एक भावी प्रधानमंत्री की आत्म-विज्ञपित
मैं प्रधानमंत्री हो सकता हूं
जैसे कि कोर्इ भी हो सकता है प्रधानमंत्री.......
मैं प्रधानमंत्री हो भी सकता हूं और नहीं भी
मैं प्रधानमंत्री हो सकता हूं यदि मैं
भ्ूातपूर्व प्रधानमंत्री का निजी सचिव -
यानि चपरासी भी होता..............
मैं प्रधानमंत्री हो सकता था
यदि कैमरे भूतपूर्व प्रधानमंत्री से मिलने के लिएं
पहले मुझसे उनसे मिलने का समय
और पता पूछते होते..........
मैं प्रधानमंत्री बन सकता था-
यदि पहले मैं दिखलार्इ पड़ता फिर प्रधानमंत्री.........
यदि प्रधानमंत्री मेरे कानों में कुछ कहकर मुस्कराते होते
चाहे वे धीरे से यही पूछते होते कि
तूने मेरी बीबी को गोलगप्पे खिलाये या नहीं ?
कि इतना सुनते ही कैमरों के कान खड़े हो जाते
फलैशों में मच जाती सुनसुनी
कि जब प्रधानमंत्री उससे पूछकर ही प्रधानमंत्री प्रधानमत्री होते तो
फिर वही यानि कि मैं ही अगला प्रधानमंत्री क्यों नहीं हो सकता-सा......
तो मैं प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकता
मुझे प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनना चाहिए.........
जबकिे प्रधानमंत्री बनना इतना आसान कि
प्रधानमंत्री से हंसी-मजाक करने वाला भी
बन सकता हुआ हंसते-हंसते प्रधानमंत्री
एक चौंकाते मजाक में कुछ ऐसे कि -लो!तुझे प्रधानमंत्री किया !
या सेवा निवृत्त होते प्रधानमंत्री का निजी जासूस भी........
पुस्तकानुसार मतदान के ठीक पहले तक
सभी ही हो सकते प्रधानमत्री-से
शराब पीते या फिर भीख मांगते हुए भी-सिद्धान्तत:
मतदान के बाद सड़क के किनारे ठेले पर सब्जी बेचने वाले को तो
होना भी नहीं चाहिए कभी भी देश का प्रधानमंत्री
मैं भी चुनकर कभी नहीं जो हूं अल्पसंख्यक जाति से
पढ़ा-लिखा होकर समझदार भी बेकार
अवसर मिलने पर ठीके पर भी सुधार सकता हुआ
देश और दुनिया- रूस ,पाकिस्तान ,अमेरिका और इराक.....
पर अल्पसंख्यक जाति से होता हुआ कभी नहीं होने का-
जीतकर वोट से
फिलहाल तो एक अरब के बांझ नागरिकों में से
मैं भी हूं एक फ्लाप नागरिक......
खूब मजे काटता....आराम फरमाता...आनन्द से
मुझे पिटना थोड़े ही है प्रधानमंत्री बनने ( के लिए
माननीया...............जी से मिलने ) के चक्कर में !
न ही मैं कभी मन्दिर बनवाने का ही रच सकता हूं झूठ.......
मैं भी जो ठीके पर सुधार सकता हूं अपना देश
मैं जो अल्पसंख्यक जाति से होने के कारण
कभी भी नहीं जीत सकता कोर्इ चुनाव
मैं जो र्इस्ट इंडिया कम्पनी की वारिस सरकार को
चलाने के लिए बनी राजनीतिक पार्टियों उर्फ कम्पनियों की तरह
कब्जाकर बार-बार नहीं ले सकता देश चलाने का ठीका -
मैं अवसर पाने की प्रतीक्षा के बिना रोज सुबह
खुली हवा में जंगल की सैर के लिए निकलता हूं
किसी भावी प्रधानमंत्री जैसी शान से
(जैसे अकेला मैं ही होऊं
इतिहास के रिजर्व कोटे का भूमिगत प्रधानमत्री ! )
राम के बनवास या पांडवों के अज्ञातवास की तरह
चुपचाप बढ़ाता हुआ अपने प्रधानमंत्रित्व का गर्भकाल.....
मैं जो किसी जिताऊ वोट-बैंक वाले
बहुसंख्यक जाति से नहीं हूं
मैं बनूंगा प्रधानमत्री यदि सभी जाति से ऊपर उठकर वोट दें
मै जो ठीके पर भी सुधार सकता हूं देश यदि सुधरें मतदाता........
मैं प्रधानमंत्री कभी भी नहीं हो सकता हूं
जैसे कि कोर्इ भी......हर कोर्इ नहीं बन सकता है प्रधानमंत्री !
जब तक.........
उनसे मैं मांगता हूं क्षमा.....
जिनकी जाति में मैं पैदा नहीं हुआ
उनसे मैं मांगता हूं क्षमा....
जिनके कुल जैसा मेरा कुल नहीं था
जिनके घर जैसा घर नहीं था मेरे पास
जिनके देश धर्म और सम्प्रदाय में पैदा नहीं हो सका मैं
उनसे मैं मांगता हू़ क्षमा !
जिनके समय में मैं पैदा नहीं हुआ
जिनकी चमड़ी के रंग सा रंग नहीं है मेरा
जिनकी आंखों जैसी आंखें नहीं हैं मेरे पास
और न ही जिनकी नाक जैसी नाक है मेरी
जिनकी भद्र-अभद्र हरकतों जैसी हरकतें नहीं कर पाता मैं
उन सभी से मैं मांगता हूं क्षमा !
सच मानिए ! इन सब में मेरा कोर्इ कसूर नहीं
कोर्इ भ्री दोष नहीं है मेरा !
