जीवन का रास्ता चिन्तन का है । चिन्तन जीवन की आग है तो विचार उसका प्रकाश । चिन्तन का प्रमुख सूत्र ही यह है कि या तो सभी मूर्ख हैं या धूर्त या फिर गलत । नवीन के सृजन और ज्ञान के पुन:परीक्षण के लिए यही दृष्टि आवश्यक है और जीवन का गोपनीय रहस्य । The Way of life is the way of thinking.Thinking is the fire of life And thought is the light of the life. All are fool or cheater or all are wrong.To create new and For rechecking of knowledge...It is the view of thinking and secret of life.
शनिवार, 7 दिसंबर 2019
भारतीय धर्म का तंत्र और चरित्र
रविवार, 17 नवंबर 2019
केदारनाथ सिंह कि कविता
तीसरा सप्तक की अनागत, नए पर्व के प्रति, कमरे का दानव,दीपदान,दिग्विजय का अश्व, बादल ओ ! तथा 'निराकार की पुकार ' आदि कविताएं उनके पहले काव्य-संग्रह 'अभी बिल्कुल अभी ' में भी है । इन कविताओं के अध्ययन से पता चलता है कि आम धारणा से अलग केदारनाथ सिंह मात्र बिम्बों के कवि नहीं हैं । यदि यह कहा जाय कि अपनी प्रारम्भिक यात्रा मे उनका महत्वाकांक्षी और युवा कवि अपनी कविताओं के शिल्प और स्वरूप को लेकर उनका किया गया आत्मसंघर्ष अपने समय तक हिन्दी-कविता के समस्त प्रयोगों और ध्रुवान्तों को लेकर किया गया है । उनका काव्य सौष्ठव और कविताओं में मिलने वाली मितभाषिता अज्ञेय को आदर्श बनाने की सूचना देती है तो उनकी कविताओं की आत्मा मे लोक के प्रति प्रेम, सम्मान तथा उसके जिए गए क्षणों की स्मृतियाँ और आख्यान छिपे हैं ।
केदारनाथ नाथ सिंह की कई कविताएं अज्ञेय की काव्य-भाषा की याद दिलाती हैं ।फ़र्क बस इतना ही है कि अज्ञेय की कविताओं का पारगमन ।'आंगन के पार द्वारा और ' देहरी को बाहर से घर के भीतर देखने की है तो केदारनाथ सिंह आंगन के भीतर से आंगन के पार द्वारे स्थित लोक के द्रष्टा हैं ।
कहने का तात्पर्य यह है कि कवि केदारनाथ सिंह की लोकोन्मुखता ही उन्हें दूसरा अज्ञेय बन जाने से रोकती है । संवेदना और कथ्य के धरातल पर केदारनाथ सिंह लोक के यायावर कवि हैं । वे लोकजीवी आस्वाद धर्मिता के कवि हैं । अज्ञेय के सागर-मुद्रा शब्द से उधार लेते हुए कहें तो कवि केदारनाथ सिंह लोकमुद्रा के कवि हैं लेकिन अज्ञेय से अचेतन प्रतिस्पर्धा और होड़ उन्हे आभिजात्यवर्गीय काव्यभाषा से जोड़े भी रहता है ।
'जो रोज दिखते हैं सड़क पर ' कविता जीवन के सामान्य अनुभव और दिनचर्या को भी एक महत्वपूर्ण घटना के रूप मे देखे जाने का विनम्र आग्रह करती है-
' कौन हैं ये लोग/जिनसे दूर-दूर तक/मेरा कोई रिश्ता नहीं/पर जिनके बिना/पृथ्वी पर हो जाऊंगाॅधी सबसे दरिद्र (उत्तर कबीर पृष्ठ 95)
आन्तरिक विस्थापन की स्मृतियाँ, संवेदनात्मक रिश्तों की पडताल एवं उनका विमर्शात्मक प्रत्यक्षीकरण केदारनाथ सिंह की अधिकांश रचनाओं का केन्द्रीय रचना-सूत्र है ।
उनकी लोरी कविता के पाठ मे उनके कवि की रचना-प्रक्रिया खा रहस्य खुलता है ।वे एक मूड,एक प्रसंग, एक संवेदनात्मक काव्य-वस्तु उठाते हैं और यथार्थ के ऊपर प्रत्याशित संभावनाओ के कल्पना-सृजित चौहान से या धुन्ध मे छिपा देते हैं । प्रायः वे अनुभवों और विचार की श्रंखला प्रस्तुत करते हुए अपने पाठकों को काव्यात्मक साक्षात्कार के एक ऐसी यात्रा पर ले जाते हैं जिसे पर्यटन या भ्रमण न कहकर टहलना कहना अधिक उचित होगा ।
केदारनाथ सिंह की कविताएँ समकालीन राजनीतिक यथार्थ का अधिकतम सीमा तक बहिष्कार करती हैं .उनकी अनुपस्थिति सुनिश्चित कराती हुई विकल्प की खोज में भटकती हैं .एक सजग और सायास अन्देखापन है उनमें जिसे मुंह चुराना नहीं ,बल्कि मुंह फेरना कहना ही उचित होगा . यह उस विस्थापन और अनुपस्थिति का बदला है जिसे उनके समय कि गैजिम्मेदार राजनीति नें घटित किया है .
"अकाल में सारस "संग्रह की 'जिद ' कविता कवि के जीवन-a
शनिवार, 16 नवंबर 2019
उनका दुख भी दूना करतीं हैं।
इसलिए इससे यथासम्भव बचे रहना ठीक है।
इसके बावजूद यह लोगों को सामूहिक रूप से पसन्द करने,अपने आदर्श को चुनने और उसका अनुसरण कर एकरूप आचरण करने वाले समाज के निर्माण और विकास का आधार भी है । यह सामाजिक शक्ति के निर्माण का भी आधार है । इसी अर्थ में यह प्रसिद्धि यानी श्रेष्ठ सिद्धि है ।
रहना नहीं
रहना नहीं देश बेगाना है
फिर काहे को इतराना है
जो है ,जहाँ है,जैसा है
सब छोड-छाडि चलि जाना है
सब समझि-बूझि कर गाना है
ज्यों सब संग मिलि परदेश रवाना है ।
ऐसे ही मन मे कौंध गया
अपराधियों के सुधार के लिए जरूरी
और औषधि तुल्य हो सकतीं हैं ये पंक्तियाँ ।)
धरती पर
घाटी-सी कटान होगी
गहराइयाॅ बनेगी
तो पर्वत के कूबड़ तो अपने आप ही बन जाएंगे
जब-जब विषमता के खड्ढे बढ़ेंगे
तो बढेंगे धरती के भाग्यवान धनवान
बढेगी धरती पर भिखारियो की फ़ौज
तो यों ही कुछ न कुछ देते हुए इतराएंगे अन्नदाता
तालियों के बीच उपहार बटवाएंगे
सेल्फियाॅ खिचवाएंगे
अखबारों मे छपवाएंगे
सामूहिक मूर्खो और अशिक्षितो की आबादी बढ़ेगी
और बढेंगे ज्ञानचक्षुओ को
बन्द और अपहृत करने वाले बबान
और बढेंगे लाचार
बढेंगे धरती पर धरती के प्रभु- भगवान
होगी ही तब-तब धरती पर
लोकतंत्र और समानता के धर्म की हानि !
