यदि मुझसे पूछा जाये कि मानव-जाति के सतत
विकास-क्रम में साहित्य और दर्शन की सही भूमिका क्या हो सकती है या क्या होनी
चाहिए ? तो प्राचीन
भारतीय मनीषियों की तरह मैं भी यही कहना चाहूंगा कि मुकित ! लेकिन मैं मुकित की
अवधारणा को नए सिरे से परिभाषित करना चाहूंगा । मुकित का यह संघर्ष मेरे लिए
साभ्यतिक अभियानित्रकीकरण से मानव-चेतना को मुक्त करनें के लिए होगा । इसीतरह साहितियक
सृजनशीलता को मैं मानव-मन की संवेदनात्मक आदिमता या मूल-स्वभाव के पुनप्र्रापित की
तरह देखता हूं । इस तरह देखें तो ये दोनों ही भिन्न किन्तु जरूरी मनन-प्रक्रियाएं
हैं-एक-दूसरे से विपरीत किन्तु सहवर्ती एवं पूरक भी ।
आम धारणा के विपरीत दार्शनिकीकरण
अवधारणाओं के जटिल मनो-संसार को अर्थ के सामन्जस्य एवं सरल सूत्रीकरण की ओर ले
जाता है । यदि कोर्इ दर्शन इसके विपरीत आचरण में है तो संभव है कि वह
विद्वता-प्रदर्शन एवं ज्ञान-विलास के रूप् में हो । प्राचीनकाल से ही हम देख सकते
हैं कि संकल्पनात्मक धारणाओं के केन्द्रक किस प्रकार एक बड़े ज्ञानात्मक समाज की
रचना करते रहते हैं। कम्प्यूटर की भाषा में कहें तो इनकी भूमिका एक परिष्कृत
साफटवेयर की तरह ही होती है ।
सच तो यह है कि सभ्यता के जटिल विकास के
साथ मनुष्य का ज्ञान ही उसे अभिशप्त करता जाता है । ऐचिछक-अनैचिछक,उचित-अनुचित
संज्ञापन उसके संज्ञान को विभाजित करते जाते हैं । संज्ञान और संज्ञापन का का
तिलिस्म जिस जटिल मनोसृषिट का निर्माण करते हैं ,उसके अतिक्रमण का विज्ञान ही दर्शन होना चाहिए
।
दार्शनिकों के इतिहास में मार्क्स का
अवदान कर्इ दृषिटयों से अनूठा है । मार्क्स नें दर्शन की सृजनात्मक चुनौती को
सिर्फ अवधारणाओं की दुनिया को ही नहीं,बलिक वास्तविक दुनिया को बदलने की चुनौती के
रूप् में भी देखा । इसतरह मार्क्स सिर्फ मानव-सभ्यता की दार्शनिक अवधारणा का ही
नहीं,बलिक सभ्यता की
वास्तविकताओं का भी अतिक्रमण करनें का प्रयास करते हैं ।मार्क्स नें वैयकितक
संज्ञापन की पूंजीवादी,भाग्यवादी या दैवी-परम्परा को को संज्ञापन की आर्थिक वर्गीय
अवधारणा से विस्थपित किया ।
यदि मार्क्सवाद के बाद का दर्शन साभ्यतिक निष्क्रमण और अतिक्रमण नहीं घटित कर पा रहा है तो यही कह
सकते हैं कि अनेक विचारकों द्वारा दुनिया को समझने ंके लगातार चल रहे प्रयासों के
बावजूद हम अवधारणात्मक
शोर एवं दिशाहीनता के शिकार हो गए हैं ।
वर्तमान मानव-जाति की मुख्य त्रासदी यह है कि वह
वैशिवक धरातल पर जिन दो-तीन सांस्कृतिक प्रोग्रामों-साफटवेयरों से संचालित है ,वे कर्इ धरातलों
पर इतनें अलग और असंवादी हैं कि वे मानव-मात्र की जातीय एकता से अधिक जातीय
भिन्नता का विज्ञापन और प्रचार करती है । सावधानी से निरीक्षण करनें पर हम पाते
हैं कि सांस्कृतिक अचेतन और आदतें इतनी निर्णायक है। कि उनकी परिधि में दर्शन,धर्म,राजनीतिक व्यवस्थाएं
एवं सामाजिक व्यवहार सभी कुछ आ जाते हैं । यह सच है कि इन सांस्कृतिक आदतों,विश्वासों और
विचारों का विकास हजारों वर्ष में हुआ है ,लेकिन यह भी सच है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के
