रविवार, 19 जनवरी 2014

मध्यवर्ग की भूमिका

सर्वहारा आधारित क्रान्ति की अवधारणा के कारण वामपन्थी क्रान्ति की दृष्टि से मध्यवर्ग की उपयोगिता एवं भूमिका नगण्य ही है .ज्ञानार्जन और बुद्धि -व्यवसाय में सबसे अधिक समय और जीवन का निवेश मध्य-वर्ग ही करता है .बौद्धिक विकास में लगे रहने के कारण वह बहुत ही कम अन्तराल के बाध्यकारी नेतृत्व का शिकार होता है .दूसरे शब्दों में कहें तो वह बौद्धिक श्रेष्ठता के कारण नहीं बल्कि आर्थिक,सामाजिक,राजनीतिक कारणों से इतिहास में बाध्यकारी नेतृत्व को     स्वीकार करता है .सर्वाधिक प्रतिरोध और सजगता के कारण उसकी भूमिका को लेकर सबसे अधिक भर्तस्ना-पत्र लिखे गए हैं .उसके आत्म-विश्वास को तोड़ने एवं उसे विचलित करनें की कोशिशें हुई हैं .इसमें संदेह नहीं कि औसत,सन्दिग्ध एवं अस्पष्ट समझ की वह अनदेखी करता है .

                वस्तुतः मध्यवर्ग की अवधारणा का विकास पूंजीवादी और मार्क्सवादी दोनों ही खेमों के विचारकों द्वारा प्रतिक्रांति एवं क्रांतिविरोध और अवरोध को समझने के लिए किया गया था। मध्यवर्ग के वर्ग-चरित्र और  रुझानों'प्रवृत्तियों और उसके मनोविज्ञान को  समझने की दिशा में मार्क्सवादी खेमा भी रूढ़ मुहावरों 'सरलीकरण और और विचारधारात्मक संभाव्यतावाद से आगे नहीं जा पाया है। स्वयं मार्क्सवादी विचारधारा सर्वहारा और पूंजीपति वर्ग ,उच्च और निम्न वर्ग के बारे में ही विस्तार से सोचती है। उसके थीसिस और एजेंडे में मध्यवर्ग की अधिक भूमिका नहीं थी। क्योंकि आदर्श साम्यवादी व्यवस्था औद्योगिक पूंजीवाद की प्रतिक्रया में आनी थी  ंअध्यवर्ग मार्क्स के लिए भी क्रांतिकारी असंतोष की दृष्टि से शून्य और अनुपयोगी था।  वह बहुत कुछ दर्शक और तटस्थ जनसँख्या का हिस्सा था ,जो संगठित क्रांतिकारी शक्तियों का न  समर्थन करा सकता था और न विरोध !
             मध्यवर्ग को प्रायः उपभोक्ता वर्ग या समुदाय में देखने का नजरिया नजरिया भी ठीक नहीं है। क्योंकि वह बौद्धिक विकास और सृजनशीलता के प्रति समर्पित केंद्रीय जनसमूह है। चेतन एवं प्रशिक्षित होने के कारण उसमें सजग प्रतिरोध की क्षमता है। नेतृत्वकारी शक्तियों द्वारा उनका सहज अनुकूलन या अनुयायीकरण सम्भव नहीं है। इसी प्रतिरोध के कारन ही  नेतृत्व के अभिलाषी महत्वाकांक्षी  बुद्धिजीवियों के सहज अनुगामी नहीं बना सकते। 
            मध्यवर्ग की अब तक की भूमिका को देखते हुए जनवादी क्रांति के बाद भी नयी क्रांतिकारी व्यवस्था के संरक्षण में मध्यवर्ग की भूमिका के महत्वपूर्ण होने की सम्भावना देखी जा सकती है। उसका सृजनात्मक
एवं अग्रगामी असंतोष व्यवस्था के परिष्करण -परिवर्धन और गतिशीलता को बनाए रखा सकता है। 
