शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

ईश्वर-विमर्श

ईश्वर-विमर्श

आज ईश्वर-विमर्श पुनः प्रासंगिक हो गया है । साम्यवादी विचारधारा और आन्दोलन के कमजोर पड़ने के बाद धर्म आधारित गैर राजनीतिक राष्ट्रीयताओं का विश्व-स्तर पर ध्रुवीकरण विश्व-मानवता के लिए एक समस्या और चुनौती के रूप में उभरा है । यह सब भूमंडलीकरण की स्वाभाविक प्रक्रिया के अन्तर्गत होता दिख रहा है । क्षेत्रीयता की भौगोलिक बाधाएं समाप्त होते ही बिखरी हुई अस्मिताएं दैत्याकार ढंग से सहसा वैश्विक हो उठी हैं ।
एक अन्य समस्या प्राचीन सभ्यताओं के उत्तराधिकारियों के नवीनीकरण यानि आधुनिकता-बोध का है ।कम संसाधनों एवं अधिक जनसंख्या वाले एशियाई मूल के धर्म आधारित समाज लम्बे समय से कठोर धार्मिक नियमों एवं संयम द्वारा ही स्वयं को बचाए हुए थे । यद्यपि उनका भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक अवचेतन चरित्र और आचरण का भिन्न-भिन्न प्रादर्श उपलब्ध कराता है । ये जातीय साम्प्रदायिक गैर राजनीतिक राष्ट्रीयताएं आधुनिक राज्यों की राजनीतिक राष्ट्रीयताओ को अपने ढंग से बाधाएं एवं चुनौतियां देती रहती हैं ।
बौद्ध धर्म को छोड़ दिया जाय तो ईश्वर की आदिम अवधारणा विश्व के सभी धर्मों का आधार है । ईश्वर की मिथकीय परिकल्पना और चरित्रीकरण मे ही एक संस्कृति को मानने वाली बड़ी जनसंख्या की सभ्यता के अवचेतन सूत्र छिपे हैं ।
धर्मों को उनके अनुयायियों पर पडने वाले प्रभाव या यह कहें कि संस्कार-स्वभाव की दृष्टि से तीन प्रकार का देखा जा सकता है-निर्विचारवादी विचारवादी और भाववादी, । बौद्धों की विपश्यना तथा गीता का स्थिति प्रज्ञ ,जैन धर्म की का मोक्ष और कैवल्य तथा बौद्ध धर्म का परम सत्य निर्वाण आदि निर्विचारता को ही दुख-मुक्ति का उपाय या समाधान मानने वाले धर्म हैं ।ईसाई और इस्लाम जैसे सेमेटिक धर्मों को विचार जीवी धर्म कहने का तात्पर्य यह है कि इन धर्मों मे ईश्वर के साथ-साथ शैतान की भी समानान्तर अवधारणा के कारण इनका द्वंद्वात्मक सांस्कृतिक अवचेतन सफल जीवन के लिए सतत विचारक सजगता एवं सन्देहशील जीवन-पद्धति को प्रस्तावित करता है । सेमेटिक धर्मों की विचारजीविता का आधार उनका यह सांस्कृतिक विश्वास भी है कि इस सृष्टि को उसके निर्माता ईश्वर ने किसी बढ़ई या कलाकार की तरह बाहर से बनाया है । कहने का तात्पर्य यह है कि सेमेटिक विश्वास के अनुसार सृष्टि और उसके निर्माता ईश्वर अलग-अलग भिन्न अस्तित्व के रूप मे है । यद्यपि स्टीफ़न हाकिंग ने इस अवधारणा को खारिज कर दिया है लेकिन खारिज होने के बाद भी यह सांस्कृतिक अवधारणा पश्चिम के सम्पूर्ण विकास एवं आधुनिक वैज्ञानिक सभ्यता कि आधार है । प्रकृति की हर संरचना के पीछे ईश्वर का मस्तिष्क होने की परिकल्पना ने उनके पूर्वजों को प्रेरित किया कि सेमेटिक धर्म का सबसे प्रमुख उदाहरण सनातन कहा जाने वाला हिन्दू धर्म है ।