विकास के साथ न सिर्फ हम उन्हें विश्लेषित करनें की सिथति में हैं; बलिक उनको समझ
सकते हैं ; व्याख्या कर सकते हैं ;बलिक उनके अनुसार संचालित होनें से अस्वीकार कर सकते हैं।
उनका अतिक्रमण कर सकते हैं और उन्हें बदल भी सकते हैं । इन आदतों में एक सामाजिक
आदत क्रानित ,बदलाव और उसके लिए नायक की खोज की भी
है । यधपि क्रानित रोज नहीं होती लेकिन हमारी सभ्यता और ऐतिहासिक स्मृति का
एक बड़ा भाग क्रानित-चर्चा को ही समर्पित रहनें से हमें उकसाती रहती है कि हम
क्रानितकारी बनें । वैसे विश्व स्तर पर क्रानित का सबसे बड़ा प्रायोजक देश अब भी
अमरीका ही बना हुआ है । हिन्दी साहित्य में भी मेरे कर्इ मित्र रचनाकार क्रानित की
अदभुत पैरोडी करते हुए प्रचुर क्रानितकारी साहित्य लिख चुके हैं । व्यकितगत रूप से
मैं उन्हें हमेशा ही अविश्वसनीय,अवसरवादी, अभिनयकर्ता तथा नक्काल ही मानता रहा हूं,क्योंकि वे मुझे
भविष्य की संभावनाओं के अन्वेषी नायक कम,अतीत की स्मृति के वाहक नायक अधिक लगते रहे हैं
। इस टिपपणी के बावजूद कुछ मित्रों में क्रानित की
र्इमानदार चिन्ता एं भी मैंने देखी है ।
क्रानित मानव-सभ्यता में बदलाव और परिवद्र्धन
के लिए आवश्यक होते है। वैसे तो सृजनात्मक और विकासवादी बदलाव सतत होते रहना चाहिए
। इस प्रकि्रया का अवरुद्ध होना ही क्रानित को ऐतिहासिक औचित्य और पृष्ठभूमि देता
है । यह मानने के पर्याप्त आधार है कि मानव-जीवन की हत्या पर आधारित कोर्इ भी
क्रानित मानव जाति की आदिम हत्यारी बर्बरता लिए एक संवेदनशून्य अमानवीय समाज की
रचना करेगा- इस दृषिट से व्यकितगत रूप् से मैं उसकी सैद्धानितक संस्तुति करनें से
बचता रहा हूं । इसके बावजूद ऐसी किसी भी सत्ता को; जो अपना नैतिक आधार तथा संभावनापूर्ण भविष्य की दृषिट और स्वप्न खो
चुकी हो तथा सिर्फ अपनी हत्या करने की शकित के आतंक के आधार पर ही वर्तमान में बनी
हुर्इ हो,फांसी की अपरिहार्य
सजा की तरह ,उसका बलपूर्वक उच्छेद भी कर्इ बार अपरिहार्य
लगनें लगता है । यह एक तथ्य है कि सारे मूल्य सापेक्ष होते हैं और यदि कोर्इ
समुदाय सांस्कृतिक र्इकार्इ के रूप में हो तथा दूसरे समुदाय की स्वतंत्रता और
अधिसकसा का सम्मान नहीं कर रहा हो तो उसके साथ वैसा ही व्यवहार करने का औचित्य
बनता है ।
फिलहाल क्रानित असंतुष्टों और
भविष्यजीवियों का स्वर्ग है । कर्इ बार वह
पेशेवर रूप में भी गैरजरूरी एवं व्यकितगत क्रानितकारी बनने की महत्वाकांक्षा की
सृषिट करते भी दीखती है । इसके बावजूद सतत सृजनात्मक क्रानित एवं बदलाव मानव-जाति
के असितत्व के लिए आवश्यक है। बदलाव की आवश्यकता और दिशा क्या हो सकती है;जबकि मानव-जाति
एक प्रवहमान जैविक असितत्व है ,अब तक के अधिकांश दार्शनिक विजन एक सिथर समस्यात्मक समाज की
परिकल्पना पर आधारित है । उन्होंने उस जनसंख्यात्मक विस्फोट की परिकल्पना नहीं की
थी ,जो एक बन्द
सिलेण्डर में हाइडोजन के परमाणुओं की तरह घनत्व बढ़ते जानें पर तेजी से टकराते हुए
सिलेण्डर को ही गर्म करते जाते हैं और एक दिन विस्फोट पर पहुंचा देते हैं ।
मार्क्सवाद क्रान्ति रूपी इस उन्मादी