              मार्क्सवादी विचारधारा की दृष्टि से समझने का प्रयास करें तो सामंतवाद कृषि-सभ्यता का पूंजीवादी व्यवस्था-प्रारूप है तो सामंतवाद कृषक-व्यवस्था का राजनीतिकृत तंत्र-प्रारूप है। कृषक व्यवस्था का पूंजीवाद  अनुवांशिकता के आधार पर भूमि-स्वामित्व की।  असमानता के आधार पर भूमिहीन के रूप में एक भिन्न प्रारूप वाले शोषित -सर्वहारा जन को जन्मा देता है। लेकिन दूसरी और  नैतिक मूल्य -व्यवस्था कृषक सभ्यता से उपजे  मानवीय सम्बन्धों की ही दें है। यही वह प्राथमिक अर्थतंत्र है,जिसके अभावों एवं अपर्याप्तताओं नें उस विनिमय-तंत्र का विकास किया है ,जिसे आज हैम बाजार-व्यवस्था के रूप में जानते हैं। यदि अवधारणा की शब्दावली के रूप में देखें तो पूंजी की गतिशीलता के आधार पर कृषि-सभ्यता को अचल या स्थिर-प्रकृति का पूंजीवाद और विनिमय आधारित पूंजीवाद को गतिशील या प्रवाही पूंजीवाद कहा  है। ऐसे में मार्क्सवाद का औद्योगिक पूंजीवाद ;जिसे मार्क्सवादी विचारधारा की दृष्टि से उत्पादक पूंजीवाद कहा जा सकता है।  मार्क्स नें अपनी क्रांति की अवधारणा में सामंती और औद्योगिक दोनों ही प्रकार के पूंजीवाद को शामिल किया है।  विनिमय आधारित प्रवाही पूंजीवाद के प्रति क्रांति सम्बन्धी अवधारणा देने की जरुरत उन्हें इसलिए नही पड़ी
कि तब तक वह सगठित और दैत्याकार रूप में विकसित नहीं  हुआ था।
               
        इस तरह  मध्यवर्ग के लिए पूंजीवादी व्यवस्था से निष्क्रमण और विद्रोह का कोई ठोस मनोवैज्ञानिक आर्थिक आधार नहीं बनता .इसलिए भी कि आदर्श साम्यवादी व्यवस्था औद्योगिक पूंजीवाद की प्रतिक्रिया में आनी थी .लेनिन ने अवश्य ही सर्वहारा  सर्वहारा वर्ग के पक्ष में उसके नैतिक समर्थन और वर्गांतरण की परिकल्पना दी .
                    समाजशास्त्रीय और आर्थिक विकास की दृष्टि से देखें तो मध्यवर्ग एक यात्रा-शील स्थिति है .पूंजीवादी व्यवस्था में वैयक्तिक आर्थिक मुक्ति निम्न-वर्ग से निकलकर उच्च -वर्ग में शामिल हो जाने से ही सम्भव है .पूंजीवादी व्यवस्था में आर्थिक निम्न वर्ग में जन्मे व्यक्ति के लिए निम्न वर्ग से बाहर निकल कर उच्च वर्ग में शामिल हो जाना ही चरम पुरुषार्थ है .उच्च वर्ग में शामिल होने की आकांक्षा के साथ मध्य वर्ग का हर व्यक्ति वयक्तिक आर्थिक मुक्ति के एक सपने को जी रहा होता है .यह सपना पूंजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा सम्बन्धी संरचनात्मक आश्वासनहीनता से पैदा होता है .पूंजीवादी व्यवस्था हर व्यक्ति को आर्थिक असुरक्षा की परिस्थितियों में डाल देती है .इस मनोविज्ञान के कारण एक अन्तहीनहोड़ का जन्म होता है .अस्तित्व की एक निर्मम प्रतिस्पर्धा पूंजीवाद को अमानवीय बनाती है .इसके विकल्प  में साम्यवाद
पूंजी के सामूहिक और साझे निर्माण और उपभोग की परिकल्पना देता है .देखा जय तो सामूहिक सृजनशीलता के आवाहन के कारण साम्यवाद को सामूहिक पूंजीवाद और पूंजीवाद को वैयक्तिक पूंजीवाद कहा जाना चाहिए .इस प्रकार साम्यवाद पूंजीवादी व्यवस्था का स्वर्ग है तो वैयक्तिक पूंजीवाद नरक .फिर प्रश्न उठता है कि भारतीय मध्यवर्ग अपने अधिकांश में साम्यवादी हिंसक क्रान्ति को अराजकता पूर्ण भयावह दुष्कल्पना के रूप में क्यों देखता है ? इसका कारण यही है  कि मार्क्स द्वारा प्रतिपादित साम्यवादी क्रान्ति की परिकल्पना में यहूदी धर्म की सांस्कृतिक असहिष्णुता और उनकी धार्मिक कथाओं में मिलने वाली बर्बर शुद्धता और उच्छेदवादी नरसंहारों का सांस्कृतिक अचेतन छिपा हुआ है .ऐसे में क्रांतिकारी बनना नायकत्व की मध्ययुगीन मानसिकता और परिकल्पना की भी विरासत है .अन्यथा जब सामूहिक पूंजीवादी सृजनशीलता तक ही जन-मानस को ले जाने की बात है तो ऐसे साम्यवाद को अहिंसक साम्यवाद के रूप में भी सामूहिक आर्थिक ,सामाजिक,राजनीतिक लक्ष्य और महत्वाकांक्षा के रूप में प्रचारित किया जा सकता है .इसके लिए सामूहिक पूंजी की सृजनशीलता को बढ़ावा देने वाली व्यवस्था-संरचनाएं और मानसिकता विकसित करनी होंगी .अपने हिंसक सांस्कृतिक अचेतन के कारण अठारहवी शताब्दी का परंपरागत मार्क्सवाद एक प्रतिक्रियाजीवी तनावपूर्ण असभ्य मानवीय समाज की रचना ही करेगा .  इस लिए मार्क्स के प्रति उचित श्रद्धांजलि तो यही होगी की साम्यवाद के भावी प्रारूप की खोज नए सिरे से सामूहिक पूंजीवाद की परिकल्पना के रूप में आधिक सभ्य ,शिष्ट ,स्वाभाविक और अहिंसक तरीके से किया जाय .संस्थागत या राजनीतिक क्रान्ति का एक पूंजीवादी तरीका यह भी हो सकता है कि सरकार हत्या करने की जगह मुद्रा या मुवावजा देकर सारी जमीने स्वयं खरीद ले .इसके बाद वह जन-जीवन के पुनर्नियोजन के लिए स्वतन्त्र हो जाएगी .मानव जाति के सुरक्षित अस्तित्व के लिए यह कार्य जितनी जल्दी हो उतना ही अच्छा है .ऐसा न होने का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह हो रहा है कि भवन व्यक्ति की आवश्यकता और संख्या के अनुसार,जरुरत के हिसाब से नहीं बनाए जा रहे हैं ,बल्कि पूंजी-प्रदर्शन और प्रतिष्ठा के अनुसार बनाए जा रहे है .इस कारण से बढ़ती जनसँख्या के विपरीत कृषि-योग्य भूमि निरन्तर ही कम होती जा रही है .अनियन्त्रित-अनियोजित स्थापत्य में शहरों का विकास आधुनिक युग की सबसे गम्भीर समस्या है ,जिसकी ओर किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा है .
         अपनी इस दृष्टि के कारण समकालीन प्रगतिशील विचारक मुझे शैक्षणिक या ज्ञानात्मक अतीतीकरण के शिकार लगते हैं .यह एक परिकल्पनात्मक पिछड़ापन है ,जिसकी ओर स्वयं को प्रगतिशील होने का श्रेष्ठताबोध जीने वाले बुद्धिजीवियों का ध्यान ही नहीं जाता .उन्हें क्रन्तिकारी नायकत्व के मध्य-युगीन माडलों और उसकी महत्वकांक्षी स्वप्न्दर्शिता से बाहर निकालने में अभी वक्त लगेगा.


           विचारधाराओं को लेकर  अन्य महत्वपूर्ण समस्या यह है कि विचारधाराओं के प्रति स्मृति-संरक्षणवादी नजरिए के कारण अकादमिक एवं शैक्षणिक चिंतन प्रायः शुद्धतावादी ही होता है .प्रत्ययों से अति-परिचय के कारण कई बार शब्दावली या अभिव्यक्ति के स्तरपर वह मानवीय अप्रासंगिकता एवं निरर्थकता को पहचान नहीं पाता.उनका पुनरावर्ती प्रयोग करता रहता है .अवधारणात्मक संकल्पनाओं को कि बार सच न होते हुए भी सच के रूप में प्रस्तुत करता रहता है .इसे हम पिछली समझ के आधार-पृष्ठभूमि या पर्यावरण के रूप में भी देख सकते हैं .