सभी के प्रति अपनी निश्छल सहानुभूति के बावजूद
मैें इस बात के लिए क्या कर सकता हूं-
यदि मेरे पुरखे भोजन और पानी की खोज में
उनके पुरखों से दूर
धरती के किसी दूसरे छोर की ओर भटक गए
रीझ गए किसी फलदार पेड़ की घनी छाया पर
या फिर घनी झाडियों में गुम हो गए
किसी शिकार का पीछा करते हुए निकल गए
जंगलों और पहाड़ों के उस पार
जाकर बस गए मिटटी के किसी अज्ञात उपजाऊ समतल प्रदेश पर.....
और इस प्रकार निकल गए मेरे पुरखे
उनके पुरखों की जिन्दगी से
हमेशा-हमेशा के लिए बाहर और दूर
जिसके कारण आज तक मैं उन्हें जीने के लिए
उनकी जिन्दगी में वापस नहीं लौट पाया हूं !
इस समय भी इस धरती पर
हंस-बोल खा-पी रहे हैं अरबों-खरबों लोग
जिनके समय में होते हुए भी
जिनके साथ हंसते-बोलते खाते-पीते हुए
उन्हें मैं जी नहीं पाया !
असितत्व के सारे विभाजनों के बीच और बावजूद
मोहभंग वाली बात यह है कि
यदि कदाचित मांओं और पिताओं की जोडि़यां
विवाह के पहले ही आपस में बदल गयी होतीं तो
तब भी मैं और आप न सही
कोर्इ न कोर्इ तो अपरिहार्यत: पैदा हो ही जाता
अपने कुल, जाति और धर्म की नैसर्गिकता और
थोपी गयी सारी वर्तमान पहचानों कोे झुठलाता हुआ
निरपराध, भौंचक और अवाक !
जिस किसी को भी
अपनी जाति,कुल और सम्प्रदाय की श्रेष्ठता को लेकर
ग्लानि ,लज्जा या खेद है
त्रासदी पर पुनर्विचार.....
( मां मित्रों और र्इश्वर के बहाने )
सिर्फ यही एक रास्ता है मेरे पास
कि बाहर के अंधेरे का सामना करने के लिए
अपने भीतर वापस लौट जाऊं !
कुछ वैसी ही कामना के साथ
जैसी कि मेरी मां की थी.....
मां ने बतलाया था-वह बहुत निराश थीं
जैसे अन्धकार के समुद्र में डूबती हुर्इ-सी
जब मैं उनके गर्भ में आया........
कि मैंने सुनहरे भविष्य की तरह तुम्हारी प्रतीक्षा की थी
जैसे अन्धकार के गर्भ से निकलता है सुबह का सूर्य
तुम्हारे अपना सूर्य बन जाने की कामना और सपने के साथ
पूरी की थी अन्तहीन अंधेरे की यात्रा
मैंंने तुम्हारे जन्म लेने की प्रतीक्षा में काटी थीं
न जाने कितनी रातें जाग-जागकरं.....
इसपुरुष-देह के साथ
मैं तो सिर्फ मसितष्कगर्भा ही बन सकता हूं
हां अपनी मांसपेशियों में भी कल्पना कर सकता हूं
नए सार्थक कमोर्ं को जन्म देने वाले सर्जक गर्भ की
ल्ेकिन मैं क्या करूं ! मैं जिसे किसी पर भी भरोसा नहीं है
किसी पर भी विश्वास नहीं है !
मैं जो अपने बाहर के सारे अन्धकार से जूझने के लिए
अपने भीतर की सृजनशीलता में डूबकर
दुनिया की सारी आशंकाओं और सारे भय को भूल जाना चाहता हूं
किसी श्रमिक की तरह बहते-बहाते अपने श्रम-जल के प्रवाह में
अनवरत बहते हुए अनन्त-काल तक जीना चाहता हूं मछलियों की तरह
मां के उस सपने को सच करते हुए
जिसमें वह मुझे चारों ओर से घिरे अन्तहीन समुद्र के बीच
तैरते देखकर पहले तो घबरा गर्इ थी
फिर यह जानकर आश्वस्त हुर्इ कि तैरना ही मेरी नियति है
कि मेरी नौकरी ही लगी है समुद्र के बीच तैरते पोत पर
रहने जीने और करते रहने के लिए.......
मां नें कहा था-जब यादों की ओर लौटना
घावों के इतिहास की ओर लौटना हो
अच्छा होगा कि पुराने इतिहास से बाहर रहकर
एक नए इतिहास को जन्म देने का प्रयास किया जाये
मां मुझे देखना चाहती थी नया इतिहास रचते हुए...
मां ने कहा था -अपने लिए सुखी होने के लिए
जन्म नहीं हुआ है तुम्हारा
ऐसे ही नहीं सूरज के उगने के साथ हुआ है तुम्हारा जन्म
तुम दुखी रहोगे.....जलते रहोगे अन्धे सूरज की तरह
दूसरों की अन्धकार से घबरार्इ आंखों के लिए
जिनके लिए जलोगे तुम
वे तुम्हें धन्यवाद भी नहीं कहेंगे
भूल जाएंगे अपनी आंखों के पीछे तुम्हारे जलने का सच
क्योंकि सभी को तुमसे सुखी रहने की आदत जो पड़ चुकी है
किसी को तुम्हारे सुख की ओर घ्यान भी नहीं जाता.....