यिस्फोट का आवश्यकताओं से जोड़कर देखता है ,जबकि पूंजीवादी विद्रोह महत्वाकांक्षी
प्रतिस्पद्र्धा से भी संचालित होते हैं । इतिहास की अनेक क्रान्तियाँ विशेषकर
सत्ता-परिवर्तन समस्याओं के वास्तविक आधारों पर कम बलिक सामूहिक असुरक्षा और विश्वासहीनता को व्यकितगत योग्यता के झूठे
आश्वासनों के साथ तनावग्रस्त समुदायों को गुमराह करते हुए या फिर आपराधिक शैली में
संगठित समूहों द्वारा घटित की गर्इ है। कर्इ बार सार्वजनिक व्यवस्था के ढांचे का पिछड़ापन
भी आक्रोश की वजह बना है तो कर्इ बार उनके नियम,कानून और मूल्य ।मार्क्सवाद संसाधनों के समान
वितरण और विभाजन के सपने पर आधारित है तो तानाशाही एवं लोकतानित्रक व्यवस्था में
नेतत्व के नाम पर व्यकित-परिवर्तन ही बड़ी हिंसक क्रानितयों की अनितम परिणति होते
हैं ।
यह एक तथ्य है कि मार्क्सवाद पूंजीवादी
व्यवस्था की प्रतिक्रिया में पैदा हुआ था । लेकिन देखनें की बात यह है कि
कृषि-युगीन सभ्यता से यन्त्र-आधारित औधोगिक सभ्यता तक मानव-जाति की विकास- यात्रा
में तकनीक और श्रम का स्वरूप बदलनें के बावजूद सम्पतित की अवधारणा में कोर्इ
रूपान्तरण नहीं हुआ था । कृषि-सभ्यता के
जमींदार और सामन्त (बूजर्ुआ) की जगह उधोग या मिल-मालिक पू।जीपति नें ले ली । कृषि
में मानवीय श्रम की आवश्यकता अल्पकालिक होती है । इस वस्तु-सिथति नें अल्पकालिक
कृषि-मजदूर को पूर्णकालिक औधोगिक-मजदूर में बदल दिया था । इसनें मनुष्य को आर्थिक
सत्ता का गुलाम बनाना शुरू कर दिया था। एक ऐसी आर्थिक गुलामी का सृजन किया जो
मानव-इतिहास में अभूतपूर्व था । उधोग में तकनीकी आविष्कारों की गोपनीयता स्वामित्व
और शोषण की नर्इ परिसिथतियां सामनें लाती है । कम्पनी अपनें तकनीकी उत्पाद की
गोपनीयता बनें रहनें तक अपना प्रभुत्व बनाए रख सकती थी - मांग और आपूर्ति की
लोकप्रियता के अतिरिक्त । भारत में अनेक पेशेवर जातियों के निर्माण में वंशानुगत
उत्तराधिकार मेंं मिली पेशेवर योग्यता और उसकी गोपनीयता का भी योगदान रहा है ।
दरअसल माक्र्सवाद के सन्दर्भ में हुआ यह है कि
उन्नीसवीं शताब्दी की अवधारणाएं लेकर बीसवीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध और इक्कीसवीं
शताब्दी के पूर्वाद्र्ध के पूंजीवाद पर विचार करनें वाले बुद्धिजीवी पूंजीवाद
के संरचना और व्यवहार को प्राय: समझ ही नहीं पाये हैं । हुआ यह है कि स्वयं मार्क्स बि्रटिश राजनीतिक सत्ता के स्वर्णिम काल साम्राज्यवाद के युग में पैदा हुए थे ।
इसीलिए अपनी प्रतिक्रिया में वे सर्वहारा के अधिनायकत्व से अधिक नहीं सोच सके ।
अपनी साम्यवादी सैद्धानितकी के बावजूद मार्क्स पूंजीवादी राजनीतिक सत्ता के
साम्यवादी सत्ता में रूपान्तरण के सपनें देखने वाले विचारक थे ।
सत्ता की यह नयी अवधारणा एक नर्इ राजीतिक व्यवस्था और व्यवहार की मांग कर
रहा था । लेकिन घ्यान से देखनें पर स्पष्ट हो जाता है कि बीसवीं शताब्दी के बाद का
युग राजनीतिक सत्ता के ह्रास का युग है । यधपि राजनीतिक सत्ता एक पारम्परिक संरचना
के रूप में अब भी बची हुर्इ है ,लेकिन शकित का केन्द्र औधोगिक सत्ता में स्थानान्तरित हो
गया है । यह आर्थिक सेनाओं और आर्थिक सामा्रज्यवाद का युग है । देशों की जगह
