शुक्रवार, 15 जून 2012

नीत्शे को पढ़ते हुए


जीवन और मृत्यु-चिन्तन.....

      (नीत्शे को पढ़ते हुए )




1.


स्वयं को जीनें की स्वतंत्रता
अपनें असितत्व में उपसिथत  जीवन-विवेक
क्षत-विक्षत हो जाता है संवेदना की सुनामी से....
फर्क है नि:संग मै और सम्बद्ध मै में
कि केवल आत्मस्थ होना स्वस्थ होना नहीं है
न ही अकेली इयत्ता
सहजीवन की सम्पूर्ण इयत्ता ही हो सकती है

संभव है कि हमारा पर्यावरण समय
जो कि बना हुआ है दूसरों की इच्छाओं से
हमेशा ही हमारे अनुकूल न हो
कि नियति
दूसरों की इच्छाओं का सम्मान करनें की भी हो सकती है
हो सकता है दूसरों की साजिशों के रूप में भी......

कि कभी-कभी नियतिवादी होना
दूसरों की अनुचित इच्छाओं और
अपराधी समय का सम्मान करना भी हो सकता हैं
तो कभी प्रेम में सहते जाना किसी की बेहूदगी
कि नियतिवादी होना
किसी शिकार की प्रतीक्षा में बैठे शिकारी की
रोमांचित प्रतीक्षा में भी घटित हो सकता है
या फिर किसी आलसी की अन्तहीन प्रतीक्षा में....

स्वयं को जीना जरूरी है
और जरूरी है स्वयं को जानना भीै
कि असितत्व में जीना
अभी-अभी के प्रवहमान वर्तमान में जीना
नहीं जीना है भूत और भविष्य की कल्पनाओं को
जरूरी है ऐसा जीना इतिहास से बाहर रहने के लिए
और रचनें के लिए एक नया इतिहास भी....
कि ऐसा जीना समयातीत आदतों के प्रति
समय में जीते मनुष्य की सजगता है

क्या नीत्शे कभी भी नहीं जान पाया होगा
किसी मेले के सुखकर रहस्य !


2.


दौड़.....कैसी दौड
कहां तक की दौड़
किसकी दौड़
इस अनजाने धावकों की भीड़ में
एक-दूसरे को पीछे छोड़ते हुए
आगे जानें वालों का सच ही कोर्इ लक्ष्य भी है क्या !
शायद नहीं ! कौन कहता है कि
ये सारे नक्षत्र
सूरज-चांद-सितारे
हमारी धरती के इर्द-गिर्द नहीं घूमते !
कहां घूमती है धरती
सूरज के चारों ओर
सूरज ही तो घूमता है !
आज चाहे मानव-जाति की युगों से आ रही धारणा
भ्रम सिद्ध हो चुकी हो
किन्तु उसकी प्रवृतितयां
इस संसार के प्रति अब भी वही हैं

संसार में अपनी अनिर्वचनीय महत्ता का
प्रतिपादन करता हुआ
हर व्यकित
यही तो सोचता है
स्ांसार मात्र उसी के लिए है
उसकी अनुपसिथति में अधूरे-अपूर्ण
सारहीन-निरर्थक-गतिहीन
और एक दिन समय उसे धीरे से
अंधेरे कोनें में छोड़कर चल देता है ।


मौत नहीं असितत्वहीनता कहो
इस अनन्त शून्यवत यात्रा में
कौन-सा बिन्दु उसके प्रारम्भ का है
और कौन-सा अन्त का
कौन कह सकता है जीवन की यह यात्राा
अनसितत्व से असितत्वहीनता तक ही तो है?
किन्तु -फिर भी कितना धूर्त हूं मैं
तब जबकि मैं इस अनन्त सृषिट के
शाश्वत मैं का वाहक बना
रातोंरात कितना स्वार्थी बन बैटा मैं
वह मैं  जो मेरी इच्छा का नहीं
जिसकी इच्छा का मैं परिणाम था
उसे मैंने बांध लेने का हास्यास्पद प्रयास किया
हमेशा के लिए अपनें-आप से
और जिन प्रयत्नों में लगा हुआ
मैंने गुजार दी अपनी दुर्लभ यात्रा
कुछ भी कहां देखा-
मेरी दुष्कृत्यों में डूबी हुर्इ आंखों के सामने
चाहे हिम आये या हरीतिमा
मनोरम स्वर छलके या सौन्दर्य
कुछ भी नहीं देखा मैंने
तब स्वाथोर्ं में लिप्त मैंने सोचा था कि
ये दृश्य अनन्त काल तक यूं ही भटकते रहेंगे मेरे लिए
ल्ेकिन तब
मुझे क्या पता था कि
एक दिन समय मुझसे दृश्यों को नहीं
आंखें ही छीन लेगा
और जिस मैं से आत्मसात अभिन्न हुआ मैं
विराट मैं का वहन करता हुआ
एक दिन कुचल दिया गया
छल दिया गया
वह मैं जो कुछ ही क्षण के लिए
मुझे भिगोकर ओत-प्रोतकर देनें के लिए था
जानें कब छोड़कर मुझे जानें कहां
और मूंद ली मैंने भयभीत होकर अपनी आंखें
चीख पड़ा-
मौत छीन रहा है मेरा जीवन
और मुस्कराता हुआ वह
मुझे बुझाकर आगे बढ़ गया
मौत नहीं असितत्वहीनता कहो
जो जीवन के पहले भी सत्य था और बाद में भी.....