मां ने कहा था तुम अपने हिस्से का भाग्य भी बांट देते हो
अपने मित्रों के बीच
कि मैं इतना भोला हूं कि जब भी मैं किसी से जुड़ता हूं
कुछ न कुछ खो बैठता हूं
वह मेरे मित्रों को किसी फूल पर मंडराते
आवारा पतंगो की तरह देखती थी
वह अच्छी तरह पहचान गयी थी कि
मै अपने मित्रों की जरूरत हूं
मित्र मेरी जरूरत नहीं हैं
वे सिर्फ मेरा समय बरबाद कर सकते है
वह भी अपने स्वार्थ के लिए
और एक दिन मुझे अकेला छोड़कर चल देंगे
अपनी जरूरतें पूरी हो चुकने के बाद......
कि तुम्हारे सारे मित्र फर्जी हैं
तुम्हारे सारे मित्र इसलिए फर्जी हैं क्योंकि उन्हें तुमने नहीं तलाशा है
बलिक वे ही धीरे-धीरे खिंचते आए हैं तुम्हारे पास
अपने स्वार्थ के अनुरूप तुम्हारी उपयोगिता की पहचान करते हुए
कि लोग पहचान गए हैं मेरे भीतर का बुद्धूपन
और यदि मैं अपनी जरूरत के अनुसार
अच्छे मित्रों की तलाश नहीं कर सकता
तब भी मुझे अच्छे मनुष्यों की तलाश करनी ही चाहिए......
यधपि मैं इतना मेहनती हूं कि
शायद ही मुझे किसी सहारे की आवश्यकता पड़े !
मां कहती थी कि तुम्हारे कोर्इ भी काम नहीं आएगा
तुम ही काम आने के लिए अभिशप्त हो दूसरों के
तब तक पत्नी नहीं आयी थी
जो बता पाती कि आप ही ठगे जायेंगे हर बार......
तब तक मैं यह पहचान नहीं पाया था कि
मेरे स्वभाव की सारी कमजोरियों का राज
मेरे उन सांस्कृतिक विश्वासों में थी जो
प्रतिद्वद्वियों और चुनौतियों से मुक्त- एकल
भारतीय र्इश्वर की तरह ही भोली आश्वस्त और अद्वितीय थीं
मां को मेरे बाद र्इश्वर पर ही सबसे अधिक भरोसा था
लेकिन सबसे अधिक डरती थी वह र्इश्वर से ही
वह संदिग्ध है ....उसकी लीला अपरम्पार है
और उसे कोर्इ भी नहीं समझ सकता
उसकी खुशामद के लिए सिर्फ एक ही जन्म काफी नहीं !
जो पूरे विश्वास में जीते हैं र्इश्वर उनके साथ मजाक किया करता है
पता नहीं यह र्इश्वर वही है या कोर्इ और......
कहते हुए हंसती थी मां
हमें सावधान रहना चाहिए
कि जब हम विनम्र प्रतीक्षा में होते हैं
मानव जाति का एक बुरा चेहरा
हमारे भीतर के स्थगित भोले असावधान मनुष्य को पहचान जाता है
जंगल में अपने आसान शिकार की तलाश में घूमती हुर्इ
भूखे बाघ की शातिर शिकारी आंखों केी तरह.....
र्इश्वर जो करता है अच्छा ही करता है के परम्परागत विश्वास के साथ
एक आम भारतीय के भोले बुद्धूपन के साथ
तब मैं पूरे गर्व के साथ अपनी अच्छाइयों के अनुरूप ही
अपने साथ अच्छे व्यवहार और स्नेहिल प्रशंसाओं की प्रतीक्षा में था.....
एक र्इश्वर-जो बुराइयों के लिए समर्पित हो
हमारी भूलों गलतियों और अपमानों से बना हुआ र्इश्वर
हमारे हिंसक प्रतिरोध और प्रतिशोध में अभिव्यकित पाता हुआ
एक पागल र्इश्वर का शैतान की तरह होना
जो हमारे विश्वासों को प्रश्नांकित करता रहे
ताकि हम बचे रह सकें एक बुरे आत्मविश्वास से
उन बाहरी बुरे प्रभावों से-जब हम अपने साथ
अच्छे व्यवहार की उम्मीद में दूसरों द्वारा ठगी के शिकार होते हैं....
शायद एक आसितक भारतीय होने के कारण
तब मैं पूरी तरह अपरिचित था उस बुरे र्इश्वर यानि कि शैतान से
मुझे अच्छे मनुष्यों की अब भी तलाश है
अच्छे मनुय यानि कि जो बार-बार ठगे गए हों और
दुनिया के बुरे चेहरे को देखने के सर्वथा अयोग्य हों
मुझे उन शक्की लोगों की भी तलाश है
जो किसी के अप्रत्याशित बुरे व्यवहार से हतप्रभ होकर
अपने ही भीतर सिमट गए हों
मुझे अब भी तलाश है उस मनुष्य की
जो अपनी नैतिकताओं को ढोते रहने के प्रयास में
समय और समाज से बाहर हो गया हो
मैं उस अदृश्य मनुष्य की खोज में हूं
जो अपने निर्वासन और अकेलेपन में र्इश्वर से होड़ ले रहा हो
मैं उसे ही अपना मित्र बनाना चाहता हूं
इस दुनिया में आने के बाद उसने मुझे बताया था
और मुझे अच्छा लगता कि सच ही कोर्इ र्इश्वर होता
कोर्इ भी असितत्त्व के मनहूस अकेलेपन में कैद होना नहीं चाहेगा
यह दुनिया जो असितत्त्व की अन्तहीन आवृत्ति से बनी है
मुझे अच्छा लगेगा कि मैं न सही कोर्इ दूसरा ही हो
जिसके होते हुए मैं पूरी तरह गैरजरूरी प्रमाणित हो सकूं
मैं किसी भी असितत्त्व के सम्मान में
अपनी सारी महत्त्वाकांक्षाओं को स्थगित करते हुए
अनन्तकाल तक प्रार्थना में झुके रह सकता हूं
लेकिन मैं भ्रमों से भरा हुआ जीवन जीना नहीं चाहता
मैं चाहता हूं कि मेरे सारे भ्रम टूट जाएं
अब तक जिया हूं चाहे जैसा
लेकिन मैं नंगे सच के साथ ही मरना चाहता हूं......