बहुराष्टीय औ?ोगिक कम्पनियों के सामा्रज्य नें ले ली है । इस तरह मार्क्स का सर्वहारा भी
स्थानीय न रहकर वैशिवक सर्वहारा बन चुका है ।
औधोगिक सत्ता के वेतनभोगी की तरह वह एक औधोगिक सैनिक की तरह व्यवहार कर रहा
है ; न कि सर्वहारा की
तरह। अपनी विशेषज्ञ दक्षता एवं बुद्धिवाद से औधोगिक पूंजीवदी सभ्यता नें बहुत ही
चालाकी से कृषि-मजदूर को अपना गुलाम बना लिया है ।
आज के शोषण की मानवीय त्रासदी शोषक
एवं शोषितों के परम्परागत रूप् एवं अधिरचनाओं में नहीं,बलिक दक्ष-अदक्ष,योग्य-अयोग्य के बड़े सामुदायिक विभाजन के रूप्
में घट रही है । यह 'सरवाइवल आफ द
फिटेस्ट यानि योग्यतम की विजय का सबसे क्रूरतम दौर है । जो अज्ञानी है वह मारा
जाएगा ।
स्पष्ट है कि मार्क्स के समय का स्थानीय पूंजीवाद वैशिवक पूंजीवाद में बदल गया है । व्यवस्था का
पूंजीवादी सर्प वहां नहीं है,जहां उसके होने की कल्पना मार्क्स नें अपने साम्यवाद में की
थी । दरअसल मार्क्स जिस समय अपनी सैद्धानितकी दे रहे थे-उस युग की भौतिक परिसिथतियों
में सर्वहारा किसे कहा जाय यह भी एक विचारणीय प्रश्न है । सामन्ती एवं
कृषि-व्यवस्था में कृषि-कार्य में लगे या न लगे सभी भूमिहीनों को सर्वहारा कहा जा
सकता है ; लेकिन शहरी
औधोगिक व्यवस्था में प्राय: उनका ध्यान
क्रानित- कारी आवेश से औधोगिक मजदूरों को संबोधित करनें का था , न कि बेरोजगारों
और भिखारियों को ।
भारत जैसे अधिक
जनसंख्या वाले देश में स्वाभाविक है कि औधोगिक मजदूरों को पूंजीवाद का हिस्सा मान
लिया जाएगा ,क्योंकि यहां क्रानित के लिए बेरोजगार सुगमता से उपलब्ध हैं । बेरोजगारों में
भी दक्ष,प्रशिक्षित या
योग्य तथा अदक्ष,अप्रशिक्षित या अयोग्य दो भेद किए जा सकते हैं ।
ऐसे में मजदूर आन्दोलन भारत में इसलिए
सफल नहीं हो सके कि भारतीय पूंजीपति उनके क्रन्तिकारी असहयोग की सिथति में उनके
विकल्प दक्ष बेरोजगारों को पानें में समर्थ थे । दूसरा यह की यहाँ उतना व्यापक पूंजीवाद भी नहीं था .स्वयं मार्क्स जिस ब्रिटेन में बैठे थे ,वहां इस लिए भी मार्क्सवादी क्रांति होना संभव नहीं था कि एक साम्राज्यवादी देश होने के कारण पूरा देश ही पूंजीपति की भूमिका में था .उसका मजदूर या सर्वहारा भी उच्चा जीवन -स्तर वाला एक पूंजीपति सर्वहारा था .शोषित सर्वहारा औपनिवेशिक देशों में स्थानांतरित हो गए थे . हुआ यह था कि माक्र्सकालीन
योरोपीय देश औपनिवेशिक एवं साम्राज्यवादी विस्तार के दौर से गुजर रहे थे । उनके
पास अपने उपनिवेशों में प्रवास करनें के विकल्प थे । इसलिए वे असमानताबोध के लिए
मजदूरों को सर्वहारा मानने एवं संबोधित करनें में समर्थ थे । साम्राज्यवादी योरोप
की उन्न्त व्यवस्था में मजदूर ही व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर था ।
एक और विडम्बना यह थी कि पूंजीपति दक्ष बेरोजगार
युवा को जब अप्रशिक्षित या प्रशिक्षित अवस्था में औधाेंगिक मजदूर के रूप में चुनता
है तो वह सापेक्षता में वास्तविक सर्वहारा जो कि दक्ष बेरोजगार है ,उससे विशिष्ट और
सुरक्षित जीवन जीने ंके कारण एक तरह से पूंजीवादी व्यवस्था का ही अभिन्न अवयव बन