भारतीय वर्ण व्यवस्था और जाति-प्रथा ने जिस स्थाई लौह सामाजिक संरचना का निर्माण किया उससे प्रतिक्रियात्मक संतुलन के लिए मुक्ति और मोक्ष की अवधारणा का भी मिथकीय महिमामंडन किया । उसने यथास्थिति की एक दार्शनिकी रची जिसमे इस जन्म, जीवन और जगत मे कुछ भी नहीं बदलना था । बदलाव के लिए असंतुष्ट होने पर अगले जीवन के जन्म की प्रतीक्षा करनी थी । सनातन धर्म को जो आदिम कबीलाई संस्कार प्राप्त हुआ था उसमें आनुवांशिक उत्तराधिकार के कारण क़बीले के मुखिया की तरह राजा के भी नेतृत्व को प्रश्नाकित नहीं किया जा सकता था । सबसे विचित्र सांस्कृतिक निर्माण स्वयं ब्राह्मण वर्ण का ही देखने में आता है । इस जातीय समूह को श्रेष्ठ और सम्मानित कहकर मूर्ख बनाया गया । इसे भिखारी के रूप मे जीवनयापन के लिए अभिप्रेरित किया गया । इसे स्वयं महत्वाकांक्षा से रहित रहते हुए दूसरों के लिए महत्वाकांक्षा से रहित जीवन जीने के लिए आदर्श उपस्थित करना था । स्पष्ट है कि वह स्वयं नेतृत्व को चुनौती न देने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक संविधान का एक हिस्सा था । वह पीढ़ी दर पीढ़ी महामंत्री तक ही हो सकता था । उसका कार्य स्वयं निरीह संतोषपूर्ण जीवन जीते हुए दूसरों को भी निरीह-दयनीय महान बनाना था ।
कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के कारण सबके पास भूसम्पत्ति न होने के कारण सामाजिक-सांस्कृतिक कर के रूप मे दान देने को महिमामंडित किया गया । यक एक तरह से राजस्व का विकेन्द्रीकरण था । इससे राजा बदलने या अराजक समय मे भी सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं का आर्थिक पोषण बाधित नहीं हुआ । लेकिन इसी दान-व्यवस्था के सांस्कृतिक अवचेतन ने आधुनिक काल मे घूस लेने और पहचाने कि नैतिक आधार तैयार किया । क्योंकि साक्षरता का पारिवारिक संस्कार होने के कारण आधुनिक काल मे ब्राह्मण-पुत्रों के लिए शिक्षित होकर नौकरियों मे आना आसान था ,इनकी अधिक संख्या ने दान लेने के स्थानापन्न के रूप मे घूस लेने को नैतिकता से मुक्त कर दिया और इसे असंवैधानिक प्रचलन मे लालबहादुर दिया । यह सब अवांतर प्रसंग धर्म और ईश्वर से सम्बन्धित लगते तो हैं लेकिन वास्तव मे हैं नहीं ।
मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टि से ईश्वर हमारी अभिभावक और जन्मदाता प्रकृति ,पारिवारिक धरातल पर पिता,राज्य के धरातल पर राजा ,राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री आदि का मनोवैज्ञानिक प्रत्ययीकरण है । एक रहस्य यह भी है कि मकान बना लेने के पहले तक हमारे जंगली पूर्वज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अपने समूह पर ही निर्भर रहे । भेड़ियों, हाथियों और चींटियों की