मलयज की रामचंद्र शुक्ल से सम्बन्धित आलोचना की मुख्य समझ उस इतिहाबोध से निर्मित होती है जो पराधीन भारत में बहुआयामी जीवन संघर्ष की चुनौतियों के पक्ष में व्यक्तिवाद और कलावाद का बहिष्कार करती है। स्पष्ट है कि रामचंद्र शुक्ल साहित्य को इतिहास निर्माण यानि साहित्य को राजनीतिक भूमिका में देखना चाहते थे। यह हिन्दी साहित्य के प्रथम व्यवस्थित इतिहासकार का ऐसा इतिहासबोध था इतिहास के लम्बे निरीक्षण से पैदा हुआ था। यह वह समय था जब सामूहिकता अत्यंत महत्वपूर्ण हो गयी थी। औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के दौर मे भाारत की मूलत सामाजिक सांस्कृतिक सभ्यता हथियारबन्द राजनीतिक संगठनो द्वारा रौद दी गयी थी। ऐसे मे व्यक्ति स्तरीय मुक्ति का आदर्श कालातीत हो गया था। शुक्ल जी की लोक चिन्ता को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। मलयज का ध्ध्यान शुक्ल जी की इस लोकचिन्ता की ओर तब गया जब बाजार के अर्थतन्त्र से गठबंधन कर भारत में कलावाद फिर वापस लौट आया था। बाज़ार व्यक्तिवाद को बढ़ावा दे रहा था । शुक्ल जी के समय संघर्ष की दृष्टि से व्यक्ति अप्रासंगिक हो गया था ।
जीवन का रास्ता चिन्तन का है । चिन्तन जीवन की आग है तो विचार उसका प्रकाश । चिन्तन का प्रमुख सूत्र ही यह है कि या तो सभी मूर्ख हैं या धूर्त या फिर गलत । नवीन के सृजन और ज्ञान के पुन:परीक्षण के लिए यही दृष्टि आवश्यक है और जीवन का गोपनीय रहस्य । The Way of life is the way of thinking.Thinking is the fire of life And thought is the light of the life. All are fool or cheater or all are wrong.To create new and For rechecking of knowledge...It is the view of thinking and secret of life.
सोमवार, 28 दिसंबर 2015
मलयज की दृष्टि मे रामचंद्र शुक्ल
मलयज की रामचंद्र शुक्ल से सम्बन्धित आलोचना की मुख्य समझ उस इतिहाबोध से निर्मित होती है जो पराधीन भारत में बहुआयामी जीवन संघर्ष की चुनौतियों के पक्ष में व्यक्तिवाद और कलावाद का बहिष्कार करती है। स्पष्ट है कि रामचंद्र शुक्ल साहित्य को इतिहास निर्माण यानि साहित्य को राजनीतिक भूमिका में देखना चाहते थे। यह हिन्दी साहित्य के प्रथम व्यवस्थित इतिहासकार का ऐसा इतिहासबोध था इतिहास के लम्बे निरीक्षण से पैदा हुआ था। यह वह समय था जब सामूहिकता अत्यंत महत्वपूर्ण हो गयी थी। औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के दौर मे भाारत की मूलत सामाजिक सांस्कृतिक सभ्यता हथियारबन्द राजनीतिक संगठनो द्वारा रौद दी गयी थी। ऐसे मे व्यक्ति स्तरीय मुक्ति का आदर्श कालातीत हो गया था। शुक्ल जी की लोक चिन्ता को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। मलयज का ध्ध्यान शुक्ल जी की इस लोकचिन्ता की ओर तब गया जब बाजार के अर्थतन्त्र से गठबंधन कर भारत में कलावाद फिर वापस लौट आया था। बाज़ार व्यक्तिवाद को बढ़ावा दे रहा था । शुक्ल जी के समय संघर्ष की दृष्टि से व्यक्ति अप्रासंगिक हो गया था ।
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