     नए विचारों से अधिक महत्वपूर्ण सार्थक और निरापद विचारों का चयन एवं सृजनात्मक संयोजन कर एक परिस्कृत और अधिक गतिशील संभावनाओं वाली व्यवस्था कि खोज करना है .विचारधाराओं कि पूर्वाग्रह रहित पड़ताल जरुरी है .अलग-अलग सफल वैचारिक प्रारूपों एवं अनुभवों को व्यवस्था की आधारभूत संरचनाओं के निर्माण और विकास में इश्तेमाल करना होगा .दरअसल मानव समाज की जरूरतों के अनुसार वैचारिकी विकसित करने कि जरुरत है ,न कि वैचारिकी की पड़ताल एवं जरुरत के अनुसार मानव-समाज को अनुचित-अस्वाभाविक-अवैज्ञानिक रूप में दुष्प्रभावित करने की.उदहारण के लिए सब जानते हैं कि द्वंद्ववाद को मार्क्स नें हिगेल से लिया था और उसे साम्यवाद कि परिकल्पना के अनुसार पुनार्काल्पित किया .इस संसर्ग से सभ्यता कि वर्तमान सृजनशीलता
         एक व्यापक मानव-जाति के आर्थिक व्यव्हार को समझने और समझाने की दृष्टि से मार्क्स का विश्लेषण आधुनिक वैचारिकी को आधारिक सूत्र और दृष्टिया उपलब्ध करता है .क्योंकि संवेदनात्मक द्रष्टि से मार्क्सवाद के उद्देश्य की नैतिक पवित्रता असंदिग्ध है ;इस लिए उसके दार्शनिक पक्षों को भी निर्विवाद और अपरिवर्तनीय मन लिया जाता है .उसमे कुछ भी निरर्थक और अनावश्यक खोजना वर्ग-शत्रु का हमला भी हो सकता है .क्योंकि भारत में वह पश्चिम की पवित्र धरोहर है ,इसलिए भारतियों को यह अधिक स्वीकार्य होगा कि स्वयं पश्चिम ही उसमे परिवर्तन संशोधन करे .वैसे भी भारतीय मेधा संरक्षण वादी है .वह नई पहल में कम ही विश्वास करती है . मार्क्सवाद की दार्शनिकी में भी बहुत से परम्परा से अर्जित तत्व हैं -उनमें से एक हीगल से लिया गया द्वंद्ववाद भी है .यह विकास की सामाजिक प्रक्रियाओं का विचलित प्रत्ययीकरण करता है .रुढ़िवादी और विकासवादी शक्तियों के द्वंद्व को मानवीय और समाजशास्त्रीय रूप में भी समझने और समझाने की जरुरत है .वर्ग -स्वार्थ के मनोविज्ञान पर आधारित होने के कारण मार्क्स का मानव-जाति के इतिहास में आर्थिक प्रवृत्तियों और व्यव्हार का सूत्रीकरण प्रायः ठीक और प्रामाणिक है .लेकिन मेरा मानना है कि मनुष्य की ज्ञानात्मक प्रगतिशीलता से अधिक उसकी विकास विरोधी जड़ताओं और आदिमताओं को भी समझाने की जरुरत है .ऐसे में तो और भी जब जीनेटिक आधार वाली जड़ताएँ होने की वैज्ञानिक संभावनाएं बढ़ गई हैं .इसके बावजूद मार्क्सवाद का सबसे महत्वपूर्ण सन्देश मानवीय व्यवस्था को यथास्थितिवादी स्वीकार की सामूहिक मानसिकता से बाहर निकालकर उसे प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की सृजनशीलता के दायरे में लाना है .प्राचीन धार्मिकों की तरह हमें ईश्वर और स्वर्ग का सृजन करने के स्थान पर वर्तमान मानवीय व्यवस्था को और मानवीय और निर्दोष बनाने पर विचार करना चाहिए .और इसके लिए मार्क्सवाद से भी अधिक महत्वपूर्ण है मार्क्स के बाद के मानवीय विकास की जटिलताओं को समझना .वर्तमान विश्व राजनीतिक नेतृत्व से आर्थिक नेतृत्व की ओर स्थानांतरित हो गया है .राजनीतिक संस्थाओं की तुलना में आर्थिक संस्थाएं मानव -सभ्यता की संरचनाओं को अधिक तीव्रता से प्रभावित कर रही हैं .विश्व प्रायः आर्थिक सक्रियताओं द्वारा अधिक रूपान्तरित हो रहा है .दूसरे शब्दों में विश्व राष्ट्रों से अधिक कंपनियों के उत्पादों से अधिक रूपान्तरित हो रहा है .क्योंकि यांत्रिक उत्पाद श्रम की प्रकृति को ही बदल दे रहे है 'इसलिए वर्ग-संरचना और उसकी मात्रात्मक उपस्थिति का स्वरूप भी बदला है .आज स्थानीय आर्थिक शोषण से अधिक प्रभावी अन्तर-राष्ट्रीय शोषण हो गया है .विषमता व्यक्ति और वर्ग स्तरीय ही नहीं बल्कि राष्ट्र स्तरीय और कंपनी स्तरीय भी है .बहुराष्ट्रीय होने के साथ-साथ कंपनियों का संगठनात्मक और जनसंख्यात्मक ढांचा विस्तृत हुआ और बढ़ा है .इस विषमता को भी मार्क्सवादी चिंतन के दायरे में लाना होगा .क्योंकि मार्क्सवाद साम्यवाद का पर्याय बन चूका है.