धरती पर सतयुग भी नहीं आएगा ।
07/11/2019
प्रशूद्र
------------------------------------
सब गुलाम थे
पराधीन और अपमानित
सभी शूद्र थे
ऐतिहासिक दुर्दशा को प्राप्त
तलवे चाट गुलामों के थे वंशज सब
सिर्फ एक ही वर्ण के लोग बचे थे जम्बू द्वीप में
पराधीन, पद-कुचलित-मर्दित !
और अपमान की अहर्निश आग में जलने से
बचने के लिए भाग रहे थे मारे-मारे
क्षत्रिय सभी मुँह छिपाए खडे थे
अपने पूर्वजों के तीर्थ को छोडकर
इधर-उधर भाग रहे थे पण्डे
पर्वतों और जंगलों की ओर
तब कोई भी नहीं बचा था श्रेष्ठ
सब क्षुद्र थे !
सब प्रशूद्र थे
अति-शूद्र अति-शूद्रतम !
हे इतिहास-प्रमाणित अतिशूद्रो!
समय,समाज, संस्कृति और सभ्यता ने
ख़ारिज किया है तुम्हे!
तुममें किसी मक्खी की तरह
फिर उसी घाव पर
फिर उठकर जा बैठने की
इतनी बेचैनी क्यों है ?
तब तुम स्वयं को
सिर्फ और सिर्फ इन्सान ही घोषित करते हुए
नहीं अघाते थे
स्वयं को कहते रहने के लिए बाध्य थे
वही कहो !
जो अनेकता की भयानक अराजकता और
मूर्खतापूर्ण दुर्घटनाओं की समझदारी के रूप मै
प्राप्त हुई है !
जानने और जीने की ज़रूरत है
डाायरी के पन्नो पर प्राप्त)
सुदामा पाण्डेय धूमिल
मुक्तिबोध जहाँ साम्यवादी व्यवस्था के स्वप्नदर्शी कवि हैं तो धूमिल लोकतांत्रिक भारत के विचारक एवं जमीनी पडताल के कवि । धूमिल ने स्वतंत्रता के बाद की वर्तमान व्यवस्था की जिस नकारात्मक भूमिका का साक्षात्कार किया है ,वह आरोप अब भी विचारणीय और गम्भीर है । एक आम नागरिक की नियति को वे कैदी की नियति और व्यवस्था को कारागार की भूमिका मे पाते हैं । उनकी लम्बी कविता पटकथा की अन्तिम निष्कर्षात्मक अभिव्यक्ति यही है-
हर तरफ
शब्दबेधी सन्नाटा है ।
दरिद्र की व्यथा की तरह
उचाट और कूॅथता हुआ । घृणा में
डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की तरह आज भी
मेरा कारागार है ।
सहनशीलता का नाम
आज भी हथियारों की सूची मे नहीं है ।
भीतर की बत्तियां बुझाकर
पडे-पड़े सोता है
क्योंकि वह समझता है
कि दिन की शुरुआत का ढंग
सिर्फ हारने के लिए होता है
जिन्दा रहने के लिए
घोड़े और घास को
एक जैसी छूट है
लोग ऊबते हैं तो ऊबे
जनता लट्टू हो
चाहे तटस्थ रहे
बहरहाल, वह सिर्फ यह चाहता है
कि उसका 'स्वस्तिक'-
स्वस्थ रहे
(भाषा की रात कविता )
मगर हमारे सिर तकियो पर
पत्थर हो गए हैं
आदमी की आदत नही अद्धा लाचारी है
और मेरे भीतर एक कायर दिमाग है
जो मेरी रक्षा करता है और वही
मेरी बटनों का उत्तराधिकारी है ।
संविधान की धाराएं
नाराज आदमी की परछाई को
देश के नक्शे मे
बदल देती हैं
दो हिस्सों में काटती हुई
आदत बन चुकी है
---------------
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव मे
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है ।
(कविता)
धूमिल की कविताएं जीवन की जड़ता के विरुद्ध जीवित रहने का जुझारू स्पन्दन हैं । वे लोकतांत्रिक व्यवस्था को पाखण्डमुक्त और पारदर्शी देखने की अदम्य रचनात्मक आकांक्षा और संकल्प का परिणाम हैं ।
कितने सब्र की जरूरत होती है
( बीस साल बाद)
पूरी नागरिक सौम्यता के साथ ।
लोच है
नर्मी है
मगर मत भूलो कि इन सबसे बड़ी चीज
वह बेशर्मी है
जो अनत मे
तुम्हे भी उसी रास्ते पर लाती है
जहाँ भूख-
उस वहशी को
पालतू बनाती है । (कुत्ता' कविता )
09/11/2019
मानव-जाति
मुखौटों के पीछे छिपी है मानव-जाति
हर आतताई समूह अपनी हिंसा से
दूसरे समूह को संक्रमित करता है
और विजय के उन्माद मे
अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए
घृणा और प्रतिशोध का
संतप्त उपहार छोड़ जाता है ।
हर संक्रमण प्रतिरोध को जन्म देता है
हर महायुद्ध के बाद
धरती पर बच जाने हैं
सिर्फ दुष्ट,जिद्दी और खूंखार बेहये !
थकी-हारी-पछताती मानवजाति
अपने-अपने धर्म और विचारधारा के लिए
करती सभी को शर्मसार!
शब्द
सभी के यहाँ
एक समान नहीं होती !
यानि कि शब्दों की अर्थवत्ता
बचकाने हो सकते हैं शब्द
जबकि उसी देश के किसी गुमनाम -अनाम से
बच्चे के शब्द सयाने।
कभी भूलुण्ठित गिरे-पडे सिर धुनते है शब्द
शब्द ऐसे ही नहीं ब्रह्म है
ब्रह्म हैं कभी भी अपने प्रयोक्ता सवार को
सहसा गिरा देने की स्वतंत्रता के कारण
नौ दो ग्यारह हो जाने की शक्ति के कारण
हो जाते हैं गालियाँ बकने वाले के ही विरुद्ध
कि देखो लोगों
सबसे अश्लीलतम मनुष्य
यहाँ खड़ा बोल रहा है
इसके गन्दे दिमाग के प्रति सभी
सूचित संज्ञानित और अवगत हो !