सच कहूं मैं..... मुझे बताया गया था
जो कुछ भी हो मेरे हिस्से का जीवन
सब कुछ इतना नियत कि र्इश्वर की ओर से ही हो जैसे.......
एक अटूट मजबूत विश्वास की तरह
मैं सफलता के संयोगों की निरन्तरता को
किसी चमत्कार की तरह र्इश्वरीय समझने लगा था
मैं समझता था बचे रह जाएंगे -
मैं और मेरे जैसे लोग जैसे अब तक उल्का पिण्डों की अनवरत मार
सहते हुए भी बची रह गयी है धरती
धरती पर चुपचाप बचा रह गया है जीवन
मित्रों में घबराहट फैलने लगी थी
और मित्रगण चुपचाप खिसकने और बदलने लगे थे
एक दिन पिता नें हाथ खड़े कर दिए कि बूढ़ा हो गया हूं मंैं
कि अब सहारे के लिए कोर्इ दूसरा र्इश्वर ढूढ़ो.....
मैं किसी समझदार र्इश्वर की प्रतीक्षा में था
जबकि असितत्त्व की आवृत्ति के साथ र्इश्वर अनेक भ््राामक विकल्पों में था
मेरा जीवन प्रेम के बाजार में खड़ा था-किसी एक के चयन के लिए...
कि जिस दिन नौकरी लगी
उस दिन पता चला कि प्रेम के बिकाऊ बाजार में
अब तक बचा हुआ हंू मैं अपनी बची हुर्इ कीमत के साथ....
मित्रगण झगड़ने लगे थे
अपनी-अपनी साली के साथ विवाह प्रस्ताव देने के लिए
कि जैसे वे हमेशा-हमेशा के लिए कैद कर लेना चाहते थे मुझे
किसी उपयोगी की तरह अपने रिश्तों की स्थायी कैद में
मां नें कहा था-बहुत -सी बेवकूफियां
हम साथ-साथ कर जाते हैं
अन्धी प्रतिक्रियाओं के उन्माद में
बिना समझे....बिना सोचे
और यह भी कि जब हम अपने साथ हुए हादसों के लिए
दूसरों की संदिग्ध भूमिका की तलाश कर रहे होते हैं
हम स्वयं ही एक पक्ष बन चुके होते हैं
अपने ही साथ हुए अपराधों के लिए.....
उनसे मैं मांगता हूं क्षमा.....
त्रासदी पर पुनर्विचार.....
जिनकी जाति में मैं पैदा नहीं हुआ
उनसे मैं मांगता हूं क्षमा....
जिनके कुल जैसा मेरा कुल नहीं था
जिनके घर जैसा घर नहीं था मेरे पास
जिनके देश धर्म और सम्प्रदाय में पैदा नहीं हो सका मैं
उनसे मैं मांगता हू़ क्षमा !
जिनके समय में मैं पैदा नहीं हुआ
जिनकी चमड़ी के रंग सा रंग नहीं है मेरा
जिनकी आंखों जैसी आंखें नहीं हैं मेरे पास
और न ही जिनकी नाक जैसी नाक है मेरी
जिनकी भद्र-अभद्र हरकतों जैसी हरकतें नहीं कर पाता मैं
उन सभी से मैं मांगता हूं क्षमा !
सच मानिए ! इन सब में मेरा कोर्इ कसूर नहीं
कोर्इ भ्री दोष नहीं है मेरा !
सभी के प्रति अपनी निश्छल सहानुभूति के बावजूद
मैें इस बात के लिए क्या कर सकता हूं-
यदि मेरे पुरखे भोजन और पानी की खोज में
उनके पुरखों से दूर
धरती के किसी दूसरे छोर की ओर भटक गए
रीझ गए किसी फलदार पेड़ की घनी छाया पर
या फिर घनी झाडियों में गुम हो गए
किसी शिकार का पीछा करते हुए निकल गए
जंगलों और पहाड़ों के उस पार
जाकर बस गए मिटटी के किसी अज्ञात उपजाऊ समतल प्रदेश पर.....
और इस प्रकार निकल गए मेरे पुरखे
उनके पुरखों की जिन्दगी से
हमेशा-हमेशा के लिए बाहर और दूर
जिसके कारण आज तक मैं उन्हें जीने के लिए
उनकी जिन्दगी में वापस नहीं लौट पाया हूं !
इस समय भी इस धरती पर
हंस-बोल खा-पी रहे हैं अरबों-खरबों लोग
जिनके समय में होते हुए भी
जिनके साथ हंसते-बोलते खाते-पीते हुए
उन्हें मैं जी नहीं पाया !
असितत्व के सारे विभाजनों के बीच और बावजूद
मोहभंग वाली बात यह है कि
यदि कदाचित मांओं और पिताओं की जोडि़यां
विवाह के पहले ही आपस में बदल गयी होतीं तो
तब भी मैं और आप न सही
कोर्इ न कोर्इ तो अपरिहार्यत: पैदा हो ही जाता
अपने कुल, जाति और धर्म की नैसर्गिकता और
थोपी गयी सारी वर्तमान पहचानों कोे झुठलाता हुआ
निरपराध, भौंचक और अवाक !
जिस किसी को भी
अपनी जाति,कुल और सम्प्रदाय की श्रेष्ठता को लेकर
ग्लानि ,लज्जा या खेद है
( मां मित्रों और र्इश्वर के बहाने )
प्रतिद्वद्वियों और चुनौतियों से मुक्त- एकल
हम चाहते हैं.....
