शुक्रवार, 20 मार्च 2020

आस्तिकता और नास्तिकता

आस्तिकता और नास्तिकता 


आस्तिक या नास्तिक होने के प्रश्न पर एक रोचक मनोवैज्ञानिक समस्या की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ । नास्तिक और  नास्तिकता की सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि भाषिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर ईश्वर की अवधारणा को पहले ही स्वीकार कर लेता है । उदाहरण के लिए कोई भी व्यक्ति आस्तिक होने पर ' ईश्वर है ' कहेगा तथा नास्तिक होने पर ' ईश्वर नहीं है ' कहेगा । दोनों ही स्थितियों मे 'है ' से उसका पीछा नहीं छूटेगा । उसका मस्तिष्क एक अनुत्पादक और काल्पनिक संघर्ष मे फंस जाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि आस्तिकता और नास्तिकता दोनो ही विचार हैं । विचारग्रस्तता यदि किसी निर्णय पर नहीं पहुँचाती तो संशय की मनःस्थिति को जन्म देती है । ईश्वर को मानने मे और न मानने मे ऊर्जा व्यर्थ करने से अच्छा है कि इस प्रश्न और विषय को छोड़कर हम स्वयं को ही जिएं । ईश्वर को होने की पुष्टि हो जाए तो फिर ईश्वर की सहमति और असहमति तथा अनिच्छाऔर इच्छा का प्रश्न शुरू होगा यह प्रश्न शुरू होगा कि ईश्वर हमारे पक्ष में है या विपक्ष में -यदि वह स्वतंत्र मस्तिष्क या चेतना है तो । यदि वह हमारी ही चेतना के हिस्से के रूप मे है तो उसके मानने या न मानने से कोई विशेष फर्क नहीं पडने वाला । बुद्ध इसी कारण ईश्वर के होने या न होने के प्रश्न को ज्ञानविलास ही मानते थे । अपनी भूमिका, सामर्थ्य और दायित्व को अनदेखा कर ईश्वर पर सोचना अपने पडोसी के बारे में सोचने के ही बराबर है ।  फिर एक बार ईश्वर की सर्वशक्तिमानता स्वीकार कर लेने के बाद  हमारी अपेक्षाएं एवं प्रत्याशाएं  बढ जाती हैं । हम अपने हिस्से का कार्य भी उसके हवाले करने लगते हैं ।  वास्तविक प्रकृति में  हम  विवेक  और चेतना  का विकेन्द्रीकरण देखते हैं  जबकि आस्तिक ईश्वर के माध्यम से विवेक और चेतना के केन्द्रीयकरण की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं । जबकि वास्तविक प्रकृति मे हर परमाणु और जीवाणु -विषाणु की भी अपनी  हैसियत  है । हमारी काया के भीतर भी हमारी कोशिकाएं हमे संज्ञान मे लाए बिना ही अपने हिस्से का कार्य चुपचाप करती रहती हैं  । 
     बौद्ध धर्म एक अनीश्वरवादी धर्म था । अतीत का भारत इस नास्तिक धर्म को भी जी चुका है । सच्ची नास्तिकता वस्तुतः स्वावलम्बन की साधना है  और ऐसा साधक तथाकथित परावलमबी आस्तिको से श्रेष्ठ होता है ।  यह स्वयं को भी आराम पहुंचाता है और ईश्वर को भी (होने की स्थिति में  )!