तौला नहीं जा सकता किसी बटखरे से
उनका वजन सिर्फ उनके प्रयोक्ता के वजन
वजूद,आचरण और व्यवहार से ही जाना जा सकता है।
सारी दुनिया छोड़कर
अपने मालिक का सही पता बता जाते हैं ।
14/011/2019
शुक्रवार, 15 नवंबर 2019
बुद्ध एक पुनर्विचार
बौद्ध धर्म ने मानव-चित्त और व्यक्तित्व को लेकर बिल्कुल स्वावलंबी और विशिष्ट सांस्कृतिक सौन्दर्यबोध उत्पन्न किया। मनुष्य मे अन्तर्निहित महानता की सम्भावना प्रदर्शित करने के लिए ही उनके अनुयायियों ने बुद्घ की विशाल बनवायी ।
बौद्ध देशों में मिलने वाली विशेष ढंग की बौद्धिक सभ्यता अन्य धर्म के अनुयायियों की तुलना मे उन्हें श्रेष्ठतर प्रमाणित करती है । यह अजीब पर्यवेक्षण है कि ईश्वर को केन्द्र में रखकर विकसित धर्म एक विकलांग और परजीवी मनुष्यता को जन्म देते है । ऐसे धर्म ईश्वर की कृपा प्राप्त रूप मे व्यक्ति - पूजा को बढ़ावा देते है । इसी संस्कार के कारण भारतीय लोकतंत्र भी व्यक्ति, वंश और परिवार केन्द्रित हो गया है ।
प्राचीन गणतंत्र से सम्बंधित होने के कारण बुद्ध का दर्शन स्वाभाविक रूप से आधुनिक लोकतंत्र के लिए प्रासंगिक और अनुरूप है जबकि सनातन धर्म राजतंत्र की स्वाभाविक व्युत्पत्ति होने के कारण रीढ़ विहीन चाटुकारिता की पोषक , सामन्ती विशिष्टता और भेदभाव को मान्यता देने वाली और लोकतांत्रिक समानता की विरोधी है ।
30/04/2018
सोमवार, 2 सितंबर 2019
ईश्वर के न होने की दशा मे एक प्राक्कलन
ईश्वर के न होने की दशा मे एक प्राक्कलन
सृष्टि निर्माण मे ईश्वर का पद रिक्त हो गया हैं ।(संदर्भ स्टीफ़न हाकिंग) गुणधर्म से संचालित इस सृष्टि मे अब तक के विकास क्रम मे तो ईश्वर का भी सृजन और विकास हो जाना चाहिए था । ईश्वर के न रहने पर किसी प्रलय या विनाश के बाद फिर नई जीवन-सृष्टि के लिए प्रकृति को ंसंयोगो और भटकावो पर ही निर्भर रहना पडेगा । ईश्वर होता तो उसकी पूर्वस्मृति से काम चल जाता और जीवन की नई व्युत्पत्ति का क्रम भी सुनिश्चित रहता । सवाल केवल आस्था-अनास्था का नही है । सृष्टि की बेहतर संभाव्यता को सुनिश्चित करने के लिए किसी कर्ता का होना सिद्धान्ततः अधिक गुणवत्तापूर्ण होंगा । इस खूबसूरत दुनिया को बनाए और बचाए रखने के लिए वास्तव मे किसी ईश्वर (चेतन स्मृति और नवसृजन के लिए विचार की सामर्थ्य का प्राकृतिक केन्द्र) को सिद्धान्ततः होना चाहिए था । सृष्टि ने मनुष्य की सर्जना कर अपनी सर्जन कला और क्षमता का सर्वोत्तम प्रदर्शित भी किया है । लेकिन सच तो यह है कि उसके साथ सबसे बुरा व्यवहार उस स्वतंत्रता के दुरुपयोग से ही हो रहा है जो उसने मनुष्य जाति को उदारतापूर्वक दी है ।
बहुत पहले मैने लिखा था कि जब तक मरेगी नही मृत्यु तब तक मरेगा नहीं ईश्वर । प्रकृति ने अपनी सृजन शक्ति तो प्रमाणित कर दी है लेकिन यह संयोग आधारित है तो इस बात की कोई गारंटी नहीं होगी कि विनाश के बाद जब फिर ब्रहमांड की वापसी हो तो जीवन का होना भी लौट आए । लेकिन यदि वह सायास और सुचिंतित है तो एक बार फिर जीवन की व्युत्पत्ति सुनिश्चित हो सकती है । जैसा कि पश्चिमी धार्मिक विश्वास है- किसी बाह्य चेतन शक्ति के हस्तक्षेप के बिना वाली सृष्टि अनन्त काल तक सजीव सृष्टि की प्रतीक्षा कर सकती है ।
निश्चिंत ही इस तरह के चिन्तन एकान्त में चलते हैं जो देश-काल के अनुसार प्रचलन मे नहीं होते । एक बार बन चुकाने के बाद h2o यानि जल यौगिक रूप मे वाष्प, तरल और ठोस तीनो अवस्थाओं मे अस्तित्वमान रहता है । तापमान बढने पर अदृश्य भी हो जाता है । यदि जीवों को नश्वर मान लिया जाय तब भी उनके भौतिक जैविक संयोजन की संरचनात्मक या गणितीय अमरता (जीन कोड) के रूप मे बनी रहेगी । यदि जल बनने के बाद वैज्ञानिक ढंग से हाइड्रोजन और आक्सीजन के अणुओं मे विभाजित किए जाने तक जल की अमरता बनी रह सकती है तो सृष्टि की मृत्यु(प्रलय ) के बाद भी किसी न किसी बीज-रूप में जीवन का कोई सूक्ष्मतम प्रारूप बचा रहना चाहिए । चाहे वह विद्युतीय आवेश के रूप मे ही क्यों न हों । वैज्ञानिक नीहारिकाओं के लडने-भिडने ,सूर्य के चुक जाने बुझने एवं धरती के अन्त की भविष्यवाणी करते रहते है । मन मे आता है कि वाष्प की तरह जीवन के भी अदृश्य रूप मे बचे रहने की व्यवस्था यानि वैज्ञानिक संभावना है कि नहीं । पदार्थों और ऊर्जा के गुणधर्म की संभाव्यता के आधार पर तो समान परिस्थितियों में जीवन फिर बन जाएगा लेकिन डायनासोरो से लेकर मनुष्य जाति को रचने वाली इस प्रकृति मे निर्माण की क़ोई स्मृति-व्यवस्था भी है या नहीं यह प्रश्न-विचार मेरे मन मे उठता है। सामान्य भाषा मे जिसे प्रेत या पितर योनि कहते हैं । प्रलय काल मे ऐसा अस्तित्व ही जीवन की बारम्बारता सुनिश्चित कर सकता है । अभी तो