तुम्हारे दिए और जिए हुए सच
हमारे प्रश्नों से घायल हो चुके हैं
हम तुम्हारी गलितयों-मूर्खताओं को
वैसे ही जानते हैं
जैसे आने वाली पीढि़यां जानेंगी
हमारी मूर्खताओं को
हम तुम्हारी दी हुर्इ निष्ठाओं से छले गए हैं
हम घर से बेघर
समय से असमय हुए हैं.....
तुम्हारी दी हुर्इ दाढि़यां
नोच डालनें की हद तक
खुजली पैदा करती हैं
हमें लहूलुहान करती हुर्इ-
हम नहीं चाहते कि हमारा नाम
तुम्हारी बनार्इ हुर्इ जातियों के
एक र्इमानदार कुली के रूप में लिखा जाये....
ळम अपने वंशजों को
अपना भारवाहक बनाने वाली
तुम्हारी हिंसक परम्परा के खिलाफ हैं
हमें नहीं चाहिए
आदमी की खाल उघेड़कर
उसके लहू में डुबोकर लिखे गए
तुम्हारे सनातन दिव्य ग्रन्थ
हम तुम्हारी
सभी को मारकर जीनें वाली
अमरता के खिलाफ हैं.....
तुम्हारा हमारे समय पर लदकर
बलात जीवित रहना
एक अप्राकृतिक अपराध है
हम न्याय चाहते हैं
हम तुम्हारी मृत्यु चाहते हैं पितामह !
हम चाहते हैं कि
आने वाली पीढि़यों को भी
नयी सभ्यता के लिए
अपना नया पितामह चुनने का
अधिकार मिले
बताओं !
बताओ कि तुम्हारी मृत्यु कैसे होगी ?
हत्याएं
कुछ तो गलत हुआ ही है
लेकिन इतना तो होता ही रहता है गलत
अच्छा करने और करवाने की जिद में
काफी कुछ ठीक नहीं हुआ है लेकिन हो सकता था
फिर भी सब तो सही नहीं हो सकता !
इतिहास को मुटठी में रखने के लिए
बहुत सारी शकितयों का रखना होता है ध्यान.....
कुछ हत्याएं हुर्इ हैं....हो रही हैं और हो सकती हैं
इतिहास को पूरे सूझ-बूझ के साथ
प्रायोजित करते हुए भी........
जब दु:ख उनके मरने या उन्हें मारने का नहीं
बलिक मारने के पूरे प्रयास के बाद भी
बचे रह जाने की खतरनाक संभावनाओं का भी होगा
कुछ हत्याएं तो हो ही जाती हैं
आसानी से सुलभ और सुरक्षित लक्ष्य की तलाश में
सम्पूर्ण निरर्थकता में घटित दुखान्त की तरह
कुछ हत्याएं घटित हो जाती हैं
निशानेबाजी के अभ्यास में भी
कुछ तो शौकिया.....यू ही-मैं भी कर सकता हूं कि नहीं !
कुछ हत्याएं करनी पड़ती हैं
हत्या करने की शकित को प्रमाणित करने के लिए
हत्याएं आंशिक होती हैं और पूर्ण
हत्याएं मानसिक होती हैं और वास्तविक
चोरों और डकैतों का फर्क रहता ही रहता है
उनकी अपनी जरूरत और हिम्मत के समानुपात में....
सारी नापसन्दगी के बावजूद
मेरी परेशानी की वजह यही है कि
सिद्धान्तत: तब-तब मैं डर जाता हूं
जब मुझे भी लगने लगता है कि दुनिया तो तभी बदल पायेगी
जब वे बीत जाएंगे अपने बीते जमाने के विचारों के साथ
जब मैं अश्लील उपसिथति की तरह
कुछ लोगों का होना देखता हूं और तरस खाता हूं
एक कभी भी गिरकर भीड़ को मार देने वाली
आशंकाओं वाली हत्यारी छाया देने वाले वृक्ष के रूप में उपसिथत
अप्रासंगिक समय के लिए तो मौत की सुर्इ दे देने के पक्ष में
संवैधानिक संशोधन कर ही देना चाहिए
जिस मुकदमें में सारे गवाह पक्षæोही हो गए हों
ऐसे संनिदग्ध हत्यारों के लिए भी होनी चाहिए कोर्इ विशेष जेल
वे सारे हत्यारे
जो हत्याओं के असफल प्रयास के बाद
एक बार फिर जीना चाहते हैं
एक गुमनाम मासूम सज्जन की तरह.....
या वे सर्वविदित किन्तु अनिर्णीत हत्यारे
जो सन्देह का लाभ पाने के लिए
अपने हाथों की जा रही हत्याओं के प्रचार से डरते हैं
या फिर वे जो हत्या करने के लिए आसान
शिकार के रूप में पाते हैं गुमशुदा चेहरों को.....
जहां कुछ हत्यारे प्रचारित चेहरों की तलाश में रहते हैं
हत्या के पश्चात गुमशुदगी से बाहर निकलने के
स्वर्णिम अवसर के रूप में......
हत्यारे जो करते रहते हैं हत्याएं
अपने जीवित बचे रहने के एकमात्र विकल्प के रूप में
उनके मारे जाने के बाद भी हत्यारों के बनने का
बना रह सकता है पेशेवर सिलसिला
क्या पता उकसाने वाली कहानियों के रूप में
या पागल क्रोधी जीन के रूप में
जो कभी भी किसी को बर्दाश्त नहीं कर पाता
एक दिन दो हत्याएं करने वाले के पास
चार हत्याएं करने वाला बेटी का रिश्ता लेकर पहुंचेगा
और दूसरी पीढ़ी में दस हत्याएं करने वाला पुत्र पैदा होगा
यह भी संभव है कि हत्यारे का पुत्र पैदा होते ही मार दिया जाय
और एक दिन खत्म हो जाय उसका वंश भी !