तरह मनुष्य भी एक सामाजिक प्राणी है । जैसा कि इन सभी सामाजिक प्राणियों मे अकेले रहने की एक नैसर्गिक अनिच्छा देखने को मिलती है । हम सभी को अपना एकाकी जीवन व्यर्थ लगने लगता है । अकेलापन एक अपूर्ण का अहसास कराता है । माता-पिता और समाज की अनुपस्थिति मे ईश्वर का सर्वव्यापी प्रत्यय इसी रिक्त स्थान की पूर्ति मे अवस्थित रहा है । इन विचारों से अलग ईश्वर और धर्म के नामपर हमारे पूर्वजों द्वारा अन्वेषित समझदारी और जीवनानुभव भी एक जीवन-पद्धति और मूल्य-व्यवस्था के रूप मे हमे विरासत में प्राप्त हुए है । इनकी जांच-पड़ताल तथा ग्रहण-त्याग के विवेक ने ही मुझे अपनी आस्था और विवेक के ईश्वर को बदलने का साहस दिया है । इस कृति के नामकरण के औचित्य का एक आधार यह भी है कि लोगों के विवेक की जड़ता प्रायः उनके समुदाय और समाज के विवेक के सापेक्ष होती है । मैने अपने ज्ञान और विचार के प्रकाश मे अपनी आस्था और ईश्वर की अवधारणा को बदला है । हाॅ, इतना मै अवश्य चाहता था कि यह कृति दूसरों को अपनी आस्था को बदलने की चुनौती तो दे लेकिन संवेदनशील होने के कारण अपने समूह के विवेकसम्मत बने रहने की आजादी हिंसक ढंग से न छीने । क्योकि भावी आस्था की खोज पूरी मानवजाति को करनी है और यह प्रक्रिया मानवजाति के अस्तित्व-पर्यन्त पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहेगी ।
रामप्रकाश कुशवाहा

मूर्ति-पूजा और भारतीय धर्म

मूर्ति-पूजा और भारतीय धर्म

संस्कृत जैसी व्यवस्थित भाषा का विकास करने मे सक्षम भारतीय धर्म तथा संस्कृति(मूर्ति, मन्दिर एवं पूजा पद्धति आदि ) अपनी प्रकृति मे प्रतीकात्मक तथा चारित्रिक आख्यान के रूप मे होने से प्रायः साहित्यिक प्रकृति के हैं । इसीलिए मै इन्हे कबीलाई धर्मों की तरह विशुद्ध अन्धविश्वास की तरह ही नहीं देख पाता । भाषावैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक आधारो पर मै मिथकीय प्रतीकों के कूट अर्थ को तोडने का प्रयास करता रहता हूँ । ऐसा करने की प्रेरणा मुझे उन कबाडियो से मिलती है जो निष्प्रयोज्य के विसर्जन से पहले उनमें से धातुओं को निकाल लेते हैं । मैं यह नहीं भूलता कि बुद्ध काल तक हमारा अतीत विचारपूर्ण बहसों का था। साधना का लक्ष्य जीवन का परिष्कार था और कपिल , चार्वाक और वृहस्पति जैसे अनीश्वरवादी चिन्तक भी हुए हैं ।
गीता हो या पतंजलि के योग-सूत्र, महावीर हो या बुद्ध सभी की चिन्ता सभी की चिन्ता मानव-मन के नियमन की ही रही है । वै अपराध कितना कम कर पाए यह एक अलग प्रश्न है लेकिन उन्होने एक शिष्ट जीवन-पद्धति देकर जीवन एवं समाज का सामूहिक प्रबन्धन करने का प्रयत्न अवश्य किया । वे मस्तिष्क को इस सीमा तक प्रशिक्षित करने में तो सफल हुए ही कि अन्तःस्रावी ग्रन्थियाॅ के क्रिया-कलाप भी मानव-मस्तिष्क के विवेक की सीमा मे आ जाएँ । अकरणीय या वर्जनाओ से सम्बन्धित कुछ सांस्कृतिक युक्तियाँ भी आधुनिक मनोविज्ञान सम्मत हैं । जातीय एवं स्थानीय होते हुए भी उनकी काव्यात्मक भावोदात्तता एवं सामाजिक सार्थकता पर रीझने को मन करता है । जैसे ब्रह्मचर्य आश्रम के नाम पर पचीस वर्ष तक यौन हारमोनो का सिर्फ सामना करने के लिए देना आज की वयस्कता आयु-सीमा से भी अधिक है । भाई और बहन के बीच रक्षाबंधन जैसे त्यौहार, छोटे भाई की पत्नी का बडे भाई से विवाह की अनुमति न देना आदि ऐसी ही रेखांकित करने योग्य वर्जनाएं हैं । हर आता हुआ नया पुरुष अपनी ही देह के भीतर एक युद्ध लड़ता और जीतता हुआ आता है । अपने ही जीवन के वेगों को जीतने के लिए किया जाने वाला युद्ध ।
                आधुनिक मनोविज्ञान भी इस तथ्य का समर्थन करता है कि इन्द्रियों द्वारा प्राप्त किसी संवेदना का प्रत्यक्षीकरण मस्तिष्क की धारणाओं, विश्वासों तथा व्याख्याओं के अनुरूप होता है । आध्यात्म के नाम पर अनेक सोद्देश्य किन्तु काल्पनिक और हास्यास्पद अवधारणाओं के बावजूद सांस्कृतिक नियामक झूठ बोलकर भी अनेक पशुओं, पक्षियों तथा वनस्पतियों सहित पर्यावरण को अधिकतम सीमा तक बचाने मे सफल रहे हैं । इस विधि से संरक्षित पर्यावरण में पितर घोषित कौओं से लेकर बन्दर, चूहे, सर्प,नीलकण्ठ,उल्लू,हाथी ,सिंह, और गाय-बैल ,नदियाँ सभी शामिल हैं ।
               व्यवस्थित ढंग से संघ यानि संगठन बनाकर ,आज के शब्दों मे कहें तो संस्थागत रूप से लोगों तक अपने आदर्श के अनुरूप विचार पहुँचाने का कार्य गौतम बुद्ध ने किया था । उनके पहले लोक को उनकी भाषा मे ही संबोधित करने की चिन्ता और किसी मे नही दिखती ।उनके पूर्व के जननायकों के यश का आधार अभिजन या विशिष्ट वर्गीय स्वीकृति रही है । बुद्ध को लम्बा जीवन मिला था । लोक के लिए बोधगम्य दृष्टान्त कथाएं जिन्हे जातक कथाएं कहा गया खूब रची गयीं । भव्य व्यक्तित्व के कारण बुद्ध को ही प्रतिमान के रूप मे विज्ञापित किया गया । संगठन और संसथाओ की अपनी सामूहिकता होती है । पूरा जीवन समर्पित कर चुके बुद्ध के अनुयायियों के पास इतना जीवन-समय था कि वे 'अप्प दीपो भव 'की चिन्ता छोड़ कर बुद्ध की मूर्तियों की रचना मे लग गए । ऐसा लगता है कि विदेशों मे बहुत से ऐसे भी धर्म प्रचारक पहुँचे जो बुद्ध का दर्शन फैलाने के स्थान पर आजीविका के लिए मूर्ति स्थापित कर पूजा करवाने मे लग गए । अरब वगैरह तक पहुँचते-पहुँचते यही बुद्ध मात्र मूर्ति स्वरूप बुत हो गये । ऐसा लगता है कि मुहम्मद साहब ने इस्लाम प्रवर्तन के समय जिन बुतो को तुड़वाया होगा -व्हाॅ बौद्ध धर्म के दार्शनिक पक्ष से पूरी तरह अनभिज्ञ बुद्ध की मूर्तियों की सिर्फ पूजा करने वाले पुरोहित रहे होंगे । यह भी कि असली दार्शनिक बौद्ध धर्म विश्व के बहुत से हिस्सों में नहीं पहुँचा । या फिर पूर्व प्रचलित शिवलिंगो की पूजा की तर्ज पर बुद्ध यानि बुत पूजा भी सुदूरवर्ती क्षेत्रों में प्रचलित रही ।
