पारम्परिक वर्ण व्यवस्था के खाते मे भूमिहार फिट नहीं बैठते । यादवों की तरह वे भी नस्ल से सवर्ण होते हुए भी सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि से अछूत बनाकर रखे गए है । मुझे तो उनका भी विद्रोह और क्रान्तिकारिता मनोवैज्ञानिक दृष्टि से साधार और विश्वसनीय लगता है ।
इस पोस्ट को पढ़कर मेंरे एक मित्र ने बातचीत मे कहा कि भूमिहारों के वर्ण को लेकर ब्राह्मण या क्षत्रिय होने को लेकर द्वैत का जो संकट है-उसका आधार वैवाहिक भी हो सकता है । वे यह मानने के लिए तैयार नहीं थे कि बन्द वैवाहिक सम्बन्ध वाली कोई जाति यदि जातीय समूह के रूप मे नही हैं तो उन्हे वर्ण नहीं माना जा सकता । वर्ण माने जाने के लिए समानधर्मी जातीय समूह होना जरूरी है । ब्राह्मण और क्षत्रिय इसलिए जाति के साथ-साथ वर्ण भी माने गए कि इनमे परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध मे बंधे विभिन्न जातीय अस्मिता वाले समूह हैं ।
लेकिन मुझे उन मित्र से बात करते हुए यह भी लगा कि वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ही रखकर पूरे भारतीय मूल की जनसंख्या को हिन्दू मानने वाले लोग इस्लाम पूर्व के बड़े जाति- प्रवासो की अवहेलना करते हैं । दृढ कबीलाई संस्कारों वाली कई जातियाँ अपनी स्पष्ट नस्लीय विशेषताओ के कारण सवर्ण जातियों के लिए निर्धारित जैविक विशेषताओ को चुनौती देती रही है । यह भी एक तथ्य है कि प्राचीन भारतीय गणराज्यो से सम्बन्धित अधिकांश जातियाँ स्पष्ट एवं दृढ कबीलाई एकता, नियमों एवं वर्जनाओ को जीने वाली रही हैं । हिन्दू जातियों मे भूमिहार,जाट,गूजर,अहीर,कुर्मी और कोइरी आदि ऐसी किसान जातियाँ हैं जिनका वर्ण व्यवस्था के अनुसार पेशेवर आधार नहीं मिलता । इन बडी जनसंखयात्मक जातियों मे चाहे वे सवर्ण मानी जाती हो या अवर्ण- उनमें अत्यन्त दृढ़ अनतर्वैवाहिकता मिलती है । इनमें से अधिकांश के पास अत्यन्त समृद्ध रीति-रिवाज और जातीय परम्पराएं है । ये अपने संख्या बल से प्रतिरोधी और आक्रामक हैं । इनमे अपने मुखिया या चौधरी को भी बराबरी की शर्तों और व्यवहार के साथ अपने मे से एक मानने की प्रवृत्ति पाई जाती है न कि व्यक्ति विशेष को अत्यन्त श्रेष्ठ एवं व्यक्ति पूजा के योग्य मानने की प्रवृत्ति । मेरा मानना है कि अपनी जाति के लोगों को अपने से बड़ा न मानने की प्रवृत्ति ही प्राचीन गणराज्यो वाले अतीत से सम्बन्धित वर्तमान जातियों की विशेषता है । ये जातियाँ व्यक्ति के नेतृत्व को महत्व देने वाले कुलीन राजतंत्रो की अधीनता और संस्कारों की प्रतिरोधी रही हैं । एक स्थापना यह भी है मेरी कि वर्ण व्यवस्था वाली ऊंच-नीच की भावना का विकास दीर्घकालिक रूप से स्थापित महाजनपदो मे हुआ । ये स्थायित्व के कारण कुलीनता और आनुवांशिकता पर आधारित वर्ण-व्यवस्था वादी सत्ता का विकास कर सके ।
आर्यों के जो समूह बाद मे आए उन्हे वर्ण व्यवस्था बन चुकने के कारण क्षत्रिय स्वीकार नहीं किया गया । भारत मे शक हूणों के वंशज तथा अन्य बहुत सी ऐसी जातियाँ है , वे जहाँ से आए थे वहाँ इस्लाम फैल जाने के कारण भारत मे ही हिन्दू जातियों मे शामिल होकर रह गयीं । यद्यपि वर्ण व्यवस्था मे सही स्थान नहीं पा सकीं । अधिक सम्भावना यही है कि जाट और भूमिहार प्राचीन गणराज्य वाली जातियों के वंशज है । यादवों का तो गणराज्य था ही । इनकी स्वतंत्र रहने की आकांक्षा को महाजनपदो के राजतंत्र से शासित ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने मिलकर स्वीकार और सम्मान नहीं किया ।
जीवन का रास्ता चिन्तन का है । चिन्तन जीवन की आग है तो विचार उसका प्रकाश । चिन्तन का प्रमुख सूत्र ही यह है कि या तो सभी मूर्ख हैं या धूर्त या फिर गलत । नवीन के सृजन और ज्ञान के पुन:परीक्षण के लिए यही दृष्टि आवश्यक है और जीवन का गोपनीय रहस्य । The Way of life is the way of thinking.Thinking is the fire of life And thought is the light of the life. All are fool or cheater or all are wrong.To create new and For rechecking of knowledge...It is the view of thinking and secret of life.
गुरुवार, 28 मार्च 2019
जाति-विमर्श-1
-
अभिनव कदम - अंक २८ संपादक -जय प्रकाश धूमकेतु में प्रकाशित हिन्दी कविता में किसान-जीवन...
-
संवेद 54 जुलार्इ 2012 सम्पादक-किशन कालजयी .issn 2231.3885 Samved आज के समाजशास्त्रीय आलोचना के दौर में आत्मकथा की विधा आलोचकों...
-
पाखी के ज्ञानरंजन अंक सितम्बर 2012 में प्रकाशित ज्ञानरंजन की अधिकांश कहानियों के पाठकीय अनुभव की तुलना शाम को बाजार या पिफर किसी मे...