उनका होना हत्यारों को डराने के भी काम नहीं आ रहा । लेकिन इन नेपथ्य की संभावनाओ के आधार पर ही मुझे तो प्रकृति की पूर्णता यानि सामर्थ्य की पूर्णता पर पूरा विश्वास है। चीजें एवं संभावनाएं मनुष्य के जानने न जानने से स्वतंत्र हैं । आदिवासी जैसा मानते है जैविक विद्युत के गुणधर्म और अस्तित्व की संभावनाओ मे यह सामर्थ्य मुझे दिखती है कि वह प्रलय काल मे भी जैविक सृष्टि की स्मृति को बीज-रूप मे बचाए रखे । लेकिन डरता हूँ कि यह लोक विश्वास कहीं अवधारणा मात्र न हो । मुझे तो अवधारणा से बाहर सच्चाई के धरातल पर जैविक सृष्टि की सुरक्षा के लिए जीवन मे प्रेत के रूप मे बचे रहने की वैज्ञानिक संभाव्यता भी चाहिए ।मुझे इसलिए यह संभावनापूर्ण लगता है कि आकाशीय विद्युत या तड़ित धनात्मक आवेश वाले बादलों से ऋणात्मक आवेश वाले बादलों तक आकर ही समाप्त नहीं हो जाती बल्कि धरती के गर्भ मे समाने तक आवेश रूप मे बनी रहती है । कई बार तो कई लोगों को मारते हुए जाती है । यदि भौतिक विद्युत तड़ित मे ऐसा गुणधर्म है तो जैविक विद्युत मे भी आवेश रूप मे देर तक बने रहने का गुण हो सकता है । संभव है यह आवेश बीज की तरह ही परमाणुओ को नई सृष्टि के समय पुनरसंयोजन के लिए प्रेरित कर सके । फिलहाल मै सहमत हूँ कि यह प्रकृति पूर्ण है और स्वयं ही ईश्वर के आस-पास है । अलग से ईश्वर के होने या न होने की अवधारणा से कोई फर्क नहीं पड़ता ।
पुनर्जन्म की अवधारणा
पुनर्जन्म की अवधारणा पर एक और तरह से मै सोचता हूँ । वर्णमाला के कुछ ही वर्णों के मेल से मानव-जाति ने लाखों शब्द बना डाले हैं । आर एन ए ,डी एन ए भी कुछ वर्णों के मेल से बने शब्दों की तरह कोई विशिष्ट संरचना बनाते है । यह संरचना शब्दों और संख्याओं की तरह बढ़ती जाती है । क्योंकि यह आवृत्ति चक्र संयोग आधारित है इसलिए हजारों पीढियों बाद या अरबों-खरबों की जनसंख्या मे समरूप विशेषताओ वाली जैविक सृष्टि कर सकती है । यह वही व्यक्ति तो नहीं होगा लेकिन वैसा ही हो सकता है । यह आध्यात्मिक पुनर्जन्म से अलग जैविक पुनर्जन्म की व्यवस्था है । एक और बात मै सोचता हूँ । सारी मानव जाति म्यूटेशन की शिकार किसी कपि पूर्वज की सन्तानें हैं । एक ही चेतन सृजन का जैविक बहुगुणन । प्रजाति के रूप मे हमारा वैयक्तिक पुनर्जन्म न सही लेकिन उस आदिम पुरखे का तो हो ही रहा है ।
ईश्वर की अवधारणा
आधुनिक मशीनी सभ्यता ने 18वी से 20वी शताब्दी के बीच जेम्सवाट के इंजन आविष्कार के बाद जीवन को देखने की यान्त्रिक भौतिकवादी दृष्टि सौप दी । जीवन को भी एक यन्त्रवत सृष्टि मान ली गयी । वैसे इसके यन्त्र होने की जानकारी अनादिकाल से शेर-बाघ जैसे पशुओं को भी थी । वे इसे बन्द करना जानते थे -शिकार मे की जाने वाली हत्याओ के रूप मे ।शिकार और मांसाहार हमारे पुरखों ने ऐसे ही शिकारी पशुओं से सीखा होगा ।
वैज्ञानिकों द्वारा आर एन ए,डी एन ए की खोज के बाद जड जगत से जीवन जगत् के बीच का रिश्ता काफी कुछ समझ लिया गया हैं । जीवविजान का तो विकास हुआ लेकिन भौतिकवाद के पूर्वाग्रह सत्रहवीं शताब्दी वाले ही बने हुए हैं । जड़ समझीं जाने वाली प्रकृति भी परमाणुओ के भीतर इलेक्ट्रॉन के रूप में गतिशील है लेकिन जड़ प्रकृति को लेकर धारणा पहले वाली ही है । दूसरी ओर ऐन्द्रिक संयम वालीं नैतिकता के स्थान पर ऐन्द्रिक उन्मुक्तता को भौतिकवाद का पर्याय मान लिया गया है ।
कहने का तात्पर्य यह कि आधुनिक भौतिकवादी दृष्टि भी भटकाव का दूसरा छोर है जैसे पहले के लोग जड़ जगत् को भी सजीव मानते थे । पुरानी आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि को प्रकृति के मानवीकरण के रूप मे भी देखा जा सकता है । दिक्कत तब होती है जब कुछ लोग आर्थिक- भौतिक प्रतीक मुद्रा की काल्पनिकता और उसके मनोवैज्ञानिक अस्तित्व को लेकर कोई आपत्ति नहीं उठाते लेकिन सृष्टि की सजीविता पर आधारित प्रतीक ईश्वर को लेकर परेशान रहते हैं । जीवन और जगत को देखने का पुराना ढंग ही सही । मेरा मानना है कि आध्यात्मिक दृष्टि पूॅजी निर्माण युग के पूर्व की आदिम मानव जाति की विरासत है ।इसका बीच के शोषण में सहायक अनैतिक धार्मिक मूल्यों और वर्जनाओ के सामन्त युगीन विकास से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है । आप उसे जरूरी पर्यावरण की तरह ही बचाकर रख सकते है । पशुपालकों को ही लीजिए ।वे अपने-अपने पशु से रिश्ता और भाषा दोनों ही विकसित कर लेते है । हम आत्मवाद को लेकर ही द्विधाग्रस्त रहते है जबकि वे वास्तविकता के स्तर पर जीते हैं । एक वृहत्तर प्रतीक के रूप मे ईश्वर पद की अर्थ एवं प्रयोग की संभावनाओ की भी पड़ताल की जानी चाहिए । चाहे वह अर्थ परिवर्तन के माध्यम से ही क्यों न हो !