बुधवार, 11 मार्च 2020

धर्म पर पुनर्विचार

धर्म पर पुनर्विचार 


इस्लाम एक सेमेटिक यानी सामी मूल का धर्म है जो मूसा के द्वारा प्रवर्तित यहूदी धर्म से अधिक प्रभावित है । यद्यपि कुरान मे सम्मानित पैगम्बरों के रूप में ईसा मसीह को भी याद किया गया है लेकिन कुरान पढने से स्पष्ट हो जाता है कि मुहम्मद साहब ने मूसा के यहूदी धर्म की तर्रज पर ही अपने मुसलमानों की कल्पना की ।। मुसलमान शब्द के अर्थ मुसल्लम ईमान से ही स्पष्ट है कि इस्लाम और कुरान में वैचारिक तर्क़-वितर्क की बिल्कुल ही इजाजत नहीं है । कुरान की आयते अपने अनुयायियों से पूरी निष्ठा की माॅग करती हैं । जैसा कि सभी जानते हैं कि अरबी का बुत शब्द बुद्ध का ही तद्भव है और दूर-दराज के बौद्ध उपदेशक बुद्ध की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा करने लगे थे । बौद्ध धर्म एक अनीश्वरवादी धर्म था और बुद्ध के दर्शन को मूल रूप मे न समझ पाने के कारण ही मुहम्मद साहब ने बुतपरस्ती (बुद्ध की भक्ति) की काफ़ी निन्दा की है । हम सभी जानते हैं कि बुद्ध ने न तो ईश्वर की पूजा करने का उपदेश दिया और न ही अपनी ही पूजा करने के लिए कहा था । मध्य एशिया और अरब तक पहुंचते-पहुँचते बौद्ध धर्म हीनयान और महायान के रूप में विभाजित और विकृत हो चला था । क्योंकि ईसा मसीह के जन्म के समय उन्हें आशीर्वाद देते समय घुमन्तू बौद्ध भिक्षुओं की प्रभावी भूमिका थी-जिन्हे ही ईसाई धर्मग्रन्थों में देवदूत कहा गया है । यही कारण है कि ईसा मसीह के उपदेशों और व्यक्तित्व में बुद्ध का प्रभाव दिखता है ।

ईसा मसीह के उपदेशों के विपरीत मुहम्मद साहब ने अपने कुरान में मूसा के यहूदी धर्म का अनुसरण किया है । कुरान में स्पष्ट लिखा है कि दुनिया की सभी भाषाओं को बोलने वालों के लिए पवित्र धर्म ग्रन्थ एवं पैगम्बर नाजिल किए गए हैं । कुरान सिर्फ अरबी जानने वालों के लिए नाजिल हुई है । मुहम्मद साहब के जीवन काल मे इस्लाम बहुत दूर तक नहीं फैला था । उन्होंने तो अपने जीवनकाल में यह सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन कुरान पढने के लिए सारी दुनिया के मुसलमान अरबी सीखेंगे । मुहम्मद साहब ने यहूदी धर्म में ईश्वर के लिए प्रचलित शब्द यहोवा के स्थान पर ईश्वर का जो नया नामकरण किया वह अल्लाह था । अ मूल स्वर है और अरबी भाषा का पहला अक्षर अल्लिफ है । इस आधार पर हुए ईश्वर के नामकरण अल्लाह का अर्थ हुआ दुनिया में सबसे पहला । पूरे कुरान मे कुदरत के प्रति आश्चर्य का भाव सबसे महत्त्वपूर्ण है । वे प्रकृति को स्वयं मे ही चमत्कार मानते थे । उनके अनुसार कुदरत स्वयं मे ही चमत्कार है । उसको बनाने वाले अल्लाह के प्रति कृतज्ञता (सिजदा) के लिए अलग से किसी प्रमाण या चमत्कार की आवश्यकता नहीं है ।

कुरान का अधिकांश हिस्सा मुसलमानों के लिए आचार संहिता के निर्माण से सम्बन्धित उपदेशों से भरा हुआ है । मुहम्मद साहब ने क़ोई भी उपदेश अपनी ओर से जारी न कर अल्लाह की ओर से ही जारी किया है । ऐसा बार-बार व्यक्त किया है कि जो कुछ भी कहा जा रहा है वह ईश्वर के परामर्श यानी रज़ामंदी से ही कहा जा रहा है ।