जाता है । ऐसे में अपने से भी हीन बेरोजगारों की बड़ाी फौज को
देखते हुए, भारत में मजदूर वर्ग का अधिकांश कभी यह मानने के लिए मनोवैज्ञानिक रूप् से
तैयार ही नहीं हो सका कि वही वास्तविक सर्वहारा है । इस वास्तविकता की अनदेखी करने
के कारण भारत में मजदूर आन्दोलन प्राय: सांगठनिक स्तर से आगे नहीं बढ़ पाए ।
इतिहास में तीसरी चीज यह देखी गर्इ कि तकनीकी गोपनीयता या एकाधिकार की सिथति में
ही किसी मिल एवं उसके मालिक को ब्लैकमेल किया जा सकता है । अन्यथा बाजार में
प्रतिस्पद्र्धी कम्पनी का असितत्व उसको
दिवालिया बना सकता है । ऐसे में मजदूरों
द्वारा बनाया गया अधिकांश दबाव प्राय: आत्मघाती ही हुआ है और साम्यवादी
आन्दोलनात्मक दबाव प्राय: कम्पनियों को दिवालिया या फिर बन्द करानें में ही सफल
हुए ।
भारत में माक्र्सवादी आन्दोलन के लिए
अनितम प्रतिकूलता यहां ब्राहमण जैसी लचीली जाति का पाया जाना और उसकी प्रभावकारी
सांस्कृतिक उपसिथति भी रही है । इसकी
श्रमविहीन आजीविका की सांस्कृतिक व्यवस्था विशेषकर दक्षिणा और श्राद्ध आदि नें
बड़े पैमाने पर घूस जैसे आर्थिक अपराध को सुविधा -शुल्क के रूप में अपराध-बोध विहीन सामाजिक व्यवहार एवं चलन में
ला दिया । यह चौंकाने वाला लग सकता है लेकिन है सच कि भ्रष्ट नौकरशाही नें भारत
में आर्थिक असन्तोष को कम किया है । अर्थ का अघोषित प्रवाह भारतीय समाज के
प्रकट-अप्रकट ऐसे कोनों को सींचता रहा है ,जिसकी कल्पना भी संभव नहीं है । यह एक सच्चार्इ
है कि भारतीय लोकतंत्र एक कल्याणकारी राज्य की अपनी भूमिका में बहुत सीमित व्यवहार
ही कर सका है । सामाजिक रूप से संयुक्त
परिवार की प्रथा का लोप न होनें से
अयोग्यों,बेरोजगारों,पागलों का निर्वाह संयुक्त परिवार ही करता रहा है । इस दायित्वबोध या फिर
असुरक्षाग्रनिथ नें भी भारत में घूसखोरी और भ्रष्टाचार फैला दिया है । कम वेतन की
नौकरी पा गये हैं,घूस लीजिए ;दहेज देना है,घूस लीजिए ,काम करवाना है ,घूस दीजिए; नौकरी पाना है ,घूस दीजिए ; किसी को पढ़ाना है या बेरोजगार को पालना है ,घूस लीजिए । भारत में उदारीकरण और निजीकरण के पीछे मण्डल या
आरक्षणविरोधी आर्थिक-प्रशासनिक इंजीनियरिंग भी थी जिसकी चर्चा प्राय: नहीं की जाती
है । आरक्षण का उपाय स्ववित्तपोषित शिक्षा-व्यवस्था तथा भुगतान पर मिलने वाली सीटों
से निकाला गया । इससे आरक्षण का प्रभाव और
दुष्प्रभाव दोनो ही केवल सरकारी क्षेत्रों वाले अवसरों तक ही दिखार्इ देता है ।
उधर मंहगार्इ नें अपरोक्ष प्रभाव में लोगों की आमदनी बढ़ार्इ है और दूसरे शब्दों
में लोगों को धनी बनाया है-इस तरह लोग त्रस्त हैं लेकिन मस्त हैं ;दु:खी है ,फिर भी सुखी हैं!
दूरदर्शन से लेकर मोबाइल तक मनोरंजन का एक बड़ा बाजार लोगों को प्रसन्न करनें के
व्यवसाय में लगा हुआ है। मनोरंजन आज उधोग है,व्यापार है और बाजार भी । वैशिवक धरातल पर तो
नाटो से लेकर अमरीका तक फैला हुआ क्रानित भी तो एक उधोग ही हो गया है । आज युद्ध
भी अर्थनीति का ही एक हिस्सा है और सांगठनिक तथा व्यकितगत महत्वाकांक्षा के रूप
में साहित्य के बाजार का भी !