शनिवार, 11 जुलाई 2020

अंतरिक्ष की सीमा

मुझे लगता है कि ठोस धरती के प्राथमिक अनुभव के कारण हम शून्य की कल्पना करने में अक्षम हैं । सिर्फ़ उपग्रह,ग्रह,नक्षत्र,आकाश गंगा और ब्लैक होल आदि तक ही यूनिवर्स की परिकल्पना नहीं करनी चाहिए । उस रिक्तता को भी एक सच मानना चाहिए जिसमे से होकर प्रकाश की किरनें,गुरुत्वाकर्षण एव्ं विद्युत चुंबकीय तरंगे गुजरती हैं । प्रकाश की तरंगें तो वास्तव में यात्रा करती हैं क़1 वे ध्वनि तरंगों की तरह समय न लेतीं । विद्युत चुंबकीय तरंगे जिस प्रकार आवेश रुप में गति करती हैं वह अपनी प्रकृति में प्रकाश के सूक्ष्म कण फोटान के समान नहीं होती बल्कि एक माध्यम (ईथर)में आवेश के प्रभाव के समान होती है । इससे पता चलता है कि ब्रह्माण्ड में कोई सर्वव्यापी ऊर्जा तत्व सूक्ष्म रूप में होना चाहिए । अभी तक की जो युनिवर्स की परिकल्पना है उसमें असंख्य आकाशगंगाओं के समूह को परस्पर आकर्षण से बन्धे गोलाकार रुप में प्रदर्शित किया जाता है । यह समूह भी यदि अंतरिक्ष में बना हूआ है तो उसकी स्थिरता,संतुलन और व्यवस्था का भी कोई प्रतिबल या आधार चाहिए । सम्भव तो यह भी है कि एक ब्रह्माण्ड के समानान्तर दूसरा ब्रह्माण्ड भी हो । ऐसा मुझे इस लिये सम्भव लगता है कि सीमांत की खोज हमारे ऐंद्रिक अनुभवों सीमाओं के अनुभवों की उपज है । जबकि समस्या मनोवैज्ञानिक ही हो सकती है कि ठोस धरती के अनुभवों के कारण हम शून्य और रिक्ति के विस्तार की सही-सही कल्पना कर पाने में अक्षम हैं ।