रविवार, 30 अगस्त 2015

राजेंद्र यादव : मेरी दृष्टि में

राजेंद्र यादव मेरे जैसे बहुत से लेखकों के एकांत में बिलकुल निजी अंदाज में भी सुरक्षित हैं .मैं कई बार उनको जानबूझकर कुछ ऐसा लिख भेजता था -जिसे मैं अच्छी तरह जानता था -वे छाप नहीं पाएँगे .लेकिन वे उसे वापस भेजते समय अपना पत्र अवश्य भेजते थे .यद्यपि वे एक साहसी संपादक के रूप में लगभग कुख्यात ही थे .कुछ अधिक ही विचारोत्तेजक और विवादस्पद लिख कर मुझे उन्हें चिढ़ाने के अंदाज में चुनौती देना अच्छा लगता था ऐसा मैं प्रायः अभिव्यक्ति का सुख पाने और स्वयं को स्वस्थ रखने के लिए करता था ,वे भी मेरे ऐसे लेखों का मजा लेते थे .काशीनाथ सिंह की काशी का अस्सी छपने के बाद भद्दी और अश्लील गालियों वाले कई पत्र अपने दराज से निकाल कर पढ़ने के लिए दिए थे .निश्चय ही उन्हें छापा नहीं जा सकता था . मुझे नहीं पता कि उन पत्रों को उन्होंने कभी काशीनाथ सिंह को भी पढ़ाया या नहीं ..जब मैंने हंस में भी कुछ लिखकर भेजना लगभग बंद ही कर दिया था .तब भी मै दिल्ली जाने पर उनसे अवश्य मिलता था .उनके ठहाकों और जिन्दादिली का साक्षात्कार करने .सब कुछ के बावजूद वे इस युग में कबीर बनने की सीमा जानते थे .सच बोलने के लिए कबीर से कम हिम्मत उन्होंने नहीं दिखाई .उनके सम्पादकीय उनके प्रशंसकों से अधिक उनसे चिढ़ने वालों द्वारा पढ़े गए हैं .धर्मयुग साप्ताहिक हिंदुस्तान और सारिका के बंद होने के बाद हिंदी पत्रकारिता का स्वर्णिम काल जैसे उनमें ही समां गया था .वे एक जगह पर अपना हंस लेकर प्रेमचंद से भी आगे निकल जाते हैं -वह है अपने सम्पादकीय कंधे पर इतिहास ढोने की ताकत .यहाँ उनकी प्रतिस्पर्धा प्रेमचंद से नहीं बल्कि महावीर प्रसाद द्विवेद्वी और अज्ञेय से है दलित और स्त्री विमर्श के तो संरक्षक और प्रायोजक संपादक ही थे ..उनकी स्मृति को सादर नमन .