3.


असितत्व महत्वपूर्ण है
फिर भी मैं अपनें होनें को
दूसरों की हिकारत भरी आंखों से देखना चाहता हूं
समझना चाहता हूं दूसरों की श्रेष्ठता
घृणा और र्इष्र्या का मतलब
मैं समझना चाहता हूं स्वयं को
हंसना चाहता हूं स्वयं पर
पूरे उपहास के साथ
कि वह क्या है जो मुझसे
मेरे नीच और घटिया होने का अभिनय मांगती है
मैं समझना चाहता हूं
अपने विरुद्ध दूसरों के सुख का मतलब....
दूसरों से जुड़ते ही क्यों लगता है कि
वे अपनी मानसिकता लादना चाहते हैं मेरे वजूद पर
कभी-कभी तो पागलपन भी !
कभी-कभी तो लगता है कि
उनकी गोल से छूटकर निकल भागते ही
उनका खेल खत्म हो जाएगा....
दूसरों पर लदे हुए लोग
गिरकर ही जान सकेगे अपना भार....

एक दूसरे पर बिना लदे हुए
जीवन जीनें की सहचर स्वतंत्रता के साथ
फैल नहीं सकता क्या संक्रमण मुस्कान का !

मैं शुभ नहीं अशुभ
सौन्दर्य नहीं विद्रूपता मांगता हूं
सुख नहीं दु:ख की मांग करता हूं मैं
जितना दे सकता हो तू मुझे दे-
वह सब जो तेरा पाप हो
वह सारा जितना तेरा नरक होे
कि तू खुश रहे और बदल जाये एक दिन
कि तू जान सके कि संवेदनशीलता के तार
असंम्बद्ध आंखों को भी रुला देती हैं
कि आत्मीयता और संवेदनशीलता के हर क्षण में
दूसरों का दु:ख भी अपना दु:ख बन जाता है
कि दूसरों को कष्ट से बचानें और
सुखी बनाने के लिए जिया गया दु:ख भी
सुख और सन्तोष का एक अर्थ पा जाता है.....

यधपि दु:खों के अनुभव और वयस्कता नें मुझे पथरा दिया है
फिर भी मैं एक बार फिर रोना चाहता हूंं
दे दो मुझे मेरा आंसू
जो जाने-अनजाने में
तुझ तक फेंक दिया था मैंने
कल का अस्वीकार हुआ दर्द
आज मैं पुन: मांगता हूं तुमसे
इस संसार-समुद्र की भीषण जन-कोलाहल से
थोड़ा भी नहीं बवना चाहता मैं !
किसी भी लहर के थपेड़े से
नहीं बचाना चाहता अपनें जीवन की नाव........
कल तक रोता हुआ मैं
आज सच ही कितना गरीब हो गया हंू
आज न मेरे पास
डरने के लिए कोर्इ भय है
न चीखने के लिए कोर्इ दर्द ही
फिर वेगों-संवेगों से परे
ऐसा स्तब्ध जीवन लेकर
मैं करूंगा भी क्या ?

मैं जानता हूं कि कइयों की तरह
मुझे भी जीवन में
अपमान के इतनें सारे अनुभवों के बाद
एक दिन सम्मानित होना भी
किसी के प्रायशिचत के बोध की तरह
अपमान से भर जाएगा.....

इसे कोर्इ भी जानना चाहे जान सकता है
मैं सौन्दर्य में नहीं कीचड़ों में पला हूं
पुण्य नहीं पाप में पला हूं
स्वर्ग नहीं नरक में जन्मा
सुख नहीं दु:ख में जीता हुआ प्राणी हूं मैं
फिर तुम्हारा सुख,सौन्दर्य और स्वर्ग
मेरे किस काम का !