मनुष्य और ईश्वर दोनों की मुक्ति का रास्ता भी विमर्श से होकर ही गुजरता है । किसी का भी सोचना उसमे सहायक हो सकता है । मेरा चिन्तन तो विकल्प की चिन्ता से प्रेरित है । किसी को जूता दिए बिना चप्पल फेंक देने का उपदेश देना उचित नहीं । एक और बात है जो शिक्षक पेशे से सम्बन्धित है । पाठ्यक्रम में होंने के कारण जिससे असहमत रहा हूँ, उसे भी पढाता रहा हूँ । मेरे फेसबुक मित्रों मे बहुत से हिन्दी शिक्षक है । उनके लिए इस तरह का विमर्श भी उपयोगी हो सकता है ।
शनिवार, 24 अगस्त 2019
ईश्वर प्रसंग
ईश्वर प्रसंग
आदमी का दिमाग सभ्यता के प्रारम्भिक काल मे किसी शिशु की तरह सोचता था । ईश्वर की अवधारणा भी सम्पूर्ण प्रकृति को मनुष्य के समान ही सजीव मानने की अवधारणा की उपज है । यह प्रकृति का आत्मवत प्रत्यक्षीकरण है । भारतीय आध्यात्मिक विश्वास और दर्शन मे इसी चेतना और बोध का विस्तार है । दूसरी दृष्टि पश्चिम की है जो प्रकृति को आत्मवत मनाने के स्थान पर सृष्टि के निर्माण में अन्तर्निहित जटिलता पर रीझी और ऊसकी आश्चर्यजनक सृजनशीलता के लिए सर्जक अंर कर्ता के पद पर ईश्वर को प्रतिष्ठित किया । ईश्वर के साथ पश्चिम के पूर्वजों ने सृष्टि के प्रतिकूल और नकारात्मक अनुभवों के लिए भी प्रकृति का मानवीकरण किया और उसे शैतान के रूप में देखा । सृष्टि के प्रत्यक्षीकरण की इस भिन्नता ने दो प्रकार की संस्कृति और सभ्यता को जन्म दिया । अपने एकल ईश्वर के अनुरूप भारतीयों का ईश्वर भी जहाँ उदार, कृपालु और सज्जन रहा वहीं ईश्वर और शैतान के सांझे अस्तित्व के दोहरे मानवीकरण के कारण पश्चिम ने चतुराई की द्वन्द्वात्मक श्रेष्ठता और संघर्ष की परिकल्पना वाली राजनीतिक व्यवस्था को अपने विकास का आधार बनाया ।
आधुनिक मशीनी सभ्यता ने 18वी से 20वी शताब्दी के बीच जेम्सवाट के इंजन आविष्कार के बाद जीवन को देखने की यान्त्रिक भौतिकवादी दृष्टि सौप दी । जीवन को भी एक यन्त्रवत सृष्टि मान ली गयी । वैसे इसके यन्त्र होने की जानकारी अनादिकाल से शेर-बाघ जैसे पशुओं को भी थी । वे इसे बन्द करना जानते थे -शिकार मे की जाने वाली हत्याओ के रूप मे ।शिकार और मांसाहार हमारे पुरखों ने ऐसे ही शिकारी पशुओं से सीखा होगा ।
वैज्ञानिकों द्वारा आर एन ए,डी एन ए की खोज के बाद जड जगत से जीवन जगत् के बीच का रिश्ता काफी कुछ समझ लिया गया हैं । जीवविजान का तो विकास हुआ लेकिन भौतिकवाद के पूर्वाग्रह सत्रहवीं शताब्दी वाले ही बने हुए हैं । जड़ समझीं जाने वाली प्रकृति भी परमाणुओ के भीतर इलेक्ट्रॉन के रूप में गतिशील है लेकिन जड़ प्रकृति को लेकर धारणा पहले वाली ही है । दूसरी ओर ऐन्द्रिक संयम वालीं नैतिकता के स्थान पर ऐन्द्रिक उन्मुक्तता को भौतिकवाद का पर्याय मान लिया गया है ।
कहने का तात्पर्य यह कि आधुनिक भौतिकवादी दृष्टि भी भटकाव का दूसरा छोर है जैसे पहले के लोग जड़ जगत् को भी सजीव मानते थे । पुरानी आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि को प्रकृति के मानवीकरण के रूप मे भी देखा जा सकता है । दिक्कत तब होती है जब कुछ लोग आर्थिक- भौतिक प्रतीक मुद्रा की काल्पनिकता और उसके मनोवैज्ञानिक अस्तित्व को लेकर कोई आपत्ति नहीं उठाते लेकिन सृष्टि की सजीविता पर आधारित प्रतीक ईश्वर को लेकर परेशान रहते हैं । जीवन और जगत को देखने का पुराना ढंग ही सही । मेरा मानना है कि आध्यात्मिक दृष्टि पूॅजी निर्माण युग के पूर्व की आदिम मानव जाति की विरासत है ।इसका बीच के शोषण में सहायक अनैतिक धार्मिक मूल्यों और वर्जनाओ के सामन्त युगीन विकास से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है । आप उसे जरूरी पर्यावरण की तरह ही बचाकर रख सकते है । पशुपालकों को ही लीजिए ।वे अपने-अपने पशु से रिश्ता और भाषा दोनों ही विकसित कर लेते है । हम आत्मवाद को लेकर ही द्विधाग्रस्त रहते है जबकि वे वास्तविकता के स्तर पर जीते हैं । एक वृहत्तर प्रतीक के रूप मे ईश्वर पद की अर्थ एवं प्रयोग की संभावनाओ की भी पड़ताल की जानी चाहिए । चाहे वह अर्थ परिवर्तन के माध्यम से ही क्यों न हो !
मनुष्य और ईश्वर दोनों की मुक्ति का रास्ता भी विमर्श से होकर ही गुजरता है । किसी का भी सोचना उसमे सहायक हो सकता है । मेरा चिन्तन तो विकल्प की चिन्ता से प्रेरित है । किसी को जूता दिए बिना चप्पल फेंक देने का उपदेश देना उचित नहीं । एक और बात है जो शिक्षक पेशे से सम्बन्धित है । पाठ्यक्रम में होंने के कारण जिससे असहमत रहा हूँ, उसे भी पढाता रहा हूँ । मेरे फेसबुक मित्रों मे बहुत से हिन्दी शिक्षक है । उनके लिए इस तरह का विमर्श भी उपयोगी हो सकता है ।
प्राचीन धार्मिक चिन्तन मे जीवन जीने का कई पीढ़ियो का अनुभव भी समाहित है। समय-विशेष के समाज मे प्रचलित मूर्खताओ और चेतावनियो को भी धार्मिक आख्यान का विषय बनाया गया है । रामायण मे साधुवेशधारी रावण द्वारा सीता-हरण का प्रसंग तथा उसके पहले सोने के हिरण का पीछा करते राम द्वारा अपने दाम्पत्य जीवन को गंवाने का प्रसंग ऐसा ही चेतावनीपरक है ।