ओल्ड टेस्टामेंट के अनुसार मानव इतिहास मे पहला खतना इब्राहीम की पत्नी ने अपने बीमार बेटे को बचाने के लिए बलि प्रथा के प्रतीक के रूप मे किया था । बच्चे के स्वस्थ हो जाने ने पिता इब्राहीम को प्रभावित किया और उन्होंने खतना प्रथा अपने परिवार पर यानी आने वाली पीढ़ियों पर लागू कर दिया । बाद मे एक काफिले के साथ मिश्र जा पहुंचे यूसुफ जब अपनी योग्यता से वहाँ के शासक के मंत्री बन गए तो अपने भाइयों को भी मिश्र बुला लिया । कई पीढ़ियों बाद खतना के आधार पर ही शिनाख्त कर मूसा ने यहूदियों को एक जुट कर अपने देश इजरायल जाने लिए मिश्र से निकाला । मूसा के नेतृत्व में यहूदियों ने जो विजय हासिल की उसने यहूदियों से अलग बची शेष अरबी जनसंख्या को कुण्ठित कर रखा था । मुहम्मद साहब ने मुसलमानों मे भी अल्लाह के नाम पर खतना प्रथा प्रचलित कर यहूदियों के समानान्तर अरबी लोगों को इस्लाम दे दिया । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह हुई कि यह सब यहूदी लोग एक ही पूर्वज की सन्ताने हैं । कोई दूसरा स्वयं को यहूदी घोषित नहीं कर सकता लेकिन ईसाई धर्म की तरह मुहम्मद साहब ने किसी को भी मुसलमान बनने की इजाजत दी है । जन्म पर आधारित होने के कारण यहूदी अल्पसंख्यक ही रह गए । जबकि मत परिवर्तन की इजाजत देने के कारण इस्लाम धर्म ईसाई धर्म की तरह पूरी दुनिया में फैल गया

बाइबिल के ओल्ड टेस्टामेंट के मूसा के नेतृत्व में मिश्र से यहूदियों के महा-निष्क्रमण का वर्णन अत्यन्त विस्तार से किया गया है ।| मूसा जब पहाड़ी पर चढ़ कर चिंतन कर रहे थे,उस समय अपने अनुयायियों की धैर्यहीनता तथा सभी के सोने को पिघलाकर एक देवता बनाकर पूजने का प्रयास करने वाले अपनें ही बीच के दूसरे नंबर के नेतृत्व को तथा उसकी बात मानने वालों को बर्बरतापूर्वक हत्या करवाते हैं | यहूदियों के लिए मूसा के निर्देश कितने महत्वपूर्ण थे कि बहुत बाद में ईसा मसीह को भी उसी के आधार पर सूली यानि ऊँचे पर लटका दिया गया | यहूदी आज भी मूसा के उपदेशों से ही संचालित होते हैं जबकि ईसा मसीह के अनुयायियों नें बाद में यहूदियों को समझना छोड़ कर दूसरी जातियों को उपदेश देना शुरू किया | यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्र की अवधारणा का जन्म भी मूसा के द्वारा यहूदियों को संगठित करने की घटना से ही जोड़ा जाता है | मूसा नें यहूदियों को संगठित किया | उस संगठित शक्ति के नेतृत्व में यहूदियों नें नगर के नगर लुटे और भयंकर कत्लेआम कर काला सागर के पास की वह थोड़ी सी जमीन वापस छीनी जो उनके अनुसार उनके पुरखों की थी | यहूदी धर्म की यह जनसँख्या यहूदियों के लिए खतना अनिवार्य करने वाले उनके पहले पैगम्बर ईब्राहिम के लगभग हजार वर्ष बाद जब खतना किए हुए लोगों की एक बड़ी संख्या मिश्र में हो जाती है .बहुत पहले युसूफ के साथ मिश्र में आए यहूदियों के वंशज मूसा के नेतृत्व में एक -दूसरे को पहचान कर मूसा के नेतृत्व में मिश्र से बाहर निकलने का सफल प्रयास करते हैं |एक संगठित सैन्य शक्ति के रूप में एक लड़ाकू धर्म ,जाति और राष्ट्र के संस्थापक बनते हैं जो यहूदी कहलाती है | मूसा नें यहूदियों को संगठित सैन्य शक्ति के रूप में जो नया चेहरा दिया उसका धर्म की मानवीय संवेदना से कुछ लेना-देना नहीं था | वह इस अंधी आस्था पर आधारित था कि यहोवा के नाम पर जिसका भी खतना हुआ है ,वह दूसरे मनुष्यों से विशिष्ट है | यह सीधे-सीधे दूसरों को हेय और स्वयं यानि यहूदियों को श्रेष्ठ समझने वाला धर्म था | यह विशिष्टता-बोध जीता था और दूसरों का अपमान करता था | इस्लाम के प्रवर्तक स्वयं मुहम्मद साहब के ऊपर भी नीचा देखने की भावना से कूड़ा फेकने का जिक्र मिलता है | इस प्रकार धर्म के नाम पर संगठित श्रेष्ठता और संगठित अपमान करने वाली कट्टरता का सम्बन्ध यहूदियों से है |