मैं जब भी कक्षा में कहता हूं
कि जो बहादुर थे वे इतिहास में लड़-लड़ाकर मर-मरा गए
सही-सही वही बचे जो कायर थे
इसलिए बचना है तो एक समझदार कायर बनो
क्योंकि जो डर सकता है वही बच सकता हैे
डरना हमें समझदार बनाता है और जीने का सही ढंग और रास्ता भी सुझाता है
क्योंकि सिर्फ सच्चा कायर ही बुद्धिमान हो सकता है
सिर्फ वही अपने मारे जाने के पहले भी अपना मरना देख सकता है
कहता हूं तो अविश्वास से हंसते हैं बच्चे
कर्इ तो हंसते -हंसते मर मर जाते हैं
बिना डरे बहादुर बनने के प्रयास में.......ं
इसके बावजूद हत्याओं और हत्याओं के बारे में
मेरा अनितम निष्कर्ष यह है कि
बचे रहना है तो छिप जाओ कायरों की तरह....कायरों के बीच
हत्यारों के मारे जाने और एक दिन सब कुछ कायरों के नाम छोड़कर
चले जाने वाले दिन की प्रतीक्षा करते हुए
समय के पिछवाडे भी जगह मिले तब भी.....
गुपचुप चलाते और बढ़ाते रहो अपना वंश
एक निष्कर्ष यह भी है कि एक दिन निरन्तर बढ़ती जनसंख्या के साथ
बढ़ती प्रतिस्पद्र्धा-सभी कायरों को बहादुर बना देगी
हत्यारे अनितम दौर की हत्याएं करने से ठीक पहले
मिल-बैठकर समझौता करेगे
बनाएंगे संविधान कि अब से सभी लोग कायरों की तरह जिएंं.....
संभव है तलाशा जाय धरती के सबसे विनम्र कायर का जीन
मानव जीवन को बचाए रखने के अनितम विकल्प के रूप में .....
यह समय
युद्ध का समय है यह
लड़नें से अच्छा है सुलह-संवाद
घायल होने से अच्छा है बचना
मरने से अच्छा है पैदा ही न होना......
इस तरह
समस्याओं से भरे
इस उत्तर -समय में
युद्ध जीतने का यह एक ही अस्त्र शेष है
निरोध !!
युद्ध में ब्रेक का समय है यह
उस तथाकथित स्वतंत्रता के खिलाफ
जो एक गैरजिम्मेदार पीढ़ी द्वारा
अराजकता में बदल दी गर्इ थी !
दुर्घटनाओं के नंगा नाच का समय है यह-
जनसंख्या के विस्फोट तक
शर्महीन !
हंसिए नहीं !
सभ्यता और विज्ञान की यात्रा में ही
पहुंचे हैं हम
इस सवाल तक-
यह ठीक है कि सभी विज्ञान पढ़ें
वैज्ञानिक बनें
लेकिन वे खाएंगे क्या ?
क्या करेंगे !
इतने वैज्ञानिक क्यों ?
रोना कोइ दृश्य नहीं
रोना कोइ दृश्य नहीं है
दृश्य का डूब जाना है
एक पहाड़ी झरने ंके पीछे...
जलते हुए जीवन का
अपनें सारे वस्त्र उतार कर
जीवन का कूद पड़ना है
अथाह खारे समुद्र में.......
यहां कहीं दूर तक
रोने की कोर्इ जगह
दिखार्इ नहीं देती....
इस शहर में
देर तक मुस्करानें के बाद
रोने के लिए
किधर जाते होंगे लोग !
जल जलहिं समाना....
धरती बांझ थी और आसमान निरर्थक
नि:संतान था पिता अपने पुत्र के बिना
प्रकृति विधवा थी और परम तत्त्व ओझल
तब अन्धकार की कोख में ज्योति की तरह वह उतरा......
तब चेतना डूबी थी विचारों की जड़ता में
और स्मृतियां जंगल में बदल गयीं थीं
पोथियों पर मूर्खताएं छपी थीं और ग्रन्थों में षडयन्त्र
कपटियों ने सारे प्रकाश को अपने पुत्रों-वंशजों के लिए
चुराकर बन्द कर लिया था
ज्ञान ऐश्वर्य के लिए था और र्ठश्वर व्यापारियों के लिए
परजीवियों का सत्य याचना के लिए-'मुल्ला का बांग' और 'पंडा का पाथर
मकड़ी जैसे अपने बुने जाल में पुकारती है कीट
धर्मग्रन्थों के शब्द कंटीली झाडि़यों में बदल गए थे- मारते हुए मनुष्य.....
जिन्हें कहा जा सकता है नीच-कहा जायेगा
बाझिन को बांझ.....कि द:ुखी का दु:ख सुखी के सुख का विषय है
निपूती का दु:ख.... गोद भरी मांओं की खुशी -हुआ ऐसा....
उतरा वह परम विवेक
जीवन-ज्यों सारे ब्रह्रााण्ड के गर्भ से अभी-अभी फूटा हुआ
निर्विकार अनाम पवित्र निस्सीम सागर-शिशु
आदिम मूल तत्त्व की तरह-अनन्त की ओर से
बंधीं और अनर्वर मानव-जाति के लिए.....
तालाब में जैसे खिलता है कमल
शिशु मिला वह नीरू को अपूर्व
खुले आसमान के नीचे प्रकट हुर्इ दिव्य ज्योति
पुरानी बसितयों के अंधेरे सीलन भरे दुर्गन्धाते तहखानों और बूढ़ी कोठरियों से दूर
खुली हवा में-जंगल-सी अनछुर्इ-अबोध पवित्र और अनायास.....
