
हजरत बल और अयोध्या में
देखता रहता है अपनी लीला।

उसकी मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता
सारे शुभ-अशुभ, भले-बुरे कार्य
भगवान की मर्जी से होते हैं
पर कोर्इ प्रश्न नहीं उठाता कि
यह कौन-सी खिचड़ी पकाते हो दयानिधान?
चित्त भी मेरी और पटट भी मेरी
तुम्हारे न्याय में देर नहीं, अंधेर ही अंधेर है कृपा सिन्धु।

र्ईश्वर के पीछे मजा मार रही है
झूठों की एक लम्बी जमात
एक सनातन व्यवसाय है
भ्रष्टों का कारोबार।

महाविलास और भूखमरी के कगार पर
एक ही साथ खड़ी दुनिया में
आज भले न हो कोर्इ नीत्शे 
यह कहने का समय आ गया है कि
आदमी अपना ख्याल खुद रखे।

óóó


इतिहास पुरुष अब आयें

 राजेन्द्र राजन



काफ़ी दिनों से रोज़-रोज़ की बेचैनियां इकट्ठा हैं हमारे भीतर
सीने में धधक रही है भाप
आंखों में सुलग रही हैं चिनगारियां हड्डियों में छिपा है ज्वर
पैरों में घूम रहा है कोई विक्षिप्त वेग
चीज़ों को उलटने के लिये छटपटा रहे हैं हाथ

मगर हम नहीं जानते किधर जायें क्या करें
किस पर यकीन करें किस पर संदेह
किससे क्या कहें किसकी बांह गहें
किसके साथ चलें किसे आवाज़ लगाएं
हम नहीं जानते क्या है सार्थक क्या है व्यर्थ
कैसे लिखी जाती है आशाओं की लिपि

हम इतना भर जानते हैं
एक भट्ठी जैसा हो गया है समय
मगर इस आंच में हम क्या पकायें

ठीक यही वक्त है जब अपनी चौपड़ से उठ कर
इतिहास-पुरुष आयें
और अपनी खिचडी पका लें 


श्रेय


पत्थर अगर तेरहवें प्रहार में टूटा
तो इसलिए टूटा
कि उस पर बारह प्रहार हो चुके थे
तेरहवां प्रहार करने वाले को मिला
पत्थर तोड़ने का सारा श्रेय
कौन जानता है
बाकी बारह प्रहार किसने किए थे । 


चिड़िया की आंख


शुरु से कहा जाता है
सिर्फ चिड़िया की आंख देखो
उसके अलावा कुछ भी नहीं
तभी तुम भेद सकोगे अपना लक्ष्य
सबके सब लक्ष्य भेदना चाहते हैं
इसलिए वे चिड़िया की आंख के सिवा
बाकी हर चीज के प्रतिअंधे होना सीख रहे हैं
 इस लक्ष्यवादिता से मुझे डर लगता है
मैं चाहता हूं
लोगों को ज्यादा से ज्यादा चीजें दिखाई दें ।

- राजेन्द्र राजन





देखना -सुनना-कहना

 केशव शरण



किसी का सिर
आ जाता है आड़े
किसी की टोपी
किसी का कंधा

पूरा-पूरा दिखाई नहीं पड़ता है गोरखधंधा
और पूछिए तो
एक अलग कहानी सुनाता है हर बंदा
फिर कहिए भी तो
क्या कहिए !


अमिताभ बच्चन  की कविता 


समय चलते मोमबत्तियां, जल कर बुझ जाएंगी..
श्रद्धा में डाले पुष्प, जलहीन मुरझा जाएंगे..
स्वर विरोध के और शांति के अपनी प्रबलता खो देंगे..
किंतु निर्भयता की जलाई अग्नि हमारे हृदय को प्रज्जवलित 
करेगी..
जलहीन मुरझाए पुष्पों को हमारी अश्रु धाराएं जीवित रखेंगी...
दग्ध कंठ से 'दामिनी' की 'अमानत' आत्मा विश्व भर में गूंजेगी..
स्वर मेरे तुम, दल कुचल कर पीस न पाओगे..
मैं भारत की मां बहन या या बेटी हूं,
आदर और सत्कार की मैं हकदार हूं..
भारत देश हमारी माता है,
मेरी छोड़ो अपनी माता की तो पहचान बनो !!







पहल ९१ में प्रकाशित 


उस्मान खान 


की डायरी कविता -


११ नवम्बर 


तुम घोड़ों से आए
और तुमने सिर्फ दो स्वाद हमारे लिए शाश्वत बना दिए -
एक कड़वा
और एक कसैला
तुम घोड़ों से आए
और तुमने सिर्फ दो चीजें हमें दीं -
नाल

और लगाम . 


दो संवादिक 


'आप पैगम्बरों के बारे में कुछ क्यों नहीं लिखते ?"


"मुझे लगता है कि कवि पैगम्बर से कम नहीं होता .और पैगम्बर खुदा के बारे में लिखते हैं-अपने बारे में नहीं !"

"तो आप खुदा के बारे में कुछ क्यों नहीं लिखते ?"

"क्योंकि मैं किसी और के बारे में भी कुछ नहीं लिखता ."

लेकिन आपने कुछ कविताएं तो लिखी हैं !

"हाँ,जब तक कोई उनकी हत्या नहीं करता ,तब तक वे खुदा और पैगम्बर से स्वतन्त्र हैं .

''इसका मतलब मैं हत्यारा हूँ !

''इसका मतलब यह भी नहीं की मैं पैगम्बर हूँ !पैगम्बरों का सवाल मुर्दा दुनिया का सवाल है , मैं जिंदा लोगों से मुखातिब हूँ