भारत में विचारधारा विशेष को जीने और मानने वालों के लिए अच्छे दिन आ गए है। इस लिए कि वे जिस सांस्कृतिक पर्यावरण को जीना चाहते थे ,उसका अब समकालीन राजनीति से अब कोई विरोध और चुनौती नहीं है। उनके विरोधी हतोत्साहित हुए हैं और वे पूरी उन्मुक्तता के साथ अपने चित्त जिएंगे। ऐसे में संभव है कि आध्यात्मिकता का अतिरिक्त महिमामंडन हो. इसमें मुख्य चिंतनीय बात यह है कि भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा समर्पण वादी है। इसमें विरोध और असहमति जीने की कोई सशक्त जातीय परंपरा नहीं मिलती।
मैं भी यह मानता हूँ कि ईश्वर के भरोसे जीना अत्यंत सुखदायी होता है। सच तो यही है कि बचपन में माता-पिता पर आश्रित होने के कारण हम सभी समर्पण और आस्था वादी होते है। यह वह दौर होता है जब हम स्वयं को मिली दुनिया को पूरी तरह सच मानकर उसे पूरी सहमति के साथ जीने का प्रयास करते हैं। लेकिन जैसे - जैसे हम समझदार होते जाते हैं ,यथार्थ जगत के अभावों और अंतर्विरोधों से परिचित होते जाते हैं ,हमारे लिए पूर्ण समर्पणवादी और आस्तिक होना मुश्किल होता जाता है। हम जैसे -जैसे व्यवस्था से मोहभंग के शिकार होते जाते हैं ,वैसे -वैसे भीतर से अपराध-बोध के शिकार होते जाते हैं कि हमारे बचपन का स्वर्ग छिन गया है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी समस्या को ईश्वर पर छोड़ने मतलब सामाजिक स्तर पर दूसरों के विवेक पर छोड़ना भी हो सकता है। यदि हम दूसरों से अयोग्य और मुर्ख है तो आस्तिक और समर्पण वादी होना फायदेमंद हो सकता है , विपरीत यदि दूसरे हमारी तुलना में बेवकूफ औरअयोग्य हुए तो आस्तिक होकर कुछ अच्छा घटने की प्रतीक्षा करना सिर्फ समय बरबाद करना ही होगा। ऐसी आस्तिकता और समर्पण से कोई भला होने वाला नहीं है। इसी लिए असंतुष्टों और बुद्धिमानों के लिए ज्ञानमार्गी होना ही उचित है और मूर्खों तथा अयोग्यों के लिए भक्तिमार्गी होना।
इस इस तरह विश्लेषण से यह तथ्य सामने आया कि अगल-बगल मुर्ख और अयोग्य अधिक हों तो संशयवादी और ज्ञानमार्गी होना ही श्रेयष्कर है। इसके विपरीत यदि अगल-बगल अधिक योग्य और बुद्धिमान व्यक्ति उपस्थित हों ,जिन पर भरोसा किया जा सकता हो तो चुपचाप दूसरों का नेतृत्व स्वीकार कर उन्हें सहयोग देना ही उचित है। ऐसे ऐसे में सिर्फ महत्वकांशा से वशीभूत होकर किया गया विरोध सिर्फ वातावरण ही ख़राब करता है। इससे समाज का भला नहीं होगा।
मैं भी यह मानता हूँ कि ईश्वर के भरोसे जीना अत्यंत सुखदायी होता है। सच तो यही है कि बचपन में माता-पिता पर आश्रित होने के कारण हम सभी समर्पण और आस्था वादी होते है। यह वह दौर होता है जब हम स्वयं को मिली दुनिया को पूरी तरह सच मानकर उसे पूरी सहमति के साथ जीने का प्रयास करते हैं। लेकिन जैसे - जैसे हम समझदार होते जाते हैं ,यथार्थ जगत के अभावों और अंतर्विरोधों से परिचित होते जाते हैं ,हमारे लिए पूर्ण समर्पणवादी और आस्तिक होना मुश्किल होता जाता है। हम जैसे -जैसे व्यवस्था से मोहभंग के शिकार होते जाते हैं ,वैसे -वैसे भीतर से अपराध-बोध के शिकार होते जाते हैं कि हमारे बचपन का स्वर्ग छिन गया है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी समस्या को ईश्वर पर छोड़ने मतलब सामाजिक स्तर पर दूसरों के विवेक पर छोड़ना भी हो सकता है। यदि हम दूसरों से अयोग्य और मुर्ख है तो आस्तिक और समर्पण वादी होना फायदेमंद हो सकता है , विपरीत यदि दूसरे हमारी तुलना में बेवकूफ औरअयोग्य हुए तो आस्तिक होकर कुछ अच्छा घटने की प्रतीक्षा करना सिर्फ समय बरबाद करना ही होगा। ऐसी आस्तिकता और समर्पण से कोई भला होने वाला नहीं है। इसी लिए असंतुष्टों और बुद्धिमानों के लिए ज्ञानमार्गी होना ही उचित है और मूर्खों तथा अयोग्यों के लिए भक्तिमार्गी होना।
इस इस तरह विश्लेषण से यह तथ्य सामने आया कि अगल-बगल मुर्ख और अयोग्य अधिक हों तो संशयवादी और ज्ञानमार्गी होना ही श्रेयष्कर है। इसके विपरीत यदि अगल-बगल अधिक योग्य और बुद्धिमान व्यक्ति उपस्थित हों ,जिन पर भरोसा किया जा सकता हो तो चुपचाप दूसरों का नेतृत्व स्वीकार कर उन्हें सहयोग देना ही उचित है। ऐसे ऐसे में सिर्फ महत्वकांशा से वशीभूत होकर किया गया विरोध सिर्फ वातावरण ही ख़राब करता है। इससे समाज का भला नहीं होगा।