किसका जीवन है यह !....सोचा नीरू नें
किसका जीवन है यह !....पूछा नीरू नें बार-बार
उसकी सारी प्रतिध्वनियां उस तक ही लौट आयीं.....
यह मेरे लिए है-उसने आसमान की ओर
कृतज्ञता से भरे अपने दोनों हाथ उठाए और झुक गया धरती की ओर
उठाने के लिए एक अपूर्व दिव्य शिशु......
जो किसी का नहीं है ,सबका है-आसमान नें कहा
मेरी धरती पर जो भी जन्मा है-मेरा है....मेरी ओर से है
विरासत है....प्रतिनिधि है सम्पूर्ण असितत्त्व का-दुहराया ब्रहमाण्ड नें बार-बार......
जो किसी का नहीं है ,सबका है
सारे मायावी जोड़-तोड़ और अंकों की भीड़ के लिए
यह सिर्फ एक मानव-शिशु ही नहीं एक विराट शून्य है-सत्य-स्फुर्लिंग !
काल-जनित विकृतियों के....इतिहास के दुखती स्मृतियों के
उन्मादों-अपराधों.... पापों-दुर्घटनाओं के सारे प्रदूषणों का अन्त यह.......
यह किसी का नहीं है ,सभी का है-सबके लिए.....सब कुछ की ओर से
भटके समाज के हर गणित को शून्य करता हुआ
निरस्त करता हुआ सारे गलत-जीवन छलका ज्यों
मानव-जाति की रुद्ध दीवारों वाली सारी परम्पराएं तोड़ ---
More......
लड़की
दर्पण में उग रहा है एक अजनबी चेहरा
और मन में एक अनिवार्य भय
कभी भी यह जीवन
किसी और को दे दिया जाएगा....
किसी और को दे दिया जाएगा....
2.
अठारह वर्ष लग जाएंगे सीखते हुए लड़की
अठारह वर्ष तक लिखे जाएंगे
उसके वक्ष पर आवश्यक नारी अर्थ
अठारह वर्ष लग जाएंगे
उसको और
उसकी मनुष्यता को विभाजित करने में !
3.
लड़की शब्दों में है और व्याकरण में भी
लड़कों से अलग लड़कों के पास
लड़कों के लिए......
लड़के प्रकृति में हैं और बातों में भी
लड़की से अलग.....लड़की के पास
लड़की के लिए.....
मनुष्य कहां है ?
4.
लड़की जानती है
कि उसके भीतर
कहीं भी नहीं है लड़की
फिर भी वह
जब कभी बाजार में निकलती है
लड़की हो जाती है
5.
कांटे उतने ही सत्य हैं
जितने कि नंगे पैर
लड़की के तलवों में उनका चुभ जाना....
लड़की न भी हो लड़की
उसे डर लगता है
गली के मोड़ पर
उसकी प्रतीक्षा में खड़े
घूरते हुए लड़कों द्वारा
कभी भी लड़की
बना दिए जाने से.....
6.
वह जो चोर की तरह
बढ़ती हुर्इ लड़की को
घबराते देखता है
लड़की का पिता है....
वह जो चुपचाप
घिसता हुआ
लड़की के बढ़ने का अर्थ
बूझता है
लड़की का पिता है
7.
जब कभी भूल जाएगी लड़की
डरने की कोर्इ बात नहीं !
उन्हें याद है कि
उनके पड़ोस में
रहती है एक लड़की....
8.
कभी-कभी
सीढि़यां चढ़ती हुर्इ
उंची आकांक्षाओं वाली जूतियों पर
संभलकर चलती
सहसा लड़खड़ाकर
गिर पड़ती है लड़की
उसे अपनें गिरने का नहीं
गिरते हुए देख लिए जाने का दु:ख सताता है......
9.
शहर के दंगे में
सड़क पर घायल र्इश्वर कराहता है-
मैं खुदा भी हो सकता था
यदि भाषा नें
मार नहीं दिया होता
लड़की उसके पास जाती है
और पूछती है
यह क्या इतना अनिवार्य है कि
तुम्हारी तरह
में भी मारी जाती रहूं
शब्दों के पथराव से !
10.
कि्रयाएं संज्ञा बन गयी हैं
और भ्रम ही शब्द
अन्यथा कहीं भी नहीं थे
स्त्री और पुरुष
जति और धर्म
खुदा और र्इश्वर
सिर्फ भाषा के सिवाय
न ही लड़की.....
अब तक की सबसे अच्छी कविता....
शहर के सबसे बड़े मैदान में
वे वहां एकत्रित हुए
चुनाव करने-
अब तक की सबसे अच्छी कविता
और सबसे बड़ा कवि
अब तक के सबसे सही लोग.....
कविताएं पहले मुगोर्ं की तरह लड़ीं
बहुत पहले भी लड़ा करते थे जैसे मेलों में पशु
कविगण अपनी-अपनी कविताओं को
आवाज लगाते ,चीखते -चिल्लाते
अपनी-अपनी जगहें छोड़कर
उठ खड़े हुए....
कि सबसे पहले अचानक
मैदान के बीच से गुजरा
एक घायल लहूलुहान आदमी
भयानक चीख की तरह
डसे गुण्डों नें मार दिया था छुरा
कविताएं अब गुण्डों की तरह लड़नें लगीं थीं
फिर एक औरत गुजरी-अद्र्ध-विक्षिप्त
फटा ब्लाउज और
तार-तार चीथड़े हुए वस्त्र पहनें....
