गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

जाति-विमर्श

जब तक किसी समूह के सदस्य एक-दूसरे के अधिकतम समरूप बने रहने के प्रयास में दूसरे समूह से भिन्न बने रहेंगे भारत में जाति -प्रथा नाम-रूप बदलकर किसी न किसी रूप में बनी रहेगी | जातिविहीनता का आदर्शवाद तभी संभव है जब सभी असामाजिक हो जाएँ और समूह के आदर्शों को जीना बंद कर दें | जाति भी मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के कारण ही अस्तित्व में बने हुए हैं | भारत में जातिवाद किसी ब्राह्मण या ब्राह्मण समुदाय द्वारा बनाया गया नहीं है ,बल्कि उसकी ऐतिहासिक पारिस्थितकी की उपज है |उपजाऊ देश होने के कारण प्राचीन काल से ही अलग-अलग समूह भारत में बसने के लिए आते गए और जातियाँ बढ़ती गयीं | यदि दूसरे की सामूहिक भिन्नता को स्वीकार करना ही जातिवाद है तो ऐसे जातिवाद को भारत के लिए प्रगतिशील भी माना जा सकता है | हम सभी जानते हैं कि मध्यकाल में जब पुलिस व्यवस्था हमेशा ही ठीक नहीं रही होगी तो जातियों नें ही अपने सदस्यों का चारित्रिक नियमन किया होगा | जाति प्रथा भी मनोवैज्ञानिक दंड और पुरष्कार-प्रथा के आधार पर ही हजारों वर्षों तक ऐसा करती रहीं | जाति प्रथा की यह प्रगतिशील भूमिका थी | सबको समान रूप में जीने के लिए दबाव बनाना भी हिंसा है | जाति -प्रथा नें अलग-अलग समूहों को अलग -अलग रीति-रिवाजों को जीने की स्वायत्तता दी | भारत में जातिप्रथा इसलिए बुरी है कि धार्मिक आधार पर श्रेणीकरण करने के कारण कुछ लोगों को निचले दर्जे पर कर दिया गया | ऐसा महावीर स्वामी और बुद्ध धर्म में प्रचलित अहिंसावाद से हुआ होगा | इससे चर्म-उद्योग से जुडी जातियां अधिक घाटे में रहीं और अछूत तक करार दी गयीं | आज वैश्विक अनुरूपता की धारा बह रही है | नस्लीय या अनुवांशिक भिन्नता को छोड़ दे तो समान शिक्षा-दीक्षा और रहन-सहन के कारण आज समूह की भिन्नता भी कम हो रही है | आज जाति-प्रथा किसी बौद्धिक या वैचारिक आधार पर नहीं बल्कि वैवाहिक सुविधा , आलस्य और सामाजिक तंत्र के आधार पर बची हुई है | इसकी शक्ति भी सामाजिकता की ही शक्ति है | क्योकि कुछ जातियों का राजनीतिकरण हो चुका है इसलिए उनका संगठनात्मक हित जाति प्रथा को बनाए रखने में हो गया है | इस कारण ही जाति से बाहर निकलने के वैयक्तिक प्रयास प्रभावी नहीं हो रहे हैं |