जैसा कि मैने पहले भी संकेत किया है- मुहम्मद साहब नें इस्लाम की खतना प्रथा यहूदियों से ही ली थी |.हाँ अरबी भाषा के पहले अक्षर अल्लिफ के अनुसार उन्होंने ईश्वर को यहोवा न कहकर अल्लाह कहा जिसका आशय था सृष्टि में पहला (जैसे अल्लिफ अरबी वर्ण माल का पहला अक्षर है उसी प्रकार दुनिया के पीछे सक्रिय पहली शक्ति को उन्होंने अल्लाह कहा | मुहम्मद साहब की जीवन गाथा पढ़ाकर ऐसा लगत है कि प्रारम्भ में उनका उद्देश्य गौतम बुद्ध और ईसा मसीह की परंपरा का ही मसीहा बनने का था लेकिन जब विरोधियों द्वारा उन पर प्राणघातक हमले बढ गए तो उन्होंने अपना रास्ता मूसा की शैली का कर लिया | खतना और कट्टरता दोनों ही इस्लाम में मूसा के यहूदियों वाली ही रही है | यही कट्टरता जब भारत में आयी तब यहाँ के लोगों को मूर्तिपूजक मानकर वही प्रयोग भारतीयों के साथ भी हुए | प्रतिक्रिया में संगठन के महत्व को देखते हुए मध्य युग में खालसा और सिक्ख पंथ का गठन गुरु गोविन्द सिंह नें किया | वे स्वयं तो मारे गए लेकिन उनकी नीव का भवन बाद में महाराणा रणजीत सिंह के नेतृत्व में सिक्खों नें देखा | ईसाईयों नें ईसा मसीह के नेतृत्व और प्रभाव में सेवा का संगठन बनाया लेकिन मूसा की हिंसक संगठन वाली परंपरा इस्लाम के अनुयायियों की परंपरा सिक्खों में होती हुई ब्रिटिश काल में निर्मित होने वाले हिन्दू संगठनों तक पहुंची | इसे मैं इतिहास में एंटीबाडी बनने की ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में देखता हूँ | वह मुसलमानों की तरह ही एक ऐतिहासिक अनुभव प्रक्रिया का परिणाम है -यह कट्टरता की पर्तिक्रियात्मक प्रक्रिया के रूप में है | हिन्दू नामकरण से लेकर उसका चरित्र गढ़ने तक इस्लाम के ऐतिहासिक अनुभव ही इसे शक्ति और उर्जा देते रहे हैं | मैं आज भी दुनिया की किसी कट्टरता के पीछे मूसा का असहिष्णु और क्रोधी चेहरा झांकते हुए पाता हूँ |

मैं जानता हूँ कि धर्म का यह भारतीय चेहरा नहीं है हाँ इसे संगठन का चेहरा अवश्य कहा जा सकता है -एक ऐसा संगठन जिसे मुस्लिम कट्टरता नें रचा है अपनी प्रतिक्रिया में | भारत के मसीहाओं का असली चेहरा बुद्ध और महात्मा गाँधी के चेहरे से मिलता-जुलता हो सकता है ,ईसा मसीह से भी | मुहम्मद साहब का प्रारंभिक आचरण बताता है कि वे भी ईसा मसीह की तरह के ही पैगम्बर होना चाहते थे लेकिन परिस्थितियों नें उन्हें मूसा की शैली का पैगम्बर बना दिया | मुझे् लगता है कि उनकी आत्मा की शांति के लिए इस्लाम के अनुयायियों को ही आगे आना होगा | वे इंसानियत के प्रति अपने कर्तव्यों को समझकर लचीले बनेंगे तभी वे अपने जैसे सनकी कबीले के बनाने के स्थान पर इंसानियत का एक बार फिर फैलाना देख पाएगे |