यह गलत्कार का मामला है
किसी कविता नें कहा
गलत्कारी को सजा मिलनी चाहिए
लेकिन थानेदार भी एक पुरुष है
और उसकी गलत्कार में भी
हो सकती है सहानुभूति !
एक अन्य कविता नें कहा
यह बहस की अच्छी शुरुआत है-
कुछ और कविताओं नें कहा,
हमें सरकार के खिलाफ
आवाज उठानी चाहिए
आखिर जनता
ऐसी निकम्मी सरकार को
चुनती ही क्यों है ?
फिर कविताएं
जासूसी कुत्तों की तरह
अपना सिर झुकाए, जमीन सूंघती
अपने-अपने कवियों के पास
वापस लौट आर्इं.....
यह एक बहुत ही पेंचीदा प्रश्न था
और हम कुछ भी नहीं कर सके-
कविताओं नें कहा, कवियों नें भी
बुढ़ापे का पुत्र
(एक मित्र की कविता पढ़कर प्रसिद्ध आलोचक की शानदार वापसी पर)
वही दरख्त है
जिसके नीचे बैठा करता था राजा
यहां दूर-दूर तक किसी का भी प्रवेश वर्जित था
मेरे जैसे लोग
'माथे पर चौखट रखकर चले जाते थे....
मैं जब आया
राजा को छोड़कर चले गए थे
उसके अपने सारे लोग
उसकी तलवार म्यान से बाहर निकलकर
घूल में फिंकी पड़ी थी.....
शहर में अफवाह थी कि मर चुका है राजा
मैंने ऐसे ही जिज्ञासावश उसके चरण छुए
एक इतिहास को प्रणाम करनें के अतिरिक्त
मेरी और कोर्इ भी नहीं थी मंशा
झुकते हुए मैंने उसके चरणों को छुआ
और उसकी सांसे चलने लगीं
राजा जागा
लपककर उसनें उठार्इ अपनी तलवार
बिल्कुल कलम की तरह !
खुशी से पागल नाच उठा मैं
राजा जिन्दा है जिन्दा !
राजा की आंखों से आंसुओं की धार फूट चली
''तुमनें मुझे शापमुक्त किया वत्स !
युग बीत गए
प्रतीक्षा करते
थक आए कोर्इ
छाती जुड़ा गर्इ तुमसे मिलकर
तुम मेरे बुढ़ापे के पुत्र हो
निपूता नहीं मरूंगा मै।
चलेगा मेरा वंश !
कि हे ढिढोरचियों !
दसों दिशाओं का कान पीट दो कि
पुत्र हुआ है मेरे
मेरी 'चुचुकी छातियों में दूध उतर आया है।
मिट चुका होता
सब कुछ मिट चुका होता
यदि कदमों नें मांगे होते जिन्दगी से बने बनाए रास्ते
खुले दरवाजे और अड़ गए होते
बन्द द्वार और
पन्थहीनता का ठहराव लिए !
उजड़ गए होते
जंगल,बन,पलाश
सारे के सारे तब........
हादसा
सब व्यर्थ हुआ
एक बारात-
दूल्हन और
न्यौछावर के फेंके गए
कुछ खनकते सिक्के
बटोरनें में
पूरी की पूरी पीठ़ी
खो गयी......
बदलाव
चूहे के बिल में भी बदलता है
चूहे के बिल को छोड़कर
निकल भागता है सांप
चूहा भी बदलता है
बदल जाते हैं लोग-बाग
मौसम जब बदलता है ।
विचार भी एक पर्यावरण है
फिलहाल मैं किसी भी सपने को जी नहीं सकता हूं
मुझे यह भी नहीं मालूम कि
मैं किसी के सपने का हिस्सा हूं भी या नहीं
मैं एक संवेदनशील मन के ददोर्ं को बड़ाना नहीं चाहता
यहां एक आदमी सो रहा है बच्चों की तरह.......
नुकीले चटटान की तरह
चुभ रहे हैं खुरदुरे अहसास
जीवन खा रहा ज्यों ठोकर
बन्द गलियारों में.....
लोगों के चुभते हुए
हिंसक व्यकितयों के बीच से गुजरते हुए
लोगों के पथरीले मन के पर्यावरण से
बचते-बचाते जीने के लिए
गलत विचारों को जी रहे आदिम मसितष्कों का समय
अप्रासंगिक विचारों के खण्डहरों का शहर
आक्रामक हत्यारी इच्छाओं के पशुओं से भरा हुआ.....
जबकि विचार भी एक पर्यावरण है
मैं अपने प्र्यावरण को बदल देना चाहता हूं.......
उनकी इच्छाएं जेबकतरों के उंगलियों की तरह
फिर रही हैं लोगों की उपलबिध्यों की जेब पर
उनकी उंगलियां हत्यारों की तरह बढ़ रही हैं
लोगों की धड़कनों पर......
उनकी इच्छाओं नें जीत लिया है समय
उनकी इच्छाओं नें दूसरों की इच्छाओं को स्थगित कर रखा है !
दर्द इतनें अधिक हैं कि
मैं बाहर का सब कुछ अस्वीकार करता हुआ
सिर्फ अपने सकि्रय असितत्व में डूबा हुआ ही
पार कर पाउंगा बाहर का यह पागल समय
भर पाउंगा अपने भीतर और बाहर की सारी अनुपसिथतियों को
भंग कर पाउंगा अपने भीतर का निष्ठुर एकान्त......
एक अविस्मरणीय इतिहास की तरह
सौन्दर्य में नहीं ,संवेदना में हुआ है
एक साहित्यकार का अन्त !
एक चिटठी
क्या ही अच्छा होता कि
एक चिटठी लिखता
और बदल जाता सारा देश
एक चिटठी मिलती और
फिर से लिखा जाता
देश का संविधान......