               साफ है कि भारत मे भी बौद्ध धर्म को पहले मूर्तिपूजा मे बदला गया और फिर उनको देखते हुए बुद्ध की तर्ज पर दूसरे पौराणिक नायकों की भी मूर्तियाँ बनने लगीं । मूर्तिपूजा से दिमाग को आराम मिला और चढावे की संस्कृति विकसित हुई । जैसा कि प्रायः देखने मे आता है कि पेशे विचार और दर्शन को भी बाजार की एक उपस्थिति मे बदल देते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्ध काल से पहले का प्राचीन भारत मूर्तियों और मन्दिरों का देश नहीं रहा है । उनके पास ग्रामीण एवं नागरिक समाज थे जिनमें वैचारिक बहसे चलती रहती थीं । ऐसा नहीं है कि उनके पास आस्धा की पथराई हुई शिलाएँ बिल्कुल नहीं थी । भोले माने जाने वाले सबसे सरल अनगढ़ पाषाण- देवता आदि शिव तब भी थे । स्त्री-पुरुष के सृजनांगो तथा ब्रह्माण्ड के अनगढ़ प्रतीक के रूप में । बुद्ध के पहले की आस्था का स्वरूप साहित्यिक आख्यानों और विमर्शो के रूप में रहा है । इसीलिए ऐतिहासिक यथार्थ को देखते हुए मुझे मूर्तियों और मन्दिरों वाला भारतीय धर्म कम बुद्धि के लोगों एवं बच्चों के लिए लगता है । इन मूर्तियों का वास्तविक रहस्य इनके साहित्यिक पाठ मे है । पौराणिक नायकों के प्रतीकार्थ और चारित्रिक आख्यानों मे है । सिर्फ उन अंशो को छोड़कर जिसे अपनी आजीविका और पेशेवर स्वार्थ के कारण पुरोहित वर्ग ने लोगों का भयादोहन कर अर्थार्जन के लिए रची हैं ।
           इस दृष्टि से राम भी हमारी सभ्यता के बीज-पुरुष ही लगते है । वे एकल दाम्पत्य के आदि प्रतिमान हैं और किसान-सभ्यता की कौटुम्बिक संरचना का भी । इस दृष्टि से हर वह व्यक्ति जिसने अपने जीवन पर्यन्त किसी एक ही महिला से विवाह का संकल्प ले रखा हो -मुझे राम का प्रतिरूप ही लगता है । संभवतः तुलसीदास जी ने भी इसी दृष्टिकोण से ही 'सिया राम मय सब जग जानी ' कहा था । यह अकारण नही है कि आराम मे भी राम है और हराम मे 'हे राम' यानि शिकायत के रूप में है
इससे पता चलता है कि अरबी और फारसियो के पुरखे भी राम से प्रभावित देश रहे ही होंगे । एक विवाह करने वाले ईसाइयों और मुसलमानों को भी राम का अनुगामी तो माना ही जा सकता है । यद्यपि जो लोग होमर की कृतियों और ट्राय युद्ध से परिचित होंगे या सिकन्दर की लड़ाइयों से भी परिचित होगे , उन्हे रामकथा के अनेक अंश समानधर्मा लग सकते हैं । लेकिन इतने लम्बे काल तक चले कुलीनतंत्र मे सन्तानहीन होने के कारण किसी राजवंश का खतरे मे पडना और नियोगप्रथा द्वारा वंश चलाने का प्रयास असंभव नही लगता । मैने कुछ भिन्न आधारों पर भारतीय अतीत की पडताल की है । जिससे सम्बन्धित आलेख मेरी प्रकाशनाधीन पुस्तक-"सभ्यता का पुनःपाठ " मे है ।
रामप्रकाश कुशवाहा
93/01/2020