इसी दृष्टिकोण से गीता का दूसरा अध्याय सभी को पढना चाहिए । इसमें महामानव बनने -बनाने की मनोवैज्ञानिक युक्तियाँ हैं । मन और मनोविज्ञान के अतिक्रमण का शास्त्र छिपा है । श्रीकृष्ण के लिए योग कर्म यानि सक्रिय जीवन जीने का विज्ञान था । दूसरे शब्दों में योग उनके लिए कुशलतापूर्वक कर्म करते हुए जीवनयापन करने के लिए अनुकूल और सहायक चित्त को पाना था । इसे मै विवेक प्रबन्धन की विद्या कहना चाहूँगा ।
यह मत पूछिएगा कि गीता यदि मैने पढ़ी है तो महामानव क्यो नहीं बना ? दरअसल महामानव समय और इतिहास की मांग और पूर्ति के नियम के अनुसार प्रसिद्धि पाते यानि समाज द्वारा बनाये जाते हैं । स्वयं श्रीकृष्ण भी अपने निन्दको के मारे जाने तक शिशुपाल और दुर्योधन से गालियाँ खाते रहे । ख्यात-कुख्यात न सही गोपनीय या पारिवारिक स्तर के महामानव तो आप और हम (बिना नाम के भी) बन ही सकते है । बस अर्जुन की तरह बन्धु-बान्धवो की हत्या करने की मशीन मत बन जाएगा । हाॅ गीता के साथ वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत को भी समझना होगा तभी आप इस रहस्य का भेदन कर पाएंगे कि सब कुछ या केवल श्रीकृष्ण ही नही आप भी कुछ कम नहीं ।
शुद्धाद्वैत के अनुसार यह सारा जगत ब्रह्म ही है । सृष्टि का उद्देश्य आनन्द की सृष्टि है न कि दुख । ब्रह्म ही एक से अनेक हो गया है । वल्लभाचार्य उपनिषदों की इस सूक्ति को अपने शुद्धाद्वैत का आधार बनाते हैं । एकाकी न रमते ,सो कामयत्,एको-अहं बहुस्याम,' अर्थात् ब्रह्म का अजर-अमर अकेला अस्तित्व ऊब या बोर हो रहा था । उसने कामना की कि मै एक हूँ, अनेक हो जाऊँ । सर्व समर्थ होने से यह इच्छा ही सृष्टि की रचना का कारण बनी । इसलिए निरन्तर आनन्दित रहना हम सभी का कर्तव्य है । श्रीकृष्ण ने मुझ अन्तर्यामी को कृश न करने की चेतावनी दी है । यानि स्वयं को कष्ट देना भी आध्यात्मिक दृष्टि से अपराध है । दूसरों के ईश्वर-रूप को न पहचान कर दुख देने वाले तो आध्यात्मिक दृष्टि से अपराधी हैं ही । इस तरह इस दुनिया का हर जीव विकेन्द्रित ईश्वर ही है । वल्लभाचार्य के दर्शन के अनुसार यह सारा जगत ही ब्रह्म की मूर्ति है । केवल मन्दिर के भीतर ही ईश्वर होने का विश्वास रखने वाले आध्यात्मिक दृष्टि से अज्ञानी और मूर्ख है । वल्लभाचार्य ने जड़ जगत को अक्षर ब्रह्म कहा है ।इस ब्रह्म मे सतोगुण तो है लेकिन चित् और आनन्द नहीं है ।
जीवन जगत को आधिभौतिक यानि भौतिक से ऊपर कहा है । जिसमें सत् और चित् तो है लेकिन आनन्द का अभाव है । उदाहरण के लिए यह जागता है तो सोने के लिए परेशान हो जाता है । खड़े रहने पर बैठने के लिए । सच्चा आनन्द आधिदैविक श्रीकृष्ण (सदृश होने और जीने मे) मे ही है ।
मध्ययुगीन दार्शनिक शब्दावली मे जीवन से विमुख या विरक्त होने का सन्देश न देने वाला दर्शन और उसपर आधारित सूर का काव्य मुझे अपने ढंग का सॅर्वाधिक महत्वपूर्ण लगता है । मित्र को, माता-पिता को और शिशु को भी दिव्य अस्तित्व यानि ईश्वर के रूप में दर्शन करने का सन्देश देने के कारण।
बुधवार, 21 अगस्त 2019
याचक
दरअसल वे डकैत थै ।
अलग ढंग के डकैत ।
सभी को सन्तोष,त्याग और दान का पाठ पढा रहे थे ।
क्या गजब का लूट रहे थे
कि सब लुटते हुए भी
मुस्करा रहे थे ।
इस तरह वे सभी का ध्यान
असली जरूरत मंदों से
फर्जी याचकों की ओर
भटका रहे थे
जो स्वाभिमानी भूखे थे
दम तोड़ रहे थे बन्द कमरों मे
और पेशेवर मंगते
सारे शहर मे
गुलछर्रे उड़ा रहे थे ।
देवता
उनका दोष यही था
कि वे देवता हो चुके थे
धरती से ऊपर उठ चुके थे
धरती से सम्बन्ध-विच्छेद हो चुका था उनका
अब वे स्वर्ग से बर्खास्त होने पर ही
धरती पर अपने अवतरण के लिए
सोच सकते थे !
धरती को
और धरती वालों को बचाने के लिए
उनका स्वर्ग से बर्खास्त होना बहुत जरूरी था ।
रामप्रकाश कुशवाहा
21-08-2019
रविवार, 4 अगस्त 2019
मित्रता
अस्तित्व के धरातल पर हम सब एक ही जीवन की पुनरावृत्ति है । सैद्धांतिक दृष्टि से देखें तो लगभग क्लोन । सृष्टि के लम्बे विकास क्रम ने जैव-विविधता भी दे दी है । इससे अस्तित्व की हर ईकाई मे भिन्नता आई है । इसने हमें पूरक भूमिका में ला दिया है। यहां तक कि स्त्री-पुरुष विभाजन भी प्रजाति की रक्षा के लिए ईकाई की भूमिका मे है। पुनरावृत्ति होने के कारण हम सब एक-दूसरे को अतिरिक्त और फालतू भी बनाते हैं ।हमारा अतिरिक्त या फालतू होना भी प्रकृति ने प्रजाति की सुरक्षा के लिए किया है ।लेकिन हमारा निकट अतीत जंगल की असुरक्षाओ से घिरा रहा है ।हिंसक जीवों की उपस्थिति के बीच हम समूह मे ही सुरक्षित रहे हैं । मुझे लगता है मित्रता इसी साझी सहजीविता का अवशेष हैं । आज तक का संस्थागत विकास बाजार संचित पूॅजी और वेतन के बल पर अकेले मे भी सुरक्षित जीने की सुविधा देता है लेकिन पोषण के लिए भी हम समाज निर्भर रहते ही हैं । यद्यपि शिकार और कृषि के माध्यम से एकाकी जीवन भी जिया जा सकता है लेकिन ऐसा जीवन अपवाद मे ही जिया जा सकता है । यह प्रजाति की मृत्यु की ओर ले जाएगी न कि प्रजाति की अमरता की ओर ।