( क्योंकि सबसे पहले मूसा नें ही एक ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना की थी जो सिर्फ यहूदियों के लिए हो |यहूदियों को सगा और श्रेष्ठ और दूसरों को पराया मानने वाला दुनिया का पहला सांप्रदायिक संगठन वही था | क्योंकि मुहम्मद साहब नें यहूदियोे की प्रतिस्पर्धा में अपना धार्मिक संगठन 'इस्लाम 'खड़ा किया था ,इसलिए ईसाई धर्म से कुछ कथाएँ लेने के बावजूद इस्लाम यहूदी धर्म का ही प्रति-रूप है | यही कारण है कि जैसे यहूदी दूसरे समुदायों के साथ नहीं रह सकते वैसे ही मुसलमान भी नहीं रह सकते | क्योंकि यह मूसा के शुद्धतावादी नरसंहारों का ऐतिहासिक अचेतन छिपाए है | इस लिए हर बढ़ती जनसँख्या के साथ यह भी अलग राष्ट्र मांगता रहेगाा |दूसरी कौमें नहीं देना चाहेंगी तो उन्हें लड़ना ही होगा | इसराइल ,पाकिस्तान और कश्मीर यह सब एक ही ऐतिहासिक -सांस्कृतिक अचेतन की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं | बिना मानवतावादी आधुनिकतावादी विज्ञानवादी मुस्लिम एवं हिन्दू नवजागरण के मुझे ऐसी धार्मिक-मजहबी ऐसी संकीर्णताओं की समस्या का कोई समाधान नहीं दिखता |

धर्म की पिछली यात्रा को देखकर मैं आज भी आश्चर्य से भर जाता हूँ कि मध्य युग के संगठित अपराधियों नें ईश्वर को भी नहीं छोड़ा |आज भी उनका व्यवहार नहीं बदला है | वे क्योंकि तलवार से हत्या कर सकते थे इसलिए वे इसकी घोषणा कर सकते थे कि ईश्वर उनसे सहमत है | एक मित्र नें मुझसे धर्म की परिभाषा पूछी थी -क्या मैं ऐसा कह सकता हूँ कि प्राचीन काल से ही संगठनों की दादागिरी ही धर्म है | धर्म वही है जिसे विजेता कहता है ....

हिन्दू धर्म भी यहूदियों की तरह एक जन्म आधारित धर्म है । अन्तर यही है कि इसमें सभी श्रेष्ठ नहीं है । भाग्य और प्रारब्धवाद के आधार पर राजा के पक्ष में जनमत तैयार करते ब्राह्मण अपनी भूमिका में बने रहे और उनकी इस भूमिका का लाभ बाद में मुग़ल शासकों को भी मिला | आज भी यह तंत्र आनुवंशिक व्यवस्था का सम्मान करता है | आज के भारतीय लोकतंत्र में ही कई ऐतिहासिक घराने सक्रिय हैं |एक बार निष्ठां तय हो जाती है तो उसमें भगवान की खोज शरू हो जाती है | जिसे देखो और जिधर देखो उधर ही यह तंत्र भक्त पैदा करता रहता है |ये भक्त अपनी जिम्मेदारियों से निरंतर भागते रहते हैं और जिम्मेदारियों का निरवाह करने के लिए एक अदद भगवान की खोज में लगे रहते हैं | यद्यपि इतिहास में कुछ बहुत चालाक ब्राह्मणों नें ब्राहमणों के तटस्थ रहने के जातीय निर्देश को नहीं माना और स्वयं राज सत्ता हथिया ली | इनमें से पुष्यमित्र शुंग का नाम सर्वोपरि है | भारत में गुलामी का मनोवैज्ञानिक वातावरण तैयार करने वाले आध्यात्म के नाम पर समर्पण वादी भक्ति का प्रचार किया गया |

हमारी मनोभूमि तथा सामाजिक-सांस्कृतिक स्वीकृति,प्रशंसा और वर्जनाएं ही हमारे कार्य-व्यवहार तथा आचरण को निर्देशित करने वाली आदतों एवं अभिवृत्तियो के रूप में हमारे जीवन का संविधान रचती हैं । हमारी धार्मिक मनोरचनाएं भी हमारे जीवन के पर्यावरण को दूर तक प्रभावित करती हैं । स्पष्ट है कि इस दुनिया को बदलने के लिए सभी धर्मों के गतयुगीन अनुयायियों को एक साथ समझदार होना होगा और सुधरना भी होगा ।

रामप्रकाश कुशवाहा