मित्रता रिश्तो की एक अनन्य कोटि है । मित्र-धर्म अन्य धर्मों से बढकर और वास्तविक ही है । कहतें है किशोरावस्था-युवावस्था की मित्रता चिरस्थायी होती है । पुराण और इतिहास मे कृष्ण,,ईसा मसीह ,मुहम्मद ,सिकन्दर ,चंगेज खाँ और बाबर को उसका मित्रों ने ही विजेता बनाया था , न कि भाडे के सैनिकों ने । अन्तर्मुखी व्यक्तित्व होने के कारण मेरे वास्तविक मित्र कम ही हैं । फेसबुक वाले मित्र समानधर्मा तो हैं लेकिन वास्तविक जीवन मे उनके मित्र-धर्म की परीक्षा अभी नहीं हुई है । दरअसल फेसबुक वाले मेरे सम्मान के पात्र हैं ।इसलिए कि अधिकांश से उनकी प्रतिभा से मै प्रभावित हुआ हूँ । इनमे से बहुत से लोग वास्तविक मित्रता की ओर अग्रसर विचाराधीन मित्र है । संभव है कोई भविष्य का महत्वपूर्ण मित्र भी इनमें मिले । ऐसे सभी मित्रों को मित्र दिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ और बधाई ।
उन मित्रों को विशेष रूप से बधाई और शुभकामनायें जो मेरेो जीवन और परिवार के अभिन्न अंग बन चुके हैं ।
जीवन मे अनौपचारिक और अनन्य मित्र कुछ ही हो पाते हैं । वह भी स्वाभाविक समानधर्मा ही । अचार बनने की तरह मित्र बनने मे भी समय लगता है । बहुल अधिक अंतर्मुखी और एकान्तप्रिय लोगों को असुविधा भी होती है । मेरे सबसे महत्वपूर्ण मित्र वे ही हैं जिनके मित्र बने रहने की चिन्ता से रिश्ते पूरी तरंह मुक्त हैं ।
गुरुवार, 20 जून 2019
प्राणायाम
प्राणायाम को कुछ लोग जरूरत से ज्यादा आध्यात्मिक रहस्यीकरण करते हैं । इससे उन वैज्ञानिक लाभों की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता जिसका सिर्फ़ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी महत्व है ।
अनुलोम-विलोम द्वारा श्वास-चक्र पर नियंत्रण के प्रयास मे हमारा ध्यान बाह्य लोक के प्रपंच से कटकर अपने शरीर क अभियान्त्रिकी से होते हुए विशुद्ध अस्तित्व-बोध तक पहुँचता है । दूसरा लाभ यह होता है कि हम श्वास रोककर जब आक्सीजन का कृत्रिम अभाव पैदा करते हैं तो शरीर कुछ-कुछ वैसी ही क्रिया- प्रतिक्रिया करता है जैसी कि तिब्बत की अधिक ऊंचाई पर रहने वाले पर्वतीय निवासियों में कम आक्सीजन की स्थिति मे लाल रक्त कोशिकाओं का उत्पादन शरीर बढा देता है । इससे कम आक्सीजन मे भी फेफडों का ग्राह्यता स्तर बढ जाता है । कहना न होगा कि कबड्डी के खेल और देर तक की गोताखोरी से भी कुछ ऐसा ही वैज्ञानिक लाभ मानव-शरीर को मिलता है ।
रामप्रकाश कुशवाहा
20-06-2019
बुधवार, 15 मई 2019
आत्मा का रहस्य
आत्मा या प्राण की अवधारणा जीवन की अवधारणा से भिन्न है । अलग-अलग संस्कृतियो कै विश्वासों मे भी अन्तर है । मरने के बाद भी इसकी अवधारणा मे जैव विद्युतीय रूप मे अस्तित्वमान रहना प्रमुख है । इस्लाम आदि मे बलि प्रथा द्वारा आत्मा के पोषण एवं दीर्घजीवन का विश्वास है । भारतीय संस्कृति एवं जनजातीयो मे भी ऐसा ही विश्वास मिलता है । जीवों मे जैव विद्युत का उत्पादन, एवं विद्युतीय आवेश की प्रकृति का अध्ययन होना चाहिए । जैसे जनरेटर बन्द होते ही विद्युतीय आपूर्ति बन्द हो जाती है ,वैसा है या जैसे आकाशीय बिजली तड़ित का आवेश चमक के बाद भी धरती मे समाने तक आवेश रूप मे बनी रहती है-वैसा है । तड़ित की तरंह है तो कुछ समय तक और कुछ स्थितियो मे आत्मा के आवेश रूप मे बने रहने की संभावना को सिद्धान्ततः स्वीकार करना होगा । जो भी होगा प्रकृति के नियमों के अधीन ही होगा ।
शुक्रवार, 5 अप्रैल 2019
पांडित्य और बुद्धत्व
गुरुवार, 28 मार्च 2019
होली
लोक पर्व होली को पौराणिक और पुरोहिती पाठ से न देखने पर ही इसका महत्व और रहस्य खुलता है।हिरण्य कश्यप का वध भी हिरण्य यानि सोने के समान पकी हुई फसल का काटना है। नरसिंह के रूपक में किसान के सिंह केसमान पराक्रम का मानवीकरण है। झस मिथकीय कथा को रूपक के रूप में देखने से ही इसका काव्यात्मक निहितार्थ खुलता है।जैसे फसल को काटने के लिए होने वाले हिंसात्मक कार्य की तुलना सिंह के शिकार से करते हुए उसे नरसिंह के रूप में देखा गया है।होली समबन्धी मिथक में आए सभी नाम इतने सुस्पष्ट हैं कि कथा की कालपनिकता पर विवाद न करते हुए उसके प्रतीकार्थ के महत्व की ओर ध्यान देना चाहिए।
इधर कुछ ऐसे पोस्ट देखने को मिले हैं कि जिसमें होलिका के एक स्त्री -प्रह्लाद की बुआ,को जलाने के आधार पर होली त्यौहार का ही विरोध किया जा रहा है। इस सम्बन्ध में मुझे जो कहना है वह कुछ इस प्रकार है कि हिन्दी में तो इ और आ स्वर की उपस्थिति मात्र से शब्द को स्त्री मान लिया जाता है।संस्कृत में पुलिंग,स्त्रीलिंग के साथ नपुंसक लिंग भी मिलता है। इस तथ्य को देखते हुए यह सोचना ठीक नहीं होगा कि कोई स्त्री वाची शब्द वास्तविक स्त्री का भी द्योतक है। हिन्दी और संस्कृत में होलिका और होली शब्द भी अन्त में आ और ई होने के कारण स्त्रीलिंग है। इसी लिए पौराणिक कथा में भी होलिका को स्त्री माना गया है। इस तथ्य को देखते हुए कि संस्कृत में हवन,स्वाहा और हवि शब्द भी मिलता है।अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए ईधन सामग्री डालने के अर्थ में। इस दृष्टि से होलिका शब्द की व्युत्पत्ति हवि पत्रिका शब्द से हवलिका होते हुई होगी । संस्कृत के भव से ही भोजपुरी का हव और हौ तथा हिन्दी का होना आदि निकले है । भाषा-परिवर्तन के इस नियम से प्राचीन काल मे होली शब्द भी होली तो नही ही रहा होंगा । नियम से प्राचीन काल मे होली भी होली नही रहा होंगा ।। इस रोचक भारतीय लोकपर्व को बेवजह बदनाम करना ठीक नही है। यह आदिम काल से चला आने वाला लोकपर्व है। यह साधारण किसान अनुभव है कि घास और झाड़ियों में आग लगाने पर हरी पत्तियाँ बची रह जाती हैं।ये हरी पत्तियां ही प्रह्लाद हैं और पुरानी पत्तियों का जलना ही नयी पत्तियों की बुआ होलिका का जलना है।
विगत वर्ष अपने एक चिन्तन में होली को मैंने एक ॠतु पर्व माना था।होलिका दहन में हो शब्द भाषा वैज्ञानिक नियमानुसार भव शब्द से अपभ्रंश काल में निकला होगा। प्रह्लाद का शब्दार्थ भी प्र -आह्लाद से श्रेष्ठ आनंद या उल्लास हुआ। इस व्युत्पत्ति के अनुसार मैंने होलिका को जो भी हो चुका है यानि पतझड़ में गिरे पुराने पत्तों के जलाने एवं प्रह्लाद के बचने को वसन्त के नए पत्तों या पल्लवों के आगमन से माना था। इस ॠतुपर्व होली की आप सभी मित्रों को बधाई। निरर्थक अतीत को जलाकर नव्यतम और श्रेष्ठतम सुख प्राप्त करने के लिए आप सभी को शुभकामनाएँ
जाति-विमर्श-1
पारम्परिक वर्ण व्यवस्था के खाते मे भूमिहार फिट नहीं बैठते । यादवों की तरह वे भी नस्ल से सवर्ण होते हुए भी सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि से अछूत बनाकर रखे गए है । मुझे तो उनका भी विद्रोह और क्रान्तिकारिता मनोवैज्ञानिक दृष्टि से साधार और विश्वसनीय लगता है ।
इस पोस्ट को पढ़कर मेंरे एक मित्र ने बातचीत मे कहा कि भूमिहारों के वर्ण को लेकर ब्राह्मण या क्षत्रिय होने को लेकर द्वैत का जो संकट है-उसका आधार वैवाहिक भी हो सकता है । वे यह मानने के लिए तैयार नहीं थे कि बन्द वैवाहिक सम्बन्ध वाली कोई जाति यदि जातीय समूह के रूप मे नही हैं तो उन्हे वर्ण नहीं माना जा सकता । वर्ण माने जाने के लिए समानधर्मी जातीय समूह होना जरूरी है । ब्राह्मण और क्षत्रिय इसलिए जाति के साथ-साथ वर्ण भी माने गए कि इनमे परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध मे बंधे विभिन्न जातीय अस्मिता वाले समूह हैं ।
लेकिन मुझे उन मित्र से बात करते हुए यह भी लगा कि वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ही रखकर पूरे भारतीय मूल की जनसंख्या को हिन्दू मानने वाले लोग इस्लाम पूर्व के बड़े जाति- प्रवासो की अवहेलना करते हैं । दृढ कबीलाई संस्कारों वाली कई जातियाँ अपनी स्पष्ट नस्लीय विशेषताओ के कारण सवर्ण जातियों के लिए निर्धारित जैविक विशेषताओ को चुनौती देती रही है । यह भी एक तथ्य है कि प्राचीन भारतीय गणराज्यो से सम्बन्धित अधिकांश जातियाँ स्पष्ट एवं दृढ कबीलाई एकता, नियमों एवं वर्जनाओ को जीने वाली रही हैं । हिन्दू जातियों मे भूमिहार,जाट,गूजर,अहीर,कुर्मी और कोइरी आदि ऐसी किसान जातियाँ हैं जिनका वर्ण व्यवस्था के अनुसार पेशेवर आधार नहीं मिलता । इन बडी जनसंखयात्मक जातियों मे चाहे वे सवर्ण मानी जाती हो या अवर्ण- उनमें अत्यन्त दृढ़ अनतर्वैवाहिकता मिलती है । इनमें से अधिकांश के पास अत्यन्त समृद्ध रीति-रिवाज और जातीय परम्पराएं है । ये अपने संख्या बल से प्रतिरोधी और आक्रामक हैं । इनमे अपने मुखिया या चौधरी को भी बराबरी की शर्तों और व्यवहार के साथ अपने मे से एक मानने की प्रवृत्ति पाई जाती है न कि व्यक्ति विशेष को अत्यन्त श्रेष्ठ एवं व्यक्ति पूजा के योग्य मानने की प्रवृत्ति । मेरा मानना है कि अपनी जाति के लोगों को अपने से बड़ा न मानने की प्रवृत्ति ही प्राचीन गणराज्यो वाले अतीत से सम्बन्धित वर्तमान जातियों की विशेषता है । ये जातियाँ व्यक्ति के नेतृत्व को महत्व देने वाले कुलीन राजतंत्रो की अधीनता और संस्कारों की प्रतिरोधी रही हैं । एक स्थापना यह भी है मेरी कि वर्ण व्यवस्था वाली ऊंच-नीच की भावना का विकास दीर्घकालिक रूप से स्थापित महाजनपदो मे हुआ । ये स्थायित्व के कारण कुलीनता और आनुवांशिकता पर आधारित वर्ण-व्यवस्था वादी सत्ता का विकास कर सके ।
आर्यों के जो समूह बाद मे आए उन्हे वर्ण व्यवस्था बन चुकने के कारण क्षत्रिय स्वीकार नहीं किया गया । भारत मे शक हूणों के वंशज तथा अन्य बहुत सी ऐसी जातियाँ है , वे जहाँ से आए थे वहाँ इस्लाम फैल जाने के कारण भारत मे ही हिन्दू जातियों मे शामिल होकर रह गयीं । यद्यपि वर्ण व्यवस्था मे सही स्थान नहीं पा सकीं । अधिक सम्भावना यही है कि जाट और भूमिहार प्राचीन गणराज्य वाली जातियों के वंशज है । यादवों का तो गणराज्य था ही । इनकी स्वतंत्र रहने की आकांक्षा को महाजनपदो के राजतंत्र से शासित ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने मिलकर स्वीकार और सम्मान नहीं किया ।
शनिवार, 2 फ़रवरी 2019
पत्रकारिता का वर्तमान परिदृश्य : भूमिका एवं चुनौतियां
भारत मे पत्रकारिता का विकास ब्रिटिश भारत में हुआ था । इसीलिए उसका स्वरूप प्रारम्भ से ही राष्ट्रवादी रहा है । उसके पास एक उद्देश्य था । आधुनिक सभ्यता की चुनौतियों का सामना करने की चिन्ता थी ।
आजादी के बाद पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की मान्यता देकर पत्रकारिता से सजग पहरेदारी की अपेक्षा की गयी थी ।
-
अभिनव कदम - अंक २८ संपादक -जय प्रकाश धूमकेतु में प्रकाशित हिन्दी कविता में किसान-जीवन...
-
संवेद 54 जुलार्इ 2012 सम्पादक-किशन कालजयी .issn 2231.3885 Samved आज के समाजशास्त्रीय आलोचना के दौर में आत्मकथा की विधा आलोचकों...
-
पाखी के ज्ञानरंजन अंक सितम्बर 2012 में प्रकाशित ज्ञानरंजन की अधिकांश कहानियों के पाठकीय अनुभव की तुलना शाम को बाजार या पिफर किसी मे...